Saturday 28 September 2019

लिटिल थेस्पियन / कोलकाता से देश में रंगमंच का अलख जगाती संस्था का रजत जयंती वर्ष

लिटिल थेस्पियन का रजत वर्ष
20 सितम्बर 1994 – 20 सितम्बर 2019 तक सफरनामा

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1994 में स्थापना के बाद शीघ्र ही लिटिल थेस्पियन ने भारतीय रंगमंच में अपने लिए एक अलग जगह बनाई हैl लिटिल थेस्पियन एक अखिल भारतीय नाट्य संस्था है जो सांस्कृतिक तथा व्यव्सयायिक आधार पर रंगकर्म के लिए प्रतिबद्ध है l फलतः इनके अनुसार समाज में कला और संस्कृति का विकास ही संस्था का मूल उद्देश्य है l इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु यह संस्था सिर्फ प्रेक्षागृहों तक ही सीमित नहीं है बल्कि विभिन्न इलाकों और कस्बों में जाकर खुले आँगन में भी रंगमंच के माध्यम से ये संस्था सामाजिक चेतना के नाटक समय समय पर प्रस्तुत करती रहती है| संस्थापक डॉ.एस०एम० अजहर आलम और उमा झुनझुनवाला ने प्रारम्भ से ही लिटिल थेस्पियन को बहुभाषी बनाने का निर्णय कर लिया था और उस पर पूरी तरह अमल किया| इसलिए यह नाट्य संस्था हिंदी और उर्दू - इन दोनों भाषाओं में ही लगातार प्रदर्शन करती है | 

आइये लिटिल थेस्पियन की अब तक की उपलब्धियाँ क्या  हैं ,  इस  पर  विचार करें | 

राष्ट्रीय नाट्य उत्सव ‘जश्न-ए-रंग’- कोलकाता:  में ये अपनी तरह का एकलौता नाट्य उत्सव है जो 2011 से लगातार आयोजित किया जा रहा है| अब तक 8 उत्सव हो चुके हैं: कथा कोलाज उत्सव (2011), जश्न-ए-टैगोर (2012), बे-लगाम मंटो (2013), जश्न-ए-रंग (2014), कृष्ण और भीष्म (2015), जश्न-ए-रंग (2016). जश्न-ए-रंग (2017)और जश्न-ए-रंग (2018)|

इस वर्ष इनका नौवां फेस्टिवल जश्न-ए-रंग (2019) 17 नवम्बर से 24 नवम्बर तक चलेगा |

रंगमंच की पहली उर्दू-मैगज़ीन ‘रंगरस’-  
लिटिल थेस्पियन की एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि है रंगमंच की पहली उर्दू-मैगज़ीन ‘रंगरस’ का प्रकाशन | देश में सभी भाषाओँ में कई कई पत्रिकाएँ मिल जाएँगी रंगमंच पर | मगर उर्दू भाषा में रंगमंच पर अलग से कोई पत्रिका नहीं है | सन 1906 में उर्दू में एक पत्रिका आई थी ‘शेक्सपियर’ के नाम से मगर वह एक अंक के बाद ही बंद हो गई| रंगरस में नाटकों पे आलेख और रिपोर्टिंग के साथ साथ नाटकों को भी प्रकाशित किया जा रहा है | रंगरस को देशभर से बड़ी सराहना मिल रही है| चूँकि उर्दू में नाटक और रंगमंच के हालात उतने मजबूत नहीं हैं, यही वजह है कि अब रचनाओं/ लेखों की कमी का सामना भी करना पड़ रहा है| उसके बावजूद ये प्रतिबद्ध हैं कि इसका प्रकाशन बंद नहीं करेंगे|

अभिनयात्मक पाठ की कार्यशाला (Dramatic Reading of Story and poetry) -

लिटिल थेस्पियन ने कहानी और कविता के पाठ में
अभिनय पक्ष की महत्ता को एक आवश्यक अंग मानते हुए भारतीय भाषा परिषद के साथ मिलकर "कविता और कहानी का अभिनयात्मक पाठ" के प्रशिक्षण के लिए 2016 से तीन महीने का एक सर्टिफिकेट कोर्स प्रारम्भ किया है| कलकत्ता में यह कार्यशाला इकलौती कार्यशाला है|

सेमिनार का आयोजन : 2010 से यह  संस्था लगातार थिएटर पर दोनों भाषाओं में सेमिनार करती आ रही हैं| कहानी के रंगमंच, रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाटक, सआदत हसन मंटो, कृषण चंदर, भीष्म साहनी के अलावा इन्होंने थिएटर करने की परेशानियों को लेकर स्कूल, कॉलेज और अखबारों को लेकर भी सेमिनार किया | इसके अलावा दो सालों से उर्दू थिएटर के सभी पहलुओं पर भी अलग से बातचीत करने के लिए पर कुल-हिन्द नेशनल उर्दू थिएटर कांफ्रेंस साथ ही भी आयोजित कर रहे हैं|

