यह लोकतंत्र का पर्व है या तमाशा / इल्जाम सब पे लगा रहे बेतहाशा
चुनाव के दौर में शायरों की महफिल! दोनो अपने आप में तूफानी और मिल जायें गर तो कयामत ही समझिये.
एक शायर यूँ तो खोया-खोया सा दिखता है मानो उसे दीन-दुनिया से कोई वास्ता ही न हो. लेकिन दरअसल वह समाज, देश और दुनिया की फिक्र में ही लगा रहता है दिन-रात. इश्क तो एक बहाना है प्रेम के पैगाम को एक-एक आदमी में तक पहुँचाने का ताकि बातें रूमानी लगें उपदेश नहीं.
आईटीएम काव्योत्सव नवी मुम्बई की अत्यंत सक्रिय साहित्यिक संस्था है जो हर माह पहले रविवार को कवि गोष्ठी आयोजित करती है. दिनांक 5.5.2019 को खारघर में स्थित देश के प्रतिष्ठित प्रबंधन शिक्षा संस्थान आईटीएम में आयोजित गोष्ठी में अनेक नामचीन शायरों के साथ-साथ अनेक ऊर्जावान कवि-कवयित्रियों ने भारी संख्या में अपनी प्रतिभागिता दिखाई. अध्यक्षता की चेतन फ्रेमवाला ने और संचालन किया भारत भूषण शारदा ने.
कार्यक्रम का आरम्भ वंदना श्रीवास्तव के अत्यंत सुरीले स्वर में सरस्वती वंदना से हुआ और फिर सभी ने पूरे सम्मान के साथ सामूहिक राष्ट्रगान किया. फिर एक-एक कर सभी कवियों को काव्य पाठ हेतु आमंत्रित किया गया. खास बात रही भारत भूषण जी का कुशल मंच संचालन जिसके कारण इतनी बड़ी संख्या में रचनाकारों के होने के बावजूद तीन घंटे के अंदर इस कार्यक्रम का समापन हो पाया.
नीचे प्रस्तुत है कवि-कवयित्रियों द्वारा पढ़ी गई रचनाओं की झलकी -
सेवा सदन प्रसाद -
यह लोकतंत्र का पर्व है या तमाशा
इल्जाम सब पे लगा रहे बेतहाशा
सबको अपनी औकात दिखा देगा
एक अदद मतदाता, एक अदद मतदाता
अनिल पुरबा-
लेकिन फिर मुझे याद
मैं अब मतले का नहीं
मकते का शेर हो चला हूँ
विमल तिवारी -
अवशेष नहीं हम तो हैं विशेष यहाँ
खेत, खलिहान, नगर-गाँव, देश जहाँ
नियम, कानून बनते हैं सबके लिए
पर विडम्बना! ये कुछ ही पर थोपे गए
हनीफ मो. हनीफ -
सामने इसके तो हर राज आशीकारा है
इब्ने-आदम तू क्यूँ छुपकर गुनाह करता है
चंद सिक्कों के ऐबत थे सबात दुनिया में
आकबत तू क्यू कर तबाह करता है
नजर हयातपुरी -
पोंछकर आँसू किसी का दश्ते- शफकत रख के देख
जीस्त की लज्जत से तू भी आशना हो जाएगा
तोड़ देगा उम्र भर का सिलसिला सोचा न था
वो जरा सी बात पर मुझसे वो खफा हो जाएगा
हुनर रसूलपुरी -
हर खुशी साथ मेरा छोड़ गई / इक तेरा गम शरीके-हाल रहा
खुद से गाफिल रहा हुनर तेरा / इसको जब तक तेरा ख्याल रहा
..
