कविता तो मनुष्यता की मातृभाषा है
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पटना के संस्कारशील पुस्तकालय में पाटलिपुत्रा काव्य महोत्सव का आयोजन, नवभारती सेवा न्यास सीतामढ़ी के तत्वावधान और कुंदन आनंद के संयोजन तथा प्रीति सुमन के आयोजन में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।
कुछ कमियों के बावजूद यह समारोह कई मायनों में भव्य और यादगार कहा जा सकता है क्योंकि इस कवि सम्मेलन में सीतामढ़ी, दरभंगा, समस्तीपुर, बक्सर, आरा, गया, हाजीपुर तथा विभिन्न छोटे-बड़े अंचलों से लगभग चालीस कवि और कवयित्रियों को आमंत्रित किया गया था।
इस समारोह के मुख्य अतिथि ध्रुव गुप्त के निर्देशानुसार सभी कवियों को अपनी मात्र एक कविता पढ़नी थी। अच्छी बात यह रही कि इसका सख्ती से पालन हुआ और इस अनुशासन के कारण दो-तीन घंटे के अंदर लगभग चालीस कवियों ने अपनी कविताओं का पाठ किया। इनमें से कुछ कविताओं को छोड़कर ढेर सारी ऐसी कविताएं सुनने को मिली जो नए और युवा प्रतिभाओं द्वारा बानगी के तौर पर प्रस्तुत की गई थी और उन्होंने बेहतर ढंग से पाठ भी किया।
वरिष्ठ एवं युवा कवि- कवयित्रियों में लगभग सभी ने अपनी विविध विषयों पर आधारित गीत, ग़ज़ल एवं कविताएं प्रस्तुत कर कविता की जीवंतता के प्रति आशान्वित किया.
"कविता कल और आज" विषय पर संबोधन में वरिष्ठ गज़लकार-साहित्यकार ध्रुव गुप्त, अन्य मुख्य वक्ता वरिष्ठ गीतकार-साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी तथा वरिष्ठ पत्रकार और कवि नीलांशु रंजन और घनश्याम की सहभागिता रही.
काव्य पाठ करने वाले प्रमुख कवि-कवयित्रियों में ध्रुव गुप्त, भगवती प्रसाद द्विवेदी, कवि घनश्याम, नीलांशु रंजन, आराधना प्रसाद, नीलम श्रीवास्तव, सिद्धेश्वर, नील कुमार, कुंदन आनन्द, प्रीति सुमन, चन्दन द्विवेदी, नवनीत कृष्णा, उत्कर्ष आनन्द भारत, कुमारी स्मृति, अनुराग कश्यप ठाकुर, मुकेश ओझा, स्वराक्षी स्वरा, रणजीत दुधू के साथ ने भाग लिया.
कवि सम्मेलन के आरंभ में "कविता कल और आज" विषय पर गंभीरता से अपना विचार व्यक्त करते हुए कवि ध्रुव गुप्त ने कहा कि कविता को कई तरह से दिग्भ्रमित करने का प्रयास किया गया है । कविता हमारे सुख -दुख का साथी है! कविता से हमारा रिश्ता छठे दशक से जारी है। उसके बाद पता नहीं क्या हुआ कि सबकुछ तहस-नहस हो गया।
कविता के आंदोलन में भूखी कविता, शमशानी कविता लिखी जाने लगी। इन लोगों ने कविता को सत्यानाश किया । इसके बाद जनवाद, प्रगतिवाद कह कर तो किसी ने कविता को दोहा बनाकर बनाकर इसे बर्बाद कर दिया। पिछले कई वर्षों से कविता से लोगों का संबंध कट रहा है ।कविता को लोगों ने सपाटबयानी बना दिया है।पिछले 15 वर्षों में कविता में इतनी बौद्धिकता आ गई कि कविता आम पाठकों के लिए दुरूह समझी जानी लगी।कविता किसी के लिए जरूरत महसूस नहीं होती रही ।
कविता के आंदोलन में भूखी कविता, शमशानी कविता लिखी जाने लगी। इन लोगों ने कविता को सत्यानाश किया । इसके बाद जनवाद, प्रगतिवाद कह कर तो किसी ने कविता को दोहा बनाकर बनाकर इसे बर्बाद कर दिया। पिछले कई वर्षों से कविता से लोगों का संबंध कट रहा है ।कविता को लोगों ने सपाटबयानी बना दिया है।पिछले 15 वर्षों में कविता में इतनी बौद्धिकता आ गई कि कविता आम पाठकों के लिए दुरूह समझी जानी लगी।कविता किसी के लिए जरूरत महसूस नहीं होती रही ।
कवि कविता लिख रहा है। कवि ही उसे समझ रहा है। कविता को कवि ही पढ़ रहा है। कवि ही उसकी समीक्षा भी कर रहा है।यह स्थिति हो गई है कविता की। ज्यादातर कविगण एक दूसरे की पीठ खुजालाने का प्रयास कर रहे हैं। कवि एक दूसरे की कविता को पढ़ा रहे हैं । पाठकों से कविता की दूरी बढ़ती जा रही है । कविता के लिए पुरस्कार भी प्रायोजित हो रहे हैं। कोई नहीं सोच रहा है कि कविता कहां जा रही है?
