लीजिए आपके लिए प्रस्तुत है हेमन्त 'हिम' की कुछ ताजातरीन हिन्दी गज़लें जो मई से जुलाई 2024 के बीच रची गईं हैं. आपकी प्रतिक्रया हेतु कवि का ईमेल आईडी नीचे दिया गया है -
ग़ज़ल -1
वो आदमी से जब से पत्थर हो गया
श्रद्धानवत उस तले सब का सर हो गया
The moment that man turned to a stone
With reverence everyone bows heads own
ये व्यवस्था आपकी कोई नट है क्या
जिस तरफ मुड़े आप वो उधर हो गया
Is this a system or an acrobat
He turned the way your stance shown
ठीक था पता हम पहुंचे भी सही थे
पर न रहता था वो और का घर हो गया
The address was true and we reached exactly
But he had changed the residence and gone
कि किसी की हिफाजत को 'हिम' पहुंच गए
खूं से लथपथ पर अपना पांव से सर हो गया
Yea, 'Him' could reach for safeguarding someone
Though it looked like on his whole body was blood thrown
मेरे बोलने पर न जा, जो चाहता हूं सुन
ऐसा न था कि कहना पड़े, पर हो गया
Don't go by what I say just listen to my heart
It was never like that you wait for words to get me known
बह्र: 22 22 22 22 22
ग़ज़ल- 2
कोई है बीच भंवर और तैरना नहीं आता
और अपने लोगों में कोई बचाने नहीं आता
Someone is caught in a vortex and doesn't know to swim
And nobody among his relatives is there to save him
मैं तो आ गया हूं, देखो हूं सामने खड़ा
मत कह कि उधर से लौट के कोई नहीं आता
Yes I have come and am standing before you
"Nobody returns from there" is just a notion of whim
ये अदाओं में तेरे अंतर और समाकलन
पर कैलकुलस मैथ, इश्क़ को ये नहीं आता
In your delicate moves I see differentiation and integration
But I am totally unaware of Calculus Math's prim
विपदाओं को सहने की भी शक्ति देगी मौज ही
ऐसी खुशियों का पल बारम्बार नहीँ आता
My revelry will give me strength to bear adversities
Chances of coming of such fortunate moments are dim
विज्ञान के विद्वान कर लें नश्तर चुभो प्रयोग
सब्जेक्ट बने 'हिम' ये अवसर यूं नहीं आता
O learned scientist! Do experiment on me by pricking the needles
This is really a rare moment when in the role of a subject is 'Him'.
बह्र: 22 22 22 22 22 22 / अंतर= differential calculus, समाकलन= integral calculus
ग़ज़ल- 3
एक तरफ से आप बजाओ युद्ध का बिगुल
दूसरी तरफ से ग़ज़ले- दिल और गुल
बस एक पल 'हिम' ने मांगा था जीवन
उसने कहा कि दे दो अपनी सांसें कुल
बारिश में नदी है उफान पर अद्भुत
कहीं टूट न जाए हर एक निर्मित पुल
दीवारों से कभी बाहर निकल के देख
बंद रास्ते भी कई जाएंगे खुल
क्यों वे डरते हैं ख़ुद को होश न आ जाए
कोई दाग ऐसा नहीं जो न जाए धुल
बह्र: 22 22 22 22 22 (मान्य छूट सहित)
ग़ज़ल- 4
पल में बिगड़ना पल में सुधरना
काँटों की राहों में बच के उतरना
सावन ही मेघों का धीर तोड़े
जानें वो पहले धीरज बरतना
तितली उड़े कुछ हौले यहां अब
लोगों की ख़्वाहिश, पर को कतरना
दादी ने रक्खा है वो बिछौना
सीखा शिशु ने जिसपर पलटना
'हिम' मोह माया ये जग के रिश्ते
कपड़ों के सीवन का जैसे उधड़ना
बह्र: 22 122 22 122
ग़ज़ल-5
ज़िन्दगी ये है वो अक्षांश जहां दिन नहीं होता
रात जाती नहीं चाहे तू जगे या रहे सोता
दूसरों के हो विचारों से प्रभावित वो ख़फ़ा है
किन्तु उसने जो न अपना हमें माना तो क्यों रोता
कैसी उलझन ये है किसको कोई समझे यहाँ अपना
वो जहां पर मैं हूं अब तक या वो जो है मुझे खोता?
