Monday 30 December 2019

शूद्रक कृत नाटक 'मृच्छकटिक' के भूमिका' द्वारा आरा में 26.12.2019 को हुए मंचन की समीक्षा

प्रथम सदी की उज्जयिनी और वर्तमान भारतीय समाज में ज्यादा अंतर नहीं

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आरा की नाट्य इकाई "भूमिका "द्वारा शूद्रककृत नाटक "मृच्छकटिकम् "का हिंदी रुपांतरण का मंचन आरा नागरीप्रचारिणी सभागार में हुआ। मृच्छकटिकम् ने देश विदेश के रंगनिर्देशकों, नाटककारों और रंगकर्मियों का ध्यान वर्षों से आकृष्ट किया है। यही कारण है कि अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, फ्रांस और चीन में इसका मंचन हुआ है। भारतीय भाषाओं में इसके अनुवाद हुए हैं और हजारों बार इसका मंचन हुआ है।सन्1905 में हार्वर्ड युनिवर्सिटी सीरीज के अंतर्गत इसका अँग्रेजी में अनुवाद आर्थर विलियम रायडर ने "दी लिटिल क्ले कार्ट बाई शूद्रक"के रूप में किया था। आज देश में जिस तरह अराजकता, शराबखोरी, लंपटता, द्यूतकर्म, चौरकर्म, धूर्तता, स्त्रियों का बलात्कार, न्यायालयों का पतन जिस तरह बढ़ा है उसके रूप तो तत्कालीन उज्जयिनी के राज में भी मिलते हैं।आज सांसद-विधायक और सत्ता के करीबी लोग बलात्कार भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जा रहे हैं वैसी स्थिति तो प्रथम सदी के आसपास के समृद्ध राज उज्जयिनी में थी। इसलिए मृच्छकटिक की मंचीय प्रस्तुति सार्थक लगती है।

मृच्छकटिक की संक्षिप्त कथावस्तु

"मृच्छकटिक "की कथा पहली सदी की है।उस समय समाज में बौद्ध धर्म का प्रभाव था।उज्जयिनी समृद्ध राज था।समाज चार वर्णों में विभाजित था। सामंत और दास प्रथा का बोलबाला था। उज्जयिनी का राजा क्षत्रिय था।नया व्यापारी वर्ग उदित हो रहा था। ब्राह्मण व्यापार में सक्रिय हो रहे थे। उनका समाज और राजसत्ता पर प्रभाव था। समाज में वारवनिकाएँ थीं। द्यूतकर्म फलफूल रहा था। सामंतों के वारवनिकाओं के साथ विवाहेत्तर संबंध थे। सामंत ,व्यापारी और वारवनिकाएँ दास दासियाँ रखती थीं।धन देकर इन दासों को मुक्त कराया जा सकता था।कथावस्तु में मानवीय करूणा, उदारता और उच्चकोटि के प्रेम प्रसंग के दृश्य हैं।विश्वसनीय मैत्री है।लंपटता और सामाजिक अराजकता के कारण राजा के खिलाफ विद्रोह है। क्षत्रिय राजा को अपदस्थ कर ग्लाला पुत्र को राजा बनाने का प्रसंग है। न्यायाधीश को छल और धौंस से प्रभावित करने की कोशिश है।

उज्जयिनी निवासी ब्राह्मण चारूदत्त जो व्यापारी भी है, मृच्छकटिक नाटक का नायक है। वारवनिता वसंतसेना नायिका है। चारूदत्त विवाहित है और उसकी पत्नी धूता उसके प्रति पूर्णतः समर्पित और चरित्रवान स्त्री है। रोहितसेन उस दम्पती का नाबालिग पुत्र है। चारूदत्त और वसंतसेना एक दूसरे को तहेदिल से प्यार करते हैं। चारूदत्त दान पुण्य में विश्वास करनेवाला ब्राह्मण है। यह अद्भुत है कि चारुदत्त सामान्य ब्राह्मणों की तरह दान लेता नहीं देता है।उसमें दया, करुणा और मानवीय संवेदना है। दान देकर और मददगारों को मदद कर वह निर्धन हो गया है। फिर भी वसंतसेना उससे प्रेम करती है।

