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Saturday, 25 September 2021
"Varta Re Varta" - a Gujarati play presented at Scrapyard, Ahmedabad on 24.9.2021
Tuesday, 22 June 2021
सोशल मीडिया की काव्यधारा
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ईमेल - hemantdas2001@gmail.com
Sunday, 29 November 2020
दीपावली पर कविताएँ / कुंदन आनंद, डॉ. मनोहर अभय, आभा दवे, हेमन्त दास' 'हिम'
आप सब को दीपावली की शुभकामनाएँ!
2 / डॉ. मनोहर अभय
खोलो बंद किवाड़
कुण्डी खटकी है
आहट नहीं हवाओं की
कोई अपना है
गयी रात का
सच्चा सपना है
अभिलाषा की कली
अधखिली चटकी है|
फटे -पुराने बिस्तर की
चादर बदलेगी
घुटन भरे कमरे में
खुशबू टहलेगी
खिड़की के शीशों पर
किरण उजेली अटकी है |
घिरी हुई थी धुंध
कुहासा हँसी उड़ाता था
चपत मार कर घना अँधेरा
सूरज को खटकता था
छिटक रहे हैं बादल
धूप अलगनी पर
लटकी है |
---------
3 / आभा दवे
हर साल दिवाली मनाई जाती है
घर का कोना-कोना दीपमालाओं से जगमगा उठता है
अंधकार को मिटा रोशनी से
भर उठता है
टिमटिमाते सितारे मानो उतर आए हो
जमीन पर और निहार रहे हैं आकाश को
कह रहे हैं मानो देखो मैंने अमावस में भी जगमग दिया इस धरा को
फुलझड़ी पटाखे के साथ हो रहा स्वागत मेरा
मेवे मिष्ठान और फलों की है आज बाहर
खुशी से झूम रही है आज की रात
लक्ष्मी जी की कृपा रहे सब पर
मांग रहे सब यही दुआ
छाई रहे खुशहाली घर में
जगमगाए दीप सदा
पर कवि की सब से यही प्रार्थना
एक दीया अपने दिल में भी ऐसा जला लेना
जिसकी रोशनी दूसरों के घरों को प्रकाशित कर सके
कोरोनावायरस के इस दौर में
उम्मीदों की रोशनी कर सके।
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4 / हेमन्त दास 'हिम'
Thursday, 12 November 2020
सूचना
कुछ व्यक्तिगत कारणों से बेजोड़ इंडिया के संचालक मंडल द्वारा मुख्य पेज और सहयोगी पेजों पर सामग्रियों का प्रकाशन बहुत सीमित कर दिया गया है। FB+ पेज, एडिटोरियल पेज और रिपोर्ताज का प्रकाशन फिलहाल पूरी तरह से बंद रहेगा। असुविधा के लिए खेद है। - संपादक
Monday, 2 November 2020
आईटीएम काव्योत्सव की गोष्ठी आभासी मंच पर 1.11.2020 को सम्पन्न
इस जहाँ से जंग की कब रात काली जाएगी
( FB+ Bejod -हर 12 घंटे पर देखिए )
पढ़ी गई रचनाओं की झलकी प्रस्तुत है-
ख्वाब रंगीन पल-पल दिखाती रही
जिन्दगी बे-वजह मुस्कुराती रही ।
लाख रोका मगर प्यार में हर घड़ी
बेख़ुदी रक़्स अपना दिखाती रही ।
याद आती रही याद जाती रही
बारहा जिन्दगी गुदगुदाती रही ।
वो जफ़ा कर रहे हम वफ़ा कर रहे
आशिकी इस तरह दिल लुभाती रही ।
चाँदनी रात की उस मुलाकात में
दिलरुबा इक गजल गुनगुनाती रही ।
हमने रोका नहीं हमने टोका नहीं
देखते हम रहे दिल चुराती रही ।
बारबां याद आती रही इन्तहां
ख़्वाब में लोरियाँ माँ सुनाती रही ।
वो ही औरों का गम समझते है
बातें मीठी जो कर रहा है तू
तेरे वादों को हम समझते हैं।
