Friday, 31 January 2020

वेद प्रकाश तिवारी के कविता-संग्रह "बादल से वार्तालाप" पर शहंशाह आलम की समीक्षा

जहाँ बची है उदारता
समीक्षा कविता संग्रह (बादल से वार्तालाप )

(Small News - अग्निशिखा की 33वीं गोष्ठी / हर 12 घंटों के बाद  देख लीजिए- FB+  Bejod India)

अब के भी झुलसेगी बस्ती अब के भी तरसेंगे लोग
          अब के भी सावन बरसेगा दूर  किसी  वीराने  पर।
                                            -कुमार पाशी

समीक्षक - शहंशाह आलम
          
आज की कविता उदासीनता को भगाने का सबसे बेहतरीन उपक्रम है।

वेद प्रकाश तिवारी की कविता जीवन की कविता है। तभी इनकी कविता में बच्चे की हँसी है, चाँद है, फूल है, गंगा है, यात्रा है, इंतज़ार है, रंग है, पहाड़ है, पानी है, माँ हैं, पिता हैं, रिश्ते-नाते हैं। रात है, दिन भी है। इन सबसे ही तो हमारा लोक बनता है, जिसमें हम रहते हैं। एक-दूसरे से मिलते हैं, बतियाते हैं। तभी यह कविता आदमी के वर्तमान की कविता है। यानी यह कवि ऐसा है, जो वर्तमान को जीते हुए भविष्य के लिए रास्ते बनाता हुआ चलता है। इस कवि की एक ख़ास बात यह भी है कि कवि मौसम की आवाज़ को पहचानता है। तभी कवि बादल की नाराज़गी को जानने की ख़ातिर बादल से सीधे बातचीत करता है। कवि बादल से पूछता है कि
 झमाझम बारिश की जगह 
बस थोड़ी-सी फुहार 
वह भी कभी-कभार 
कैसे जिएगा संसार? 

यह थोड़ी-सी फुहार वाली बात दिल को ज़रा ज़ोर से लगती है। वेद प्रकाश तिवारी को मालूम है कि आदमी अब थोड़े से ही काम चला रहा है। तभी यह थोड़ा वाला मामला यहाँ पर विशिष्ट हो गया है। और अधिक गहराई लिए हुए है। कवि की निष्ठा हमको यह बतलाती है, समझाती है, सीख देती है कि आदमी के घर में जो भी बचा हुआ है, थोड़ा ही बचा हुआ है। अधिक अब बस उन्हीं के पास बचा हुआ है, जो लोग हाकिमे वक़्त हैं। जो लोग सत्ता की चाकरी में लगे हुए हैं। ऐसा ही है, तभी कवि अपनी 'गदहे' शीर्षक कविता में साफ़ कहता है कि
गदहे बिना थके / बिना रुके / 
सुबह से शाम तक / ढोते हैं बोझ /
वे होते हैं स्वभाव से सरल / अपने मालिक के आज्ञाकारी / 
इसलिए सदियों से आ रहे हैं काम / 
पर, इनकी तुलना उनसे की जाती है / जो नहीं होते किसी काम के /
 जिस दिन गदहों की समझ में आ जाएगा / कि हो रहा उनका अपमान /
 वे उसी दिन छोड़ देंगे / बोझ ढोने का काम। 

आज राजनीति की भाषा इतनी अतिवादी हो गई है कि आदमी को आदमी से डर लगने लगा है। सच यही है, राजनीति का काम अब इतना भर रह गया है कि आपके और मेरे बीच एक ऐसा अदृश्य भय पैदा कर दे जिससे आप और मैं जब मिलें, घृणा को अपना मानकर मिलें। यानी कल तक आप और मैं जो अपने भाई की तरह मिला करते थे, आज शत्रु की तरह मिला करते हैं। यह सब करवा कौन रहा है, आज की फ़ासीवादी राजनीति की भाषा ही तो यह सब करवा रही है। दरअसल राजनीति की भाषा इतनी गंदी हो गई है कि हमारा सामाजिक ढाँचा ख़राब से ख़राबतर होता जा रहा है। लेकिन कविता की भाषा ऐसा कभी नहीं करती। राजनीति की आस्था जिस बिगाड़ में हो, कविता की आस्था हमेशा मनुष्यता के बचाव में रहती आई है। वेद प्रकाश तिवारी की कविता की आस्था भी मनुष्यता के बचाव की है। इनकी कविता इस बात के लिए हमको आश्वस्त करती है कि कविता का आदमी हमेशा नई संभावना के लिए जीता है जबकि फ़ासीवादी राजनीति का हर आदमी संकट, आशंका और संदेह पैदा करने के लिए जीता आया है। हर कवि हमेशा ईमानदार होता है, एक अच्छा आदमी होने के नाते। वेद प्रकाश तिवारी एक अच्छे आदमी हैं, इसीलिए एक अच्छे कवि हैं। अच्छे कवि हैं, तभी बादल से वार्तालाप कर पाते हैं। और बादल से वार्तालाप करते हुए कहते हैं :
          बिन बरसे लौट जाए बदरा 
          या बरसे झूमकर 
          बारिश को नहीं पता 
          कि उसकी बूँदों में है जीवन-राग
          आकाश से धरती तक की यात्रा में 
          नहीं होती उसकी कोई तैयारी 
          उसके आने या न आने के पीछे 
          ज़िम्मेदार है धरती का वह जीवन 
          जो कहीं स्वार्थी है तो कहीं उदार 
          जहाँ बची है उदारता 
          वहीं है बूँदों की फुहार।