बच्चों का रंगमंच बच्चों के द्वारा- 
बच्चों में रंगमंच की समझ विकसित करने के लिए ये लोग बच्चों के लिए बच्चों द्वारा ही नाटक तैयार करवाते हैं| इसके तहत राजकुमारी और मेंढक, हमारे हिस्से की धुप कहाँ है, धरती जल वायु, शैतान का खेल, ओल-ओकून आदि नाटक काफी सफल रहें हैं|

अब तक की प्रस्तुतियाँ –
एस. एम. अजहर आलम के निर्देशन में उनका ही लिखा नाटक रूहें, नमक की गुड़िया, रक्सी को सृष्टिकर्ता, सुलगते चिनार, राहुल वर्मा का धोखा, भीष्म सहनी का कबीरा खड़ा बाज़ार में, उमा झुनझुनवाला का रेंगती परछाइयाँ, यूजीन यूनेस्को का गैंडा, टेनेसी विलिएम्स का पतझड़, इस्माइल चुनारा का सवालिया निशान, गिरीश कर्नाड का हयवदन (नेपाली में), ज्ञानदेव अग्निहोत्री का शुतुरमुर्ग, बलवंत गार्गी का लोहार, अविनाश श्रेष्ठ का महाकाल, मंटो की कहानियों में ठंडा-गोश्त, खोल दो, औलाद, सहाय और, बू, ज़हीर अनवर का ब्लैक सन्डे आदि कई नाटक

उमा झुनझुनवाला के निर्देशन में :
मनोज मित्रा का अलका, इस्माइल चुनारा का यादों के बूझे हुए सवेरे, चंद्रधर शर्मा गुलेरी का उसने कहा था, मंटो की कहानियों में खुदा की कसम और लाइसेंस, रवीन्द्रनाथ टैगोर की आखरी रात और दुराशा, प्रेमचंद की कहानी बड़े भाई साहब और सद्गति, अज्ञेय की बदला, मोहन राकेश की मवाली इकबाल मजीद की सुइंयों वाली बीबी, कृष्ण चंदर की पेशावर एक्सप्रेस और शहज़ादा, मुज़फ्फ़र हनफ़ी की बजिया तुम क्यों रोती हो तथा इश्क़ पर जोर., इस्माइल चूनारा की दोपहर, मधु कांकरिया की फाइल, अनीस रफ़ी की पॉलिथीन की दीवार -, निर्देशन- उमा झुनझुनवाला) आदि|  इनके निर्देशन में इनका ही लिखा नया हजारां-ख़्वाहिशां का अभी हाल में मंचन हुआ|

इसके अलावा लिटिल थेस्पियन की कोशिश है कि बाहर के प्रतिष्ठित निर्देशकों को भी बुलाये| इस कड़ी में संगीत नाटक अकादेमी से सम्मानित निर्देशक मुश्ताक़ काक के निर्देशन में इन्होंने "बाल्कन की औरतें" नाटक किया|

नाटकों और कहानियों के अनुवाद और लिप्यन्तरण में भी लिटिल थेस्पियन काफी सक्रिय है ताकि प्रख्यात और श्रेष्ठ साहित्य ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंच सके|
उर्दू से हिंदी -
1. यादों के बुझे हुए सवेरे (इस्माइल चुनारा) - राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित
3.लैला मजनू (इस्माइल चुनारा) दृश्यांतर, नई दिल्ली से प्रकाशित

अंग्रेजी से हिंदी -
4. एक टूटी हुई कुर्सी एवं अन्य नाटक - ऑथर्स प्रेस से प्रकाशित (इस्माइल चुनारा के Afternoon, A Broken Chair, The Stone & The Orphanage, उमा)
5. धोखा (राहुल वर्मा के अंग्रेज़ी नाटक ‘Truth & Treason’ से, उमा)
6. बलकान की औरतें (जुलेस तास्का के ‘The Balkan Women’ से, उमा)
7. गैंडा (यूजेन इओनेसको के The Rhinoceros से, अज़हर )
8. पतझड़ (टेनेसी विलियम्स के The Glass Menagerie से अज़हर)
9. चेहरे (Tony Devaney, अज़हर)
10. सवालिया निशान (इस्माइल चुनारा के They Burn People, They Do से, अज़हर)
11. सुलगते चिनार (मुल्कराज आनन्द डेथ ऑफ़ अ हीरो पर आधारित, अज़हर)