इक तराशा हुआ पत्थर है
लोग जिसको सनम समझते हैं।
है गुनाहगार कितने फूलों का
वो जिसे मोहतरम समझते हैं।
फिर लुभाता है बागबां हमको
हम तेरे पेच खम समझते हैं।
राह वो जिस पर चल रहा हैतू
हम तेरा हर कदम समझते हैं।
वक्त गुजरा हुआ ना आयेगा
ये भी दिलशाद हम समझते हैं
इस जहाँ से जंग की कब रात काली जाएगी
भूख से घबरा के क्या बारूद खा ली जाएगी
अम्न की ख़ातिर हर इक से हमने की है दोस्ती
जंग की ख़ातिर न अब ये हमसे पाली जाएगी
बंद दरवाज़ों में छिप जाएँगे दौलत के उसूल
सब को पीछे छोड़ जब आगे कुदाली जाएगी
खेलते हंसते ये बच्चे हैं ज़माने का भविष्य
इनसे गिरते विश्व की हालत सम्भालीं जाएगी
हैं खड़ी सच्चाइयाँ लादे हुए अपने सलीब
जाने किस किस की किशन अर्थी निकाली जाएगी
आप मुझको आज़माना छोड़ दें,
या तो फिर दिल को लगाना छोड़ दें!
ग़ैर की बातों में आकर मेह्रबां,
आप अपना दिल जलाना छोड़ दें!
उनकी गलियों में सितमगर हैं बहुत,
ख़ौफ से क्या आना जाना छोड़ दें!
दोस्ती किजिये नई पर ये न हो,
अपनो से रिश्ता पुराना छोड़ दें!
फूस की कुटिया है तो क्या इस लिए,
आग से रिश्ता निभाना छोड़ दें!
आप को मिलना नहीं 'दिलदार' से,
अब बहाना भी बनाना छोड़ दें!
वरना तो हरेक सांस हम पे भारी है।।
पुरसुकूं तो लगता है हर शख्स यहां,
सबके ज़हनों में मगर जंग जैसे जारी है।।
ये क्या हुआ है, मौसमों के ढंग कुछ अजीब से हैं,
हवाएं गर्म गर्म है, इक स्याह धुंध तारी है।।
सिलसिले तो थे शिकस्तों के हर दौर में,
वैसे कई जीती हुई बाज़ी भी हमने हारी है।।
न सुकून है, न चैन है, ये कैसी बेकरारी है ।
ये बुझती आग है या सुलगी नयी चिंगारी है।।
संग नही छाया चले ना यह चले शरीर ।
अगम लोक को जब चले धनद,भूप या वीर ।।१!!
मन मारे हारे थकित गिने वे जीवन दिन ।
दिनमणि स्वर्णिम प्रभात का हुआ शाम द्युतिहीन ।।२!!
हिरन हरित तृण तुम चर तनिक नही एतराज ।
सावधान, साजिश यहा छिपे हुये वनराज ।।३!!
नदी धार कटकर बनी जब से छाडन झील ।
गयी रवानी तेज सब अब कटे दिन मुश्किल ।।४!!
समय सजग है सारथी देता उसको छोड़ ।
जो परवाह नही करे सोये आलस-क्रोड ।।५!!
ब्याधि मृत्यु का फिर रहा यह चीनी सौगात ।
शोभना ठक्कर -
उसकी भी खामोश ज़ुबाँ है
तुम गम से बेजान हुए हो
तो मुझमे भी जान कहाँ है
चूमा था कभी प्यार से तुमने
हर गुल पे वो अब भी निशा है
पाई हूं तहजीब जहाँ से
वो मक्तबो मेरी माँ है
"शोभना" जाने उसको पता है
कौन छुपा है कौन अयाँ है।
कुमकुम वेदसेन -
या रिश्तो से बंधी एक जान हूं मैं
मैं खुद से अनजान हूं अभी तक
बोझ हूं मैं या किसी की दुआ हूं
दर्द हूं मैं या किसी की खुशी हूं मैं
मैं खुद से अनजान हूं अभी तक
किसी की अरमान हूं मैं
या किसी की पहचान हूं मैं
फिर भी मैं खुद से अनजान हूं
कभी हंसमुख हूं कभी अल्हड़ हूं
चंद्रिका व्यास-
शरद ऋतु के पावस दिन
शशि सिर बोले है चांदनी
तम छाट चांदनी रही है बरस
लिये धवल प्रकाश संग अमृतरस !
