लेखन को निर्भीक रखने हेतु साहित्यकार कलात्मक हथियारों का प्रयोग करें
दिनांक 4.5.2025 को माध्यमिक शिक्षक संघ भवन, पटना में आयोजित डॉ. ब्रज कुमार पाण्डेय स्मृति परिचर्चा और कविगोष्ठी संयोगवश देखने-सुनने का अवसर प्राप्त हुआ जिसका विवरण प्रस्तुत कर रहा हूं -
प्रलेस की पटना इकाई के कार्यकारी सचिव जय प्रकाश ने परिचर्चा सत्र का संचालन किया. अध्यक्षता संतोष दीक्षित ने की.
विद्युत पाल एक जाने-माने बांग्ला कवि और बिहार हेराल्ड के संपादक हैं. उन्होंने कहा कि वैचारिक प्रतिबद्धता कहने भर से काम नहीं चलेगा, यह भी कहना होगा कि प्रतिबद्धता किसके साथ है. जहां संवेदनशून्यता को "न्यू नॉर्मल" माना जा रहा है वहाँ हमें नया "एब-नॉर्मल" पैदा करना होगा. उन्होंने यह भी कहा कि सिर्फ प्रतिबद्धता भी अपने-आप में पर्याप्त नहीं. लिखने में सृजनात्मक गुणवत्ता का तो ध्यान रखना ही होगा. मानवीय अंतस्थल में जो अंतर्विरोध और विडंबनाएं हैं उनको उजागर करना लेखक का दायित्व है.
तरुण कुमार पटना कॉलेज के पूर्व प्राचार्य रहे हैं. उन्होंने 1965 ई. के आसपास की चर्चा करते हुए बताया कि प्रतिबद्धता को मार्क्सवाद से जोड़कर देखा जाने लगा. वर्ग-संघर्ष और साम्यवाद की बातें खुलकर साहित्य में आने लगीं. पर मार्क्सवादी आलोचकों का ध्यान कॉन्टेक्स्ट (सन्दर्भ) पर ज्यादा रहा और उसके कारण टेक्स्ट पर कम रहा. कई मार्क्सवादी आलोचकों ने जहाँ यू-टर्न ले लिया वहाँ नामवर सिंह ने ऐसा नहीं किया. तरुण कुमार ने कहा कि रचना में वैचारिक प्रतिबद्धता होनी तो अवश्य चाहिए पर पूरी तरह दृश्य नहीं. वह बात दृश्यादृश्य के रूप में होनी चाहिए. जब-जब रचनाओं में वैचारिक प्रतिबद्धता बहुत दृश्य रूप में रखी जाने लगी है तो उससे न तो साहित्य का भला हुआ है न ही उस वैचारिक राजनीति का.
साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक शीर्ष साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित अरुण कमल ने डॉ. ब्रज कुमार पाण्डेय को एक मार्क्सवादी विद्वान् बताया. उन्होंने कहा कि लेखक छोटा हो या बड़ा उसकी एक सामाजिक भूमिका भी होती है. जिस समाज ने उसको भाषा रूपी धरोहर दी है जिसमें वह अपनी सृजनात्मकता का प्रदर्शन कर सके उस समाज के प्रति उसका भी दायित्व बनता है कि वह उसके बारे में सोचे और लिखे. अरुण कमल ने कहा कि सिर्फ मौन से काम नहीं चलेगा. पक्ष तो लेना ही होगा. यदि लेखक सत्ता से लाभ की आशा रखेंगे तो वे बड़े लेखक नहीं बन पाएंगे.