कवि की यह दृढ़ता क़ाबिले-तारीफ़ इसलिए है कि कवि जानता है, सत्ता कोई हो, किसी विचारधारा की हो, जो मेहनतकश इंसान है, जो एक गधे के मनमाफ़िक़ रात-दिन खटता है, उसके हिस्से में भूख और बेकारी ही तो आती है। उसके हिस्से में नोटबंदी ही तो आती है। उसके हिस्से में महँगाई ही तो आती है। उसके हिस्से में जीएसटी ही तो आती है। यही सब है, जिससे आदमी का जी दुखता है,
 दरभंगा से दिल्ली जाने वाली ट्रेन में / थी मज़दूरों की भरमार / 
वे जा रहे थे दिल्ली और पंजाब / काम की तलाश में / 
पहने हुए थे लूँगी और क़मीज़ / बाथरूम से बर्थ तक भरे पड़े थे। 

कवि की नज़र में ऐसे बेरोज़गार और मेहनती लोग किसी सज़ायाफ़्ता क़ैदी की तरह हैं। और सज़ाओं से भरी हुई ज़िंदगी कौन लोग हैं, जो मेहनतकश लोगों को देते आए हैं। इस सवाल का उत्तर हम सबको मालूम है। यह भी मालूम है कि ऐसी सज़ायाफ़्ता ज़िंदगी देकर ही तो वे लोग अपनी आरज़ूएँ पूरी करते रहे हैं, जो चुनावी साल में रोज़ मेहनतकश लोगों की अच्छी ज़िंदगी का वादा करते हैं। 

वेद प्रकाश तिवारी की कविता आसान कविता है। यहाँ शब्द आसान है, भाषा आसान है, शैली आसान है, रचनात्मकता आसान है। इनकी कविता अपने पाठकों से, अपने श्रोताओं से सीधे बतियाती है। यही इनकी कविता का असल स्वभाव है। यही वजह है, यह कविता आपको आतंकित नहीं करती, डराती नहीं, परेशान नहीं करती। वेद प्रकाश तिवारी आपको दिल की बात सुनाते हैं और सुनाते हुए आपके दिल में उतर जाते हैं।

इनकी कविता के किरदार हमारे आसपास के जो हैं। यही इनकी सार्थकता है। इनकी कविता की सार्थकता भी इसी बात में है। इनकी सार्थकता इस बात में भी है कि इनकी कविता में आँधी अंदर-अंदर चलती है और आदमी के शत्रुओं को इस आँधी की ख़बर तब लगती है, इस आँधी के असर से जब वे इधर-उधर गिरने-गिरने को होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वेद प्रकाश तिवारी कविता में कहीं-कहीं मिथकीय चरित्रों का सहारा लेते हैं, तब भी यह कवि एक प्रगतिशील चेतना का कवि है और आदमी के पक्ष का कवि है, 
यदि पाँच गाँव पाण्डवों को मिल जाते / 
तो क्या होता भीम की प्रतिज्ञा का? / 
कैसे बँधते द्रौपदी के खुले बाल / 
हो सकता था / कृष्ण सुनाकर शांति का उपदेश / 
कर देते भीम के प्रतिशोध की / 
अग्नि को शांत / और द्रौपदी को मना लेते / 
बताकर युद्ध का दुष्परिणाम / तो क्या दूर्योधन पाण्डवों के प्रति / 
छोड़ देता शत्रुता का भाव?

वेद प्रकाश तिवारी की कविता ऐसे में भी उम्मीद की कविता है जब आज हर तरफ़ डर का जो माहौल है, हर तरफ़ मृत्यु का जो प्रेत घूम रहा है, । उम्मीद इस वास्ते कि कवि के हृदय में अब भी करुणा का भाव बचा हुआ है। इनकी बाज़ार में 'बकरे' शीर्षक कविता का आशय यही है कि जिस तरह गोश्त के बाज़ार में बकरे की हालत होती है, वही हालत अब आदमियों की है। आदमी भी तो जानवरों के नाम पर मार डाले जा रहे हैं। मार भी आदमी ही रहा है आदमी को। और जो मरवा रहा है, वह ख़ुश है अपने इस कृत्य के लिए। लेकिन कवि दुखी है। इस दुःख में भी कवि उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता है, '
प्रेमचंद उदास बैठे हैं / पर निराश नहीं हैं /
 वे कहते हैं अपनी रचनाओं से / मैंने तुम्हें उस वक़्त पंक्तिबद्ध किया /
 जब छुआ-छूत, भेद-भाव, सामंतवाद / था चरम पर / 
पर कुछ समय बाद हुआ बदलाव / तुम भी करो इंतज़ार / 
बदलेगा समय / आएगी क्रान्ति / और बेचेगी मनुष्यता।
.............

समीक्षक - शहंशाह आलम
समीक्षक का ईमेल - shahanshahalam01@gmail.com
समीक्षक का मोबाइल - 09835417537
पुस्तक: बादल से वार्तालाप
कवि : वेद प्रकाश तिवारी
प्रकाशक : संजना बुक्स, D/70 , अंकुर इंक्लेव
करावल नगर, दिल्ली-32
संपर्क : 8860898399

कवि - वेद प्रकाश तिवारी

Thursday, 30 January 2020

वसंतोत्सव - बेजोड़ इंडिया आभासी कवि गोष्ठी दिनांक 30.1.2020

तेरी सांसों की सरगम को / मैं एक मधुर संगीत लिखूँ

(हर 12 घंटों के बाद एक बार जरूर देख लीजिए- FB+  Bejod India)



प्रेम दुनिया का सबसे खतरनाक और संक्रामक रोग है. जो भी इसके सम्पर्क में  आता है उसको यह अपनी चपेट में ले लेता है और तमाम इलाज को धत्ता बताते झुए किसी न किसी रूप में ये आदमी पर जीवनपर्यंत कब्जा जमाये रहता है. यही कारण है कि समझदार लोग इससे दूर रहने की सलाह देते हैं. लेकिन सवाल है कि यदि आप प्रेम को रोग कहेंगे तब तो ज़िंदगी को महामारी कहना होगा क्योंकि जीने लायक अगर कुछ है तो प्रेम है बाकी  उसे पाने का यत्न मात्र है. चलिए इतने सुहाने मौसम में दर्शनशास्त्र में न उलझते हुए  सीधे प्रेम करते हैं.