खिला शरद पूर्णिमा का निशानाथ
अवनि पर आया जैसे कोई रतिनाथ
देख प्रेम के अंकुर हर दिल में
कलियां भी खिलने को बेताब हुई!
चांद में दिखता है गोपी को
कृष्ण की लीला रास रचाती है
सौंद्रय लिए चंद्रप्रभा भी कुछ कम न थी
कृष्ण को राधा का आभास कराती है !
रूपा सी मनोहर चंद्रप्रभा
कुंदन के जैसी उसकी आभा
शीतलता संग अमृत देता
शरद ऋतु के पूनम का चंदा !
बिन भेदभाव चंद्र की किरणे
पृथ्वी पर, गौदुग्धमें अमृत बरसाती
देख मयंक की चंचल किरणे
धनवंतरी भी है सुख बरसाती !
अंबर से बरसाती चंदा की चांदनी
अमृत दे, रोग से मुक्त करती है
शीतलता देती मन को हर्षाती
पवित्र शरद की पूनम की चांदनी !
भारत भूषण शारदा, कोपर खैराने (नवी मुंबई) -
क्यों हो तुम नाराज बता दो?
क्या यह भूल हुई मेरे से प्यार किया मैंने तेरे से,
प्रेमी के मन की हालत का है तुमको अंदाज़ बता दो? क्यों हो तुम नाराज बता दो?
तुझको अहले दिल समझा मैं पास तेरे आशा ले आया,
किंतु हाय दुर्भाग्य तेरे अंतर को सूखा ही पाया!
बाहर से हो सरस किंतु भीतर से क्यों नीरस समझा दो!
क्यों हो तुम नाराज बता दो?
कुछ अनजाने नहीं हो तुम तो इस रस्ते का सब कुछ जानो !
मैं भी इसी रोग का रोगी कुछ मेरी पीड़ा पहचानो!
भाग्यहीन पर तरस करो अब आओ अपना हाथ बढ़ा दो!
क्यों हो तुम नाराज बता दो?
दोनों एक राह के राही अपना अपना भाग्य जुदा है,
मेरे लिए कठोर बना तू विधि से तुझको आनंद मिला है!
प्यार भरे दो शब्द सुना कर जीवन बगिया को महका दो!
क्यों हो तुम नाराज बता दो?
सतीश शुक्ला, खारघर -
साथ तुम्हारा छूट गया
वक़्त का ऐसा रेला आया
हाथ तुम्हारा छूट गया
जीवन में बहुत कुछ हासिल
और बहुत कुछ छूट गया
जब मिलेंगे हिसाब करेंगे
क्या पाया क्या छूट गया .
