Sunday, 26 May 2019

लता प्रासर के काव्य-संग्रह "कैसा ये वनवास" का लोकार्पण पटना में 24.5.2019 को सम्पन्न

करुणा की तीव्रता के साथ मुक्तिकामी नारी का निश्छल भाव -भगवती प्र.
          उम्र है छोटी, गोद में बच्ची

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बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में कुमारी लता प्रासर के काव्य-संग्रह "कैसा ये वनवास" का लोकार्पण  हुआ। साथ ही सम्पन्न कवि-गोष्ठी में कवियों और कवयित्रियों ने भरे भावों के विविध रंग भरे।

कविताएँ मन की घनीभूत पीड़ा को अभिव्यक्ति हीं नहीं करती, व्यथा को तरल बना, बहाकर निकालती भी है और आँखों के आँसू भी पोंछतीं है। यह केवल कवि या कवयित्री की हीं नही होती, पीड़ा के सनासर से जुड़े हर एक व्यक्ति की होती है। संभवतः इसीलिए इसे लोक-रंजक और लोक-कल्याणकारी भी माना जाता है। इसे हीं 'साहित्य' कहा जाता है, जो सदैव हीं समाज के 'हित' में खड़ी दिखती है,भले ही शब्दों में वह निजी पीड़ा लगती हो।

यह बातें गत शुक्रवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में युवा कवयित्री कुमारी लता प्रासर के सद्य: प्रकाशित काव्य-संग्रह 'कैसा ये वनवास' के लोकार्पण-समारोह की अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष डा. अनिल सुलभ ने कही। डा. सुलभ ने कहा कि लता जी एक संवेदनशील और कविता के प्रति सजग कवयित्री हैं। विगत अनेक वर्षों से ये साहित्य में निष्ठा-पूर्वक सक्रिए हैं। इनकी सक्रियता और श्रम अत्यंत प्रशंसनीय है। कवयित्री ने नारी-मन, प्रकृति, प्रेम, समाज की पीड़ा और संघर्ष समेत मानवीय-पक्ष से जुड़े प्रायः सभी तत्त्वों को अपनी कविता का विषय बनाया है। इनकी भाषा 'काव्य-भाषा' बनने की प्रक्रिया में है। इनकी कविताओं में छंद के प्रति रुझान दिखती है किंतु कोई विशेष आग्रह नही। कवयित्री में संभावनाएँ हैं और इसीलिए अपेक्षाएँ भी हैं।

पुस्तक का लोकार्पण करते हुए पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा एस एन पी सिन्हा ने कहा कि लता जी का यह प्रथम काव्य-संग्रह उनकी काव्य-प्रतिभा का परिचय देता दिखाई देता है। ये काव्य-प्रतिभा से संपन्न संवेदनशील कवयित्री और परिश्रमी शिक्षिका हैं। यह पुस्तक समालोचकों का ध्यान खींचेगा ऐसा मेरा विश्वास है।

पुस्तक पर अपना विचार रखते हुए सुप्रसिद्ध कवि भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि कविता का जन्म करुणा से हीं होता है और इसकी अंतिम परिणति भी करुणा ही है। लता जी की कविताओं में करुणा की तीव्रता और जीवन से जुड़कर कुछ सकारात्मक देने की छटपटाहट है। इनके भीतर एक 'मुक्तिकामी' नारी निश्छल भाव से गतिमान दिखाई देती है।

अनुग्रह नारायण समाज अध्ययन संस्थान के पूर्व निदेशक डा युवराज प्रसाद ने कहा कि जीवन में सदा सुख हीं नहीं दुःख भी मिलता है। दुःख को यदि सकारात्मक भाव से लिया जाए तो वह सृजनात्मक हो जाता है। लता जी दुःख को सृजन में बदलने वाली और निरंतर लिखती रहनेवाली संभावना-संपन्न कवयित्री हैं। 

