दिल के गुलशन में सहमी हुई कली है क्या?
कुछ अति महत्वपूर्ण काम से मैं यानी ब्लॉगर हेमन्त 'हिम' हाल ही में बिहार गया था. कार्य सुखद रूप से संचालित करने के बाद 23.4.2024 को पटना में था. शीघ्रता में कुछ जाने-माने साहित्यकारों के इकट्ठा होने का सुखद संयोग बना. एक लघु साहित्यिक गोष्ठी फ़ूड मैनिया, रुकनपुरा (पटना) में संपन्न हुई. कुछ कवियों ने कविताओं का पाठ किया और अन्य साहित्यकारों ने चर्चा में भाग लिया. सजग युवा फैज ने भी न सिर्फ ध्यानपूर्वक सुनने में रुचि दिखाई बल्कि फोटोग्राफी कर अपना बहुमूल्य योगदान भी किया.
पढ़ी गई रचनाओं की कुछ पंक्तियाँ नीचे प्रस्तुत ई.
प्यार जितना गहरा होता है आशिक उतना ही विनयशील, इसका उदाहरण मंझे हुए शायर संजय कुमार कुंदन से बढ़कर मिलना पूरे हिन्दुस्तान में मुश्किल है. ये एहसास की उलझन को पूरी शिद्दत से रखने का माद्दा रखते हैं लेकिन हौले हौले. बड़ी से बड़ी चोट यूं कर जाते हैं जैसे कुछ किया ही नहीं. नीचे उनकी कुछ पंक्तियों की झलक देखिए -
कुछ भी ऐसा नहीं कि बात करें
वो अब अपना नहीं कि बात करें
वो भी सुनता नहीं कहा मेरा
मैं भी कहता नहीं कि बात करें
अब ख़मोशी ही बोलने है लगी
लब कुशादा नहीं कि बात करें
एक शीशा था ख़ुद में टूट गया
फिर भी बिखरा नहीं कि बात करें
कुछ ज़माने से जुदा है "कुन्दन"
लेकिन इतना नहीं कि बात करें
कली का सहमना यानी यौवन के जुनूं का निष्ठुर सच्चाई से आगाह होना- ये अंदाज़े बयां की नज़ाक़त ही संजय कुमार कुंदन का हस्ताक्षर है-
दिल के गुलशन में सहमी हुई कली है क्या
जुनूं के शह्र पे हमला-ए-आगही है क्या
उसी ने तंज़ किया है सितमज़रीफों पे
सितम ने दर्स लिया जिससे वो वही है क्या
हर एक लम्हा जुदा ख़ुद से कर रहा ख़ुद को
इसी अमल को कहा तुमने ज़िंदगी है क्या
शहंशाह आलम देश में हिन्दी के एक जाने-माने कवि हैं जिनकी धार कभी कुंद नहीं पड़ती. ये भूलकर भी छंदशास्त्र में प्रवेश नहीं करते हैं कारण इनकी नजर में समय का यथार्थ इतना कुरूप और बेतरतीब है कि उसमें गेयता को ढूढना एक क्रूर मजाक के सिवा कुछ और नहीं. जब सारे एहसास विच्छिन्न और विदीर्ण हो रहे हों तो मुलामियत किस बात की? हालांकि इन्होंने विशुद्ध प्रेम पर भी कोमल रचनाएं की हैं किन्तु इनका मुख्य स्वर सामयिक काव्यकर्म का निर्वहन है. उनकी कुछ पंक्तिया इस प्रकार थीं -
शहंशाह आलम की कविताएँ मेहनतकशों के पक्ष को, वंचितों के पक्ष को और हाशिए पर धकेल दिए गए लोगों के पक्ष को जितने जोरदार तरीके से रखती हैं वह श्लाघ्य है. वे नारी अस्तित्व के सभी आयामों पर भी लिखते आए हैं. और जब नारीत्व और मेहनातकशी दोनों एक साथ हों तो कहना ही क्या! प्रकृति उनकी कविताओं में सिर्फ पृष्ठ भूमि हेतु नहीं रहती बल्कि स्वयं एक किरदार बन जाती है. ये पंक्तियाँ देखिए -
मैं प्राचीन इस पृथ्वी को अपना घर बनाता हूं
इस उम्मीद में कि जब तक उसकी देह बजती रहेगी
गेहूं चावल वाले इन खेतों में बिना थके बिना हारे
मेरा भी रंग-प्रसंग रचता रहेग-बसता रहेगा पृथ्वी की लय में
इस घर की खिड़की से बाहर के रहस्य को उकेरती
बिना पीड़ा और प्रतिरोध के कविताएँ अपने युग से नहीं जुड़ पाती हैं. शहंशाह आलम जैसा युग कवि इस तथ्य को भली भाँती जानते हैं-
..हंसना किसी तानाशाह से युद्ध लड़ने जैसा है
तब भी हंसता हूं संसद के बाहर चिलचिलाती धूप में खड़ा
मेरी हँसी किसी को अपने विरुद्ध लगती है तो लगा करे
मैंने यानी हेमन्त 'हिम' ने एक ग़ज़ल और एक कविता का पाठ किया.