ओम प्रकाश पाण्डेय-
बीबी मुझको देख कर बोली
दिवाली आ गयी सर पर
पर तुम बैठे हो अपनी मस्ती में
अब कौन करे सफाई घर का
महरी भी आज नहीं आई है
बीबी मेरी परेशान बहुत है .......१
मकड़ी का जाला फैला है
घर के हर एक कोने में ऐसे
जैसे हो कोई लड़ियां फूलों की
पर झूल रहीं बस गंदगी उसमें
तुमको न कोई चिंता घर की
बीबी मेरी परेशान बहुत है .......२
तुमको न कुछ करना आता
न कुछ करने की है चाह तुम्हें
बस घर में केवल बैठे बैठे तुम
दिन रात पान चबाया करते हो
ऊपर से खाते हो मगज़ भी मेरा
बीबी मेरी परेशान बहुत है ........३
बस एक अकेली मै ही हूं घर मे
जिसके उपर यह सारा बोझ
रोज साथ जो देती थी मेरा
वह बाई भी आज दे गयी धोखा
तुम बैठे बैठे केवल ज्ञान बघारो
बीबी मेरी परेशान बहुत है ..........४
कितनी चाय पिलाई मैंने बाई को
कितने उससे बोले मीठे बोल
साड़ी बर्तन खीर व हलुआ
सभी दिया तो उसे साल भर
पर भूल गयी वो वे सारी बांते
बीबी मेरी परेशान बहुत है .........५
बच्चे भी गये हैं अपने डैडी पर
कोई बंटाता आज हाथ नहीं है
ऐसा लगता है मूझको इस घर में
जैसे हो केवल मेरी ही दिवाली
पर कह देती हूं ध्यान से सुन लो
घर मेरा भी चमकेगा इस दिवाली में
बीबी मेरी परेशान बहुत है ........६
सत्य प्रकाश श्रीवास्तव -
आओ कह दें आज विदाई,
कोरोना और उसकी यादों को।
मौसम आता है त्यौहारों का,
आओ संजोये नई खुशियों को।1।
शरद पूर्णिमा की अमृत वर्षा का,
सबने पान किया है।
खुशी मनाने का एक अवसर,
प्रभु ने हमें दिया है।2।
दीपावली पर लक्ष्मी माता,
सब पर कृपा करेंगी।
पूरी होगी मनोकामना सबकी,
खुशियाँ चतुर्दिक होंगी।3।
यम द्वितीया पर सरस्वती माँ,
आशीष सभी को देंगी।
शान बढ़ेगी आप सभी की,
दिव्य पर्व पर मेरी ओर से,
सभी को शत-शत बधाई।
और कोरोना से रहना है सुरक्षित,
याद रखो मेरे भाई।5।
सुखी रहें सब स्वस्थ रहें,
गोष्ठी की शान बढ़ायें।
खुशियों के आदान-प्रदान से,
सब हर्षित हो जायें।6।
वन्दे भारत वन्दे मातरम्,
वन्दे सब कलम सिपाही।
वन्दे आईटीएम - काव्योत्सव गोष्ठी,
वन्दे कीर्ति तुम्हारी।7।
विश्वम्भर दयाल तिवारी -
भाव-अश्रु तन-भूमि भिगाते ।
क्रूर दनुज भक्षक जीवन के
पथ पर कैसे मनुज कहाते ?
कैसे छल बल वेश ईर्ष्या
कैसी है उनकी करुणाई ?
नेह नहीं दुराचार यहीं
हिंसक बन बैठी तरुणाई ।
विश्व सह रहा पीर बड़ी
पर नहीं समस्या सुलझ रही ।
दनुजों के संग उनके साथी
न्याय व्यवस्था उलझ रही ?
संस्कार शिक्षा देते हैं
मनुजों को तो सहज सुभाव ।
दनुज नहीं सुधरे पा इनको
करते रहते दुर बर्ताव ।
सेवक संत भावना सुन्दर
जनहित में शासन सेवकाई ।
प्रगति नीति मानवता प्रेमी
अन्न बसन गृह सुहृद पढ़ाई ।
आओ खोजें अपने मन में
दर्शन कहाँ झुका रखा है ?
कैसे कौन कैसे हैं हम ही
दर्पण कहाँ छुपा रखा है ?