बिहार के निःशक्तता आयुक्त डा शिवाजी कुमार ने कहा कि लता जी की कविताओं में बहुत कुछ है और बच्चे भी हैं। कहीं न कहीं उनकी रचनाओं में विशेष आवश्यकता वाले बच्चे भी हैं। 

सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्रनाथ गुप्त, डा शंकर प्रसाद, डा मधु वर्मा, प्रो डा उषा सिंह, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, कुमार अनुपम, डा नागेश्वर प्रसाद यादव तथा आनंद किशोर मिश्र ने भी अपने विचार व्यक्त किए तथा कवयित्री को शुभकामनाएँ दी।

अपने कृतज्ञता-ज्ञापन के क्रम में पुस्तक की लेखिका लता प्रासर ने कहा कि, बचपन से हीं प्रकृति की मनोहारी छटाएँ मेरे मन को खींचती रही है। गाँव, नदियाँ, बाग़-बग़ीचे खेत-खलिहान मेरे अंतर्मन में बसे हुए हैं। कविता की प्रेरणा भी वही हैं। उन्होंने लोकार्पित पुस्तक से अपनी प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ किया। नारी मन की व्यथा को यों शब्द दिए कि,
“इसी बीच वह मान बन गई/ पीछे उसकी आह रह गई जो हिम्मत थी वह भी टूटी/ सोंचा मेरी क़िस्मत फूटी
उम्र है कच्ची गोद में बच्ची/ यही कहानी सबसे सच्ची"।

इस अवसर पर आयोजित कवि-सम्मेलन का आरंभ कवि जय प्रकाश पुजारी ने वाणी-वंदना से किया। वरिष्ठ कवि आर पी घायल ने भी कवयित्री लाता को बधाई दी।

वरिष्ठ कवि डा विजय प्रकाश, आचार्य विजय गुंजन, डा शालिनी पाण्डेय, प्रतिभा पराशर, डा अर्चना त्रिपाठी, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, शुभ चंद्र सिंहा, डा अन्नपूर्णा श्रीवास्तव, शुभ चंद्र सिन्हा, अभिलाषा कुमारी, सिंधु कुमारी, पं गणेश झा, प्रभात कुमार धवन, सिद्धेश्वर, डा कविता मिश्र मागधी, बाँके बिहारी साव, श्रीकांत व्यास, डा मनोज गोवर्धनपुरी ने भी रचनाओं का पाठ किया। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धनयवाद-ज्ञापन कृष्णरंजन सिंह ने किया।
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आलेख - डा. अनिल सुलभ
छायाचित्र - सिद्धेश्वर
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - bejodindia@yahoo.com

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Tuesday, 21 May 2019

'विविध भारतीय भाषा संस्कृति संगम" की तीसरी गोष्ठी नवी मुंबई में 20.5.2019 को संपन्न

कोख में माँ के मुझे मार के खुश होते हैं / मूर्तियां मेरी ये मंदिर में सजानेवाले 



हर किसी की अपनी एक दुनिया होती है जो उसके लिए सम्पूर्ण होती है. उसकी अनुभूतियाँ उसकी नितांत अपनी होती हैं किसी और की अनुभूतियों का अनुवाद नहीं. ठीक उसी तरह हर भाषा अपने आप में सम्पूर्ण, अनूठी और अप्रतिम होती हैं. मानवता से प्रेम करनेवालों  को यह भली-भाँति समझना होगा कि देश की एक-एक भाषा का जीवित रहना और फलना-फूलना उतना ही आवश्यक है जितना कि हर मानव का मानव बने रहना.  हर मानव अपने आप में अद्वितीय होता है और उनकी भाषा भी.  