बंगला से हिंदी -
12. मुक्तधारा, टैगोर, (उर्दू में साहित्य अकादेमी से प्रकाशित अनुवाद - उमा और अज़हर आलम)
13. विभाजन (मूल/अभिजीत कारगुप्ता, उमा)
14. गोत्रहीन (मूल/रुद्रप्रसाद सेनगुप्ता, अनुवाद- उमा),
15. अलका (मूल/मनोज मित्र के अलोका नोंदर पुत्रो कोन्या, अनुवाद -उमा)

निर्माण और निर्देशन के कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों में से पश्चिम बंग नाटक अकादमी का पुरस्कार भी महत्वपूर्ण है| राज्य सरकार की तरफ से इनके निर्देशक अज़हर आलम, नमक की गुड़िया के लिए सर्वश्रेष्ठ पटकथा तथा सवालिया निशान के लिए सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के ख़िताब से नवाज़े जा चुके हैंl

यह भी अच्छी बात है कि लिटिल थेस्पियन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा आयोजित भारत रंग महोत्सव में अब तक 5 बार हिस्सा ले चुका है| साथ ही देश के सभी महत्वपूर्ण नाट्य उत्सवों में लिटिल थेस्पियन की प्रस्तुतियां लगातार रहती हैंl

इस तरह से हम पाते हैं कि आधुनिक भारतीय रंगयात्रा में कोलकाता से संचालित संस्था "लिटिल थेस्पियन" का काफी महत्वपूर्ण योगदान है
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आलेख - उमा झुनझुनवाला
छायाचित्र - लिटिल थेस्पियन
लेखिका का ईमेल - jhunjhunwala.uma@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com










 




Thursday 26 September 2019

प्रलेस एवं कालेज ऑफ कामर्स एंड साइंस द्वारा शंभु पी सिंह के कथा संग्रह "दलित बाभन" का लोकार्पण पटना में 24.9.2019 को सम्पन्न

"प्रेम और करुणा का बोध कराती है, शंभु पी सिंह की कहानियां"

(हर 12 घंटों पर एक बार जरूर देख लें - FB+ Watch Bejod India)


"प्रगतिशील लेखक संघ एवं कालेज आफ कामर्स एंड साइंस के संयुक्त तत्वावधान में, चर्चित कथाकार शंभु पी सिंह के कथा संग्रह " दलित बाभन" का लोकार्पण एवं विचार गोष्ठी (समकालीन हिन्दी कहानियां और बिहार) का आयोजन, कालेज आफ कामर्स के सभागार में आयोजित की गई।

शिवनारायण, डॉ. रामवचन राय, शैलेश्वर प्रसाद सिंह, अंकुश, जयप्रकाश, रामयतन प्रसाद यादव, सिद्धेश्वर, घनश्याम, नीतू नवगीत आदि की इस कार्यक्रम में उपस्थिति रही।

विशिष्ट अतिथि कालेज आफ कामर्स के प्राचार्य तपन कुमार शांडिल्य ने कहा कि - "दलित की भावनाओं को सकारात्मक रुप से सोचने को मजबूर करती है कथाकार शंभु पी सिंह की लोकार्पित पुस्तक "दलित बाभन" में प्रकाशित कहानियां!"

वरिष्ठ शायर कासिम खुर्शीद ने कहा कि - "लेखक की आंतरिक शब्द-यात्रा चलती रहती है। 'एक्सिडेंट', 'खेल-खेल में' इनकी श्रेष्ठ कहानियां रही है। अपनी खामोशी को तोड़ने की कोशिश की है शंभु जी ने अपनी कहानियों के माध्यम से। जातीय वर्गभेद पर लम्बी चर्चा हो सकती है। किंतु सच यह है कि हमारे समाज में दो ही जातियां हैं- 'अमीर' और 'गरीब'! जिस पर कम ही विचार किया जाता है। तुम ब्राह्मण हो कर अछूत हो और मैं दलित हो कर अछूत हूं। शंभू जी कहते हैं अपनी कहानियों में कि क्या समाज इसे स्वीकार करता है? क्या समाज सो रहा है?

संचालन करती हुईं रानी श्रीवास्तव ने कहा कि - "सिर्फ बदलाव के लिए कोई राह बदल ले, ऐसा भी नहीं होना चाहिए। सिर्फ कंटाव बाभन की कहानी इस पुस्तक में नहीं है बल्कि दहेज की विसंगतियों पर प्रहार कर लेखक ने नारी विमर्श को नए ढंग से सामने रखा है।"