"बेजोड़ इंडिया" भी मचल उठा है कल "बिहारी धमाका" पर काव्य की "बसंती बयार" को देखकर. और पीतवसन, धानी चूनर वाली इस ऋतुओं की रानी पर पूरी तरह से मोहित हो चुका है.

अंकलेश्वर (गुजरात) में रहनेवाले हरिनारायण सिंह हरि की कविताओं में न सिर्फ छंद का नियमबद्ध पालन होता है बल्कि निष्पक्ष भाव से अपने विचारों को बखूबी रखने के लिए भी ये जाने जाते हैं. बड़ से बड़े शक्तिशाली को भी अपनी काव्य रचना से सिहरा देनेवाले का रोम-रोम आज वासंती पवन झकोरे खा-खाकर सिहर उठा है -
*आया  वसंत , आया  वसंत!
 कुसुमित-सुरभित अब दिग्दिगंत !
*सरसों फूले ,मंजर आये ,
 पुष्पों पे भँवरे-दल छाये ।
 ये पवन झकोरे सिहर-सिहर,
 तन-मन को हरदम सहलाये।
*सूरज में कुछ गर्मी आयी ,
 हो गया शीत का अहा अंत !
 आया  वसंत , आया  वसंत!
*धरती का कण-कण मुसकाया,
 नव रूप-रंग, नव रस पाया ।
 चूनर है हरित, हरित चोली,
 रह-रह कर मन यह भरमाया ।
*नयनों में मादकता छायी,
 फिर नवल जोश में आज कंत !
 आया  वसंत , आया  वसंत !
*है कंठ-कंठ में  मधुर राग ,
 कामना सभी की उठी जाग ।
 खिल उठे सभी के हृदय-पुष्प,
 जग गये अहा अनुराग-फाग!
*हाँ ,अरमानों को पंख लगे,
 उड़ चला तुरत यह मन दुरंत!
 आया  वसंत ! आया वसंत !
                  •
शाहजहाँपुर (उत्तर प्रदेश) से कवयित्री रश्मि सक्सेना ऐसे इठलाते मौसम को देखकर सुरभित पवन सी नाच उठी हैं -
  उर आनंद भर जाये अनन्त
  मिलना मुझसे बनकर बसंत
*तन पर साजेंगे पीत बसन
  नाचूँगी ज्यों सुरभित पवन
  सर पर ओढ़े चूनर धानी
  इठलाऊँ ज्यों ऋतुओं की रानी
  झंकृत वीणा दिग- दिगंत
  मिलना मुझसे बनकर बसंत
*वेदना के झर जाएंगे जीर्ण पात
  पिघलेगी हृदय की शीत बात
  मुख पर होगी छटा निराली
  कूकूँगी कोकिल सी मतवाली
  दृग से होगा अश्रुओं का अंत
  मिलना मुझसे बनकर बसंत
*पल्लवित होंगीं मन की कलियाँ
  गुंजायमान भवरों से गालियाँ
  तनमन महके ज्यों पुष्प पराग
  हिय में उमड़ेगा मधु अनुराग
  नव आशाएँ मानो हो संत
  मिलना मुझसे बनकर बसंत

पटना (बिहार) में हिंदी के प्राध्यापक किंतु देशभर में समादृत "नई धारा" नामक 70 वर्ष पुरानी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक और समालोचक कवि डॉ. शिवनारायण ठेठ देसी अंदाज में वासंती दोहे प्रस्तुत कर रहे हैं -
खेत खेत सरसों खिली, रहर खड़ी पगुराय
धनिया माटी में रही, बूंट मटर छितराय ।
जौ गेहूं की बालियां,लहर लहर मुसकाय
रेड़ मकय की आड़ में,पहुना फागुन गाय ।
महुआ मांदर मंजरी, मदिर मदिर बौराय
अबकी सजनी चैत में, फागुन रास रचाय ।
केसर केसर मन लदा, वासंती रसभार
कली कली भ्रमर खिले,राधा कृष्णा धार ।
धानी चुनरी ओढ़ कर, महके बेर मकोय
भिनसर भिनसर गंध में, मन में कुछ कुछ होय।

नई दिल्ली में रहनेवाले युवाकवि चैतन्य उषाकिरण चंदन हारनेवाले के रूप में अपनी पहचान बनाने को आतुर है बशर्ते कि वह खेल प्रेम का हो -
मैं ग़ज़ल लिखूँ या गीत लिखूँ
तेरी खातिर अब प्रीत लिखूँ
तेरी सांसों की सरगम को
मैं एक मधुर संगीत लिखूँ
आलिंगन में आ जाओ तुम
तुझको अपना मनमीत लिखूँ
तुझसे गठबंधन की खातिर
अब नई कोई मैं रीत लिखूँ
दिल हार के अपना अब 'चंदन'
तेरे प्रेम में अपनी जीत लिखूँ.

सेन होस (अमेरिका) में प्रवास कर रहीं लेख्य मंजूषा की अध्यक्ष, मूलत: हाइकूकार और लघुकथाकार के रूप में प्रसिद्ध विभारानी श्रीवास्तव को लोगों ने जब भी देखा है बड़े ही सौम्य, गरिमामय और गम्भीर रूप में देखा है किन्तु इस वसंत ऋतु में उनका मन भी थोड़ा पगला ही गया -
  बसंत - बसंत - बसंत.... !
  का शोर मचा और मन पगलाया
  क्यों..  मन पगलाया.?
*क्योंकि
  आमों के पेड़ पर  मंजर
  देख  कोयल की पी-कहाँ ,  पी-कहाँ ,
  सुन  मन पगलाया..!
*क्योंकि
  खबर है बारात आने की
  धरती बनी दुल्हन  पीली चुनरी  ओढ़ी
  देख हल्दी का रस्म सुन शहनाई की धुन  मन पगलाया..!
*क्योंकि
 "सरस्वती पूजा" है  नजदीक                   
करनी है  तैयारी हो न जाए कोई गलती
सोच- सोच   मन पगलाया...!
*क्योंकि
"बसंत - बसंत - बसंत...!"
शोर मचा और मन पगलाया.... !