लता तेजेश्वर रेणुका और उनकी सखियों-मित्रों द्वारा स्थापित विविध भाषा संस्कृति संगम इस दिशा में एक अनोखा प्रयास है जिसकी स्थापना नवम्बर 2018 में हुई है. इनकी तीसरी त्रैमासिक यानी इस वर्ष की अद्धवार्षिक गोष्ठी दिनांक 20.5.2019 को सेक्टर-3, न्यू पनवेल (नवी मुंबई)  में स्थित उनके आवास पर संपन्न हुई. इसमें गुजराती, मराठी, पंजाबी, ओड़िया, तेलुगु, मैथिली, भोजपुरी, उर्दू, अंग्रेजी  आदि भाषाओं में एक से बढ़कर एक  भावपूर्ण रचनाएं पढ़ीं गईं. बीस से अधिक प्रतिभागियों के पाठ को श्रोतागण मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे. किसी के भावों को समझने के लिए उस भाषा का विद्वान होना कतई जरूरी नहीं. 

मुख्य अतिथि थे शिवदत्त अक्स और कार्यक्रम की अध्यक्ष थीं शिल्पा सोनटके. कुशल सञ्चालन किया अशवनी 'उम्मीद' ने. आयोजक थीं संस्था की संस्थापिका और अध्यक्ष लता तेजेश्वर 'रेणुका. 

इस गोष्ठी में पढ़ी गई रचनाओं की एक झलकी नीचे दी जा रही है -

शिवदत्त 'अक्स' - 
उसने मुड़कर नहीं देखा होगा 
हमने जुड़कर नहीं देखा होगा 
पर कटे होंगे जब परिंदे के 
उसने उड़कर नहीं देखा होगा 
... 
उम्र भर साथ चलते रहे 
फासला फिर भी दरम्यां निकला 
जिसको नाबीना मानते थे हम 
उसकी आँखों में एक जहां निकला 
(-'अक्स') / नाबीना = अंधा
...

मैं अनजाने में उसका हो गया हूँ 
न जाने किस खला में खो गया हूँ 
मैं उसके इश्क की एक बूँद पीकर 
मुहब्बत का क्या समंदर हो गया हूँ 
मैं उसकी बेबसी के किस्से सुनकर 
न जाने कितने दर्या  रो गया हूँ 
 उसे रखकर मैं अपने दिल में हरपल 
जमाने का तमाशा हो गया हूँ 
न जाने 'अक्स' अब कश्ती कहाँ है 
मैं तूफानों से लड़कर सो गया हूँ
(-'अक्स')

अशवनी 'उम्मीद' -
अधूरी हसरतों के बाद शेर बनता है 
खुदा की नेमतों के बाद शेर बनता है 
.. 
मेरा रोना सबका रोना बन जाए तो ग़ज़ल हुई 
लफ़्ज़ों से हम काम अगर ये कर पाए तो ग़ज़ल हुई 
हम न आएँ महफिल में लेकिन लोगों की बातों में 
नाम हमारा आए और वो शरमाए तो ग़ज़ल हुई
जिसे लगी हो पहले प्यार में सीधे सीधे  दिल पे चोट
थोड़ा सा बतलाए  फिर न बतलाए तो ग़ज़ल हुई
(-'उम्मीद)

लता तेजेश्वर रेणुका ने ओड़िया और तेलुगू में अपनी रचनाएं पढ़ीं। एक रचना बेटे की राह देख रहे उसके मान-बाप पर थी जो बहुत मार्मिक थी -
ଆସନ୍ତା ଦିନର ଏକ ନୂତନ
ସୂର୍ଯ୍ୟ ଉଦୟ ପାଇଁ କିନ୍ତୁ
ମାଆଟିର ସୂର୍ଯ୍ୟ ଉଦୟ କେବେ ହେବ
ଏଇ ଚିନ୍ତାରେ ଗୋଡ଼ ତାର
ଘର ଆଡେ ମୁଡ଼ିଗଲା।
आसन्ता दिनर एक नूतन
सूर्य्य़ उदय़ पाइँ किन्तु
माआटिर सूर्य्य़ उदय़ केबे हेब
एइ चिन्तारे गोड़ तार
घर आडे मुड़िगला।

अनीता रवि ने प्रवासी बच्चों पर एक कविता हिंदी में पढ़ीं और दर्शाया की किस तरह से भौतिकता हमारे रिश्ते नातों के स्वाभाविक प्रेम को कमजोर कर रही है. 