नारी मन को छूने वाली कथा लेखिका मृदुला बिहारी ने "दलित बाभन " पुस्तक को लोकार्पित करते हुए कहा कि बिहार के रचनाकारों के प्रति मेरी हार्दिकता बनी रहती है। शंभू की रचनाओं में जीवन दर्शन दृष्टिगोचर होता है। इनकी कहानियों को पढ़ते वक्त मन में सद्भावना की भावना आती है। उनकी एक कहानी में अत्यंत मार्मिक प्रसंग प्रस्तुत हुआ है - "खूंटे में बंधी गाय सोचती है कि मैं तो उन महिलाओं से बेहतर हूं, जो घर की परंपरागत खूंटे में इस तरह बंधी हुई है कि वह उसे तोड़ कर भाग भी नहीं सकती। मैं तो खूंटा तोड़ कर भाग भी सकती हूं।" हमारे समाज में तो, रोज नए नए सवर्ण आ रहे हैं, हमारा शोषण करने के लिए। जातिगत प्रसंग हमें दिग्भ्रमित भी करती है।

उन्होंनें कहा कि - "कहानी कभी पुरानी नहीं होती। कथावाचकों का देश है मेरा। इसलिए तीन घंटे की फिल्मी कहानी हम शौक से देख लेते हैं। शंभु की कहानियां अंतर्मुखी है। भीतर तक झकझोर कर रख देती है। सच्चाई दिल की बात जरुर सुनती है। तमाम बाधाओं कंटिकाओं के बावजूद, सत्य का पलायन नहीं होता। कहानी का उद्देश्य ही होना चाहिए - "जीवन को सुन्दर बनाना!"

कवि राजकिशोर राजन ने कहा कि- "जातीय व्यवस्था धर्म से भी अधिक मजबूत दिखाई देता है। इसलिए अगर मैं इन आस्थाओं पर इस पुस्तक के माध्यम से प्रहार करूंगा तो बात विवादास्पद हो सकती है।

इनकी कहानियों का आरंभ पति-पत्नी की झंझट वाली चर्चा से होता है जो हमारे साहित्य में एक आमूल परिवर्तन का प्रतीक है। और हमारे देश में इसका परिचायक है शंभु की कहानियां। एक उकताया हुआ पति और झल्लाई हुई पत्नी नजर आती है शंभु की जीवंत कहानियों में जो आसान बात नहीं है।   कहानी के अंत में आखिरी पैरा संवहार करती है। और वह महत्वपूर्ण भी है।

मुख्य वक्ता डॉ. शिवनारायण ने कहा कि - "कहानी का शिल्प जबरदस्त है। कहानी का अंत कहानी का प्राणतत्व है। शंभु जी प्रयोगधर्मी कथाकार हैं। देश इतना विकास कर रहा है किंतु समाजिक बदलाव नजर क्यों नहीं आता? पाठकों के सामने कथाकार यह सवाल छोड़ जाता है।

इतिहास पढ़ने की जरूरत नहीं है। आप शंभु जी की कहानी को पढ़ लीजिए, समाज की तस्वीर नजर आ जाएगी। एक कठिन समय से हमारा समाज गुजर रहा है। साहित्य में हित कल्याण से जुड़ा है और जहां हित है वहां साहित्य है। एक कथाकार समाज के शाश्वत यथार्थ को सामने रखता है। किसी भी स्थिति को जीवंत बना देता है ।

मुख्य अतिथि प्रख्यात साहित्यकार डॉ. रामवचन राय ने अपने अनोखे अंदाज में कहा कि -"कौन कहता है कि हम कठिन समय से गुजर रहे हैं? उन्होंने कहा कि "कठिन नहीं, बहुत आसान समय से हम गुजर रहे हैं। बहुत सारी विचारधाराएं प्रकट करने की स्वतंत्रता है। अच्छे कपड़े, अच्छा मोबाइल, अच्छी टीवी, अच्छा फर्नीचर , क्या नहीं है हमारे पास? यहां तक कि साहित्य के साथ जैसा सलूक कर लीजिए, आज ऐसी छूट है जो पहले नहीं थी।

लोकार्पण के साथ विचार गोष्ठी का विषय दिया गया है। इस बात को सभी वक्ता लोकार्पण की बात करते हुए भूल गए कि विचार गोष्ठी का विषय भी है और दूसरे कथाकार की चर्चा करना तो हम भूल ही गए। या तो लोकार्पण के साथ विचार गोष्ठी रखी ही नहीं जाती।

मेरे विचार से कहानी तो कतरन की कला है। उपन्यास में विस्तार होता है! एक कथाकार पूरे बदन को नहीं छूता किसी एक अंग में सुई चुभोता है और अपना असर दिखला देता है।

शंभु की कहानी प्रेम और करुणा की कहानी है। प्रेम और करुणा में संतुलन बनाए रखना, कथाकारों का काम है। कहानी कम शब्दों में अधिक कहने की कला है, जो शंभु की कहानियों में दिखता है। भाषा, कला, शब्दों का करिश्मा दिखता है "सेवानिवृति" कहानी में जिसका नायक घर में प्रताड़ित महसूस करतत है।  35 साल की नौकरी करने के बाद भी परिवार वालों की अधिक अपेक्षा नायक को निराश करता है। यानी सेवानिवृत्त होकर भी वह घर में ही उपेक्षित महसूस करता है।