ऐसा लगता है इन दिनों देवरिया (उत्तर प्रदेश) में रहनेवाले युवाकवि वेद प्रकाश तिवारी किसी सुरीली आवाज वाली के प्रेम में हैं. इसलिए वो आजकल कोयल का महिमागान करते नहीं अघाते. देखिए उनकी 'मधुमास; शीर्षक कविता  -
कोयल के पास नहीं होता
सुरों का ज्ञान
उसके कंठ से निकलता है
एक ही राग
वो गाती है बसंत के गीत
और जगाती है उनको
जिन्हें नहीं मिला अब तक
जीवन में सुगंध
कोयल ने स्वयं को प्रकृति में पिरोकर
जान लिया है परिवर्तन का रहस्य
इसलिए बसंत के जाने के बाद भी
वो नहीं होती उदास
कोयल को रहता है पूरा विश्वास
फिर आएगा मधुमास l

नवी मुम्बई (महाराष्ट्र) में रहनेवालीं अखिल भारतीय अग्निशिखा मंच की अध्यक्ष डॉ. अलका पाण्डेय इन दिनों आम्र मंजरी और महुआ के गंध को पाकर एक नई उमंग से हर्षायी दिख रही हैं -
*आयो आयो रे वसन्त आयो आयो रे।
 लायो लायो रे उमंग लायो लायो रे।
 ओढ़ पिताम्बरी चूनर आयो
 वसुन्धरा को मन हर्षायो
 वन अन्चल में हर्ष समायो
 दो ऋतुआं को मिलन करायो
 नव पल्लव नव कुसुम खिलायो
 आम्र मंजरी तन इठलायो
 सरसों को रंग लायो
 महुआ की गंध लायो
 आयो आयो रे वसन्त आयो आयो रे।
*लाज भरी अलकें हैं उन्मन
 अधरों पर है प्रणय निवेदन
 सखियों संग है झूमे तन मन
फ़िज़ा में राग वसंत का नर्तन
 लता तरुवर का आलिंगन
 टूट गये सब लाज के बन्धन
 मौसमी बहार लायो
 नयनों में प्यार लायो
आयो आयो रे वसन्त आयो आयो रे।
*कलरव करते पंछी सारे
 चातक मोर पपीहा प्यारे
 तितली अपने पंख निहारे
 धरा गगन भी हैं मतवारे
 हिमगिरि के हैं धवल नज़ारे
उड़ी पतंगे छूने तारे,
 सुनहरी धूप लायो,
 एक नयो रुप लायो,
 आयो आयो रे वसन्त आयो आयो रे।।
 लायो लायो रे उमंग लायो लायो रे।।

नवी मुम्बई (महाराष्ट्र) को अपना ठिकाना बनाकर रहते हुए ज्यादा से ज्यादा सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रचार-प्रसार में लगे रहनेवाले साहित्यिक पत्रकार और कवि हेमन्त दास 'हिम' को वसंत ऋतु में भी तपते दिख रहे हैं और इसलिए कह उठते हैं -
मुझे सिर्फ आपका प्यार चाहिए
तपते जमीं को ज्यों फुहार चाहिए
कायदे और बंदिशें होतीं हैं नाकाम
बस दिल से दिल का करार चाहिए
वार झेलने की आदत बुरी लगी
तीर कोई दिल के आर-पार चाहिए
घोंसला बन सके चैन और अमन का
बस थोड़े तिनके और झाड़ चाहिए
ग़मगीन होठों पर जो ले आये मुस्कान
ऐसी ही कुछ बातें दो-चार चाहिए
स्पर्शहीन, दृष्टिहीन, शब्दहीन हो पर
मन से मन का जुड़नेवाला तार चाहिए.

आपके जीवन पर हमेशा वसन्त छाया रहे. इन्ही शुभकामनाओं के साथ विद्या की देवी माता सरस्वती को नमन करते हुए इस गोष्ठी का समापन करता हूँ.
...........

संयोजन और प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
भाग लेनेवाले कवि/ कवयित्री -  रश्मि सक्सेना,  डॉ. शिव नारायण,  डॉ. अलका पाण्डेय,  विभारानी श्रीवास्तव,  हेमन्त दास 'हिम',  हरिनारायण सिंह हरि,  उषाकिरण चंदन,  वेद प्रकाश तिवारी
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com
नोट- यदि कोई मित्र अब भी बचे रह गए हों तो अपनी वासंती कविता और चित्र ऊपर दिये गए ईमेल पर शीघ्र भेजें.