दोस्तों अपनों को पा ले कोई तो फिर न वो खोए
तप्त से एक मरुस्थल में भी हो जल का वो सोता
जानते हैं ये कि कोई न है आशा कि रुके जंग
फिर भी देते रहेंगे चैन अमन का ही ये न्योता
बह्र: 2122 1122 1122 1122
ग़ज़ल- 6
समझें खुद को धुरी वो,औरों के जीवन को कक्षा
और वही करनेवाले हैं पूरे समाज की रक्षा
जीवन में यारों सब को, केवल खोना, खोना है
जाए कोई तो बड़े प्रेम से, यही है जीवन-शिक्षा
उसके निकट गया तो पाया यह कि वह मनुष्य नहीं था
वैसे दूर से तो दिखा था मुझको मानव का ही नक्शा
क्या कुछ फेंटा है प्यार में अगर न मिले तो अच्छा
कोई नफरत भी दे दे सच्ची तो मांग लूं वह मैं भिक्षा
चोट, तड़प, अश्रु और वीरानी का पूरा एहसास
'हिम' ने पलों को पूरा जीया करके पूर्ण तितिक्षा
बह्र: 22 22 22 22 22 22 22 (मान्य छूट सहित)/ तितिक्षा- सहनशीलता
ग़ज़ल- 7
इतनी आग कहां तक आप ले जाएंगे
कुछ न मिलेगा तो क्या ख़ुद को सुलगाएंगे
एक अदद सी ज़िंदगी एक अदद सा प्यार
इस अनहोनी से कब तक जी बहलाएंगे
आपका मुंह उधर है मेरा मुंह इधर
जैसे भी चलें लेकिन वहीं पर आएंगे
दरिया तो है आग ही का पर इश्क़ नहीं
जितना उतरेंगे उतना ही सुकूं पाएंगे
'हिम' पागल रहकर यहीं, सोचें भला बुरा
कैसे ये समझेंगे कैसे हम समझाएंगे?
बह्र: 22 22 22 22 22 2 (मान्य छूट के साथ)
ग़ज़ल- 8
बादल है बारिश है
दिल में अजब सी कशिश है
वैसे तो कमरा भरा है
तुम हो तो गुंजाइश है
प्यार में कैसा जाना
कल की फिर ख़्वाहिश है
तुम उसे कहते हो झरना
जानूं मैं कि आतिश है
जज मुजरिम गलबहियां
कौन करे नालिश है
बह्र: 22 22 22
ग़ज़ल- 9
लोगों ने माह पर लिखा और फिर महजबीं पर लिखा
हमने तो एक जोड़ी नयनों की डबडबी पर लिखा
क्या ख़्वाब थे ये सोचकर नाहक़ न तू समय गंवा
असली जो हैं लिखावटें, पढ़, अब उन्हें उधर दिखा
छोटी सी ज़िंदगी में भारी प्रपंचों का प्रहार क्यों
इतने विलक्षण चित्र पर मत झाड़ कजरा वर्तिका
मालूम क्या कि सब जा पाएंगे भी या नहीं वहाँ
जिस बिंदु पर हमें किसी ने प्यार को दिया सिखा
इतनी है हड़बड़ी कि कुछ कैसे हो बात पूर्ण भी
'हिम' की अधूरी ही रहेगी हर ग़ज़ल की पुस्तिका
बह्र: 2212 1212 2212 1212
माह =चांद, महजबीं =चंद्रमुखी, कजरा = काजल सा काला, वर्तिका= पेंटिंग का ब्रश
ग़ज़ल- 10
शायद कुछ राहें ही हों इक तरफ़ा
ये कर या वो कर, वो तो हो ख़फ़ा
सीमा पर केवल युद्ध ही हों क्या
तोप नहीं ले जा, तू गुल तोहफा
कहते हैं जीने दो, बाद में सोचेंगे
क्या होती है वफ़ा, क्या और जफ़ा
झगड़ा हुआ था, बात ये है पक्की
क्यों पूछते हो कि कब कि किस दफ़ा?
जो अपने वे न कभी होते हैं बुरे
दीया ले 'हिम' देख उस दिल की गुफा
22 22 22 22 2
ग़ज़ल- 11
हर रोज़ जब लोग जाते हैं काम पर
लिखते हैं 'हिम' अर्जियां उसके नाम पर
हरदम तेरी शान, रुतबा आगे बढ़े
तू छोड़ चिड़िया तो उसके ही बाम पर
अबतक बदल कितने मौसम भी हैं गए
पर वो वहीं बैठे हैं खूँटा थाम कर
हम ले हुनर थे गए, लेंगे कुछ कमा
देखे वहाँ दिल ही सब थे नीलाम पर
कुछ ज्यादा मॉडर्न मानो हो उम्र, दिन
विश्वास है जो सुबह पर, क्या शाम पर?
