Friday, 7 March 2025

हेमन्त 'हिम' की कुछ गज़लें (संस्करण -2)

 मित्रों, प्रस्तुत है मेरी  कुछ गज़लें जो अगस्त 2024 से मार्च 2025 की अवधि के अंदर रचित की गईं हैं. आशा है आपको पसंद आएंगी. हेमन्त 'हिम' (hemantdas2001@gmail.com )


छायाकार - प्रशांत 'साहिल' 


ग़ज़ल (Poem) - 1 

जब आपकी सांसें आप हीं से बात करतीं हैं

ऎसी तनहाइयां मुश्किल से मिला करतीं हैं

When your breaths talk only to you

Such solitude comes rarely in view 


किसी के आ जाने से तन के खिलता है गुलाब

किसी के जाने से पंखुड़ियां गिरा करतीं हैं

The rose blossoms fully on coming of some people

The petals fall desperately on departure of a few


घने बादलों से जैसे छनके सूर्य की किरणें 

उसकी यादें मन में अठखेलियां करतीं हैं 

Like the tinkling of Sunrays throuogh the dense forest

Her memories play pranks on my mind's sinew 


पी कर गिरे पहले भी, पर लोग उठा लेते थे 

अब 'हिम' गिरे तो मधुबालाएं हंसा करतीं हैं 

Even ealier he fell down drunk but people lifted him

Now if 'Him' falls then the bar-girls raise a hue


कुछ बातें हों, कुछ अदा हो और हो जूनून सा कुछ 

गहराइयां रूह की तब ग़ज़लें कहा करतीं हैं  

If there is some matter and style tempered with passion

Then the depth of soul delivers a poem fresh and new

बह्र: 22 22 22 22 22 22 


ग़ज़ल (Poem) - 2 

मुहब्बत हथकड़ी हो जैसे 

किसी को कुछ पड़ी हो जैसे 

The love looks likes a handcuff

And I take it just as a  puff 


मुसीबत से यूं करें बातें 

कि आँखें लड़ गईं हों जैसे 

As if you have fallen in love

Give to adversity, a lot of guff


जो हिम्मत हारे तो 'हिम' कैसे  

वो शिक्षक की छड़ी हो जैसे 

After all, how 'Him' would dare lose heart

She is like a teacher's stick, rough


करूँ कुछ तो न यूं हंसों तुम 

कि फिर से गड़बड़ी हो जैसे 

If I do something, don't  laugh prettily 

It may create disturbance enough


लूं तेरे पांव के काँटों को 

वो फूलों की लड़ी हो जैसे 

I take the thorns from your foot

As if they were soft as flower, not gruff.

बह्र: 122  2112  22



ग़ज़ल - 3

बिन मतले के आई अंजाम तक ग़ज़ल थे हमीं

तुम इसे मेरी ज़िंदगी कह लो हम तो कहें डमी

कभी तो देखेंगे शायद वो औरों की मुश्क़िलें

कभी तो समझेंगे वो औरों को ख़ुद सा आदमी

कि थका जिस्म और चोटें ही तो हैं जो मैं चाहता हूं  

ढूंढने वाले सपाट सड़क होते हैं बड़े वहमी 

बस एक बात विचारों की है जो थे सब के ज़ुदा

श्रोता, समीक्षक या कवि में कुछ भी न थी कमी

रेल ये बदलेगी हर पड़ाव पर गंतव्य को 

और है सब को  पहुँच पाने की एक ग़लत फ़हमी 

बह्र: 22 22 22 22 22 22 2



ग़ज़ल - 4 

नफ़रत है तो हमें सजा देकर कुछ जी हल्का करो

न हो भरोसा तो जो चाहे मेरा मुचलका करो

तेरे दर्द के इल्म से हूं ज़ार ज़ार पर चाहूं

कि तुम हंसो अब भी न आंसू बन ढलका करो

पेट भी आधा खाली है और कपड़े भी हैं फटे

फिर भी जो मिले हैं हम तुम तो न क्यों तहलका करो

जल है मेरे नद का इसमें तू भी अपने डाल

देश सभी का है आदर तो मिश्रित जल का करो

माफ़ी दो कि उसूल को हर पल थामे रहते हैं 'हिम'

वैसे न हम कि अभी इस पल तो फिर उस पल का करो

बह्र: 22 22 22 22 22 22 2 (मान्य छूट सहित)