Tuesday, 28 January 2020

वर्धा (महाराष्ट्र) में राष्ट्रभाषा महासंघ, मुम्बई और राष्ट्रभाषा पचार समिति, वर्धा के द्वारा संगोष्ठी 18.1.2020 को सम्पन्न

हिन्दी एक-न-एक दिन अवश्य राष्ट्रभाषा बनेगी
"हिंदी का संवैधानिक पद: कितने पास कितनी दूर" संगोष्ठी संपन्न / डॉ पुष्पिता अवस्थी की पुस्तक "मुट्ठी भर सुख" का लोकार्पण
(हर 12 घंटों के बाद एक बार जरूर देख लीजिए- FB+  Bejod India)




आजादी प्राप्त करने के 72  वर्ष बाद भी आज तक हिन्दी को संवैधानिक रूप से राष्ट्रभाषा नहीं घोषित किया जा सका है और इसे मात्र राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। दु:खद तो यह है कि राजभाषा के रूप में भी इसे अब तक व्यावहारिक रूप में पूरी तरह स्थापित नहीं किया गया है और विदेशी भाषा अंग्रेजी जिसे देश के 2% से भी कम लोग समझते हैं , उसे आज भी हिन्दी के ऊपर वर्चस्व प्राप्त है।  देेश में जन्मी और अधिकाधिक क्षेत्र में समझी जानेवाली भाषा हिन्दी को राष्ट्रभाषा का गौरब दिलाने हेतु प्रयास जारी है जो अब एक सशक्त आंदोलन बनता जा रहा है।   तो आइये इसी उद्देश्य से वर्धा (महा.) में सपन्न हुई एक महत्वपूर्ण गोष्ठी की रपट देखिए-
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वर्धा। हिंदी हमारे अंतर्मन की भाषा है। राष्ट्रभाषा के पद पर हिंदी को स्थापित करने के लिए इसे भगिनी भाषाओं का समर्थन  मिलना चाहिए क्योंकि भाषा का प्रश्न,  भाव - भावुकता से जुड़ा हुआ है। इसे मिशन  रूप में लेना चाहिए। लिखित संविधान हिंदी को राजभाषा का दर्जा देता है लेकिन अलिखित स्वरूप में हिंदी सब की राष्ट्रभाषा है ।यह विचार प्रो राममोहन पाठक, कुलपति ,दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ,चेन्नई ने राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के तत्वावधान में आयोजित एक दिवसीय  संगोष्ठी में मुख्य अतिथि के रूप में प्रकट किया ।

बीज वक्तव्य में प्रो अनंतराम त्रिपाठी, प्रधानमंत्री राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,वर्धा ने कहा कि हिंदी सच्चे अर्थों में राष्ट्रभाषा है क्योंकि वह सबके दिलों में बसी है संवैधानिक रूप से वह एक दिन राष्ट्रभाषा के पद पर अवश्य आरूढ़ होगी ।राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई की उपाध्यक्ष डॉ सुशीला गुप्ता ने कहा कि  सभी राज्यों को हिंदी को राष्ट्रभाषा मानना चाहिए।

इस मौके पर डॉ पुष्पिता अवस्थी की पुस्तक "मुट्ठी भर सुख" का लोकार्पण हुआ ।संचालन महासंघ के प्रधान सचिव डॉ अनंत श्रीमाली ने किया और आभार संयुक्त सचिव माधुरी वाजपेई ने माना।

प्रथम सत्र की अध्यक्षता डॉ कृपाशंकर चौबे ने की जिसमें डॉ अनवर सिद्दीकी, अनुवाद विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विवि, वर्धा, डॉ रत्ना चौधरी, महासंघ के ट्रस्टी महेश अग्रवाल ने विचार रखे। संचालन डॉ हेमचंद्र वैद्य तथा आभार सुश्री सरोजिनी जैन ने माना ।

द्वितीय सत्र शीतला प्रसाद दुबे, कार्याध्यक्ष महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी की अध्यक्षता में हुआ जिसमें डॉ अनुपमा गुप्त, डॉ कुसुम त्रिपाठी,  हेमचंद्र वैद्य ने विचार रखे। संचालन डॉ अशोक शुक्ला ने तथा आभार डॉ मेघा श्रीमाली ने माना। समापन सत्र में सभी प्रतिभागियों ने विचार रखे। संगोष्ठी में वर्धा के कनकमल गांधी,  प्रचार समिति के कोषाध्यक्ष नवरतन नाहर,अरुण लेले, शिवचरण मिश्रा, डॉ भूपेंद्र, डीएन प्रसाद, बीएस मिरगे ,अमित विश्वास ,राष्ट्रभाषा महाविद्यालय के प्राचार्या, शिक्षक, शिक्षिकाएं, किशोर भारती विद्यालय के मुख्याध्यापक सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार, पत्रकार, लेखक उपस्थित थे अंत में महाविद्यालय के बच्चों ने  खूबसूरत सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए। राष्ट्रगान से  कार्यक्रम समाप्त हुआ।
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आलेख - प्रो. अनंतराम त्रिपाठी (प्रधानमंत्री राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा)
माध्यम - डॉ. अनन्त श्रीमाली
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com



Monday, 27 January 2020

अशवनी 'उम्मीद' की प्रतिनिधि लघुकथाएँ और ग़ज़ल

शौकिया तौर पर नहीं लिखता
शायरी जी रहा हूं बरसों से
- अशवनी 'उम्मीद'

1. लघुकथा  / चोर - पुलिस

(हर 12 घंटों के बाद एक बार जरूर देख लीजिए- FB+ Today Bejod India)




    चोर ने महंगी कार से मोटी सी महिला को निकलते देखा, नजरे उसके पर्स पर जम गई जो काफी भरा भरा और मोटा था। अचानक चोर पर्स झपट कर दूसरी दिशा में भागा।
    "चोर चोर, पकड़ो" महिला पूरी ताकत से चिल्लाई तो दूसरी तरफ से आता हवलदार कड़क आवाज मे बोला, "ठहर, अभी देखता हूं, तुझे" चोर के 15-20 कदम सामने ही हवलदार था दोनों ने एक दूसरे को देखा और बहुत हौले से मुस्काए।
चोर सामने रास्ता न पाकर गली में घुस गया उसके पीछे पीछे हवलदार भी, गली में 3-4 गलियां और थी।
    मैं पूरा नजारा देख रहा था और ये भी कि हवलदार ने उसे देखकर भी अनदेखा कर दिया है और उधर ढूंढ रहा है जहां वो है ही नहीं।
     मुझे अपना बचपन याद आ गया जब हम चोर पुलिस खेलते थे परन्तु हम तो ईमानदारी और सच्चाई से किरदार अदा करते थे। चोर पुलिस तो असल मे ये लोग खेल रहे है।
    तभी हवलदार वापस आया और महिला से बोला "निकल भागा साला, मै रिपोर्ट दर्ज कराता हूं, पर्स में क्या क्या था, लिख दीजिए.......शायद उसे चोर पर विश्वास नहीं था।
..................