प्रसिद्ध नाटककार ह्रषीकेश सुलभ ने कहा कि बिना विचार के कोई लेखक हो ही नहीं सकता. प्रतिबद्धता तो उसके बाद की बात है. पर हमें यह भी समझना होगा कि राजनीतिक प्रतिबद्धता से अलग होती है साहित्यिक प्रतिबद्धता. उन्होंने माना कि मार्क्सवाद आज तक के इतिहास में मनुष्य के द्वारा मनुष्य के लिए देखा गया सबसे सुन्दर स्वप्न है. पर यह भी सत्य है कि राजनीतिक प्रतिबद्धताएं तो समय और परिस्थिति को देखते हुए अपनी दिशा बदलती रहती है तो क्या साहित्यकारों को भी अपनी प्रतिबद्धता उन्हीं के अनुकरण में बदलते रहना चाहिए? उनका उत्तर था- बिलकुल नहीं. साहित्यकारों को बिना विचलित हुए हमेशा अपनी प्रतिबद्धता को अडिग रखनी चाहिए. एक चुटकी भरे अंदाज में उन्होंने कहा कि प्रतिबद्धता तो दूसरी ओर भी है जो किसी भी तरह से सबको जबरदस्ती अपने अनुकूल कर लेना चाहते हैं.
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में कथाकार, उपन्यासकार संतोष दीक्षित ने भाववादी लेखन सामयिक घटनाओं की अनुक्रिया में होता है जबकि शाश्वत लेखन अपनी प्रतिबद्धता के आधार पर होता है. सत्ता का डर तो रचनाकारों को होता ही है जो बिलकुल स्वाभाविक है पर उसका सामना करने के लिए उनके पास अनेक कलात्मक हथियार होते हैं. उन्होंने यह भी कहा कि तीर आया और कोई जख्मी हुआ तो सिर्फ उसके दुःख पर न लिखकर रचनाकारों को चाहिए कि वो इस पर भी लिखें कि तीर किस ओर से आया.
परिचर्चा के बाद कवि-गोष्ठी चली जिसका संचालन राजकिशोर राजन ने किया.
पृथ्वी राज पासवान ने मगही में एक कविता पढ़ी -
;; सांप गेलौ बिल में, अब धंसला डेंगेला से की होतौ ..
सोहन चक्रवर्ती ने अपने द्वारा अंग्रेजी में अनुदित अरुण कमल की रचना पढ़ी - जिसने खून होते देखा...
उपांशु ने भी ग्रीष्म ऋतु का बिम्ब रचते हुए अपनी कविता पढ़ी -
.. गर्मी के साथ केवल हारे हुए लोग जीते हैं ..
गुंजन पाठक उपाध्याय ने 'गिरवी' शीर्षक की अपनी कविता पढ़ी -
.. अब लाला के पास कंगन नहीं
जुबानें गिरवी रखीं जाएंगीं ..
पंकज प्रियम ने प्रतिरोध का शंखनाद करते हुए कहा -
..होश में आ जालिम, होश में आ ..
अंचित ने अपनी भावनात्मक कविता पढ़ी -
..मन बिना मुकदमे जेल में पड़ा एक हसीन लड़का है
जो गेहूँ की बालियों पर एक बदन छोड़ आया है,
जो सीख गया विदा लेने के सारे करतब,
जो अनलहक कहता हुआ वज़ू करना चाहता है ..
विजय कुमार सिंह ने जीवन के बिखराव पर कविता पढ़ी -
..कितना चिन्न-भिन्न है धूप
कितना खंड खंड है जीवन ..
प्रियदर्शी मातृशरण ने जनमानस की भीरुता पर प्रहार करते हुए 'रीढ़' शीर्षक कविता पढ़ी -
..एक अदद रीढ़ की दरकार थी साहब
मिलेगी क्या? ..
राजेश शुक्ल ने 'सिलबट्टा' शीर्षक कविता पढ़ी -
..आज अचानक कौंधा उसका आलाप
जो चकाचौंध में खो गया
जिन्दगी की एक लय से
नाता ही टूट गया ..
राजन कुमार ने देश के बिगड़े हालात पर कविता पढ़ी -
.. देश के बिगड़े हुए आज हालात हैं
जेल में डालते हैं उनको जो कहते सच्ची बात हैं ..
आदित्य कमल ने एक ग़ज़ल सुनाई जिसके कुछ शे'र यूं थे -
पता करो तुझे पता कुछ है
वो कहता कुछ करता कुछ है
गज़ब निज़ाम अंधों का यह
बिन ख़ता के सजा कुछ है
श्रीधर करूणानिधि ने कविता को बचाए रखने की बात की -
.. कोई है जो कविता को
बचा ले जाता है ..