ग़ज़ल - 5

मक़सद हमारा न हमसे हमदर्दी जतलाना है

बस कुछ कहा है जिसे वहां तक पहुंचाना है

आँखों को मूँदे हुए जो भागता है उधर

उसने बताया ख़ुशी को इस तरह से पाना है

जीवन तुझे नाटकों और अफ़सानों में ढूंढा

पर जो मिला सच में वो नायाब नज़राना है

पत्थर को क्या है ख़बर, क्या है आंसू की ज़ुबां

किसको है देना सुखा, तो किसको नहलाना है

'हिम' को बला लगती है लफ़्ज़ों की कारीगरी

इंसां कोई कह दे तो शायर न कहलाना है

2212 212 2212 212 (मान्य छूट सहित)


ग़ज़ल - 6 

जो दिख रहा है जैसा कहां कोई वैसा है

साफ़ दिल से कोई ख़फ़ा भी हो तो अच्छा है

इक टूटी हुई तख़्ती पर ख़रोंच सा कुछ है

लोगों का कहना है कि तेरा नाम लिखा है

है मसीहा जो फोन है करता बेमतलब

वरना जहां में किसको कौन पूछता है

फिर उसी दुकां पर जाकर चाय पीऊँगा

लोग उधर नहीं हैं वो, पर अब भी रास्ता है

मीठी सी उन यादों को ही इश्क़ कहो 'हिम'

रहता जिनसे ज़ेहन का ताउम्र वास्ता है

बह्र: 22 22 22 22 22 2 (मान्य छूट सहित)


ग़ज़ल - 7 

जी, उर से उर को मिलाते हैं 

चलो त्यौहार मनाते हैं 

कि दरिया है जो जगत हित का 

वहीं हित देश का पाते हैं 

जो मतलब ही न है सौदे से  

परेशां से क्यों हो जाते हैं 

उजाले दिल को छुपा दें पर  

अंधेरे तो न छुपाते  हैं 

हो मन जब तब ही इधर आना 

कहां 'हिम' भागे से जाते हैं 

 बह्र: 122 2112 22



ग़ज़ल - 8 


युद्ध पसंद लोगों  का जो आपस में भिड़ जाना 

तो जिद की बलि चढ़ने को है निर्दोष ज़माना  


तरक़ीब ला कुछ धुंधली हों ये क़ौमों की लकीरें 

हर शख़्स को क्यों तो अलग तराज़ू में आज़माना  


माँ, बहन, पत्नी, बेटी, साथिन हैं जीवन में देवी 

इनके दुखो में देकर साथ असली भक्ति दिखाना 


चलता तो रहता है पंखा दिन रात कमरे में पर 

फिर भी भींगा रहता है इक बाप का सिरहाना


ये अजीब दुनिया कहे सद्कर्म तू करना लेकिन 

जीना है तो बिन पेंदी का लोटा बन लुढ़काना

बह्र: 22 22 22 22 22 22 2




ग़ज़ल - 9


जो कोई मौक़ा हो ख़ुशियों का, क्यों न मनाएं घुलमिल 

पूजा हो इबादत हो या प्यार असली तोहफा है बस दिल


दस दिन पूजन और विसर्जन है पर है मेरे पास फिर भी

अंतरात्मा की पूजा में हर दिन वह रहती शामिल 


इस छोटे से जीवन में किसको क्या मिलनेवाला है

जो किसी ने मेरा भला सोचा तो समझो सबकुछ गया है मिल


कोई प्यारा था ये हमें तो याद है पर उसे याद नहीं है

'हिम' जीवन को रखती हैं रौशन कितनी यादें झिलमिल


प्यासे से पथिक भटके सोने के रेगिस्तान में भर उम्र

न पहुंचे वेदना की सरिता तक न पाया उनको जल मिल

बह्र: 22 22 22 22 22 22 22 2 





ग़ज़ल - 10

 