2. लघुकथा / -1 डिग्री

जब बाडी आ ही गई है तो अंतिम संस्कार में देर क्यों ? कहाँ है बाकी लोग ? भैरों ने लकड़ी तौलते हुए पूछा।
सब देर रात को आएंगें, आज बहुत लोग आने वाले है। दूसरे फुटपाथ और चौराहे के लोग भी होंगें।"
"मतलब ? तो अंतिम संस्कार कब....."
बात को बीच में ही काटते हुए रामाधीन बोला "11-12 बजे"
"ये क्या उलटा रिवाज है। फुटपाथ पे रहते रहते तुम लोग बुद्धि से भी पैदल हो गए हो क्या ?"
बात को अनसुना कर बीड़ी का जोरदार कश लेकर रामाधीन गिड़गिड़ाया, "भैया थोड़ी लकड़ी अपनी तरफ से भी डाल दो, बहुत दुआएं मिलेगी। मुझे इन्ही पैसों में दूध का इंतजाम भी करना है रात में चाय वगैरह के लिए।"
भैरो बोला "ठीक है" और फिर गले के मफलर को निकाल सर से लेकर कानों को ढकते हुए नीचे ठोढ़ी पर लाया और गांठ बांध दी। फिर बड़बड़ाया "इस बार  रिकार्ड तोड़ ठंड  है 53 सालों का रिकार्ड टूट गया है। ऐसा लगता है खून नसों में जम जाएगा।"
जवाब में रामाधीन ने मुंह खोला तो पहले थोड़ी भाप फिर कुछ शब्द निकले "सही कहते हो और टीवी पर बताएं है आज की रात सबसे ठंडी होगी। माइनस -1 डिग्री तापमान रहेगा। सबने पैसे जोड़ के पुत्तन के अंतिम संस्कार का इंतजाम किया है । फुटपाथ पर तो आग तापने के लिए लकड़ी भी नही बची। ठंड से हुई पुत्तन की मौत से सब सहम गए है। सबने पाई पाई जोड़ के चिता के लिए लकड़ी का पैसा जोड़ा है। इसलिए सबने सोचा है आज की रात यहीं काटेंगें।"
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3. एकवाक्यीय (वनलाइनर) / लाइक्स
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एक कम उम्र की सुंदर कवयित्री हमेशा अपनी ताजा सुंदर तस्वीर के साथ ही नई रचना फेसबुक पर डालती और सैकड़ो 'लाइक्स' पाती परंतु समय बीतता रहा उम्र, लेखन का तजुर्बा और स्तर तो बहुत बढ़ा परंतु अब रचनाओं पर 'लाइक्स आने बेहद कम हो गए।

4. ग़ज़ल

निशाने पर हमारी जान हो तो क्या करें
सदाकत में जिया हलकान हो तो क्या करें

जो आया हो हमारे पास कुछ फ़न सीखने
उसे ही हमसे ज्यादा ज्ञान हो तो क्या करें

कभी ये दूसरा पहलू तो सोचा ही नहीं
मुहब्बत में अगर नुकसान हो तो क्या करें

हमेशा नेकियों के रास्ते दुश्वार हों
बुराई का सफर आसान हो तो क्या करें

कमाई हो जरूरत पूरी करने भर की और
हमारे अनगिनत अरमान हो तो क्या करे.
...................................

लेखक / ग़ज़लकार - अशवनी "उम्मीद" 
रचनाकार का परिचय - श्री अशवनी 'उम्मीद'  लगभग तीन दशकों से सांस्कृतिक, साहित्यिक गतिविधियों में संलग्न हैं. ये मूलत: ग़ज़ल, कविताएँ  और लघुकथाएँ लिखते हैं. कार्यक्रम संचालन में प्रवीण हैं. इनकी ग़ज़लों में आम आदमी की ज़िंदगी की जद्दोजहद और अभावों के बीच अपनी आदमीयत को बचाए रखने को जूझते आम आदमी की कशमश दिखती है. ग़ज़ल में ऊर्दू शब्दों का सुंदर प्रयोग करते हैं. पेशे के तौर पर स्टैड अलोन शो, एंकरिंग और फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी करते हैं. इन्हें अपने कार्यों में अपनी शिक्षिका पत्नी और प्रतिभाशालिनी बालनर्तकी पुत्री का भरपूर समर्थन मिलता रहा है
पता - नवी मुंबई
मोबाईल : 9820586422, 9969356084
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com


 




अशवनी 'उम्मीद'  की पुत्री कशिश जो अभिनय और मॉडलिंग के प्रति आशान्वित है

अशवनी 'उम्मीद' अपनी धर्मपत्नी  शालिनी के साथ

Sunday, 26 January 2020

जय गणतंत्र ! तुम्हारी जय हो. / Our Republic! Live forever! कवि - भागवतशरण झा 'अनिमेष '

जय गणतंत्र ! तुम्हारी जय हो
 Our Republic! Live forever!

(हर 12 घंटों के बाद एक बार जरूर देख लीजिए- FB+ Today Bejod India)



हम भारत के जनसमुद्र
करते तेरा पगवन्दन
तेरे ध्वज के संवाहक
करते शत-शत अभिनंदन
हो शासन जन-मन-संचालित 
 जहाँ न कोई भय हो
जय गणतन्त्र ! तुम्हारी जय हो।
We the masses of India
Wash your feet
 Carriers of your flag
Hundred times we greet
Government should be pro-public
Nothing is there to shiver
Our Republic! Live forever!