श्रीराम शर्मा  ने भोजपुरी की छटा बिखेर दी और कहा की बैर करने से प्रेम और मजबूत हो जाता है- 
रउँआ हंस दी त भोर हो जाई 
सागरों अंगना  अजोर हो जाई 
लागी छूटी ना बैर कइला से 
और नेहिया सजोर हो जाई 

पूनम खत्री ने आज के जमाने के घनचक्कर लोगों की पोल खोल दी -
एक से एक घनचक्कर लोग 
घोड़ा बनते खच्चर लोग 
सपनों में टकसाल विशाल 
सच में फुटकर चिल्लर लोग 

पूर्णिमा पांडेय ने राख के अंदर छुपी आग को लोगों के आगे रखा -
फूँककर राख जो हटाई हमने 
अंगारा फिर भभक उठा, आग फिर मचल उठी 
खत बेशक पुराना ही सही 
अक्स कुछ उभर गया, आस फिर मचल उठी 

हेमन्त दास 'हिम' ने मैथिल में सुनाया कि अंतर्मन की व्यथा बाहर के तूफानों से भी घातक होती है -
ई भवन नहि डोलल छल आंधी आ तूफान मे 
भीतर सं रीसल त खुद में शनैः शनैः ढहs देलहुँ 
तोहर हालात के सुनि केँ, अंगारा बनि लहकि गेलहुँ 
जग के तिमिर मिटाबै लेल ज्योतिकलश दहकs देलहुँ 

वंदना श्रीवास्तव ने स्त्रियों का सम्मान करनेवाले पाखंडियों पर करारा प्रहार किया -
आप करते रहें बातें रिश्ते नातों की 
फूल माली को भी मुट्ठी में मसलते देखा 
.. 
कोख में माँ के मुझे मार के खुश होते हैं 
मूर्तियां मेरी ये मंदिर में सजानेवाले 
बोलियां लगती हैं गणतंत्र की अब संसद में 
मुल्क को बेच न दें मुल्क चलानेवाले
(- वंदना)

मैत्रियी कमिला ने ओड़िया भाषा में अपनी भावपूर्ण रचना पढ़ी -
ପ୍ରତିବିମ୍ବ
ସହରର ରାସ୍ତା ଯେବେ ଗାଁ ର ନାଲି ଗୋଡି ପଥର କୁ ଛୁଇଁଏ
ନଡିଅଗଛ ଫାଙ୍କରେ ମତୁଆଲା ଜହ୍ନ ଟା ଗଙ୍ଗଶିଉଳି ଦେହରେ ଜଡେ ଇ ନଈ ବନ୍ଧ ଗାଁ ପୋଖରୀ ହୁଡ଼ା ଚାଷଜମି କିଆରୀ ଡେଇଁ ରାଜ ଉଆସ କୁ ଛୁଇଁ ଯାଏ।
ହେଲେ କେଜାଣି କାହିଁଇକି ପାକି ବୁଢ଼ୀ କଣା ଚାଳ ରେ ଜହ୍ନ ଟା ପୁରିଲା ପୁରିଲା ଲାଗେ।
(गूगल द्वारा रोमन लिपि में परिवर्तित)
pratibimb saharar raasta yebe gaan ra naali godi pathar ku chhuine nadiagachh phaankare matuaala jahn ta gangashiuli dehare jade i naee bandh gaan pokharee huda chaashajami kiaaree dein raaj uaas ku chhuin yae. hele kejaani kaahiniki paaki budhee kana chaal re jahn ta purila purila laage.

अरुंधती महंती ने ओड़िया में अपनी सुन्दर कविता पढ़ी.
ମୋର ବିବସ୍ତ୍ର ମନର ଭାଷା
ସ୍ୱପ୍ନିଳ ଚଇତି,
ଭିଜମାଟି ବାସ୍ନାରେ
ପାଗଳ ସାଧବ ପୋକ
ବାରବାର ମାପୁଅଛି
କତେ ଆଉ ବାକି ଅଛି ରାତି
ଆଉ କେତେ ବାକି ମୋର
ନିଦୁଆ ପାହାନ୍ତି।।
(गूगल द्वारा रोमन लिपि में परिवर्तित)
mor bibastr manar bhaasha
swapnil chiti, 
bhijamaati baasnaare 
paagal saadhab pok
baarabaar maapuachhi
kate aau baaki achhi raati
aau kete baaki mor
nidua paahaanti..