प्रेमचंद के बाद भी कई सार्थक रचनाकार सामने आए हैं, बिहार के कथाकारों में असीम संभावना रही है। शंभु की 'पटनदेवी' कहानी श्रेष्ठ है। धर्म के भीतर भी प्रेम की सरिता बहा दी है कथाकार ने। भाषा व संयम रखा है वरना बिहारी कवि ने तो आंख से ही नौ तरह का काम लिया है।

डॉ. अमरनाथ ने लोकार्पित पुस्तक पर कहा कि - "पुस्तक पर चर्चा करना नैतिक भी नहीं है क्योंकि मैंने इस पुस्तक को पढा़ ही नहीं लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि वैश्वीकरण के बाद विमर्श का दौड़ जो चला है वह जाति-भेद में अटक कर रह गया है। उन्होंने कहा कि साहित्यकारों में स्थानीयता की बात नहीं होनी चाहिए। राजनीति ने हमें बांट दिया है। हिंदी में लिखने वालों का वैश्विक मूल्यांकन होना चाहिए। न कि रेणु, दिनकर, नेपाली आदि बिहार के हैं या उत्तर प्रदेश के, यह सोचा जाय! क्या वे विदेशों में महत्व नहीं रखते हैं? प्रेमचंद का फलक वैश्विक स्तर पर नहीं आंका जा रहा है।

हमने एक बार कहा था कि जनवादी लेखक संघ को उर्दू नाम देने का औचित्य क्या है? कोई हिंदी नहीं समझता है क्या? क्या प्रेमचंद को उर्दू में इश्कचंद कहना चाहिए? भोजपुरी को आठवीं सूची में शामिल करने की मांग क्यों? हिंदी राष्ट्रभाषा बनने का अधिकारी इसलिए है कि देश की अस्सी प्रतिशत जनता हिन्दी समझती है। क्षेत्रीय स्तर पर मातृभाषा बनाकर  हिंदीभाषियों के साथ खिलवाड़ न कीजिए। हिन्दी को बंटने नहीं दीजिए। सारी बोलियां अलग अलग हो जाएंगी तो हिन्दी कमजोर हो जाएगी।

प्रभात सरसिज ने कहा कि मैंने इन कहानियों को नहीं पढ़ा लेकिन उनके बाहरी भाव से प्रभावित हुआ हूं। विचारकों ने दलितों पर जो विस्तार से चर्चा की है उससे मुझे यह लगा कि सबसे दलित तो नारी है। जिस पर चर्चा नहीं हुई ही नहीं।

रामयतन यादव ने कहा कि शंभु की "जनता दरबार" की तरह "दलित बाभन" भी उनकी प्रतिनिधि कहानियों का पठनीय संग्रह है। जटिल विषयों पर भी उन्होंने सरलता से कलम चलाई है।

कथाकार शंभु पी सिंह ने कहा कि - "हम वही पढ़ना चाहते हैं जैसा हम सोचते हैं। आप देखना, सुनना नहीं चाहते यह आपका दोष है, किंतु समाज में सबकुछ हो रहा है। 'गईया' कहानी लिखते हुए मेरी आंखों से आंसू निकल आए थे। दलित बाभन में मैंने जो देखा, भोगा सुना उसे ही लिखा। कहानियों को सिर्फ मनोरंजन के ख्याल से नहीं पढिए। 'कफन' के पात्र आज भी जिंदा हैं, मगर आज वे जलेबी खाने की स्थिति में नहीं, बल्कि जलेबी खिलाने की स्थिति में है। "कानों में कंगना" कहानी पर मैंने फिल्म भी बनाई है। आपको जो मसाला लगता है वह किसी को संवेदित करती है।

शैलेश्वर ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि - "कथाओं के देश में सिर्फ अपनी बात को कह कर हम संतुष्ट नहीं होते जब तक कोई उसे किसी भी रूप में अंगीकार न कर ले।

धन्यवाद ज्ञापन के समय राजकिशोर राजन ने कहा कि "हमारी पहली भाषा क्षेत्रीय बोली है, दूसरी भाषा हिन्दी है और तीसरी भाषा अंग्रेज़ी।" इसलिए सवाल यह उठता है कि देश की मातृभाषा हिन्दी क्यो?

