मित्रों, प्रस्तुत है मेरी कुछ गज़लें जो अगस्त 2024 से मार्च 2025 की अवधि के अंदर रचित की गईं हैं. आशा है आपको पसंद आएंगी. हेमन्त 'हिम' (hemantdas2001@gmail.com )
ग़ज़ल (Poem) - 1
जब आपकी सांसें आप हीं से बात करतीं हैं
ऎसी तनहाइयां मुश्किल से मिला करतीं हैं
When your breaths talk only to you
Such solitude comes rarely in view
किसी के आ जाने से तन के खिलता है गुलाब
किसी के जाने से पंखुड़ियां गिरा करतीं हैं
The rose blossoms fully on coming of some people
The petals fall desperately on departure of a few
घने बादलों से जैसे छनके सूर्य की किरणें
उसकी यादें मन में अठखेलियां करतीं हैं
Like the tinkling of Sunrays throuogh the dense forest
Her memories play pranks on my mind's sinew
पी कर गिरे पहले भी, पर लोग उठा लेते थे
अब 'हिम' गिरे तो मधुबालाएं हंसा करतीं हैं
Even ealier he fell down drunk but people lifted him
Now if 'Him' falls then the bar-girls raise a hue
कुछ बातें हों, कुछ अदा हो और हो जूनून सा कुछ
गहराइयां रूह की तब ग़ज़लें कहा करतीं हैं
If there is some matter and style tempered with passion
Then the depth of soul delivers a poem fresh and new
बह्र: 22 22 22 22 22 22
ग़ज़ल (Poem) - 2
मुहब्बत हथकड़ी हो जैसे
किसी को कुछ पड़ी हो जैसे
The love looks likes a handcuff
And I take it just as a puff
मुसीबत से यूं करें बातें
कि आँखें लड़ गईं हों जैसे
As if you have fallen in love
Give to adversity, a lot of guff
जो हिम्मत हारे तो 'हिम' कैसे
वो शिक्षक की छड़ी हो जैसे
After all, how 'Him' would dare lose heart
She is like a teacher's stick, rough
करूँ कुछ तो न यूं हंसों तुम
कि फिर से गड़बड़ी हो जैसे
If I do something, don't laugh prettily
It may create disturbance enough
लूं तेरे पांव के काँटों को
वो फूलों की लड़ी हो जैसे
I take the thorns from your foot
As if they were soft as flower, not gruff.
बह्र: 122 2112 22
ग़ज़ल - 3
बिन मतले के आई अंजाम तक ग़ज़ल थे हमीं
तुम इसे मेरी ज़िंदगी कह लो हम तो कहें डमी
कभी तो देखेंगे शायद वो औरों की मुश्क़िलें
कभी तो समझेंगे वो औरों को ख़ुद सा आदमी
कि थका जिस्म और चोटें ही तो हैं जो मैं चाहता हूं
ढूंढने वाले सपाट सड़क होते हैं बड़े वहमी
बस एक बात विचारों की है जो थे सब के ज़ुदा
श्रोता, समीक्षक या कवि में कुछ भी न थी कमी
रेल ये बदलेगी हर पड़ाव पर गंतव्य को
और है सब को पहुँच पाने की एक ग़लत फ़हमी
बह्र: 22 22 22 22 22 22 2
ग़ज़ल - 4
नफ़रत है तो हमें सजा देकर कुछ जी हल्का करो
न हो भरोसा तो जो चाहे मेरा मुचलका करो
तेरे दर्द के इल्म से हूं ज़ार ज़ार पर चाहूं
कि तुम हंसो अब भी न आंसू बन ढलका करो
पेट भी आधा खाली है और कपड़े भी हैं फटे
फिर भी जो मिले हैं हम तुम तो न क्यों तहलका करो
जल है मेरे नद का इसमें तू भी अपने डाल
देश सभी का है आदर तो मिश्रित जल का करो
माफ़ी दो कि उसूल को हर पल थामे रहते हैं 'हिम'
वैसे न हम कि अभी इस पल तो फिर उस पल का करो
बह्र: 22 22 22 22 22 22 2 (मान्य छूट सहित)
ग़ज़ल - 5
मक़सद हमारा न हमसे हमदर्दी जतलाना है
बस कुछ कहा है जिसे वहां तक पहुंचाना है
आँखों को मूँदे हुए जो भागता है उधर