मन छोटा कर के जा बैठे, तन शिथिल तिमिर में खोने लगे l
धीरज से उनके वो बादल काले अब देश गगन से छंटने लगे l
एक नेक और श्रेष्ठ देश के खातिर जीवन त्याग दिया,
हर प्राणी के आत्म-सम्मान का पूरा - पूरा भाग दिया,
अन्याय जगत का अंत किए, सबको एक सूत्र में पिरोने लगे l
लवलीन दिखे अब देश मेरा, तल्लीन हुए जब जन जन यहाँ,
जब जवान किसान से लगे गले, तब ममता के बादल उमड़ने लगे l
उन्नत प्रतिभा दिखती है मुझे, अब विश्व पटल पर भारत की,
मिट गयीं सभी वो दीवारें, जिन पर नजरें थीं हिकारत की,
है विमल विचार की बयार बही, और हम एक दूजे के होने लगे l
सेवा सदन प्रसाद -
मोबाइल का है जमाना, अब किसी को वक्त नहीं मिलता,
कहीं से भी अब किसी को कोई खत नहीं मिलता।
वो आपस की बातें और गुप-चुप मुलाकातें,
खुला - खुला है सब कुछ ,कहीं कोई छत नहीं मिलता।
सब अपनी - अपनी सोच शेयर करते रहते,
आपस में किसी का किसी से मत नहीं मिलता।
रज़ामंदी ये तेरी या सिर्फ औपचारिकता है ये,
असमंजस में कभी भी औसत नहीं मिलता।
अपनापन या आत्मीयता, बस अंगूठे का संकेत,
दिल को अब पूर्ण आश्वस्त नहीं मिलता।
हेमन्त दास 'हिम' -
मय के दरिया में भी होश बनाये रखना
लोग कहेंगे कि ज़ुल्म करना अब है सही
ऐसे अपनों से तुम ख़ुद को पराये रखना
हर इक गलती पर जो दे सजा-ए-मौत
ऐसी समझ से दिल को बचाए रखना
उजूल फिजूल बोले बस खबर न दिखाये
टीवी ऑफ कर शीशे में सजाएं रखना
प्रेम की बात से कुछ लोग बिगड़ जाते हैं
मंदिर मस्जिद में उनको बिठाये रखना।
दिल को रख महफूज़ औ' दिमाग को बचा
कि माहिर जानते हैं तुमको भुलाए रखना
इंसां के लिए है धर्म या धर्म के लिए इंसां
जरा सा इस पर तुम गौर फरमाए रखना।
राजेश टैगोर -
बाप, बाप होता है
बाप तो आखिर बाप होता है
तू या तुम नहीं सीधा-सीधा आप होता है
बाप तो आखिर बाप होता है
सारी दलीलें धरी रह जाती है
कोई भी तरकीब काम नहीं आती है
सिर्फ आवाज़ की टोन
कर देती है सबको मौन
घने अंधेरे में एक प्रकाश पुंज
कड़ी धूप में छाया,
आंधी तूफान में संबल
विशाल गगन सी छत्रछाया
पीठ पर हाथ
यानी
शाबाशी की थाप होता है
बाप तो आखिर बाप होता है
एक अदृश्य सुरक्षा की दीवार
खूबसूरत सपनों से सजा संसार
जिसका नहीं उससे पूछो
बाप क्या होता है बतलायेगा
बाप के होने का अर्थ समझायेगा
जिसके होने के एहसास मात्र से
छाती चौड़ी हो जाती है
जिंदगी राजधानी की स्पीड से
सरपट दौड़ी जाती है
छोटी मुसीबत में "उई मां " तो
बड़ी तकलीफ़ में "अरे बाप रे " याद आता है
# बापत्व यानी एक कर्तव्य एक जिम्मेदारी
एक समर्पण एक तीमारदारी
अंदर से मोम और ऊपर से
सख्त होना नियति है
अनुशासन का डंडा ही
उसकी सबसे बड़ी संपत्ति है
घर का अलिखित विधान और संंविधान होता है
सबका ही एक बाप होता है
बाप तो आखिर बाप होता है
लो आ गई फिर शुभ दिवाली
प्यारी सी, निराली सी
एक अद्भुत दिवाली,
शुभ संकल्पों की दिवाली।
माटी के दिए जलाएंगे,
घर घर रोशन हो जायेंगे।
दूर रहेंगे हर लालच से,
देशी ही अपनाएंगे।
लो आ गई फिर शुभ दीवाली,
प्यारी सी निराली सी,
एक अद्भुत दिवाली,
शुभ संकेतों की दीवाली।
मन से मन की डोर बांधकर,
खुशियां खूब मनायेंगे,
तम दूर करेंगे मन के भी,
विपदा से ना घबराएंगे।
लो आ गई फिर शुभ दिवाली,
प्यारी सी निराली सी,
एक अद्भुत दिवाली,
शुभ संदेशों की दिवाली।
अपने अपने घर से ही,
खुशियां बांटें और समेटेंगे,
रिश्तों को मजबूती दे कर,
खुशीयों के दीप जलाएंगे।
लो आ गई फिर शुभ दिवाली,
प्यारी सी निराली सी,
एक अद्भुत दिवाली,
शुभ संस्कारों की दिवाली।
दीपों की जग मग तो होगी,
मन में होगी आतिशबाजी,
बिना प्रदूषण बिना शोर गुल,
मन जायेगी ये दिवाली।
लो आ गई फिर शुभ दिवाली
प्यारी सी निराली सी,
एक अद्भुत दिवाली,
शुभ पूजन की दिवाली।
हरिदत्त गौतम 'अमर' -
कैसे रावण का दहन करें हम रावण से अति गिरे हुए?