श्रोता उनकी बातों को सुनकर समझ नहीं पा रहे थे कि वे हिन्दी के पक्ष में बोल रहे हैं या विरोध में? हमारे देश का यही दुर्भाग्य है कि अपने देश के लोग ही 'हिन्दी' के दुश्मन बन बैठे हैं? "हिन्दी में जीते और मरते हैं किंतु पक्ष लेते हैं अपनी क्षेत्रीय भाषा या अंग्रेजी भाषा का।

विचारकों ने सही कहा कि - "तुम औरत बन कर देखो, तब तुम्हें अपनी मर्दानगी समझ में आ जाएगी। इंसान का खून दूसरे इंसान के काम ही आता है, किसी भी धरम के काम नहीं आता। स्त्री विमर्श से भरी हुई है शंभु की ये कहानियां। 
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आलेख - सिद्धेश्वर
छायाचित्र - सिद्धेश्वर
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Monday 23 September 2019

लघुकथा, हाइकु और काव्य गोष्ठी - अंधेरी (मुम्बई) में 21.9.2019 को पटना, दिल्ली और मुम्बई के कुछ साहित्यकारों की गोष्ठी सम्पन्न

सदाकत में जिया हलकान है तो क्या करें

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दिनांक 21.9.2019 मुम्बई हवाईअड्डे से नजदीक स्थित आलीशान पाँचसितारा होटल, द ललित की पहली मंजिल पर एक साहित्यिक गोष्ठी सम्पन्न हुई जिसमें मुख्यत: हाइकु, वर्ण-पिरामिड और लघुकथा विधा पर विमर्श हुआ और उन विधाओं में रचनाओं के साथ-साथ काव्य-पाठ भी हुआ. 

गोष्ठी का संयोजन पटना से पधारी जानी-मानी हाइकुकार और लघुकथाकार विभारानी श्रीवास्तव ने किया जिन्होंने इन विधाओं पर महत्वपूर्ण जानकारियाँ भी दीं. अध्यक्षता प्रतिमा चक्रवर्ती ने की, मुख्य अतिथि थे हेमन्त दास 'हिम' और मंजु गुप्ता एवं विशिष्ट अतिथि थे अशवनी 'उम्मीद'. कुछ समय पश्चात डॉ. अरुण कुमार श्रीवास्तव भी विशिष्ट अतिथि के तौर पर शामिल हुए. कार्यक्रम का संचालन मुम्बई के जाने -माने एंकर  और शायर अशवनी 'उम्मीद' कर रहे थे.

'स्पंदन' पत्रिका की सम्पादक और "लेख्य मंजूषा" साहित्यिक संस्था की मुख्य संचालिका विभा रानी श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित 125 हाइकूकारों की रचनाएँ सत हाइकूकार - साल शताब्दी हाल ही में प्रकाशित हुई है. 

इस गोष्ठी का एक हिस्सा हाइकू-लघुकथाकार विभारानी श्रीवास्तव द्वारा एक सेमिनार की तरह था जिसमेंं उन्होंने इन लघु-विधाओं के बारे में अनेक बिंदुओं को स्पष्ट किया जैसे-
1. हाइकु या वर्ण-पिरामिड, अनुभव के मात्र एक क्षण का बयान करती है.
2. हाइकु चित्रकारी की चीज है. एक हाइकु पर एक चित्र बन सकता है. 
3. लघुकथा में भी एक क्षण की अभिव्यक्ति होती है किन्तु वहाँ फ्लैश बैक की सहायता से आप वर्णित काल-खंड का इच्छानुसार विस्तार कर सकते हैं. पर हाइकू में बिलकुल नहीं.
4. हाइकु को जापानी विधा माना जाता है. परंतु दावा है कि वेदों में भी अलग-अलग 5 और 7 वर्णों की ऋचाएँ हैं.
4. वर्णक्रम 5-7-5 होता है और हर पंक्ति अपने-आप में पूर्ण वाक्य बन सकती है. 
5. सुरेश बाल वर्मा 'जसला' ने 2012 ई. में वर्ण-पिरामिड विधा का आविष्कार किया जो अब काफी लोकप्रिय हो गया है.

विभारानी श्रीवास्तव ने  अपनी हाइकू भी सुनाई -
मधुयामिनी 
संकेतक रौशनी 
पर्दे के पास.

झड़ता पत्ता 
मैं कब्रों के बीच में 
नि:शब्द खड़ी.

पूर्णिमा चक्रवर्ती ने अपनी एक छोटी रचना सुनाई -
ओ पाखी
एकाकी 
तेरा कहाँ है साथी 
कल रात के तूफान में 
नहीं रहा कुछ बाकी.

अशवनी उम्मीद ने अपना मुक्तक सुनाया -
लेखनी तलवार होनी चाहिए
एक नहीं दो धार होनी चाहिए
जब चले तो जीत हो मजलूम की
जालिमों की हार होनी चाहिए.

निशाने पर हमारी जान है तो क्या करें
सदाकत में जिया हलकान है तो क्या करें.