उज्जयिनी के राजा का साला शाकार खलनायक है। वह वसंतसेना को किसी भी कीमत पर पाना चाहता है।अपने प्रयास में असफल रहने पर वह वसंतसेना की हत्या का प्रयास करता है।

शार्विलक नामक ब्राह्मण वसंतसेना की दासी मदनिका से प्रेम करता है। वह धन देकर मदनिका दासी को मुक्त कराना चाहता है। धन के लिए वह चारुदत्त के घर में सेंधमारी करता है। 

उज्जयिनी चूँकि समृद्धि का केन्द्र है, इसलिए पाटलिपुत्र ग्राम का संवाहक उज्जयिनी में बसना चाहता है और व्यापार करना चाहता है। वह द्यूतकर्म में फँस जाता है। उदार वसंतसेना अपना कंगन देकर उसे मुक्त करा देती है। लेकिन जीवन से विरक्त होकर वह बौद्ध भिक्षु बन जाता है।

ग्वाला पुत्र आर्यक के बारे में सिद्ध की भविष्यवाणी है कि वह राजा बनेगा। राजा उसे बंदी बना लेता है। वह कारागार तोड़कर भाग निकलता है और वसंतसेना की माटी की गाड़ी में छिपकर जान बचाता है। राजा के खिलाफ विद्रोह सफल होता है और ब्राह्मण, व्यापारी और गरीब लोग आर्यक को राजा घोषित करते हैं। 

रंगनिर्देशक श्रीधर शर्मा की रंग परिकल्पना
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रंगनिर्देशक श्रीधर शर्मा आरा नागरीप्रचारिणी सभागार के छोटे से मंच को दो हिस्सों में बाँट देते हैं--बायीं ओर ब्राह्मण व्यापारी चारुदत्त के घर का दृश्य पर्दे पर अंकित है। उसका घर चित्रों और कलाकृतियों से सजा है जो उसकी समृद्धि का प्रतीक है। दायीं ओर वारांगना वसंतसेना का आलीशान घर है जो पर्दे पर चित्रों द्वारा उकेरा गया है। रंगनिर्देशक ने कुल बाईस रंगकर्मियों के सफल मंचन द्वारा नाटक को दर्शकों के सामने निर्देशित किया है। मंच सज्जा में चित्रकार रौशन राय की महत्वपूर्ण भूमिका है। उसी प्रकार कलाकारों के रूप सज्जा में कवि चित्रकार राकेश कुमार दिवाकर ने दायित्व निभाया। निम्नलिखित कलाकारों ने उनके नाम के आगे दर्ज पात्र की भूमिका निभाई---(1)चारुदत्त--लोकेश दिवाकर, (2)मैत्रेय--रंजन यादव, (3)शार्विलक--सुधीर सुमन,(4)आर्यक/न्यायाधीश--सुभाषचंद्र बसु, (5)संवाहक/बौद्ध भिक्षु--आजाद भारती, (6)शालार(राजा का साला)--श्रीधर शर्मा, (7)वसंतसेना---पूजा, (8)मदनिका(दासी)--प्रीति, (9)रदनिका--अनुप्रिया, (10)वसंतसेना की माँ--प्रिया सिंह, (11)धूता(चारुदत्त की पत्नी)--उत्तम, (12)चेटी--प्रिया सिंह, (13)माथुर या चंडाल--संतोष सिंह,(14)द्यूताध्यक्ष--ओमप्रकाश पाठक, (15)चंदनक--दीपक सिंह गुड्डू, ((16)बर्दमानक--संतोष द्वितीय,(17)शोधनक--रविशंकर सिंह, (18)श्रेष्ठी--दीक्षांत, (19)चेट--नकुल, (20)रोहितसेन (चारुदत्त का बेटा)--मास्टर आदित्य, (21)विट--वेद प्रकाश,