सोशल मीडिया में फेसबुक के द्वारा कुछ कविताएं जरूर पढ़ी जा रही है। लेकिन कविता को पुस्तकों में पढ़ने के लिए कोई तत्पर या बेचैन नहीं है। अब कोशिश कवियों को करनी है कि वह ऐसी कविताएं लिखे जो पाठकों से सीधे जुड़ सकें । वह सपाटबयानी ना हो। मुक्त छंद में भी छंद हो।
कवि नीलांशु रंजन ने संदर्भित विषय पर कहा कि- " हम तो अकेले ही चले थे सफर में ,लोग आते गए कारवां बनता गया। संस्कारशाला का कारवां भी इसी प्रकार बढ़ रहा है । कविता के स्वरूप में परिवर्तन कुदरत का नियम है। अगर तब्दीलियां ना आए परिवर्तन ना आए ,तो यह जो हमारा समाज है हमारा विचार है, वह कुंठित हो जाएगा । दो पीढ़ियों के बीच की सोच का जो फांसला होता है, वह परिवर्तन लाता है। अब सवाल है कि कविता में किस तरह के परिवर्तन आए हैं।
आज कवि का जीवन बहुत दूर हो गया है। व्यवसायीकरण है, वैश्वीकरण के तौर पर भी हम प्राचीनतम समय से गुजर रहे हैं। जब जीवन सहज और सरल होगा तभी कविता भी सहज सरल होगी। आज की कविता में यदि हम लयात्मकता खोज रहे हैं, यह हमारी भूल है ।
जो परिवर्तन और तब्दीलियां आई है उस कारण कविता लयात्मकता से अलग होकर वैचारिक हो गई है। और उनमें संवेदनाएं लबालब है। अब बच्चन की मधुशाला लिखने वाला समय नहीं है। आज मुक्तिबोध, निराला , वाली कविता सपाटबयानी है, यह आरोप लगाना गलत है।
संवेदनाएं तो आज भी है। कविता को बचाने का संवेदनाओं को बचाने का आज भी प्रयास किया जा रहा है।
"जो सोचता नहीं / वह मर जाता है/
और जो मर जाता है / वह सोचता नहीं!"
यदि कोई कभी-कभी ऐसी कविताएं लिखता है तो क्या इसमें संवेदना नहीं है ?
और जो मर जाता है / वह सोचता नहीं!"
यदि कोई कभी-कभी ऐसी कविताएं लिखता है तो क्या इसमें संवेदना नहीं है ?
मुक्तिबोध भी कहते थे कि जब संवेदना बची रहेगी तभी कविता भी बेचेगी । आज संवेदना बची हुई है इसलिए आज कविता जिंदा है।
इन दोनों विचारों के मद्देनजर भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि - "मनुष्यता जब तक बची रहेगी तभी तक कविता जिंदा रहेगी। कविता में बहुत कुछ सकारात्मक हो रहा है। कविता को किसी ने मनुष्यता की मातृभाषा कहा है। किसी ने कहा कि यह भाषा में आदमी होने की तमीज है । दरअसल कविता हमेशा मनुष्यता के साथ जुड़ी रही है।
हमारी संवेदना को जो जोड़े वही कविता है। कई आंदोलन हुए कविता में लेकिन कविता का जो छायावाद युग था वह अब तक का स्वर्ण युग था। रामधारी दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली, जानकी वल्लभ शास्त्री, नागार्जुन जैसे कई रचनाकार अपनी गहरी संवेदना के लिए पहचाने गए। और सभी ने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज को जाग्रत किया।
समकालीन कविता के महारथियों ने क्यों सपाटबयानी कविता को ही कविता माना? गीत ग़ज़ल को समकालीन माना ही नहीं ! जब भी समकालीन कविता विशेषांक निकला, तो उसमें गीत गजल को बाहर कर दिया गया ।यह गलत है ।
समकालीन कविता में, आज की समस्याओं को, आज के समय को रेखांकित किया गया ।जब से कविता को आमजन से जुड़ने की बात हुई तब से कविता को लोगों ने मंच पर उसका विकृत रूप दिया। हास्य के नाम पर हास्यास्पद कविताएं लिखी और पढ़ी जाने लगी। जिसमें कविताएं तो होती ही नहीं ।सिर्फ चुटकुले को केंद्र में रखकर मंच पर कविताएं पर ही जाने लगी।
समकालीन कविता में, आज की समस्याओं को, आज के समय को रेखांकित किया गया ।जब से कविता को आमजन से जुड़ने की बात हुई तब से कविता को लोगों ने मंच पर उसका विकृत रूप दिया। हास्य के नाम पर हास्यास्पद कविताएं लिखी और पढ़ी जाने लगी। जिसमें कविताएं तो होती ही नहीं ।सिर्फ चुटकुले को केंद्र में रखकर मंच पर कविताएं पर ही जाने लगी।
इस तरह जो विकृति का दौर शुरू हुआ, आम जनता ने समझा कि यही कविता है। जबकि सच्चाई कुछ और है ।
आज जरूरत इस बात की है कि मंच के जो कवि हैं ,उनसे जो दूरी बनी है, उसे पाटा जाए । मंच के कवि जिसका कोई स्थान नहीं है और वे ही तथाकथित बड़े कवि समझे जा रहे हैं। उन लोगों ने आम जनता में भ्रम पैदा कर दिया जो वे रच रहे हैं वहीं आज की समकालीन कविता है।
इस तरह ऐसी कविताओं से आम पाठक कटने लगा। अब जरुरत इस बात की है कि मंच और पत्रिकाएं दोनों एक दूसरे से जुड़े। सामने आए । तभी कविता बची रहेगी।
कविताओं की विश्वसनीयता इसलिए घट रही है कि इस लेखन और सृजन में अंतर आ गया है। समय रहते संभलिए। भीतर से कुछ और और लेखन में कुछ और। जब लेखन की तरह है सृजन हो आचरण हो तभी सृजन को बल मिलेगा और कविता जिंदा रहेगी।
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आलेख और छायाचित्र - सिद्धेश्वर / घनश्याम
प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
रपट के लेखक का ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ब्लॉग का ईमेल - editorbejodindia@gmail.com
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