जो हर कोई बदला हुआ था

मैं बेकार संभला हुआ था

ले जाओ जहां, हो बहार वहीं

शख़्स  फूलों का गमला हुआ था

घर जाकर वो फिर सो जाएगा

रोज होता है, हमला हुआ था

थे तो अनगिन फूल बगीचे में

उफ़ हर इक ही कुम्हला हुआ था

हम उसे समझे अपने बीच का ही

जो साहब का अमला हुआ था

हमने समझा गोवा का तट होगा

जहां सर्दी में शिमला हुआ था

'हिम' भी भूलें अपनों की यादें

इक प्यारा सा जुमला हुआ था

बह्र: 22 22 22 22 



ग़ज़ल - 11 


ठिठुरन मौसम में ही नहीं दिल में भी है

ये सूनापन भरी महफ़िल में भी है

जो चाहा वो नहीं मिलने की मायूसी

बिन मांगे सारा हासिल में भी है

बस इत्ती सी बात कि मुझको है प्यार

दुनिया सांसत में है मुश्किल  में भी है

वो बचेगा उसको बचाया जाएगा

ये ख़्वाब तो नज़रे-क़ातिल में भी है

अनजान नतीजा है पर इरादा तो हो

'हिम' जी तारों सा क्यों झिलमिल में भी है

बह्र: 22 22 22 22 22




ग़ज़ल - 12


सर्द मौसम में सब ठप्प है

काम होता नहीं, गप्प है

लड़ने वालों के साथी है सब

प्रेम में "दीपो भव अप्प" है

आशिकी सोच के निकला जो

प्याले में आ गिरा धप्प है

गाली दे जिसको-तिसको जी भर

नाम, धन से छपाछप्प है

'हिम' भले का जी खाता छड़ी

दोस्ती को लपालप्प है

बह्र: 212 212 212



ग़ज़ल - 13 


ख़ुद ख़ुश रह कर औरों को भी हंसाया जाय

क्यों न दुनिया को रहने लायक तो बनाया जाय


जीने के लिए आख़िर इतनी होशियारी क्या

अपना किरदार सही ढंग से निभाया जाय


आग ये जंगल की बस्तियों को भी जला देगी

आग हो कहीं भी उस आग को बुझाया जाय


ये है वो मुक़ाम कि उस गली को देखूं भी नहीं

पर उधर से न गुजरूं तो कहीं और न जाया जाय


'हिम' जो तस्वीर बनाए तो इक कूंची दे दो

और तस्वीर का कोई ख़ाका न दिखाया जाय

बह्र: 22 22 22 22 22 22 (मान्य छूट सहित)




ग़ज़ल - 14 


ये सर्दी जाएगी और वसंत ही आएगा

बचाए रख ख़ुद को तो समय सुधर जाएगा

कि ठोकरों से जो है भरा, है पथ शाइर का

गिराते धकियाते ही ये गाँव तक लाएगा

ये ज़िंदगी जी भी ले, उसी में कुछ कर भी ले

तू कोई जादूगर है जो कमाल दिखलाएगा ?

कहें वो बेहतर जिनको हो इल्म कुछ कहने का

सड़क किनारे की धूल से 'हिम' ये बतियाएगा

अगर बड़ा सपना है तो सोचो पहले ये भी

जकड़  जो है आजू बाजू क्या तू छुट पाएगा

बह्र: 1212 222 1212 222



ग़ज़ल - 15 

मुझे अब तक चलना नहीं आया

लाख चाहा छलना नहीं आया

उस मिजाज़ में गर्मी बेहद

और दिल को गलना नहीं आया

सोते हैं बड़े पर है बरकत

थके भूखों को जलना नहीं आया

इंतज़ार तो सौ साल चले

पर जी को बिलखना नहीं आया

तेरे काम का 'हिम' है तो कह

एहसान पे पलना नहीं आया

बह्र: 22 22 22 22



ग़ज़ल - 16 

ये अमरीकी नागरिकता क्या थी इतनी जरूरी
कि अपाहिज ले जन्म गर्भ की अवधि न हो पूरी

समझेगा क्या ख़ाक जीने के लिए सबसे अहम क्या
आँखों के सारे सपने ले गया कोई था टपोरी

तेरी वैज्ञानिकता रखूँ सर आँखों पर मैं भी
तेरे एटम बम से है बड़ी इंसानी बस्ती थोड़ी?

तू हमेशा ये उखड़ा हुआ सा क्यों रहता है हिम
कभी तो मेरे कहने पर तू भी गाया कर लोरी

अब कहनेवाला नहीं सुननेवाला हो शायर
कि उड़ेलने को बस मुश्किलें ही मैंने है बटोरी

बह्र: 22 22 22 22 22 22 2 (मान्य छूट के साथ)


ग़ज़ल - 17 

क्यों अपनी रूई ही धुनिए
आहट कोई आए तो सुनिए

कोई सहलाए तो हों चौकन्ना
गर दे ज़ख्म तो खुश हो गुनिए

पल प्यार के हैं बिखरे मोती
धीरे धीरे चैन से चुनिए

बेगानेपन में है बेदागी
पहचान न इक 'हिम' से बुनिए

रिश्तों का स्वाद भी है चोखा
वक़्त की अगन में इसे भुनिए

बह्र: 22 22 22 22 (मान्य छूट सहित)