पूरे नाटक की प्रस्तुति शानदार रही। शार्विलक के रूप में सुधीर सुमन चारुदत्त के घर में सेंधमारी के बाद आत्मालाप द्वारा एक ब्राह्मण चोर के दिल में उठते भावों की प्रभावशाली अभिव्यंजना की है। विदूषक और मैत्रेय के रूप में रंजन यादव, वसंतसेना के रूप में पूजा, आर्यक /न्यायाधीश के रूप में सुभाषचंद्र बसु, शालार के रूप में निर्देशक श्रीधर शर्मा का अभिनय प्रभावशाली रहा। संवाहक/बौद्ध भिक्षु के रूप में आजाद भारती ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया।द्यूताध्यक्ष के रूप में ओम प्रकाश पाठक, मदनिका के रूप में प्रीति, माथुर चांडाल के रूप में संतोष सिंह, शोधनक के रूप में रविशंकर सिंह की भूमिकाएं उल्लेखनीय रहीं।

दर्शक दीर्घा में पुराने रंगकर्मी इस्तयाक अहमद, सुनील सरीन, अशोक मानव, अंजनी शर्मा, कृष्णेंदु, साहित्यकार राम निहाल गुंजन, प्रो नीरज सिंह, जितेन्द्र कुमार, कवि सुमन कुमार सिंह, अरुण शीतांश, सिद्धार्थ वल्लभ, डॉ सिद्धनाथ सागर, आशुतोष कुमार पाण्डेय, सावन कुमार, रंजीत बहादुर माथुर, जनार्दन मिश्र आदि की गरिमामय उपस्थिति थी। गार्गी प्रकाशन का बुक स्टॉल भी पाठकों को आकर्षित करता रहा।
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आलेख - जीतेन्द्र कुमार 
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Saturday 28 December 2019

अग्निशिखा का प्रथम अंतरराष्ट्रीय साहित्य महोत्सव मुंबई, 24-25 दिसम्बर, 2019 को सम्पन्न

हिंदी को स्व के जीवन मे उतारने का आह्वान
भारत के विभिन्न प्रांतों और बाहर से भी बड़ी संख्या में जुटे साहित्यकार

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मुंबई, सीपी टैंक के पांजरापोल स्थित पंचायती फतेहपुरिया वाड़ी में 24/25 दिसम्बर 2019 को दो दिन तक प्रथम अग्निशिखा अंतरराष्ट्रीय साहित्य महोत्सव में  देश विदेश से आये साहित्यकारों ने अलग-अलग विषयों चर्चा परिचर्चा की। इस अवसर कई पुस्तकों का विमोचन हुआ, पुस्तक प्रदर्शनी भी लगी, उदघाटन सत्र को लेकर कुल दस सत्र थे जिनमें हिंदी का वैश्विक परिदृश्य एवं चुनौतियाँ, हिंदी साहित्य में मराठी भाषियों का योगदान एवं मंचीय साहित्य एवं पाठ्यक्रम साहित्य की दूरियाँ और उनके कारण जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा हुई। 

इस अवसर पर कवि सम्मेलन एवं साहित्यकारों का सम्मान समारोह भी हुआ।  24 दिसम्बर को आरम्भ हुए इस साहित्यिक महाकुंभ का आरम्भ दीप प्रज्वलन के साथ महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष शीतला प्रसाद दुबे ने किया। सूत्र संचालन युवा साहित्यकार पवन तिवारी ने किया। ज्ञात हो कि अलका पाण्डेय के संयोजन में आयोजित यह साहित्यिक आयोजन कई मामलों में अनूठा रहा जैसे कि पहली बार इतने बड़े पैमाने पर मुंबई में किसी एक निजी संस्था द्वारा इतना बड़ा साहित्यिक आयोजन सम्पन्न हुआ होना जिसमें भारत के विभिन्न प्रांतों और बाहर से बड़ी संख्या में साहित्यकार कविता सहित गद्य रचनाओं का पाठ किये साथ ही उन रचनाओं को पुस्तक रूप में उसी समारोह में लोकार्पण भी हुआ जो कि मुंबई में पहली बार हुआ 