यदि कोई चीज कुछ समय के लिए आपको भायी इसका ये अर्थ नहीं कि उसके सारे विकल्पों को ही समाप्त कर दिया जाय-
...."जबसे आपका रेकॉर्ड सुना है
किसी और की धुन सुनता ही नहीं हूँ मैं"
यह सुनकर उस सारंगीवादक ने
जितने भी दूसरे वादकों के रेकॉर्ड्स थे उन्हें तोड़ कर फेक दिया
और कहा - "जब मेरा संंगीत है ही
तो दूसरे की सुनकर समय क्यों बर्बाद करना"
यह ठीक वही पल था
जब से मुझे उसका सारंगीवादन बहुत कर्कश लगने लगा.
'हिम' की ग़ज़ल की पंक्तियाँ इस प्रकार थीं -
इक सागर था सुंदर हर इक नदी उधर डूबी
इक जलधारा भटकन में सूखी पर नहीं डूबी
आप हैं जौहरी तो हर किसी को पत्थर ही मान लें
आने पे वक्त दिखे यही लाल, यही मानिक, रूबी
शहद के छत्ते में मधुमक्खी को पहले मज़ा आया
जब पाया कि इसमें विष है मिला तो वह ऊबी
विभारानी श्रीवास्तास्व ने बताया कि लघुकथा लेखन में वो अब जो लोगों को जागरूक करने का काम कर रहीं हैं वो दर-असल दिवंगत महान लघुकथा लेखक सतीशराज पुष्करणा जी की दें है. उन्होंने ही बताया था कि वास्तव में "लघु कथा" और "लघुकथा" बिलकुल अलग विधाएं हैं. जहां लघु कथा को आप छोटी कहानी समझ सकते हैं वही लघुकथा में कुछ विशिष्ट गुण होना आवश्यक है. वैसा ही लघुकथा का एक विशिष्ट गुण है- 'अनकहा'. सारी बातें लघुकथा में नहीं कह दी जातीं बल्कि अंत में पाठक को उस अनकहे के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया जाता है जिससे प्रभाव कई गुणा बढ़ जाता है.
प्रतिभा वर्मा साहियकार के साथ-साथ एक इतिहास की शिक्षिका भी हैं. उन्होंने कहा कि इन दिनों छात्र एक-दूसरे को धमकाने का चलन बढ़ा है जिससे शिक्षण संस्थान का माहौल बिगड़ता है. हम शिक्षकों का यह कर्त्तव्य है कि छात्रों को पढाई करना सिखने से ज्यादा जरूरी है पहले एक अच्छा इंसान बनना. हमलोग इस चीज की गंभीरता को समझते हुए पहले इस हेतु प्रयास करते हैं.
कार्यक्रम के दौरान शहंशाह आलम के पुत्र और साहित्यानुरागी युवा फैज़ ने हम सब के कई शानदार फोटो खींचे जिनमें कुछ इस रपट में भी शामिल हैं.
कार्यक्रम के पश्चात एक कवि ने दूसरे कवि की पुस्तक में कुछ रचनाओं के कथ्य के प्रति अपनी असहमति प्रकट की जिसे दूसरे कवि ने विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया.
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रपट के लेखक - हेमन्त दास 'हिम'
रपट लेखक का ईमेल- hemantdas2001@gmail.com / editbejodindia@gmail.com