बाधाओं के पार हमीं
नवता के संग शिखर पर
आगे बढ़ते जाएँगे
कुन्दन सम निखर-निखरकर
हम समरसता के हैं पोषक
 तनिक नहीं संशय हो
जय गणतंत्र ! तुम्हारी जय हो ।
Overcoming the obstacles
At the peak with a new passion
Shall keep making progress
With a golden impression
Only to nurture harmony
We make endeavour
Our Republic! Live forever!

नवोन्मेष के हम संवाहक
गरिमा के अभिलाषी
त्याग-तपस्या के प्रतीक
हम सारे भारतवासी
अनुशासन, मर्यादा, सेवा 
जनजीवन की लय हो
जय गणतंत्र ! तुम्हारी जय हो ।
We are drivers of innovation
Aspirants of dignity
Symbols of sacrifice and penance
We all Indians in unity
Discipline, dignity, service 
Are life's rhythm giver
Our Republic! Live forever!
....

मूल हिंदी गीत - भागवतशरण झा 'अनिमेष'
Original song in Hindi - Bhagwat Sharan Jha 'Animesh'
मूल गीतकार का ईमेल - bhagwatsharanjha@gmail.com
अंग्रेजी में छ्न्दानुवाद - हेमन्त दास 'हिम'
Rhthmic translation in English - Hemant Das 'Him'
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल/  Email ID for respone  - editorbejodindia@gmail.com
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Friday, 24 January 2020

लेख्य मंजूषा की साहित्यिक गोष्ठी 19.1.2020 को पटना में सम्पन्न

तेरी मर्जी नहीं मेरी मर्जी पे है / मैं इधर जाऊंगा या उधर जाऊंगा

(हर 12 घंटों के बाद एक बार जरूर देख लीजिए- FB+ Today Bejod India)



मुक्तक छंद की वह विधा है जिसमें चार पंक्तियाँ होती हैं - पहली,दूसरी और चौथी एक ही तुकांत वाली और तीसरी अलग अंत वाली. मुकतक छंद और मुक्तछंद में कोई सम्बंध नहीं है. मुक्तक जहाँ पूरी तरह से छंद की शास्त्रीय बुनावट का पालन करता है वहाँ मुक्तछंद हर प्रकार के छंद-विधान से मुक्त होता है.  मुक्तक को सम,-सम-विषम-सम बनावट के तौर पर भी समझा जा सकता है. छंदशास्त्र और ग़ज़ल के शास्त्रीय विधानों के प्रकाण्ड ज्ञाता कवि घनश्याम ने ये बातें लेख्य मंजूषा की मुक्तक कार्यशाला के दौरान कही.  सभी प्रतिभागियों ने एक से बढ़कर एक कविताओं / गज़लों का पाठ किया किंतु मुक्तक छंद का वर्चस्व छाया रहा.

महिलाओं और पुरुषों की भरपूर भागीदारी वाली क्रियाशील साहित्यिक संस्था  "लेख्य मंजूषा, पटना" की मासिक गोष्ठी दिनांक 19.1.2020 को पटना के आर.ब्लॉक समीप स्थित इंस्टीच्यूट ऑफ इंजीनियर्स भवन में सम्पन्न हुई. इसमें मुक्तक कार्यशाला के अतिरिक्त कवि-गोष्ठी का भी आयोजन था.

इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे देश के सुप्रसिद्ध लघुकथाकार डॉ. सतीशराज पुष्करणा और इसकी अध्यक्षता की विशुद्ध हिंदी में ग़ज़लें कहनेवाले जादूगर घनश्याम. विशिष्ट अतिथिद्वय में  देश के प्रसिद्ध रेखाचित्रकार और साहित्यकार सिद्धेश्वर एवं नाटक-समीक्षक, कवि एवं ब्लॉगर हेमन्त दास 'हिम' शामिल थे. कार्यक्रम का कुशल संचालन किया संगीता गोविल ने. इस कार्यक्रम की संयोजक थीं लेख्य मंजूषा की कार्यकारी अध्यक्ष रंजना सिंह.

मुख्य अतिथि डॉ. सतीशराज पुष्करणा यूँ तो लघुकथा के राष्ट्रीय महानायक माने जाते हैं. गोष्ठी के दौरान उन्होंने गृहिणियों, कामकाजी महिलाओं और पुरुषों को आपसी सामंजस्य बनाए रखने के अनेक व्यावहारिक नुस्खे दिये क्योंकि अनेक लघुकथाएँ इस समस्या पर लिखी गई हैं. उन्होंने कहा कि विचारों की अभिव्यक्ति की शैली न सिर्फ कागजों पर बल्कि घर-परिवार के अंदर भी मधुर, विनयशील और दूसरों को महत्व देनेवाली होनी चाहिए. 