कार्यक्रम का शुभारंभ रायपुर  से पधारी शुभ्रा ठाकुर  द्वारा माँ शारदा की वंदना से हुआ। इसके बाद कार्यक्रम की आयोजक एवं संयोजक समाज सेविका एवं लेखिका अलका पाण्डेय ने स्वागत भाषण दिया। उसके बाद कुमार जैन ने विषय प्रवर्तन का दायित्व निभाया। उसके बाद अतिथियों का तुलसी के वृक्ष, पट, श्रीफल एवं संस्था का स्मृति चिन्ह प्रदान कर स्वागत किया गया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित महाराष्ट्र राज्य अकादमी के अध्यक्ष शीतला प्रसाद दुबे ने  कहा कि अर्थ की इस नगरी में साहित्यिक कुंभ का इतना बड़ा एवं महत्वपूर्ण आयोजन करना उसमें देश-विदेश के साहित्यकारों एक मंच पर लाना महत्वपूर्ण एवं साहस का काम है। इसके लिए मैं अलका पांडेय को साधुवाद देता हूँ।

समारोह का प्रथम सत्र पुस्तक विमोचन का रहा, जिसमें लेखिका रश्मि नायर की पुस्तक सेज के फूल , अरुण प्रकाश अनुरागी की पुस्तक सृष्टि एक महाकाव्य, अलका पांडेय की लघु आकाश, महोत्सव में आये रचनाकारों का साझा संकलन अग्निशिखा काव्य धारा एवं कथाधारा का डा. असुल कंसल कनुप्रिया की पुस्तक शतक कथा  (मराठी अनुवाद) और अनिता झा की पुस्तक रंगीन नानी की फुलझड़ियाँ का विमोचन हुआ। इस अवसर पर रचनाकारों ने अपनी पुस्तक पर अपना मंतव्य रखा। 

अगला सत्र /  हिंदी का वैश्विक स्वरूप एवं उसकी चुनौतियाँ विषय पर मुख्य वक्ता युवा साहित्यकार पवन तिवारी ने इजराइल की प्रधान मंत्री डेविड बेन गुरियन और आधुनिक तुर्की के निर्माता मुस्तफा कमाल पाशा से भाषा के संदर्भ में प्रेरणा लेने की बात विस्तार से बताई, वहीं विशेष अतिथि रहे कानपुर से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार श्रीहरि वाणी ने हिंदी को स्व के जीवन मे उतारने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि हिंदी के खाने वाले अपने बच्चों को अंग्रेजी के माध्यम से पढतें हैं। ऐसी प्रवत्तियों के कारण को जान कर उसको दूर करने का गम्भीर प्रयास करना होगा। 

सत्र की अध्यक्षता कर रहे रमेश यादव ने कहा कि इसे आंदोलन बनाना होगा, पहले छोटे-छोटे प्रयास करने होंगे। इस सत्र का संचालन प्रसिद्ध मंच संचालक कुमार जैन ने किया। दोपहर के भोजन के बाद एक बार फिर सारे साहित्यकार सभागृह में अवस्थित हुए । विषय था लघुकथा पर विचार विमर्श, मार्गदर्शन एवं लघुकथा वाचन। इस सत्र की अध्यक्षता कानपुर से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार श्रीहरि वाणी ने की। मुख्य अतिथि रहे वरिष्ठ कहानीकार पुरुषोत्तम दुबे , मुख्य वक्ता थे वरिष्ठ लघुकथाकार सेवासदन प्रसाद, विशेष अतिथि थे महेश राजा, युक्ता झा, आभा झा एवं प्रियंका सोनी। इस अवसर पर अनेक लघुकथाकारों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। इस सत्र का गरिमापूर्ण संचालन नागपुर से पधारी कवयित्री हेमलता मानवी ने किया।

शाम का सत्र मराठी भाषियों का हिंदी साहित्य में योगदान एवं कवि सम्मेलन विषय पर मुख्य वक्ता साहित्यकार पवन तिवारी ने बाबूराव विष्णु पराड़कर से लेकर अन्नतगोपाल शेवड़े के प्रयास से नागपुर में हुए प्रथम विश्व हिंदीए सम्मेलन के आयोजन से लेकर, दामोदर खड़से, मुक्तिबोध, सूर्य नारायण रणसुभे, मालती जोशी, मसध्व राव सप्रे एवं प्रभाकर माचवे के हिंदी भाषा व साहित्य के योगदान पर विस्तार ने अपनी बात रखी। सत्र का सुंदर संचालन युवा कवि उमेश चव्हाण ने किया। इस सत्र में आंएक मराठी कवियों ने मराठी में सुंदर कविताएं सुनाई। 