उसने बताया ख़ुशी को इस तरह से पाना है
जीवन तुझे नाटकों और अफ़सानों में ढूंढा
पर जो मिला सच में वो नायाब नज़राना है
पत्थर को क्या है ख़बर, क्या है आंसू की ज़ुबां
किसको है देना सुखा, तो किसको नहलाना है
'हिम' को बला लगती है लफ़्ज़ों की कारीगरी
इंसां कोई कह दे तो शायर न कहलाना है
2212 212 2212 212 (मान्य छूट सहित)
ग़ज़ल - 6
जो दिख रहा है जैसा कहां कोई वैसा है
साफ़ दिल से कोई ख़फ़ा भी हो तो अच्छा है
इक टूटी हुई तख़्ती पर ख़रोंच सा कुछ है
लोगों का कहना है कि तेरा नाम लिखा है
है मसीहा जो फोन है करता बेमतलब
वरना जहां में किसको कौन पूछता है
फिर उसी दुकां पर जाकर चाय पीऊँगा
लोग उधर नहीं हैं वो, पर अब भी रास्ता है
मीठी सी उन यादों को ही इश्क़ कहो 'हिम'
रहता जिनसे ज़ेहन का ताउम्र वास्ता है
बह्र: 22 22 22 22 22 2 (मान्य छूट सहित)
ग़ज़ल - 7
जी, उर से उर को मिलाते हैं
चलो त्यौहार मनाते हैं
कि दरिया है जो जगत हित का
वहीं हित देश का पाते हैं
जो मतलब ही न है सौदे से
परेशां से क्यों हो जाते हैं
उजाले दिल को छुपा दें पर
अंधेरे तो न छुपाते हैं
हो मन जब तब ही इधर आना
कहां 'हिम' भागे से जाते हैं
बह्र: 122 2112 22
ग़ज़ल - 8
युद्ध पसंद लोगों का जो आपस में भिड़ जाना
तो जिद की बलि चढ़ने को है निर्दोष ज़माना
तरक़ीब ला कुछ धुंधली हों ये क़ौमों की लकीरें
हर शख़्स को क्यों तो अलग तराज़ू में आज़माना
माँ, बहन, पत्नी, बेटी, साथिन हैं जीवन में देवी
इनके दुखो में देकर साथ असली भक्ति दिखाना
चलता तो रहता है पंखा दिन रात कमरे में पर
फिर भी भींगा रहता है इक बाप का सिरहाना
ये अजीब दुनिया कहे सद्कर्म तू करना लेकिन
जीना है तो बिन पेंदी का लोटा बन लुढ़काना
बह्र: 22 22 22 22 22 22 2
ग़ज़ल - 9
जो कोई मौक़ा हो ख़ुशियों का, क्यों न मनाएं घुलमिल
पूजा हो इबादत हो या प्यार असली तोहफा है बस दिल
दस दिन पूजन और विसर्जन है पर है मेरे पास फिर भी
अंतरात्मा की पूजा में हर दिन वह रहती शामिल
इस छोटे से जीवन में किसको क्या मिलनेवाला है
जो किसी ने मेरा भला सोचा तो समझो सबकुछ गया है मिल
कोई प्यारा था ये हमें तो याद है पर उसे याद नहीं है
'हिम' जीवन को रखती हैं रौशन कितनी यादें झिलमिल
प्यासे से पथिक भटके सोने के रेगिस्तान में भर उम्र
न पहुंचे वेदना की सरिता तक न पाया उनको जल मिल
बह्र: 22 22 22 22 22 22 22 2
ग़ज़ल - 10
जो हर कोई बदला हुआ था
मैं बेकार संभला हुआ था
ले जाओ जहां, हो बहार वहीं
शख़्स फूलों का गमला हुआ था
घर जाकर वो फिर सो जाएगा
रोज होता है, हमला हुआ था
थे तो अनगिन फूल बगीचे में
उफ़ हर इक ही कुम्हला हुआ था
हम उसे समझे अपने बीच का ही
जो साहब का अमला हुआ था
हमने समझा गोवा का तट होगा
जहां सर्दी में शिमला हुआ था
'हिम' भी भूलें अपनों की यादें
इक प्यारा सा जुमला हुआ था
बह्र: 22 22 22 22
ग़ज़ल - 11
ठिठुरन मौसम में ही नहीं दिल में भी है
ये सूनापन भरी महफ़िल में भी है
जो चाहा वो नहीं मिलने की मायूसी
बिन मांगे सारा हासिल में भी है
बस इत्ती सी बात कि मुझको है प्यार
दुनिया सांसत में है मुश्किल में भी है
वो बचेगा उसको बचाया जाएगा
ये ख़्वाब तो नज़रे-क़ातिल में भी है
अनजान नतीजा है पर इरादा तो हो
'हिम' जी तारों सा क्यों झिलमिल में भी है
बह्र: 22 22 22 22 22
ग़ज़ल - 12
सर्द मौसम में सब ठप्प है