देविका मिश्रा ने पर्यावरण विषयक कविता पढ़ी - 
हे मानव तूने ये क्या किया 
पेड़ काटे, नदियां रोकी
झरने, तालाब झील सूखे 
सागर को भी तूने ठिकाने लगाया 
हे मानव तूने धरा को क्यों बर्बाद किया 

आभा दबे ने गुजराती में एक कविता पढ़ी -
જ્યાં પ્રેમ નું અદભુત સાગર લહેરાઈ રહ્યું છે
ને મન ના દરિયા ને પોકારી રહ્યું છે
આવીને મળી જા જ્યાંથી ફરી કંઈ જવાઈ નહીં.
ત્યાં ઈશ્વર અને પ્રેમનું સ્વરૂપ એક જ છે
(कवयित्री द्वारा किया हिंदी अनुवाद)
जहां पर प्रेम का अद्भुत सागर लहरा रहा है
और मन की नदी को पुकार रहा है
आकर मिल जाओ 
जहां से फिर कहीं जाना नहीं होता 
वहाँ पर ईश्वर और प्रेम का स्वरुप एक ही है.

कार्यक्रम  की अध्यक्षता कर रहीं शिल्पा सोनटक्के जो दस भाषाओँ में रचना लिखती हैं उन्होंने एक कविता सुनाई  - 
जलाकर तस्वीरे-यार 
राख बिखरने नहीं दी 
इससे बढ़कर मुहब्बत की 
बेबसी और क्या हो सकती है 

शिव दत्त अक्स ने अपनी किताब 'अक्स- ए- ग़ज़ल' किताब भारतीय भाषा संस्कृति संगम की अध्यक्ष लता तेजेश्वर 'रेणुका' को भेंट की। लता तेजेश्वर की किताब 'मैं साक्षी यह धरती की' किताब का लोकार्पण भी किया गया। गोष्ठी में  प्रभा शर्मा,  जुवि शर्मा  और शुभद्रा मोहन्ती ने भी देश की विविध भाषाओं में रचनाएं प्रस्तुत कीं. श्रोताओं में अलका कुमार श्रीवास्तव और कलिंगा टीवी के रिपोर्टर चंद्रशेखर भी थे.

नवी मुंबई, मुंबई और ठाणे से आये कवियों ने जो महफ़िल सजाई वो सबके स्मृतिपटल में एक खूबसूरत याद के तौर पर शुमार हो गई. 
.... 

आलेख - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्लॉग 
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
नोट- जिन कवियों की रचनाएँ या फोटो नहीं आ पाईं हैं वे दिए गए ईमेल पर भेजें। जोड़ दी जाएँगी।


 




























 


Friday, 17 May 2019

लेख्य मंजूषा की अतिरिक्त कवि गोष्ठी 13.5.2019 को पटना में सम्पन्न

जो लोग अंधेरों से नहीं लौट के आये / मैं उनके मुकद्दर का पता ढूँढ रहा हूँ

(मातृदिवस के अवसर पर लेख्य मंजूषा की कवि गोष्ठी की रपट - यहाँ क्लिक कीजिए)




जहाँ चार यार मिल जाएँ वहाँ.... भले ही कुछ और होता हो लेकिन जहाँ चार साहित्यकार मिल जाते हैं वहाँ एक धमाकेदार गोष्ठी का होना तय है. 

