Sunday, 3 March 2024

विरोध को कहाँ तक सहा जाए?

(सामयिक विचार)


सत्ता के विरोध में कुछ बोलने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह विपक्ष के प्रति समर्थन है. इसकी ज्यादा संभावना है कि जो आज विपक्ष में है अगर वह सत्ता में आ जाए तो आज के सारे विवेकशील विरोधी जन उस समय की सत्ता के भी विरोध में ही बोलेंगे. इसका ज्वलंत उदाहरण यह है कि अनेक पत्रकार/ साहित्यकार/ कलाकार जो पहले कांग्रेसी सत्ता के विरोधी थे वो आज की सत्ता के भी विरोधी बने हुए हैं. कारण यह है कि गलतियाँ उन्हीं से होती हैं जो काम करते हैं और काम करने का अधिकार सत्ता पक्ष को ही होता है विपक्ष को नहीं. काम करने का अधिकार जिनको प्राप्त है उन पर ही यह आरोप लग सकता है कि उन्होंने काम नहीं किया अथवा सही ढंग से नहीं किया. जिसको काम करने का अधिकार ही नहीं है उस पर कैसे यह आरोप लगेगा? अब काम करनेवाले यानी निर्णय लेनेवाले को हमेशा यह दुविधा रहती है कि वे जो भी निर्णय लेंगे उससे कुछ लोग लाभान्वित होंगे और कुछ के विपरीत जाएगा उनका निर्णय जो कि बिलकुल स्वाभाविक है. यहीं पर निर्णयकर्ता का विवेक काम आता है कि वे जो निर्णय लें वो इतने न्यायसंगत हों कि उनका विरोध कम-से-कम हो. फिर भी अगर कुछ लोग विरोध करें तो उनकी बातों को सहानुभूतिपूर्वक सुनकर कुछ उनको समझाकर और कुछ मामलों में यदि उचित लगे तो रियायत देकर उसका समाधान करना चाहिए. दंडात्मक कार्रवाई उन्हीं पर होनी चाहिए जो हिंसक अथवा असामाजिक तरीकों का सहारा ले रहे हों उन पर नहीं जो शांतिपूर्ण ढंग से विरोध कर रहे हों. इसका पालन करने से ही सत्ता में मजबूती और दीर्घजीविता आती है एवं समाज, कला और संस्कृति के शिखर पर पहुँच पाता है. कला के उन्नयन के लिए विचारों का निर्बाध प्रवाह आवश्यक होता है.
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लेखक- हेमन्त दास ‘हिम’ / hemantdas2001@gmail.com
दिनांक- 03.03.2024

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