फिर पुष्करणा जी को अपने विद्यार्थी जीवन का वह सुनहला दौर याद आ गया जब वो किसी की क़ुरबत की चाह लिए उसके दिए जहर को भी खुशी से पिये जा रहे थे-
जहर पे जहर हमको दिये जा रहे हैं / ये हम हैं कि उसको पिये जा रहे हैं
मिल न सकी कुरबत उनकी / दर्द ही उनका लिये जा रहे हैं
सी न सका गिरेबां किसी का / अपनी जबां ही सीये जा रहे हैं
देखी किसी ने ना उल्फत हमारी / इल्जाम ही हमको दिये जा रहे हैं
उनकी नजर का तेवर तो देखो / मर मर के हम जिये जा रहे हैं

अभिलाषा कुमारी खुद को जमीन और इष्ट को आसमान मानने से भी न हिचकी -
मानती हूँ मैं जमीं, तू आसमान जैसा है
पर यह अंतर, ठहर कर सोचना तो कैसा है ?
तुझ पर अर्पण हृदय की समस्त सरस भावना
दे सकती इसके सिवा क्या - प्रेम, पूजा, अर्चना

हेमन्त दास 'हिम' किसी बच्चे के कल के लिए अपने आज का हवन करते दिखे -
एक मासूम की छवि है और सन्नाटा
वह अंधेरे का रवि है और सन्नाटा
किसी का कल करने को देदीप्यमान
मेरे आज का हवि है और सन्नाटा

मीनू झा, पानीपत  (प्रेमलता सिंह द्वारा पढ़ा गया) नारियों पर बंधनों और हिज़ाबों से परेशान दिखीं-
चंद लम्हे पास रहने का अरमान है
गुजरे पलों में भरनी हमें उड़ान है
पर बंधनों में लिपटे ये तन-मन
हमें हिज़ाबों में जीने के फरमान हैं

राजेन्द्र पुरोहित (रब्बान अली द्वारा पढ़ा गया) ने समरसता के पुष्प पिरोकर माहौल को और अधिक सौहार्दपूर्ण बना दिया-
सत्य, अहिंसा और प्रेम के / बीज जगत में बोने होंगे
मन-मिटाव के दाग हमें फिर / प्रेम-सुधा से धोने होंगे
भारत रूपी इस उपवन से / चुनकर समरसता के पुष्प
मातृभूमि की जयमाला में / हमको आज पिरोने होंगे

कल्पना भट्ट, भोपाल (अन्य सदस्य द्वारा पढ़ा गया) ने सार छन्द की बानगी प्रस्तुत कर पर्यावरण प्रेम का जरूरी संदेश दिया -
छन्न पकैया, छन्न पकैया, सब को ये समझाना
पशु-पक्षी, पेड़-पौधों से प्यार सदा जतलाना
छन्न पकैया, छन्न पकैया, जीना चाहे मरना
नाना सदा यही कहते थे, प्यार सभी से करना

अंकिता कुलश्रेष्ठ (रजना सिंह द्वारा पढ़ा गया) भी कल्पना जी की तरह जानती हैं कि आधुनिक युग में अगर कोई मुद्दा है तो पर्यावरण बाकी सब राजनीति है. इसलिए उन्होंने भी तरु को ही नेह न्यौछावर करने का विवेकपूर्ण निर्णय लिया -
सुदृढ़, बलशाली बनकर भी /  क्यों मौन बने रहे तुम सदा
चोटिल तन, बिंधित तन लेकर / तुम तो मुस्काते रहे सदा
अपने कर्मों पर अडिग रहे / हे तरु, तव नेह!

अनीता मिश्रा" सिद्धि' (डॉ. रब्बान अली द्वारा पढ़ा गया) उम्र की ढलान पर खड़ी अपने इष्ट को प्रेम का आह्वाहन करती दिखीं-
देखो न! रेशमी काली लटों में / सफेद चाँदनी छा रही
कजरारे नयनों में / मोतियाबिंद की धुंध है
होठों की नर्म लाली / अब काली स्याह सी हो चली
ढलान पर खड़ी हूँ / बिखर रही हूँ
समेटो न / अपनी सुदृढ़ बाहों में

सिद्धेश्वर ने भगवान रूपी बच्चे का इंसान में बदलने की प्रक्रिया का कटु यथार्थ रखा -
बच्चे झूठे नहीं होते 
मगर पसंद होते हैं माँ बाप को झूठे बच्चे
उनसे कबूलवाते हैं झूठ 
भगवान से इंसान बनते-बनते 
सीख लेता है बच्चा सैकडों अपराध

पम्मी सिंह 'तृप्ति' (संगीता गोविल जी द्वारा पाठ) ने अपनी  कुंडलिया छंद के द्वारा जनसामान्य की उस मानसिकता पर प्रहार किया जिसमें सिर्फ चर्चित व्यक्ति की जान की परवाह की जाती है, दर्जनों मजदूरों की आपराधिक लापरवाही के कारण हुई अग्निकांड में मौत पर कोई जुलूस नहीं निकलता -

दीये मद्धिम पड़ रहे, कैसा समय विधान।
मज़दूरों की सांस थमी, सस्ती हुई अब जान।।
सस्ती हुई अब जान, च़राग तले अंधेरा।
फ़ैक्टरी की आग ने , श्रमिकों का चित्र उकेरा।।

अंत में गोष्ठी के अध्यक्ष घनश्याम ने अपनी मर्जी का झंडा लहरा दिया-
मुझको मरना ही होगा तो मर जाऊंगा / अपनी खुशबू तेरे नाम कर जाऊंगा
भूल कर भी नहीं यह भरम पालना / तू जो धमकाएगा तो मैं डर जाऊंगा
मुझको परदेस हरगिज सुहाता नहीं / अपना वभव संभालो मैं घर जाऊंगा
जिसकी मिट्टी से ही मेरा अस्तित्व है / एक दिन उसी में मैं बिखर जाऊंगा
तेरी मर्जी नहीं मेरी मर्जी पे है / मैं इधर जाऊंगा या उधर जाऊंगा.

इसके उपरांत धन्यवाद ज्ञापन और अध्यक्ष की अनुमति से सभा की समाप्ति की घोषणा की गई. बाहर चल रही राज्यव्यापी मानव श्रृंखला कार्यक्रम के कारण यह  विशिष्ट कार्यक्रम हालांंकि कम संख्या में साहित्यकारों की उपस्थिति के बीच सम्पन्न हुई लेकिन निश्चित रूप  से एक सफल, सार्थक और आवश्यक गोष्ठी साबित हुई . 
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रपट का आलेख - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र -  बेजोड़ इंडिया ब्लॉग
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com