Thursday, 12 June 2025

प्रणव प्रियदर्शी की विचार-यात्रा : चौराहों पर चौराहे पर एक पाठकीय प्रतिक्रया

 वाम-दर्शन के गुण-दोषों पर एक पत्रकारीय दृष्टि 




कई पृष्ठ तक तो मुझे समझ नहीं आया कि पुस्तक आखिर है क्या - संस्मरण, आत्मकथा, डायरी, वाम विचारों पर दार्शनिक मंथन या और कुछ? जैसे-जैसे पढता गया, परतें खुलतीं गईं पर अंत तक यह मूल प्रश्न बना रहा कि इस पुस्तक को किस श्रेणी में रखा जाय- संस्मरण, आत्मकथा, दार्शनिक विवेचना ..या.. ? पर अंततः मैं इसे आत्मकथात्मक पुस्तक ही कहूंगा जिसमें लेखक ने अपने व्यक्तित्व के दार्शनिक पक्ष के उद्भव पर प्रकाश डाला है. और मैं लेखक की तारीफ किए बिना नहीं रह सकता कि व्यक्तिगत वाम रुझान वाले दर्शन के उद्भव पर फोकस इन्होने शुरू से अंत तक बड़ी सावधानी से बरती है. वैसे आपको पुस्तक में बहुत सी बातें हल्की फुलकी लग सकती हैं पर जब आप ध्यान देंगे तो पाएंगे कि दर-असल लेखक ने बड़ी संजीदगी के साथ उन हल्की फुलकी सी लगनेवाली घटनाओं के व्यक्तिगत दार्शनिक समझ पर पड़े प्रभाव को समझाने के लिए जिक्र किया है. आप कह सकते हैं कि लेखक बड़ा धुरंधर प्राध्यापक किस्म का व्यक्ति मालूम पड़ता है क्योंकि इधर-उधर की लगनेवाली बातों में ही उसने वाम दर्शन की गुत्थियों को पाठकों तक न सिर्फ पहुंचाया है बल्कि निर्लिप्त भाव से उसके गुण-दोषों पर भी सम्यक चर्चा की है. लेखक का उद्देश्य प्रचार करना नहीं अपितु दर्शन शास्त्र की एक महत्वपूर्ण  वैश्विक धारा की समालोचना है.

पुस्तक में लेखक वामपंथ को लेकर अपने आकर्षण, सोच और विचार-मंथन को अपने जीवन की घटनाओं से जोड़ता चला जाता है. आपको लगता ही नहीं कि लेखक आपको कुछ बताना चाह रहा है पर आप बहुत कुछ जानते चले जाते हैं वाम-दर्शन के बारे में. उस से जुड़े कई अंतराष्ट्रीय ख्याति के नायकों के वामपंथी रुझानों की अच्छाइयों और कमियों के बारे में भी आपको जानने को मिलता है. लेखक घोषित रूप से वामपंथी विचारों से प्रभावित होता  रहा है पर वह कभी उसका अंध-समर्थक नहीं रहा जैसा कि अनेक विचारधाराओं के साथ आजकल फैशल चला हुआ है. लेखक जीवन के मोड़ों पर नए-नए लोगों से मिलता है और उनके वामपंथी धाराओं के गुण-दोष पर विचार करने के बाद उसे अपने अनुकूल रूप में ढालकर अपनाते चलता है. जाहिर है कि अपनी ही पुरानी मान्यताओं को बदलने में उसका अहम् कभी आड़े नहीं आता. 

पुस्तक की भाषा सरल है. आपको लगेगा जैसे आपका कोई लंगोटिया यार किसी चौराहे पर भूजा खाते-खिलाते कुछ बतिया रहा है. सबसे बड़ी सफलता मुझे लगी कि लेखक ने पुस्तक के नाम के अनुरूप अपने 'विचार-यात्रा' वाले फोकस पर बिलकुल कायम रहा है. मानों वह खुद अपना प्रहरी बन कर तैनात हो. अक्सर लोग आत्मकथात्मक लिखते समय बहुत सारे अनगिनत पहलुओं से अपने मोह को त्याग नहीं पाते हैं. यह लेखक भी शुरुआत में थोड़ा बहुत ऐसा ही लगता है पर जब आप धोड़ा ध्यान देते हैं तो पाते हैं कि मूल विषय पर आने के लिए उससे जुड़े पृष्ठभूमि के निर्माण से अधिक वह कुछ नहीं है. मैं दावे के साथ कह सकता है कि लेखक के आत्म-मोह की नाममात्र उपस्थिति आपको नहीं मिलती. एक पत्रकार की दृष्टि से अपने ही जीवन के विचार-निर्माण की प्रक्रिया की सच्ची रिपोर्टिंग जैसा काम लेखक ने किया है जो काबिले-तारीफ़ है.

वामपंथ एक बड़ा व्यापक वर्गीकरण है जिसके अन्दर भी अनेक धाराएं हैं. पुस्तक में उन सभी धाराओं के द्वंद्व और अंतर्विरोध को बिना लाग-लापट और निष्पक्ष भाव से विवेचना करता चलता है. अतः पढने में रुचिकर है. आप पढ़ना शुरू करते हैं तो आपको एहसास नहीं होता कि कितना आगे तक पढ़ कर रुकते हैं. प्रणव प्रियदर्शी की इस पुस्तक जैसी पुस्तक कम मिलती हैं जो आपकी अंतर्दृष्टि के निर्माण-प्रक्रिया को और समृद्ध करता है अतः ऐसे अवश्य खरीदकर पढ़ना चाहिए.

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इस लेख के लेखक - हेमन्त दास 'हिम' 
प्रतिक्रया हेतु ईमेल आईडी - hemantdas2001@gmail.com / editorbejodindia@gmail.com