आज के समय को तौल रही एक सजग गृहिणी
पुस्तक-समीक्षा / हेमन्त दास 'हिम'
अच्छी रचना का सबसे बड़ा गुण उसका सामाजिक सरोकार और उद्देश्य में ईमानदारी होता है, उसका शिल्प और शब्द-सौंदर्य नहीं . समाज को देख पाने और समझ पाने के लिए आपका नामचीन होना आवश्यक नहीं होता. और सच कहा जाय तो वे लोग जो अभी अधिक प्रसिद्ध नहीं हुए हैं, उनके विचारों में अधिक उन्मुक्तता होती है. ये बिना लाग-लपट के और बिना नफा-नुकसान का ख्याल किए अपनी बातें रखते हैं, सिर्फ और सिर्फ अपने अंदर की अकुलाहट को बाहर प्रकट करने के लिए. उनकी यह अकुलाहट सामाजिक विकृतियों के खिलाफ विद्रोह का ही दूसरा नाम है.
दिनांक 2.7.2022 को पठारे प्रभु हॉल, खार, मुम्बई में शोभा स्वप्निल रचित कविता-संग्रह "सत्य और मिथ्या की तुला में" का लोकार्पण हुआ. शोभा स्वप्निल एक कुशल गृहिणी होने के साथ-साथ एक संवेदनशील और उदात्त विचारों वाली कवयित्री भी हैं. उनकी कविताओं में विविध स्वर हैं - दार्शनिक मंथन, सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं की विवेचना, नारी संघर्ष की कशमकश और भी बहुत कुछ. परंतु यह भी मानना होगा कि उनका कवित्व अभी उभर रहा है, और उभरेगा.
आइये, उनके पुस्तक की कुछ रचनाओं की झलक देखें.
"क्या फूल का खुशबू लुटाना पाप है?
वह तो बंटती है और बिखरती भी है.
सत्य और मिथ्या की तुला में
यह सांस्कृतिक भी है
और प्राकृतिक भी
फूल से गंध कभी अलग नहीं होती".
कवयित्री दो टूक कहती हैं कि व्यष्टि और समष्टि दोनों स्तरों पर प्रेम की नितांत आवश्यकता है जिसे उन्होंने 'प्राकृतिक' और 'सांस्कृतिक' जरूरतों के रूप में रखा है.
"मुंडेर तोड़ बह निकली
नयनों की झील
कपोलों पर तड़प कर
दम तोड़ती
सपनों की मछलियाँ"
"जिन्हें दिखती है
बस अपनी पीड़ा
जो बस अपनी कराह
अपनी आह तौलते हैं"
"अपने ही मजहब धर्म को
क्यों श्रेष्ठ मानते हैं हम
जबकि सब के मूल में कोई
विश्वास है"
"बिन सूचना तुमने
कब्जा किया है
हृदय-प्रदेश पर
और मैं अपनी ही सल्तनत के छिन जाने पर भी
देशद्रोही की तरह
देती हूँ तुम्हारा साथ
दिन-रात अपनी हर सोच में
तुम्हें बसाकर
तुम्हारा हुक्म बजाने को"
"फिर तुम आना
पाहुन बनकर
नहीं कहीं किरायेदार बनकर
और कब्जा कर लेना
मकान मालिक की तरह!"
"पोल खुल गई
रिश्तों की
सम्बंधों की भी
जबकि फटी तो केवल
जेब थी!"
"मैंने मनुष्य को बनाया
मनुष्य अब मुझको बना रहा है!"
"खो गई है वो छोटी डिबिया
जिसमें मैंने रख छोड़ा था
जीवन का उद्देश्य.
मैं जब भी कोशिश करती हूँ
उस छोटी डिबिया को ढूँढने की
मेरे हाथ में आ जाते हैं
कुछ छोटे बड़े अन्य डब्बे
और फिर से इन्हीं
अन्य डिब्बों में खो जाती हूँ मैं"
"तुम एक हो
विभिन्न रूपों में हो
फिर भी तुमने क्यों
हर प्राणी को उलझाया
धर्म, मजहब के नाम पर
खुद से ही लड़ते हो
खुद से ही डरते हो
खुद ही को खुद का
दुश्मन बनाया"
"नयन झील में
जब जम जाती है
दर्द की वर्फ
और मुड़ जाती हैं धाराएँ
भीतर की ओर
तो समूचा अस्तित्व
बदल लेता है रूप
और झील
परिवर्तित हो जाती है
अंधकूप में
अंधकूप से सागर में
सागर से भँवर में
और भँवर चक्र में फंसकर
डूब जाते हैं सब रिश्ते
यह दर्द की दावाग्नि
जला डालती है स्वयं को
तो कभी परिवार को
तो कभी समाज को"
होकर भावविह्वल
जीना चाहती हूँ
अक्षर अक्षर किताब
हर पल का हिसाब
पढ़ना चाहती हूँ
बूँद बूँद प्यास
लेकर चातक की आस
पीना चाहती हूँ.
तार तार जख्म
बिना किसी मरहम
सीना चाहती हूँ"