जो लोग अंधेरों से नहीं लौट के आये / मैं उनके मुकद्दर का पता ढूँढ रहा हूँ
जहाँ चार यार मिल जाएँ वहाँ.... भले ही कुछ और होता हो लेकिन जहाँ चार साहित्यकार मिल जाते हैं वहाँ एक धमाकेदार गोष्ठी का होना तय है.
अभी कल ही लेख्य मंजूषा की एक कवि गोष्ठी हुई थी मातृ दिवस (12 मई) पर लेकिन अचानक पता चला कि देश के प्रसिद्ध शायर अनिरुद्ध सिन्हा आये हुए हैं. सामान्य जन को साहित्य से जोड़ने हेतु प्रतिबद्ध संस्था "लेख्य मंजूषा" के समर्पित और अति सक्रिय सदस्यों ने यह भी पाया कि संयोगवश बेजोड़ इंडिया के एक सम्पादक हेमन्त दास 'हिम' भी उस बीच नवी मुम्बई से पटना आये हुए हैं जो पहले लेख्य मंजूषा के अनेक कार्यक्रमों को भली-भांति कवर कर चुके थे. आनन-फानन में अगले ही दिन यानी 13.5.2019 को एक कवि गोष्ठी पुन: आयोजित की गई ताकि सभी साहित्यकार एक-दूसरे से मिल सकें. सदस्यों के आग्रह को अध्यक्ष विभा रानी श्रीवास्तव, उपाध्यक्ष सुनील कुमार नहीं टाल पाये. साथ ही बिहार के जाने माने कवि घनश्याम, सिद्धेश्वर, मधुरेश नारायण, प्रभात कुमार धवन और अनेक गम्भीर महिला साहित्यकरों ने भी अपनी हामी भर दी. इस तरह महज दो घंटे के अंतराल में तय किया गया यह कार्यक्रम पूरे आवेग के साथ सफलतापूर्वक चला जिसमें गम्भीर शेरो-शायरी का दौर चला और साथ में कुछ मुक्तछंद रचनाएँ भी पढ़ी गईं.
कवि गोष्ठी की अध्यक्षता की अनिरुद्ध सिन्हा ने और कुशल संचालन किया सुनील कुमार ने. धन्यवाद ज्ञापन की जिम्मेवारी निभाई मधुरेश नारायण ने.
रवि श्रीवास्तव ने चल रहे आम चुनाव के मद्दे-नजर लोगों को फिर से आगाह किया-
बाहुबली, घोटलेबाज अगर, जीत सत्ता में आएंगे
आमजन को पूछेगा कौन, बस जेबें भरते जाएंगे
जागो ऐ मतदाता अब, गर्व से मतदान करो
देश की उन्नति में तुम, अपना भी योगदान करो
सिद्धेश्वर का व्यंग्य बड़ा तीखा था उस प्यार के प्रति जो सिर्फ बिकता ही नहीं, बल्कि किस्तों में बिकता है -
नकद नहीं तो उधार ही ले लो
आजकल किस्तों में बिकता है प्यार
मंदिर, मस्जिद भी बन गया है व्यापार
और क्या क्या चीज बेचोगे यार
किंतु सुनील कुमार शिकायत में समय नहीं गँवाते, बस मुहब्बत करते चले जाते हैं उसके दर्द का आनंद लेते हुए -
आज तक मैंने कब शिक़ायत की
जब कभी की फ़क़त मुहब्बत की
दर्द की लज़्ज़तों से आसूदा
दिल ने ऐसी कभी न हसरत की
उनसे मिलिए भला तो क्या मिलिए
बात होती है बस जरूरत की
वो कहाँ मेरी बात समझेगा
जिसने रिश्तों की बस तिज़ारत की
विभा रानी श्रीवास्तव ने जिंदगी से मिलना चाहा तो सुबहो- शिकवा के जाल में उलझती चली गईं-
ज़िंदगी से जब भी मुलाकात हुई
शिकवे, सुबह, दर्द में डूबी रात हुई
हदों से ज्यादा अपना जिन्हें कहते निकले
शक की बेड़ियों से खुद को जकड़ते निकले
अमृता सिन्हा किस्मतवाली निकलीं जिन्होंने चांद से चंद बातें कीं, मुलाकातें कीं-
आज सोचा कि चांद से चंद बातें करें
नाम उसके अपनी चंद रातें करें
चांद ओढ़े हुए चांदनी की चुनर
महबूबा हो जैसे, मुलाकातें करें
हेमन्त दास 'हिम' नेताओं द्वारा दिखाये जा रहे सुंदर घर से संतुष्ट नहीं है बल्कि हवा की भी माँग कर रहे हैं-
बड़ा सुंदर है यह घर, यह कहना सटीक था
हाँ, थोड़ी हवा भी जो आती तो जरा ठीक था
खड़े थे दो रहनुमा, अलग अलग से चोगे में
जिधर भी तुम हाथ बढ़ाओ, ठग का ही फरीक था
महान कहलाना है तो जो होता है होने दो
'हिम' लेकर बैठे रहो एक अनोखी परीकथा
प्रभात कुमार धवन पूरी तरह आलोडित दिखे प्रकृति प्रेम में जो अब एक अद्भुत बात हो गई है-
सुखी था उनका जीवन
क्योंकि मनुष्य के साथ ही
प्रकृति से था उन्हें प्रेम.