ग़ज़ल - 18

आशिक सचमुच बड़े अनोखे होते हैं
खुश ही रहें कितने भी धोखे होते हैं

मैप जहाँ नदी बतलाए नाला भी नहीं
कुछ लोग हर जगह जल सोखे होते हैं

लोग कहाँ मिलते हैं पूरी तरह कोमल
हाँ कई लोग न बाहर से रूखे होते हैं

इश्क़ तमाशा ख़ूब ही चलता रहता है
ताली बजाते हैं कुछ रोके रहते हैं

किस्मत चमकने के कई आसार होते 'हिम'
काबिलियत और बहुत से खोखे होते हैं

बह्र: 22 22 22 22 22 2


ग़ज़ल - 19

एक पल भी बर्बाद नहीं करता
चर्चा के हालात नहीं करता

तुम आओगे तो मिलेंगे ख़ुशी से
पर तुमसे फ़रियाद नहीं करता

है ये शिकायत मशीनों को भी कि
क्यों उनको मै याद नहीं करता

बैठा रहता हूं कहीं बेमतलब
कम-से-कम अपराध नहीं करता

पुरानी दोस्ती सीने लगाए 'हिम'
उम्मीदों की बात नहीं करता

बह्र: 22 22 22 22 2 (मान्य छूट सहित)


ग़ज़ल - 20 हरी डाली और हरा तना है हर माली का यही सपना है

प्यार करना है तो ये लो किताब देख लेना कि क्या कुछ मना है
तुम क्या छीन लेने को कहते हिम तो खुद मिटने को बना है
उस मुल्क में सब उतरो संभल के कुछ न दिखता है कुहरा घना है
मस्तिष्क और स्नायु शिथिल पड़े धड़कन बची है संभावना है बह्र: 22 22 22 22



ग़ज़ल - 21

हवा हो ,थोड़ी कम सर्द  धूप थोड़ी सी गर्म हो

यार तेरी अदा ही नहीं कर्म में भी थोड़ी शर्म हो

बस उस जगह आ जाना तुमसे मिलूंगा मै जरूर

धधक रही सी जुबां का भी जहां प्यारा सा मर्म हो

जो चाहें तो बदल जाएँ सारे ही शब्दों के अर्थ

बस इंसानों का भला करने का अर्थ धर्म हो

जग में प्यार के काबिल ग़र  कुछ है तो नीयत है

बाकी सब तो धोखा है मुखड़ा हो कि चर्म हो

बाजारू तूफान से 'हिम' जो हो बेअसर निश्चिन्त

अंश के धारक को हो सतत लाभ ऐसा भी फर्म हो

बह्र: 22 22 22 22 22 22 2  



ग़ज़ल - 22

पथरीली राहों पर चलकर हमने डगर बनाई है

कितने सुख हैं खोए तब ही एक सफलता पाई है

जैसे पर्वत चढ़नेवाले धीरज अपना अडिग रखें

सांसें रोक के उतरे नीचे दम लेकर की चढ़ाई है

घर दफ्तर का सामंजस्य भी नट बन कर वो करता है

वक्त की रस्साकशी भी जिसने मुश्किल से सुलझाई है

वीर तू अपनी गाथाएं अब ऐसे क्यों यूं अलग सुना

हमने देखा है कि उनमें कौन बना परछाई है

सीख रचे अगली पीढ़ी भी एक सुनहला सा इतिहास

पर जो पिछली पीढ़ी का त्याग है उसकी नहीं भरपाई है

बह्र: 22 22 22 22 22 22 22 2



ग़ज़ल - 23

अजब आपाधापी थी

जीवन अंतिम बाजी थी

ये था जानां इश्क़ ही

या कोई बमबारी थी?

'हिम' ने सारी विद्या को

एक चरण-रज वारी थी

जो न उत्सव होना था

उसकी ही तैयारी थी

हो खड़ा चुप बैठना

सच की शायद बारी थी

बह्र : 2122  212

---

शायर - हेमन्त 'हिम' 

प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - hemantdas2001@gmail.com

हेमन्त 'हिम' की गज़लें (संस्करण-1) का लिंक - यहाँ क्लिक कीजिए

No comments:

Post a Comment

Now, anyone can comment here having google account. // Please enter your profile name on blogger.com so that your name can be shown automatically with your comment. Otherwise you should write email ID also with your comment for identification.