सोशल मीडिया में साहित्य -1
सोशल मीडिया पर कविताएँ, ग़ज़ल, गीत पढ़ता रहता हूँ। एक तरफ सुनियोजित और व्यवस्थित तरीके से स्वप्नदर्शी काव्यधारा पूरे जोर से बहाने का प्रयास कायम है जो अपनी सायास काव्य चेतना द्वारा नकली बसंत बयार बहाते रहते हैं सामंतकालीन सांस्कृतिक मूल्यों को आधुनिक साज-सज्जा में स्थापित करते हुए। इन्हीं को कवरिंग फायर जैसा सपोर्ट प्रदान करते हुए भयंकर रूप से क्लिष्ट किंतु चरम ध्वन्यात्मक और शाब्दिक सौंदर्य लिए नवगीत नहीं पर उस जैसा कोई अन्य आंदोलन चल रहा है। पढ़कर आप उनकी विद्वता से स्तब्ध होकर रह जाएंगे पर बार-बार माथा फोड़ने पर भी कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा। वहीं गजलकारों ने आश्चर्यजनक रूप से अपनी मर्यादा कायम रखी है। आज के युवा और बुजुर्ग शायरों को सोशल मीडिया पर पढ़ना निश्चित रूप से एक सुखद अनुभव है। शैली और संदेश दोनों में ताजगी रहती है, सामयिक चिंतन भी रहता है। पर हाँ, गजल की अपनी सीमाएं हैं और वह उस तरह से सम्पूर्ण चित्र नहीं रख सकती है जैसा कि मुक्तछंद कविता। मुक्तछंद में इन दिनों पर्याप्त संख्या में प्रभावकारी और वांछित भावोद्रेक उत्पन्न करनेवाली रचनाएँ आ रहीं हैं। किंतु यह कहने में भी कोई हिचक नहीं है कि यह शैली पूर्ण अराजकता भी झेल रही है। लोग अपनी व्यक्तिगत भड़ास निकालने हेतु या जबरदस्ती कवि बनने के चक्कर में अंडबंड कुछ भी लिख कर उसे कविता के रूपमें परोस देते हैं। यह समझना होगा कि मुक्तछंद में मात्र शैली की स्वच्छंदता है । यहाँ भी लयात्मक प्रवाह और सघन भाव-विचार जो एक व्यक्ति के लिए बल्कि समाज के लिए उपयोगी और रुचिकर हों उनकी अनिवार्यता समाप्त नहीं हो जाती।
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लेखक - हेमन्त दास 'हिम'
ईमेल - hemantdas2001@gmail.com
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