मधुरेश नारायण ने प्रतीकात्मक रूप से प्रवेशद्वार से व्यक्ति के ऊंचे बढ़ जाने की बात कर सोचने को मजबूर कर दिया -
पर कुछ ऐसे भी हैं
जिनके लिए ये दरवाजे छोटे पड़ गए हैं
शायद
उनका कद बढ़ गया
और दरवाजा ज्यों का त्यों रह गया
हरे जख्मों वाले घनश्याम को बैसाखियों से ज्यादा जरूरत है दोस्तों की दुआ की,प्रेम की -
मुद्दतों बाद जब उसे देखा
जख़्म फिर से हुआ हरा बिल्कुल
साजिशों को हवा मिली इतनी
दोस्ती हो गई फ़ना बिल्कुल
वो सियासत वतन को क्या देगी
हो गई है जो बेहया बिल्कुल
मुझको बैसाखियां नहीं चहिए
चाहिए आपकी दुआ बिल्कुल
अणिमा श्रीवास्तव 'सुशील' ने एक दिन बाद ही मातृवंदना करके अपनी भावनाओं को रखा-
खुदा ने भी जिसे दुआओं में माँगा तू वो मन्नत है
यूँ ही नहीं कहते तेरे पैरों तले जन्नत है
सृष्टि के कण-कण में तेरी ही शक्ति स्पंदित है
सिद्ध, बुद्ध हो या कोई अवतार, तू सब से वंदित है
अभिलाषा कुमारी नारी प्रतिरोध के स्वर को बुलंद करती दिखीं-
पुरुषों की इस दुनिया में / प्रतिबंधित रहकर जीना है
सहनशीलता की मूर्ति बन / जहर जीवन का पीना है
पर अंतर में जो औरत है / वह तो विद्रोही मूरत है
तेरे स्वतंत्र मुस्कानों में / दिखती अपनी ही सूरत है
अंत में कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे अनिरुद्ध सिन्हा ने अपनी बेबाक ग़ज़लों से अनोखा समाँ बांध दिया जिसे सभी स्तब्ध होकर सुनते चले गए-
मेरे जज़्बात, मेरे नाम बिके / उनके ईमान सरेआम बिके
एक मंडी है सियासत ऐसी / जिसमें अल्लाह बिके, राम बिके
ऐसा तो नहीं है कि घटा ढूँढ रहा हूँ
सहरा में समन्दर का पता ढूँढ रहा हूँ
जो लोग अंधेरों से नहीं लौट के आये
मैं उनके मुकद्दर का पता ढूँढ रहा हूँ
हवाओं को बताया जा रहा है
कोई दीपक जलाया जा रहा है
गरीबी, भूख, आँसू दर्द क्या है?
मेरा चेहरा दिखाया जा रहा है
इन ग़ज़लों को सुनाने के बाद श्री सिन्हा ने पूर्व में पढनेवाले कवियों पर अपने संक्षिप्त विचार रखे. फिर धन्यवाद ज्ञापन के पश्चात अध्यक्ष की अनुमति से कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा हुई.
एक से बढ़कर एक ग़ज़लों के साथ कुछ सामयिक गम्भीर रचनाओं के पाठ के कारण इस कवि गोष्ठी को लंबे समय तक याद रखा जाएगा.
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आलेख - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्लॉग
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
बेहद खूबसूरत प्रस्तुतीकरण
ReplyDeleteमन गार्डन-गार्डन हो गया
हार्दिकआभार. फेसबुकपर शेयर नहीं हो पा रहा है. व्याट्सएप्प पर शेयर करने हेतु पुनः आभार.
Deleteबहुत बढ़िया
Deleteवाह, बहुत सुन्दर रिपोर्टिंग
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अमृता जी.
Deleteउम्दा प्रदर्शन के शाक्षी ये बोलती तस्वीरें
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपका. blogger.com पर गूगल के पासवर्ड से login करके यहाँ कमेन्ट करने पर उसके प्रोफाइल वाला नाम यहाँ दिखेगा.
Deleteआनन फ़ानन में आयोजित इस गोष्ठी का सचमुच यादगार आयोजनों में शुमार हो गया। बेहद रोचक सुंदर रिपोर्ट और तस्वीरें। साधुवाद।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद आपका.
Deleteविस्तृत एवं प्रवाहपूर्ण कवरेज अछि। एकहि सांस में पूरा पढ़ी लेलहुँ - रुकैक लेल मौके नहि भेटल। अनेक साधुवाद।
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