विद्युत पाल ने अपनी कविता में बालिका शिक्षा का प्रसंग उठाया -
.. वह लड़की आ रही है
बुद्ध का हाथ थाम कर ..
शहंशाह आलम ने बिना किसी लाग-लापट के आज के सन्दर्भ में अच्छे आदमी को परिभाषित करने का जोखिम उठाया -
.. एक अच्छा आदमी होने के नाते मैंने
एक नाव खरीद ली यह सोचकर कि
इससे दूसरे आदमियों को नदी पार करा सकूंगा
और अपने बच्चों के लिए कुछ रोटियाँ ला सकूंगा
बुरा आदमी होने के नाते उन्होंने
पूरा दरिया खरीद लिया यह सोचकर कि
वे इस तरह मीठे पानी को बेच-बेचकर
अपनी प्रेमिका के लिए महल खड़ा सकेंगे ..
ओसामा खान ने जीवन के मोहभंग की स्थिति को उजागर करते हुए कविता पढ़ी -
.. न दर्द है न सूनापन
न कसक है न अधूरेपन की टीस
उल्लास है खुशी है
इस बात से अंजान
मुंडेर पर बैठा काल का गिद्ध
सब देख रहा है
और सही समय अपने
पंख फैलाने का इन्तज़ार कर रहा है ..
गौरव ने रावण-दहन की प्रथा के वैचारिक आधार पर प्रश्नचिन्ह खडा करते हुए अपनी कविता पढ़ी जिसमें उन्होंने इस प्रथा को मानवता के मूल सिद्धांतों के प्रतिकूल बताया.
अरुण कमल ने हिन्दी साहित्य जगत की अपनी सुप्रसिद्ध कविता पढ़ी जिसकी अंतिम पंक्तियाँ यूं थीं -
..अपना क्या है इस जीवन में
सब तो लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का
अपनी केवल धार।
कुमार मुकुल ने भी अपनी एक कविता पढ़ीं जिसकी पंक्तियाँ इस रपट के लेखक द्वारा नहीं नोट की जा सकीं.
राजकिशोर राजन ने "बसमतिया बोली" शीर्षक कविता में कविता को सामान्य, ग्रामीण मेहनतकश लोगों के जीवन से जोड़ने की बात की. कुछ पंक्तियाँ देखिए -
.. कवि-कर्म वैसा ही जैसे
बढ़ई, किसान, लोहार का
अब गाछ पर बैठना छोड़
भुइयाँ उतर आओ ..
अन्य अनेक साहित्यकार और साहित्यप्रेमी भी कार्यक्रम में उपस्थित थे जिनमें चर्चित लेखक अरुण सिँह, वरिष्ठ चित्रकार अर्चना सिन्हा, ए. एन कॉलेज में उर्दू के प्राध्यापक मणिभूषण कुमार, प्राच्य प्रभा के सम्पादक विजय कुमार सिँह, कुमार सर्वेश, रौशन कुमार, अरुण कुमार मिश्रा, पुरुषोत्तम, राकेश कुमार, आशीष रंजन, हेमंत दास हिम, निखिल कुमार झा, मंगल पासवान, गौरव अरण्य, अनिल कुमार राय, गजेंद्र कान्त शर्मा, निखिल कुमार, अभिषेक विद्रोही, राहुल, राजन, राजीव रंजन, अशोक गुप्ता, रमेश सिँह, सुनील कुमार आदि शामिल थे.
अंत में अनीश अंकुर ने कार्यक्रम में भाग लेनेवाले और उपस्थित सभी लोगों का धन्यवाद ज्ञापन किया.
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रपट के लेखक - हेमन्त दास 'हिम'
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नोट: जिन कवियों की पंक्तियाँ अधूरी शामिल की जा सकीं हैं या जो रपट में कुछ सुधार चाहते हैं वे ऊपर दिए गए ईमेल पर अथवा रपट लेखक के फेसबुक वाल / इनबॉक्स पर शीघ्र संपर्क करें. कुछ दिनों के बाद सुधार संभव नहीं होगा. चाहें तो कार्यक्रम की साफ़ फोटो भी दे सकते हैं.
