क्यूँ जुदा करते हो, रहने दो जमानेवालों / खार शामिल तो गुलाबों में नजर आते हैं
देखनेवालों जरा बदलो नजरें अपनी / अच्छे अच्छे तो खराबों में नजर आते हैं
राम प्रकाश विश्वकर्मा -
आदमी को काटने से डरते हैं विषधर भी अब
कि वह उनसे कहीं ज्यादा विषैला हो गया है
क्रूरता, पशुता सिहर उट्ठी है 'विश्व' सुनकर यह
इंसान का ताजा लहू एक मय का प्याला हो ग्या है
अशवनी 'उम्मीद'-
अधूरी हसरतों के बाद शेर बनता है
खुशी की नेमतों के बाद शेर बनता है
कभी तो एक ही दिन में बहुत ये बनते हैं
कभी फिर मुद्दतों के बाद शेर बनता है
डॉ.सतीश शुक्ल-
इसलिए इंसाफ का तकाजा है
जब तक चुनाव है
तब तक बिजली गुल रहेगी
हम दोनों ही पसीना बहाएंगे
हम सड़क पर तुम घर पर
चंद्रिका व्यास -
फिर दिल ने कहा
ज़िंदगी में नेकियाँ
गिनाई या बताई नहीं जाती
महसूस की जाती है
विजय भटनागर -
वो जमाने लद गए जब होते था जौहर, रिवाज कुर्बानी का
अब औरतें सीखती हैं कराटे, अब कोई अबला नहीं
'विजय' चाहता है घर ऐसा सब का इस्तकबाल हो
चाहे उसका घर छोटा हो, चाहिए उसे बंगला नहीं
सत्य प्रकाश श्रीवास्तव -
माना / कई मुद्दों पर विरोध है उनका
उस विरोध का सवागत है
पर राष्ट्र का गौरव जिसने दिलवाया
"भारत रत्न" के लिए वो लायक है
अशोक वशिष्ठ -
तोते सारे खा गए, कुतर कुतर कर आम
दिल्ली तक पहुँचा नहीं , होरी का पैगाम
होरी का पैगाम, मर गई भूखी धनिया
गिरवी रखा मकान, हड़प कर बैठा बनिया
कुलदीप सिंह -
बन जाते सब यार, बिगड़ते काम बनाता
कैसे कैसे काम यहाँ, पैसा करवाता
यहाँ कोई बलवान नहीं है पैसे जैसा
सभी नवाते शीष, पास में हो यदि पैसा
भारत भूषण शारदा -
आँख में भर आया पानी रे रसिया / बोझ बना जिंदगानी रे रसिया
बाप गरीब, गँवारन मैया / बाल मजूरी करता भैया
अनपढ़ रही इसी से प्रीतम / मेरी खता क्या ज्ञानी रे रसिया
शोभना ठक्कर -
तुम गम से बेजान हुए हो
तो मुझ में भी जान कहाँ है
चूमा था कभी प्यार से तुमने
हर गुल पे वो अब भी निशाँ है
दिलीप ठक्कर 'दिलदार' -
नैन में सपने सजाना सीख लो
रेत पे भी घर बनाना सीख लो
दुश्मनों से भी रहो 'दिलदार' तुम
दोस्तों से हार जाना सीख लो
विश्वम्भर दयाल तिवारी -
व्यापारी नाराज हुए तो, सब दयाल बौराये हैं
गाँव से सीधे किसान जब, साग बेचने आये हैं
थोड़े सदचिंतन अनुभव से, नेताओं की नीयत परखें
चुनना होगा कोई बेहतर, आओ अपनी सीरत परखें
त्रिलोचन सिंह अरोड़ा -
विवशता / माँ गरीबी की बेटी है
इसलिए / भूख के बिस्तर पर लेटी है
उसपर लेटा है / धन का साया यानी धनीराम
वंदना श्रीवास्तव -
फायदा देख के ये रंग बदल लेते हैं
अपने किरदार से गिरगिट को लजानेवाले
तुम बढ़ाओगे तो काट के ये ले जाएंगे
सब नहीं होते यहाँ हाथ मिलानेवाले
हेमन्त दास 'हिम' -
मिली / एक छोटी टूटी हुई सी पेंसिल
बस / उड़ेल डाला अपने आप को समूचा
और इस तरह से तैयार की मैंने एक मुकम्मल कविता
ठीक उसी तरह / जैसे मैं जीवन जीता आया हूँ अब तक
कार्यक्रम में जे.पी. सहारनपुरी ने भी अपनी ग़ज़लें सुनाकर श्रोताओं की वाहवाही लूटी.
कार्यक्रम के अंत में अध्यक्षता कर रहे चेतन फ्रेमवाला ने पूर्व में पढ़ी गई रचनाओं पर अपना मंतव्य प्रस्तुत किया और फिर अपनी कुछ सुंदर ग़ज़लें पेश की-
चेतन प्रेमवाला -
हर तरफ प्यास से था झुलसता जहाँ
और मैं एक घूँट में इक नदी पी गया
रोज लड़ता रहा पेट की आग में
रोज चोट समझ आखरी पी गया
शक्लो सूरत नहीं, दिल खड़ा चाहिए
एक नजर झुक गई सादगी पी गया.
अंत में अध्यक्ष की अनुमति से काय्रक्रम की समाप्ति की घोषणा हुई.
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आलेख - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया
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बेहतरीन अंदाज़ में गोष्ठी की रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद ।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद, महोदय।
Deleteबेहतरीन अंदाज़ में एक सफल गोष्ठी की रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए आपका हार्दिक आभार धन्यवाद ।
ReplyDeleteएक से बढ़कर एक काव्य रचना।अति सुन्दर कार्यक्रम।
ReplyDeleteधन्यवाद. blogger.com पर log in करके टिप्पणी करने से यहाँ उसके प्रोफाइल वाला नाम स्वत: दिखना चाहिए.
Deleteभाई हेमंत जी बहुत सुंदर रिपोर्टिंग और उतना ही अच्छा छाया चित्रों का विन्यास। पूरी संगोष्ठी के दौरान आपका लगातार गतिविधियों में लिप्त रहना इस रिपोर्टिंग का आधार होती है। बहुत-बहुत धन्यवाद और हार्दिक बधाई
ReplyDeleteसराहना हेतु आपका हार्दिक आभार।
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