वह आया नहीं कभी सीता समक्ष, बिन पत्नी लिए हुए।।
तन तन कर भी तन तक न छुआ लंका अशोक वाटिका बीच।
की जोर-जबरदस्ती न तनिक, कैसे कह दें हम उसे नीच।।
मर गया किन्तु प्रतिशोध क्रोध में भी न कभी छोड़ा संयम।
ऐसी वीरता नहीं हम में ज्योतिषी न तापस या कवीन्द्र।।
हम करें राम जी को पाने हर पल बिन भूले राम स्मरण।
हो युद्ध नींद जागरण स्वप्न चाहे समक्ष हो खड़ा मरण।।
गायक वादक नर्तक ज्ञानी ध्यानी योद्धा तत्पर कर्मठ।
अलका पुष्पक जेता दशमुख सा कौन भला त्रिभुवन में भट।।
सुर यक्ष नाग गन्धर्व सभी को जीत सकें क्या ऐसा बल?
अपने अन्दर अवगुण सारे ही भरे हुए हम अति निर्बल ।।
राजेन्द्र भट्टर -
दिन में दहशत और रात में, सपनो में भी सन्नाटा था
एक अजीब खौफ छाया था, बंद हुई थी सारी हलचल,
मन के सागर में रह रह कर , उठता ज्वार और भाटा था
महरी ,कामवालियां सब के ,आने पर प्रतिबंध लगा था
घर का काम,मियां बीबी और बच्चों ने मिल कर बांटा था
सब अपनों ने ,अपनों से ही ,बना रखी ऐसी दूरी थी ,
सबने चुप्पी साध रखी थी ,हर मुख बंधा हुआ पाटा था
पटरी पर से उतर गयी थी ,अच्छी खासी चलती गाड़ी ,
बंद सभी उद्योग पड़े थे ,अर्थव्यवस्था में घाटा था
पूरी दुनिया ,गयी चरमरा ,ऐसा कुछ माहौल बना था ,
कोरोना के वाइरस ने ,सबको बुरी तरह काटा था
अनिल पुरबा 'एहमक' -
दर्द-ए-दिल उसी पैमाने में उभरता जायेगा
बेवफाई का नया तोहफा मिला है उसे,
शायद वो जर्रा-जर्रा बिखरता जायेगा…
कब तक पकडे रखेगा बदलते रिश्तों को,
यह कारवां है, यह तो गुजरता जायेगा…
उसके किरदार में लाखों कमियों होंगी,
ज़िन्दगी की चोंटों से संवरता जायेगा…
दौराहों और चौराहों पर नहीं भटकेगा,
जरूरत पड़ी तो वहीँ ठहरता जायेगा….
अनगिनत ख्वाब टूटे-बिखरे हैं बेचारे के ,
थाम लो, वो गर्दिशों में गिरता जायेगा…
लफ़्ज़ों को इमानदारी से लिख ‘एहमक’,
तेरा अंदाजे बयान और निखरता जायेगा….
