बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में कुमारी लता प्रासर के काव्य-संग्रह "कैसा ये वनवास" का लोकार्पण हुआ। साथ ही सम्पन्न कवि-गोष्ठी में कवियों और कवयित्रियों ने भरे भावों के विविध रंग भरे।
कविताएँ मन की घनीभूत पीड़ा को अभिव्यक्ति हीं नहीं करती, व्यथा को तरल बना, बहाकर निकालती भी है और आँखों के आँसू भी पोंछतीं है। यह केवल कवि या कवयित्री की हीं नही होती, पीड़ा के सनासर से जुड़े हर एक व्यक्ति की होती है। संभवतः इसीलिए इसे लोक-रंजक और लोक-कल्याणकारी भी माना जाता है। इसे हीं 'साहित्य' कहा जाता है, जो सदैव हीं समाज के 'हित' में खड़ी दिखती है,भले ही शब्दों में वह निजी पीड़ा लगती हो।
यह बातें गत शुक्रवार को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में युवा कवयित्री कुमारी लता प्रासर के सद्य: प्रकाशित काव्य-संग्रह 'कैसा ये वनवास' के लोकार्पण-समारोह की अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष डा. अनिल सुलभ ने कही। डा. सुलभ ने कहा कि लता जी एक संवेदनशील और कविता के प्रति सजग कवयित्री हैं। विगत अनेक वर्षों से ये साहित्य में निष्ठा-पूर्वक सक्रिए हैं। इनकी सक्रियता और श्रम अत्यंत प्रशंसनीय है। कवयित्री ने नारी-मन, प्रकृति, प्रेम, समाज की पीड़ा और संघर्ष समेत मानवीय-पक्ष से जुड़े प्रायः सभी तत्त्वों को अपनी कविता का विषय बनाया है। इनकी भाषा 'काव्य-भाषा' बनने की प्रक्रिया में है। इनकी कविताओं में छंद के प्रति रुझान दिखती है किंतु कोई विशेष आग्रह नही। कवयित्री में संभावनाएँ हैं और इसीलिए अपेक्षाएँ भी हैं।
पुस्तक का लोकार्पण करते हुए पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा एस एन पी सिन्हा ने कहा कि लता जी का यह प्रथम काव्य-संग्रह उनकी काव्य-प्रतिभा का परिचय देता दिखाई देता है। ये काव्य-प्रतिभा से संपन्न संवेदनशील कवयित्री और परिश्रमी शिक्षिका हैं। यह पुस्तक समालोचकों का ध्यान खींचेगा ऐसा मेरा विश्वास है।
पुस्तक पर अपना विचार रखते हुए सुप्रसिद्ध कवि भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि कविता का जन्म करुणा से हीं होता है और इसकी अंतिम परिणति भी करुणा ही है। लता जी की कविताओं में करुणा की तीव्रता और जीवन से जुड़कर कुछ सकारात्मक देने की छटपटाहट है। इनके भीतर एक 'मुक्तिकामी' नारी निश्छल भाव से गतिमान दिखाई देती है।
अनुग्रह नारायण समाज अध्ययन संस्थान के पूर्व निदेशक डा युवराज प्रसाद ने कहा कि जीवन में सदा सुख हीं नहीं दुःख भी मिलता है। दुःख को यदि सकारात्मक भाव से लिया जाए तो वह सृजनात्मक हो जाता है। लता जी दुःख को सृजन में बदलने वाली और निरंतर लिखती रहनेवाली संभावना-संपन्न कवयित्री हैं।
बिहार के निःशक्तता आयुक्त डा शिवाजी कुमार ने कहा कि लता जी की कविताओं में बहुत कुछ है और बच्चे भी हैं। कहीं न कहीं उनकी रचनाओं में विशेष आवश्यकता वाले बच्चे भी हैं।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्रनाथ गुप्त, डा शंकर प्रसाद, डा मधु वर्मा, प्रो डा उषा सिंह, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, कुमार अनुपम, डा नागेश्वर प्रसाद यादव तथा आनंद किशोर मिश्र ने भी अपने विचार व्यक्त किए तथा कवयित्री को शुभकामनाएँ दी।
अपने कृतज्ञता-ज्ञापन के क्रम में पुस्तक की लेखिका लता प्रासर ने कहा कि, बचपन से हीं प्रकृति की मनोहारी छटाएँ मेरे मन को खींचती रही है। गाँव, नदियाँ, बाग़-बग़ीचे खेत-खलिहान मेरे अंतर्मन में बसे हुए हैं। कविता की प्रेरणा भी वही हैं। उन्होंने लोकार्पित पुस्तक से अपनी प्रतिनिधि रचनाओं का पाठ किया। नारी मन की व्यथा को यों शब्द दिए कि,
“इसी बीच वह मान बन गई/ पीछे उसकी आह रह गई जो हिम्मत थी वह भी टूटी/ सोंचा मेरी क़िस्मत फूटी
उम्र है कच्ची गोद में बच्ची/ यही कहानी सबसे सच्ची"।
“इसी बीच वह मान बन गई/ पीछे उसकी आह रह गई जो हिम्मत थी वह भी टूटी/ सोंचा मेरी क़िस्मत फूटी
उम्र है कच्ची गोद में बच्ची/ यही कहानी सबसे सच्ची"।
इस अवसर पर आयोजित कवि-सम्मेलन का आरंभ कवि जय प्रकाश पुजारी ने वाणी-वंदना से किया। वरिष्ठ कवि आर पी घायल ने भी कवयित्री लाता को बधाई दी।
वरिष्ठ कवि डा विजय प्रकाश, आचार्य विजय गुंजन, डा शालिनी पाण्डेय, प्रतिभा पराशर, डा अर्चना त्रिपाठी, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, शुभ चंद्र सिंहा, डा अन्नपूर्णा श्रीवास्तव, शुभ चंद्र सिन्हा, अभिलाषा कुमारी, सिंधु कुमारी, पं गणेश झा, प्रभात कुमार धवन, सिद्धेश्वर, डा कविता मिश्र मागधी, बाँके बिहारी साव, श्रीकांत व्यास, डा मनोज गोवर्धनपुरी ने भी रचनाओं का पाठ किया। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धनयवाद-ज्ञापन कृष्णरंजन सिंह ने किया।
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आलेख - डा. अनिल सुलभ
छायाचित्र - सिद्धेश्वर
छायाचित्र - सिद्धेश्वर
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