अभी कल ही लेख्य मंजूषा की एक कवि गोष्ठी हुई थी मातृ दिवस (12 मई) पर लेकिन अचानक पता चला कि देश के प्रसिद्ध शायर अनिरुद्ध सिन्हा आये हुए हैं. सामान्य जन को साहित्य से जोड़ने हेतु प्रतिबद्ध संस्था "लेख्य मंजूषा" के समर्पित और अति सक्रिय सदस्यों ने यह भी पाया कि संयोगवश बेजोड़ इंडिया के एक सम्पादक हेमन्त दास 'हिम' भी उस बीच नवी मुम्बई से पटना आये हुए हैं जो पहले लेख्य मंजूषा के अनेक कार्यक्रमों को भली-भांति कवर कर चुके थे.  आनन-फानन में अगले ही दिन यानी 13.5.2019 को एक कवि गोष्ठी पुन: आयोजित की गई ताकि सभी साहित्यकार एक-दूसरे से मिल सकें. सदस्यों के आग्रह को अध्यक्ष विभा रानी श्रीवास्तव, उपाध्यक्ष सुनील कुमार नहीं टाल पाये. साथ ही बिहार के जाने माने कवि घनश्याम, सिद्धेश्वर, मधुरेश नारायण, प्रभात कुमार धवन और अनेक गम्भीर महिला साहित्यकरों ने भी अपनी हामी भर दी. इस तरह महज दो घंटे के अंतराल में तय किया गया यह कार्यक्रम पूरे आवेग के साथ सफलतापूर्वक चला जिसमें गम्भीर शेरो-शायरी का दौर चला और साथ में कुछ मुक्तछंद रचनाएँ भी पढ़ी गईं. 

कवि गोष्ठी की अध्यक्षता की अनिरुद्ध सिन्हा ने और कुशल संचालन किया सुनील कुमार ने. धन्यवाद ज्ञापन की जिम्मेवारी निभाई मधुरेश नारायण ने.

रवि श्रीवास्तव ने चल रहे आम चुनाव के मद्दे-नजर लोगों को फिर से आगाह किया-
बाहुबली, घोटलेबाज अगर, जीत सत्ता में आएंगे
आमजन को पूछेगा कौन, बस जेबें भरते जाएंगे
जागो ऐ मतदाता अब, गर्व से मतदान करो
देश की उन्नति में तुम, अपना भी योगदान करो

सिद्धेश्वर का व्यंग्य बड़ा तीखा था उस प्यार के प्रति जो सिर्फ बिकता ही नहीं, बल्कि किस्तों में बिकता है -
नकद नहीं तो उधार ही ले लो
आजकल किस्तों में बिकता है प्यार
मंदिर, मस्जिद भी बन गया है व्यापार
और क्या क्या चीज बेचोगे यार

किंतु सुनील कुमार शिकायत में समय नहीं गँवाते, बस मुहब्बत करते चले जाते हैं उसके दर्द का आनंद लेते हुए -
आज तक मैंने कब शिक़ायत की
जब कभी की फ़क़त मुहब्बत की
दर्द की लज़्ज़तों से आसूदा
दिल ने ऐसी कभी न हसरत की
उनसे मिलिए भला तो क्या मिलिए
बात होती है बस जरूरत की
वो कहाँ मेरी बात समझेगा
जिसने रिश्तों की बस तिज़ारत की

विभा रानी श्रीवास्तव ने जिंदगी से मिलना चाहा तो सुबहो- शिकवा के जाल में उलझती चली गईं-
ज़िंदगी से जब भी मुलाकात हुई
शिकवे, सुबह, दर्द में डूबी रात हुई
हदों से ज्यादा अपना जिन्हें कहते निकले
शक की बेड़ियों से खुद को जकड़ते निकले

अमृता सिन्हा किस्मतवाली निकलीं जिन्होंने चांद से  चंद बातें कीं, मुलाकातें कीं-
आज सोचा कि चांद से चंद बातें करें
नाम उसके अपनी चंद रातें करें
चांद ओढ़े हुए चांदनी की चुनर
महबूबा हो जैसे,  मुलाकातें करें