नेहा वैद्य -
चूक जाए जो निशाना क्या करें उस वार का।।
**दो क़दम चलने न दे जब एक कांटा पांव को
हो भले अपना पसीना काटता हो घाव को
आचरण अपना बदलना ढ़ंग है उपचार का।
जो समय पर न चले वो तीर क्या तलवार क्या।।
**सच अगर छुपाता फिरे वो सामने आए नहीं
अटकलों के सिलसिलों को तोड़ जो पाए नहीं
तब न कुछ मतलब यहां कर्तव्य का अधिकार का।
जो समय पर न चले वो तीर क्या तलवार क्या।।
**बात खुशियों की चलाकर दर्द क्यों पाले रहें,
क्यों अभी के फैसले हम वक्त पर टाले रहें
सामना हम क्यों करें फिर से नुकीले ख़ार का।
जो समय पर न चले वो तीर क्या तलवार क्या।।
डॉ अलका पाण्डेय -
जितनी बार देखू तेरा चेहरा
हर बार पहले से लगता प्यारा ।
तुझ से मिलकर बातें करना
मुझ को बहुत ही भाता है ।
नथुनी के ऊपर पलकों के नीचे
तेरा ये घूँघट मन को लुभाता है ।
ये आधा चाँद सा झांकता मुखडा
दिल की धड़कनों को संगीत देता है ।
ये बदन पर लिपटे हीरे जवाहरात
दिल में सौत का भान कराता है ।
तेरे कानो में शोभते कर्ण फूल
मन में अगन ज्वाला भड़काता है
उठा ले हौले से ये घुंघटा गौरी
हुस्न के तेरे नगमें गुनगुनाता रहूँ ।
जितनी बार देखूँ तेरा चेहरा
हर बार पहले से लगता प्यारा ।
अशोक वशिष्ठ -
निकट आ रहा शीघ्र ही , दीवाली त्यौहार।
डर है कहीं न फिर बढ़े, कोरोना की मार।।
कोरोना की मार , सावधानी बरतें सब ।
है विचित्र यह रोग, न जाने क्या होवे कब।।
बहुत हुआ नुकसान, नहीं अब जोखिम लेंगें।
अनुशासित रह कर , कोरोना खत्म करेंगे।।
विजय कुमार भटनागर -
अब भी जब तुमसे, तन छू जाता है
मन के अंतरमन को छू जाता है।
मौका मिलते ही मन करता लिपटने का
तुम छटपटा कर, प्रयत्न करती हटने का।
मैं कहता कितनी बदल गयी हो तुम
बच्चों के बच्चे बड़े होगये, कब समझोगे तुम।
अब मैं नहीं रही तुम्हारी प्रेयसि या पत्नी
अब में मां की मां हूं बन गयी हूं नानी।
तुम तो वैसे के वैसे ही, बने रहोगे
न कभी सुधरे थे,न कभी सुधरोगे।
तुम पुरुष हो क्या मुकाबला मेरा तुम्हारा
तुम्हारा प्यार क्षणिक मेरा सागर सा गहरा।
जिसमें है बहिन का प्यार और मां का दुलार
मन ये चाहे,कोई नानी दादी कहे पुकार।
मैं भी अब नानी बन ममतामयी हो गयी हूं
लगता है रब है प्रसन्न, मैं भी प्रसन्न हो गयी हूं।
विजय तुम खुश तो हो,पर प्रसन्न नहीं लगते हो
दुखी हो, क्योंकि मैं तुमसे दूर हो गयी हूं।
कहते हैं की दीवारों के भी कान होते हैं
घर की दीवारें बहरी नहीं होती हैं
घर के लोगों की गुफ्तगू वे सुन लेती हैं
और गुफ्तगू घर, दूर तक पहुँच जाती हैं
समय की बलिहारी है
जो दीवारें कुछ कम सुनती थी
उनके भी आज कान खड़े हो गए हैं
मल्टी निजी टी वी चैनल्स के आने से
टी वी ऐंकर्स, पार्टी प्रवक्ता, समीक्षक
सब में होड़ लगी रहती है
तर्क-शक्ति नहीं लंग- शक्ति परिक्षण की
एक दूसरे पै हावी होने की
अपना ढपली अपना राग अलापने की
दिन भर एक ही खबर दुहराने की
आलम ये है श्रोता के कान बहरे हो गए हैं
और दीवारों के कान खड़े हो गए हैं
पहले कुछ ही घरों की दीवारों के कान थे
जहाँ गुफ्तगू व चटपटी बातें होती थी
आज हर घर में टी वी का शोर शराबा है
फर्क इतना है कि
आज श्रोताओं के कान बहरे हो गये हैं
और दीवारों की कान खड़े हो गए हैं .