हेमन्त दास 'हिम' ने उन्मत्त जनप्रवाह से बचने की अपील यूँ की-
एक अजीब से उधेड़बुन
अंतर्मन की ध्वनि सुन-सुन
उन्मत्त जनप्रवाह की धुन
मद्धिम अपनी धार
आओ न करें प्यार.

मंजु गुप्ता ने 'श्रद्धांजलि' शीर्षक लघुकथा सुनाई.  इसमें वृद्धों के प्रति बच्चों के व्यवहार के कटु यथार्थ को उजागर किया गया.

हेमन्त दास 'हिम' ने 'लम्बी लड़ाई' शीर्षक से लघुकथा पढ़ी जिसमें एक नेता को बिल्डर से समझौता करने के न्यायीकरण की स्थिति की चर्चा थी.

अशवनी 'उम्मीद' ने एक लघुकथा सुनाई "फाइनल मैच". इस लघुकथा में यह दिखाया गया कि एक पिता क्रिकेट मैच देखते हुए जो बोल देता है वही हो जाता है. बेटा के टोकने पर बाप अपने अनुभव का डंका बजाता है. बाद में पता चलता है कि बाप दर-असल मैच फिक्सर था इसलिए उसे सब मालूम था.

इस आलेख के अंत में विभारानी श्रीवास्तव द्वारा पढ़ी गई लघुकथा "बदलते समय का न्याय" पाठकों के सामने प्रस्तुत है.

अंत में धन्यवाद ज्ञापन के पश्चात गोष्ठी की समाप्ति हुई.

"बदलते पल का न्याय"/ विभारानी श्रीवास्तव

"ये यहाँ? ये यहाँ क्या कर रहे हैं?" पार्किन्सन ग्रसित मरीज को व्हीलचेयर पर ठीक से बैठाते हुए नर्स से सवाल करती महिला बेहद क्रोधित नजर आ रही थी.. जबतक नर्स कुछ जबाब देती वह महिला प्रबंधक के कमरे की ओर बढ़ती नजर आई..
"मैं बाहर क्या देखकर आ रही हूँ.. यहाँ वे क्या कर रहे हैं?" महिला प्रबंधक से सवाल करने में भी उस आगंतुक महिला का स्वर तीखा ही था।
"तुम क्या देखकर आई हो, किनके बारे में पूछ रही हो थोड़ा धैर्य से धीमी आवाज में भी पूछ सकती हो न संगी!"
"संगी! मैं संगी! और मुझे ही इतनी बड़ी बात का पता नहीं, तुम मुझसे बातें छिपाने लगी हो?"
"इसमें छिपाने जैसी कोई बात नहीं, उनके यहाँ भर्ती होने के बाद तुमसे आज भेंट हुई हैं। उनकी स्थिति बहुत खराब थी, जब वे यहाँ लाये गए तो समय नहीं निकाल पाई तुम्हें फोन कर पाऊँ…,"
"यहाँ उन्हें भर्ती ही क्यों की ? ये वही हैं न, लगभग अठारह-उन्नीस साल पहले तुम्हें तुम्हारे विकलांग बेटे के साथ अपने घर से भादो की बरसती अंधियारी रात में निकल जाने को कहा था..., डॉक्टरों की गलती से तुम्हारे बेटे के शरीर को नुकसान पहुँचा था, तथा डॉक्टरों के कथनानुसार आयु लगभग बीस-बाइस साल ही था, जो अठारह साल..," आगंतुक संगी की बातों को सुनकर प्रबंधक संगी अतीत की काली रात के भंवर में डूबने लगती है...
"तुम्हें इस मिट्टी के लोदे और मुझ में से किसी एक को चयन करना होगा, अभी और इसी वक्त। इस अंधेरी रात में हम इसे दूर कहीं छोड़ आ सकते हैं , इसे देखकर मुझे घृणा होने लगती है..,"
"पिता होकर आप ऐसी बातें कैसे कर सकते हैं..! माता पार्वती के जिद पर पिता महादेव हाथी का सर पुत्र गणेश को लगाकर जीवित करते हैं और आज भूलोक में प्रथम पूज्य माने-जाने जाते हैं गणेश.. आज हम गणपति स्थापना भी हम कर चुके हैं..,"
"मैं तुमसे कोई दलील नहीं सुनना चाहता हूँ , मुझे तुम्हारा निर्णय जानना है...,"
"तब मैं आज केवल माँ हूँ..,"
"मैडम! गणपति स्थापना की तैयारी हो चुकी है, सभी आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं..," परिचारिका की आवाज पर प्रबंधक संगी की तन्द्रा भंग होती है।
"हम बेसहारों के लिए ही न यह अस्पताल संग आश्रय बनवाये हैं संगी...! क्या प्रकृति प्रदत्त वस्तुएं दोस्त-दुश्मन का भेद करती हैं..! चलो न देखो इस बार हम फिटकरी के गणपति की स्थापना करने जा रहे हैं।"
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प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्लॉग 
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com
