हेमन्त दास 'हिम' नेताओं द्वारा दिखाये जा रहे सुंदर घर से संतुष्ट नहीं है बल्कि हवा की भी माँग कर रहे हैं-
बड़ा सुंदर है यह घर, यह कहना सटीक था
हाँ, थोड़ी हवा भी जो आती तो जरा ठीक था
खड़े थे दो रहनुमा, अलग अलग से चोगे में
जिधर भी तुम हाथ बढ़ाओ, ठग का ही फरीक था
महान कहलाना है तो जो होता है होने दो
'हिम' लेकर बैठे रहो एक अनोखी परीकथा

प्रभात कुमार धवन पूरी तरह आलोडित दिखे प्रकृति प्रेम में जो अब एक अद्भुत बात हो गई है-
सुखी था उनका जीवन
क्योंकि मनुष्य के साथ ही
प्रकृति से था उन्हें प्रेम.

मधुरेश नारायण ने प्रतीकात्मक रूप से प्रवेशद्वार से व्यक्ति के ऊंचे बढ़ जाने की बात कर सोचने को मजबूर कर दिया -
पर कुछ ऐसे भी हैं
जिनके लिए ये दरवाजे छोटे पड़ गए हैं
शायद 
उनका कद बढ़ गया
और दरवाजा ज्यों का त्यों रह गया

हरे जख्मों वाले घनश्याम को बैसाखियों से ज्यादा जरूरत है दोस्तों की दुआ की,प्रेम की -
मुद्दतों बाद जब उसे देखा
जख़्म फिर से हुआ हरा बिल्कुल
साजिशों को हवा मिली इतनी
दोस्ती हो गई फ़ना बिल्कुल
वो सियासत वतन को क्या देगी
हो गई है जो बेहया बिल्कुल
मुझको बैसाखियां नहीं चहिए
चाहिए आपकी दुआ बिल्कुल

अ‍णिमा श्रीवास्तव 'सुशील' ने एक दिन बाद ही मातृवंदना करके अपनी भावनाओं को रखा-
खुदा ने भी जिसे दुआओं में माँगा तू वो मन्नत है
यूँ ही नहीं कहते तेरे पैरों तले जन्नत है
सृष्टि के कण-कण में तेरी ही शक्ति स्पंदित है
सिद्ध, बुद्ध हो या कोई अवतार, तू सब से वंदित है

अभिलाषा कुमारी नारी प्रतिरोध के स्वर को बुलंद करती दिखीं- 
पुरुषों की इस दुनिया में / प्रतिबंधित रहकर जीना है
सहनशीलता की मूर्ति बन / जहर जीवन का पीना है
पर अंतर में जो औरत है / वह तो विद्रोही मूरत है
तेरे स्वतंत्र मुस्कानों में / दिखती अपनी ही सूरत है

अंत में कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे अनिरुद्ध सिन्हा ने अपनी बेबाक ग़ज़लों से अनोखा समाँ बांध दिया जिसे सभी स्तब्ध होकर सुनते चले गए- 
मेरे जज़्बात,  मेरे नाम बिके / उनके ईमान सरेआम बिके
एक मंडी है सियासत ऐसी / जिसमें अल्लाह बिके, राम बिके

ऐसा तो नहीं है कि घटा ढूँढ रहा हूँ
सहरा में समन्दर का पता ढूँढ रहा हूँ
जो लोग अंधेरों से नहीं लौट के आये
मैं उनके मुकद्दर का पता ढूँढ रहा हूँ

हवाओं को बताया जा रहा है
कोई दीपक जलाया जा रहा है
गरीबी, भूख, आँसू दर्द क्या है?
मेरा चेहरा दिखाया जा रहा है

इन ग़ज़लों को सुनाने के बाद श्री सिन्हा ने पूर्व में पढनेवाले कवियों पर अपने संक्षिप्त विचार रखे. फिर धन्यवाद ज्ञापन के पश्चात अध्यक्ष की अनुमति से कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा हुई.

एक से बढ़कर एक ग़ज़लों के साथ कुछ सामयिक गम्भीर रचनाओं के पाठ के कारण इस कवि गोष्ठी को लंबे समय तक याद रखा जाएगा.
.......

आलेख - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्लॉग
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com