काम होता नहीं, गप्प है
लड़ने वालों के साथी है सब
प्रेम में "दीपो भव अप्प" है
आशिकी सोच के निकला जो
प्याले में आ गिरा धप्प है
गाली दे जिसको-तिसको जी भर
नाम, धन से छपाछप्प है
'हिम' भले का जी खाता छड़ी
दोस्ती को लपालप्प है
बह्र: 212 212 212
ग़ज़ल - 13
ख़ुद ख़ुश रह कर औरों को भी हंसाया जाय
क्यों न दुनिया को रहने लायक तो बनाया जाय
जीने के लिए आख़िर इतनी होशियारी क्या
अपना किरदार सही ढंग से निभाया जाय
आग ये जंगल की बस्तियों को भी जला देगी
आग हो कहीं भी उस आग को बुझाया जाय
ये है वो मुक़ाम कि उस गली को देखूं भी नहीं
पर उधर से न गुजरूं तो कहीं और न जाया जाय
'हिम' जो तस्वीर बनाए तो इक कूंची दे दो
और तस्वीर का कोई ख़ाका न दिखाया जाय
बह्र: 22 22 22 22 22 22 (मान्य छूट सहित)
ग़ज़ल - 14
ये सर्दी जाएगी और वसंत ही आएगा
बचाए रख ख़ुद को तो समय सुधर जाएगा
कि ठोकरों से जो है भरा, है पथ शाइर का
गिराते धकियाते ही ये गाँव तक लाएगा
ये ज़िंदगी जी भी ले, उसी में कुछ कर भी ले
तू कोई जादूगर है जो कमाल दिखलाएगा ?
कहें वो बेहतर जिनको हो इल्म कुछ कहने का
सड़क किनारे की धूल से 'हिम' ये बतियाएगा
अगर बड़ा सपना है तो सोचो पहले ये भी
जकड़ जो है आजू बाजू क्या तू छुट पाएगा
बह्र: 1212 222 1212 222
ग़ज़ल - 15
मुझे अब तक चलना नहीं आया
लाख चाहा छलना नहीं आया
उस मिजाज़ में गर्मी बेहद
और दिल को गलना नहीं आया
सोते हैं बड़े पर है बरकत
थके भूखों को जलना नहीं आया
इंतज़ार तो सौ साल चले
पर जी को बिलखना नहीं आया
तेरे काम का 'हिम' है तो कह
एहसान पे पलना नहीं आया
बह्र: 22 22 22 22
ग़ज़ल - 21
हवा हो ,थोड़ी कम सर्द धूप थोड़ी सी गर्म हो
यार तेरी अदा ही नहीं कर्म में भी थोड़ी शर्म हो
बस उस जगह आ जाना तुमसे मिलूंगा मै जरूर
धधक रही सी जुबां का भी जहां प्यारा सा मर्म हो
जो चाहें तो बदल जाएँ सारे ही शब्दों के अर्थ
बस इंसानों का भला करने का अर्थ धर्म हो
जग में प्यार के काबिल ग़र कुछ है तो नीयत है
बाकी सब तो धोखा है मुखड़ा हो कि चर्म हो
बाजारू तूफान से 'हिम' जो हो बेअसर निश्चिन्त
अंश के धारक को हो सतत लाभ ऐसा भी फर्म हो
बह्र: 22 22 22 22 22 22 2
ग़ज़ल - 22
पथरीली राहों पर चलकर हमने डगर बनाई है
कितने सुख हैं खोए तब ही एक सफलता पाई है
जैसे पर्वत चढ़नेवाले धीरज अपना अडिग रखें
सांसें रोक के उतरे नीचे दम लेकर की चढ़ाई है
घर दफ्तर का सामंजस्य भी नट बन कर वो करता है
वक्त की रस्साकशी भी जिसने मुश्किल से सुलझाई है
वीर तू अपनी गाथाएं अब ऐसे क्यों यूं अलग सुना
हमने देखा है कि उनमें कौन बना परछाई है
सीख रचे अगली पीढ़ी भी एक सुनहला सा इतिहास
पर जो पिछली पीढ़ी का त्याग है उसकी नहीं भरपाई है
बह्र: 22 22 22 22 22 22 22 2
ग़ज़ल - 23
अजब आपाधापी थी
जीवन अंतिम बाजी थी
ये था जानां इश्क़ ही
या कोई बमबारी थी?
'हिम' ने सारी विद्या को
एक चरण-रज वारी थी
जो न उत्सव होना था
उसकी ही तैयारी थी
हो खड़ा चुप बैठना
सच की शायद बारी थी
बह्र : 2122 212
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शायर - हेमन्त 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - hemantdas2001@gmail.com
हेमन्त 'हिम' की गज़लें (संस्करण-1) का लिंक - यहाँ क्लिक कीजिए
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