अंतिम सत्र कवि सम्मेलन का रहा। जिसमें देश भर से आये रचनाकारों ने कविता पाठ किया।

दूसरे दिन के आयोजन में  प्रथम सत्र बेहद महत्वपूर्ण रहा। विषय था मंचीय साहित्य एवं पाठ्यक्रम साहित्य की दूरियां एवं  उसके कारण। इस सत्र की अध्यक्षता प्रसिद्ध शिक्षाविद और लर्नर्स अकादमी के अध्यक्ष राम नयन दुबे जी थे एवं मुख्य वक्ता थे, युवा समालोचक, कवि एवं सेंट पीटर्स संस्थान पंचगनी में हिंदी विभाग के अध्यक्ष जीतेन्द्र पांडेय। विशेष अतिथि थे, बनवारी लाल जिजोदिया एवं दतिययसे पधारे वरिष्ठ साहित्यकार अरविंद श्रीवास्तव। संचालन कुमार जैन ने किया। लोगों ने इस सत्र को बड़े ध्यान से सुना डॉ जीतेन्द्र पांडेय ने मंचीय साहित्य के गिरते स्तर और पाठ्यक्रम के मध्य नैतिकता के मामले को बताया। वहीं राम नयन दुबे  ने कहा कि पाठ्यक्रम में आने वाली रचनाएं देश समाज एवं छात्रों  के उज्ज्वल भविष्य को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं। जबकि मंचीय साहित्य सामने बैठे श्रोताओं के विशुद्ध मनोरंजन को ध्यान में रखकर रचा जाता है।

इसके बाद  का सत्र भारत के विविध लोक गीत कलाएं एवं उनका संवर्धन था। इस सत्र की अध्यक्षता डॉ सुनीति पवार ने की। मुख्य अतिथि थे डॉ अशोक पवार, विशेष अतिथि थे कानपुर से पधारे वरिष्ठ साहित्यकार अजय कुलश्रेष्ठ, संचालन पवन तिवारी ने किया। इस दिन का अंतिम सत्र कवि सम्मेलन एवं सम्मान के नाम रहा। कार्यक्रम के समायययस पांडेय ने विशेष रूप से सहयोग करने वाले देवेंद्र पांडेय, कुमार जैन, अश्विन पांडेय, नीरजा ठाकुर, राम स्वरूप साहू, श्रीहरि वाणी, अजय बनारसी, रामप्यारे रघुवंनशी, विनय शर्मा डीप, निरुपमा शर्मा, वंदना श्रीवास्तव, चंद्रिका व्यास, सेवा सदन प्रसाद , अरुण प्रकाश अनुरागी एवं पवन तिवारी जैसे साहित्यकारों सहित सभी सहभागी साहित्यकारों के प्रति धन्यवाद  ज्ञापित किया । आयोजन में देश विदेश से आये सभी साहित्यकारों ने एक स्वर में अखिल भारतीय अग्निशिखा मंच की अध्यक्ष एवं इस पूरे आयोजन की कर्ता धर्ता अलका पांडेय के साहस और कर्मण्यता की भूरि- भूरि प्रशंसा की ।
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आलेख सौजन्य - अलका पाण्डेय
छायाचित्र सौजन्य - अ.भा. अग्निशिखा मंच
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com




Monday 23 December 2019

"Gandhi Ne Kaha Tha" presented by 'Colourblind' at Versova (Mumbai) on 20.12.2019

A theatrical symposium on Gandhian, Godse and Zihadi philosophies 
It is not worrisome that communalism figurs out in news but that the news are growing communal



The play is a high-pitched brainstorming on the most controversial topic of India i.e. the ideological differences between Gandhi and Godse. The saga of family goes well when a Muslim boy is adopted by Hindu parents on the advice of Gandhiji and that too when their real son has been killed by the goons in a communal riot. 