2212 2122 2212 /बाम =छत
ग़ज़ल- 12
खुद से नजरें मिला पाएं तब है मज़ा
और हो गलती तो शरमाएं तब है मज़ा
सांस तो लोग ले ही लिया करते है
क़ुछ जो ताज़ा पवन पाएं तब है मज़ा
ये मरुस्थल सा क्यों? सब हैं टीले अलग
सब के एहसास घुल जाएं तब है मज़ा
बदले का सिलसिला अब तो हो ख़त्म भी
भूल जो कुछ कभी जाएं तब है मज़ा
अपनी बातें यूं तो कहता रहता है 'हिम'
लोग इसे सुन भी जो पाएं तब है मज़ा
बह्र: 212 212 212 212
ग़ज़ल-13
फ़र्क़ मयखाने में क्या कि किधर भी जाऊं मै
जश्न में आज जो आए हो, क्या पिलाऊं मैं?
एक्जिट पोल कोई मेरा भी करा लेना
जीत या हार है क्या, मान बैठ जाऊं मैं?
करना क्या है जो मैं कुर्सी पे बैठने जाऊं?
सब हैं इस बात से लाभान्वित, बताऊँ मैं
वो जो ग़ायब सा है उम्मीदवार, मेरा है
और सरकार है बनने को, क्या गिनाऊं मैं?
काश होती जो ये कुछ भी चुनाव से हट कर
ज़िंदगी तब न मैं कहता कि जी ये पाऊं मैं
बह्र: 2122 1122 1212 22
ग़ज़ल-14
सूरज राख हो जाए इतना गुस्सा वो
सब हैं सर को झुकाए कि क्या करेगा वो
शायरी वैसे तो चीज बहुत है बेमतलब
वैद्य से इंकार जो ले, करती चंगा वो
दूसरे पक्ष को भी सुनिए तो होगा तनाव
पर उसी वक़्त से कम भी होने लगेगा वो
वो नफ़रत मुझसे करे हरदम इस तरह
शर्त ये है यूं ही साफदिल रहेगा वो
बाप जो बन जाए तो कोई बड़ी बात नहीं
तप तप के रोज मुसकाए तो समझेगा वो
बह्र: 22 22 22 22 22 2
ग़ज़ल-15
जज़्बा तो जरूरी है पर जाना न बह
कि न वो बन जाए दूरी की एक वजह
अदिति को तू देख अदिति की तरह ही
कि वो क्यों बन जाए माधुरी की तरह
सब से आगे रूह में कौन बैठा है
जिनके दम से हैं, बूढ़ों को मिले जगह
अपनापन वश 'हिम' ने नाम जो पूछा
बस इतने पर ही वो करने लगा ज़िरह
रिश्ते गर उलझें तो बात हो उस पर
उलझन में मज़ा है जब तक हो न गिरह
बह्र: 22 22 22 22 22
ग़ज़ल- 16
चलो सब का क्यों न भला सोचें
ख़ुशी बांटने की ही कला सोचें
जो है रो रहा उसको हंसा दो तुम
गिरे जो उसका हौसला सोचें
पानी न रुका रहे पोखर में
इतराता सा बुलबुला सोचें
ये भोलापन 'हिम' को मिले फिर
जो बढ़ी उम्र है भुला सोचें
जन्म से जो प्रेम है वो तो बचे
कि बनाएं वैसा किला सोचें
बह्र: 22 22 22 22
ग़ज़ल- 17
क्या पाया ये न देख, देख कि मन्नत कितनी थी
हारे खेल या जीते, उसके लिए शिद्द्त कितनी थी
आप ये कहते रहे कि न्याय रहेगा मिल के ही
मैंने देखा कि पग पग पर ही फ़ज़ीहत कितनी थी
कहां है इंसान कोई, सब तो सियासतदां ही हैं
जिसने दिया था साथ उसको इसकी हसरत कितनी थी
सोच के मैं कहीं और का चला, पहुंचा और कहीं
ऊपर से रास्ते में न पूछ दिक्कत कितनी थी
दोस्त न भूलते हैं कि ख़ूब कभी झगड़े भी थे हम
'हिम' याद रखें उसके पहले मुहब्बत कितनी थी
बह्र: 22 22 22 22 22 22 2 (मान्य छूट सहित)
ग़ज़ल- 18
इतनी है मुश्किलें कि किधर जाते
पहलू में हो कोई तो जा मर जाते
रोशनियों का खुला हो जो दरवाजा
ऐसा अंधेरे दिल को वो कर जाते
हम धीरे धीरे ही तो बिगड़ते हैं
जल्दी कहां ही आप सुधर जाते
पाताल कुछ अलग हो जो जीवन से
तो सीढ़ी ले वहां भी उतर जाते
'हिम' गर ले हौसला जो चले बाहर
बिन कुछ किये तो फिर न ये घर जाते
बह्र : 221 2121 1222
👌👌👌😍
ReplyDeleteगज़लें पसंद करने हेतु आभार.
Delete