Sunday 22 September 2019

अखिल भारतीय अग्निशिखा मंच की गोष्ठी 20.9.2019 को कोपरखैरने (नवी मुम्बई) में सम्पन्न

दर्द से बेखौफ मनवा हो गया है 

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अग्निँशिखा मंच की 31 वी गोष्ठी सम्पन्न अखिल भारतीय अग्निशिखा मंच की ओर से लखनऊ से पधारे वरिष्ठ कवि रवि मोहन अवस्थी और उज्जैन नगरी से पधारे गीतकार  सूरज नागर उज्जैनी के सम्मान में देविका रो हाउस, सेक्टर - 1, कोपर खैरने, नवी मुंबई में आयोजित विशेष काव्य गोंष्ठी में पुरे मुम्बई व नई मुम्बई से पच्चीस लोग पधारे।

मुख्य  अतिथि थे रवि मोहन अवस्थी, अतिथी सूरज नागर उज्जैनी, समरोह अध्यक्ष  बने विजय भटनागर और
संचालन किया पवन तिवारी ने।

शुरुआत में माँ सरस्वती की वंदना , वंदना श्रीवास्तव ने की। दीप प्रज्ज्वलित कर मां शारदे को पुष्प हार अर्पित कर कार्यक्रम शुरु हुआ।

अलका पाण्डेय ने सभी अतिथियों का स्वागत किया और अथितियों के स्वागत में दो शब्द कहें . फिर अपनी रचना सुनाई -
जबसे मेरा दिल ये सच्चा हो गया है 
यूं लगा कि कोई सजदा हो गया है 
रंज अब होता नहीं तन्हाइयों का 
हर क़दम पे साथ साया हो गया है
जब से सोचा भूल जाएं हम तुझे 
हर तरफ़ तेरा ही चेहरा हो गया है
क्या डराएंगे मुझे रंज-ओ-अलम
दर्द से बेख़ौफ़ मनवा हो गया है 
जब किसी ने ज़िक्र तेरा कर दिया 
यूं लगा कि कोई जलवा हो गया है ।
रोशनी में साथ थी परछाइयां
यह बदन ज़ुल्मत में तन्हा हो गया है।

भारत भूषण शारदा ने देश की महिमा का गुणगान किया-
एक समय था मेरा भारत
सोने की चिड़िया कह लाता था
विश्व गुरू बन कर जग को
जीने की राह दिखाता था।

उसके बाद डा. दिलशाद सिद्दीक़ी, विश्वम्भर दयाल तिवारी, डा. हरिदत्त गौतम 'अमर', रामप्रकाश विश्वकर्मा, सौरभ दत्ता, अश्विन पाण्डेय, सेवासदन प्रसाद, कविता राजपूत, नजर हयातपुरी,  सिराज गौरी, दिलीप ठक्कर, शोभना ठक्कर, अरुण मिश्र  'अनुरागी' विक्रम सिंह. पवन तिवारी, इकबाल कुँवारे, वंदना श्रीवास्तव और सुशीला शर्मा ने अपनी कविता पढ़ी व बालक आहन पाण्डेय ने भी सुदंर प्रस्तुति दी।

प्रज्ज्वल वागदरी ने हिंदी दिवस पर हिंदी का अपमान न देख सका और कालेज में अपने शिक्षक के पद से इस्तीफ़ा दे दिया, उनका सबने मिलकर स्वागत किया फिर आज के मेहमान रवि मोहन अवस्थी जी की रचनाओ का ऐसा समा बधा की श्रोताओं की फ़रमाई पर उन्होने हर विधा की रचना सुनाई -. गीत, गजल, छं , हास्य और भी।

फिर समारोह के अध्यक्ष  विजय भटनागर ने अपना व्यक्तव्य दिया और अपनी एक ग़ज़ल सुनाई -
आखिरी वक्त तुम्हे नाराज कर दूंगा
तुम भूल जाओगी मेरी भी कोई हस्ती है
मेरी मय्यत को पीछे से आवाज न देना
रूह निकलने के बाद कभी ना ठहरती है।

अंत में आभार व्यक्त अलका पाण्डेय ने किया और तत्पश्चात अध्यक्ष की अनुमति से कार्यक्रम समापन की घोषणा की गई।
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आलेख - अलका पाण्डेय
छायाचित्र सौजन्य - अखिल भा. अग्निशिखा मंच
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com
नोट - प्रतिभागी कविगण कृपया अपने दवारा इस कार्यक्रम में पढ़ी गई रचना की पंक्तियाँ और कार्यक्रम का साफ फोटो ऊपर दिये गए ईमेल पर भेजें।