Tarkeshwar Pandey and Sumitra lose their child Suraj in a communal riot but even after this Tarkeshwar couple adopts a Muslim child Aftab as their son. They raise him with love and care. When the boy grows up he feels the neglect meted out to Muslims in general by the society. Completing his academic research on this issue he is there to have a face-off with his father. The son is not convinced with his liberal thoughts and leaves home. He joins the ranks of Islamic terrorist organisation and one day his group kills the people of other religion travelling in a passenger bus. When this news reaches Mr Pandey he is broken to know that the boy whom he gave such a affectionate upbringing could be so brutal! It was a murder of his ideal thoughts the Gandhian philosophy. He is about to put the picture of Gandhiji on fire when his son Aftab appears suddenly and clarifies everything. He says that though he was radicalised and had joined the extremist organisation he never thought that the passengers of the bus were to be killed. He thought that his boss has just singled out some passengers for churning out info about the informers. But when the commander began to shooting out all of them I fled with this little boy and he produces a boy. Now on he will be my son and your grandson. But the story does not end here. It ends when Mr Pandey is shot dead suddenly by some unknown terrorist while moving towards the little kid with lot of affection in his heart. A Gandhi is killed again.

The viewers are introduced to the theatrical symposium on communal violence at the very outset of the play through a number of normal life anecdotes. In one of the scene the neighbourer women complain of Aftab saying how they could tolerate the highhanded behaviour of a Muslim boy Aftab over their Hindu children. In another scene the people watching cricket match on TV holds the will of muslim viewers responsible for the setbacks of Indian team against Pakistan. The paranoia is to such an extent that when Kapildeo is out they say since you did not support him so he was out. On this a Muslim viewers think how unfair is it to consider them traitors when their forefathers have given their blood in the freedom struggle of India.

In another conversation some fanatical Hindus are shown peeved on the partition of India on communal grounds. Gandhi is blamed by them for not letting to send all the persons of one community to the newly formed country. All the issues are raked up how the population of Hindus are dwindling down year after year in neighbouring countries while the minorities are pampered in India.

In the hot debate with his Hindu father, Aftab elaborates on the anti_Muslim policies of several governments since independence of India. This was reflected in the miniscule percentage of their participation in government services and rampant economic backwardness that forces them to live an inhumane life. The father says that the Muslims did not concentrate on real issues of development and rather were remain entangled with the appeasement policies of the governments that kept them to stuck to the archaic customs. They never tried to make themselves progressive and did not listen to the modern ideas of development. On this the son accused his father of becoming pro-Hindu and steps out of home.

In a scene Pandyji mourns that It is not so worrisome fact that communalism figures in the news the more painful truth is that news are growing communal day by day.

The artists who acted in this play were Faraz Khan, Vyan datta , Piyush yadav, Abhimanyu Tiwari , Ajay sharma , Priyanka Minhans , Aryan Raj , Atul shaswat , Abhishek Malik, Amit, Rajnish Kumar, Avnisha Dubey , Sudipta , Mayuri , Kunal , Himanshu sood Suraj and Atul Shashwat, 

Artists on backstage were Gaurav shrivastva,  Jai Singh Raghav, Ravi Singh, Chandan P Singh. Priyanka minhas and Ratnesh singh.

The script of Rajesh Kumar is very effective not only in presenting a whole round of dialogue on ideologies of Gandhi, Godse and Zihadis but also in converting them in a family drama quite interestingly.

Acting by onstage artists was realistic and they successful in carrying out the  theme of the play in soulful manner. Pandeyji was amazing with his two completely different sets of demeanor for youth and old ages of his character. Artists was successful in showing up the heartfelt stress  of religiously persecuted man through his concerned facial expressions and all. Sumitra was also very true to her character through her voice and body language. 

Acting of Brahmin friends and women neighbours was up to the mark. The three complaining ladies were standing in a row vertical to the audience whereas they should have positioned slightly askew so that their faces should be visible to the viewers. 

Flickering light was used as a technique by the Light manager to highlight a scene which worked well. The director Rahul Datta has shown his skills also in maintaining the tempo and rhythm of the play so that the viewers never get a jerk and the story flows down to their attention quite naturally.

This performance shall stay in memory for long. The team deserve a wholehearted clap for their amazing job.
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Review by _  Hemant Das 'Him'
Photographs by - Colourblind and Bejod India blog
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