Wednesday 17 August 2022

"सत्य और मिथ्या की तुला में"- शोभा स्वप्निल का कविता-संग्रह

आज के समय को तौल रही एक सजग गृहिणी  

पुस्तक-समीक्षा / हेमन्त दास 'हिम'

अच्छी रचना का सबसे बड़ा गुण उसका सामाजिक सरोकार और उद्देश्य में ईमानदारी होता है, उसका शिल्प और शब्द-सौंदर्य नहीं . समाज को देख पाने और समझ पाने के लिए आपका नामचीन होना आवश्यक नहीं होता. और सच कहा जाय तो वे लोग जो अभी अधिक प्रसिद्ध नहीं हुए हैं, उनके विचारों में अधिक उन्मुक्तता होती है. ये बिना लाग-लपट के और बिना नफा-नुकसान का ख्याल किए अपनी बातें रखते हैं, सिर्फ और सिर्फ अपने अंदर की अकुलाहट को बाहर प्रकट करने के लिए. उनकी यह अकुलाहट सामाजिक विकृतियों के खिलाफ विद्रोह का ही दूसरा नाम है.          

दिनांक 2.7.2022 को पठारे प्रभु हॉल, खार, मुम्बई में शोभा स्वप्निल रचित कविता-संग्रह "सत्य और मिथ्या की तुला में"  का लोकार्पण हुआ.  शोभा स्वप्निल एक कुशल गृहिणी होने के साथ-साथ एक संवेदनशील और उदात्त विचारों वाली कवयित्री भी हैं. उनकी कविताओं में विविध स्वर हैं - दार्शनिक मंथन, सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं की विवेचना, नारी संघर्ष की कशमकश और भी बहुत कुछ. परंतु यह भी मानना होगा कि उनका कवित्व अभी उभर रहा है, और उभरेगा. 

आइये, उनके पुस्तक की कुछ रचनाओं की झलक देखें.

स्त्री के निजी परिवार के बाहर किसी के प्रति प्रेमवत व्यवहार पर समाज का कड़ा पहरा रहता है. अक्सर इसे निषिद्ध समझ लिया जाता है जबकि नि:स्वार्थ करुण भाव यानी लालसारहित विशुद्ध निर्मल प्रेम एक ऐसी मानवीय प्राकृतिक सम्पदा है जिसकी हमेशा, हर जगह, हर रूप में और हर सीमा तक दरकार होती है. देश के हर नागरिक हर दूसरे नागरिक से ऐसा प्रेम होना चाहिए. कवयित्री जितनी बेबाकी से इस महीन मुद्दे को उठा रही हैं वह दुर्लभ है-   "क्या फूल का खुशबू लुटाना पाप है?          
वह तो बंटती है और बिखरती भी है.      
सत्य और मिथ्या की तुला में
यह सांस्कृतिक भी है
और प्राकृतिक भी
फूल से गंध कभी अलग नहीं होती".
कवयित्री दो टूक कहती हैं कि व्यष्टि और समष्टि दोनों स्तरों पर प्रेम की नितांत आवश्यकता है जिसे उन्होंने 'प्राकृतिक' और 'सांस्कृतिक' जरूरतों के रूप में रखा है.  
शैली के स्तर पर अनेक रचनाओं में सपाटबयानी ही नहीं हैं बल्कि अनेक सुंदर शब्दचित्र भी उभरते दिख रहे हैं -
"मुंडेर तोड़ बह निकली
नयनों की झील
कपोलों पर तड़प कर
दम तोड़ती 
सपनों की मछलियाँ"

राजनीतिज़ों की मतलबपरस्ती का आलम यह है कि- 
"जिन्हें दिखती है
बस अपनी पीड़ा
जो बस अपनी कराह
अपनी आह तौलते हैं"

किसी व्यक्ति किसी धर्म या मजहब का अनुयायी होना अधिकांश मामलों में मूलत: उसका अपना निर्णय नहीं होता बल्कि माता-पिता की तरफ से वंशानुगत प्राप्त होता है. तो जिस पर अपना बस ही नहीं है उसके लिए क्या लड़ना! अपने मजहब या धर्म को श्रेष्ठ मानने की प्रवृति का वो पुरजोर विरोध कर रही हैं- 
"अपने ही मजहब धर्म को
क्यों श्रेष्ठ मानते हैं हम
जबकि सब के मूल में कोई 
विश्वास है"

यह कवयित्री मूलत: प्रेम की कवयित्री हैं. देखिए, कितने अनोखे अंदाज़ में वो शृंगार का रस घोल रही हैं-
"बिन सूचना तुमने
कब्जा किया है
हृदय-प्रदेश पर
और मैं अपनी ही सल्तनत के छिन जाने पर भी
देशद्रोही की तरह
देती हूँ तुम्हारा साथ
दिन-रात अपनी हर सोच में
तुम्हें बसाकर
तुम्हारा हुक्म बजाने को"

घनीभूत प्रेम में आत्मसमर्पण का एक और सुंदर चित्र देखिए -
"फिर तुम आना 
पाहुन बनकर
नहीं कहीं किरायेदार बनकर
और कब्जा कर लेना
मकान मालिक की तरह!"

आज के समय में मानवीय सम्बंधों के स्वरूप को उजागर करने के लिए उनका यह अतिलघु काव्यांश काफी है - 
"पोल खुल गई 
रिश्तों की 
सम्बंधों की भी
जबकि फटी तो केवल 
जेब थी!"

हम में, आप में सब में प्राणों का संचार करनेवाला सर्वव्यापी ईश्वर खुद कैसे निर्जीव हो सकता है? कवयित्री कह रही हैं- 
"मैंने मनुष्य को बनाया
मनुष्य अब मुझको बना रहा है!"

समाज ऐसा समझने लगा है कि एक स्त्री का जीवन हमेशा दूसरों की इच्छओं की पूर्ति के लिए होता है. किंतु हमें यह भी समझना चाहिए कि स्त्री के अपने भी तो कुछ लक्ष्य होते होंगे, कुछ अरमान होंगे तो क्या वह उन्हें भूल जाए? स्वयँ एक सम्पूर्ण मानवीय इकाई होते हुए भी मात्र दूसरों के जीवन में काम आने वाली एक निर्जीव वस्तु बन जाने की व्यथा को शोभा जी अनोखे बिम्ब रच कर अभिव्यक्त करती हैं- 
"खो गई है वो छोटी डिबिया
जिसमें मैंने रख छोड़ा था
जीवन का उद्देश्य.
मैं जब भी कोशिश करती हूँ
उस छोटी डिबिया को ढूँढने की 
मेरे हाथ में आ जाते हैं
कुछ छोटे बड़े अन्य डब्बे
और फिर से इन्हीं
अन्य डिब्बों में खो जाती हूँ मैं" 

यह कवयित्री सामाजिक यथार्थ में भी जी रही हैं. आज के माहौल पर अत्यंत प्रभावकारी ढंग से मजहबी सियासत पर चोट करती हुई कहतीं हैं-
"तुम एक हो
विभिन्न रूपों में हो
फिर भी तुमने क्यों
हर प्राणी को उलझाया
धर्म, मजहब के नाम पर
खुद से ही लड़ते हो 
खुद से ही डरते हो 
खुद ही को खुद का    
दुश्मन बनाया"

कवयित्री का कवित्व अभी उद्भव की प्रक्रिया में है. कुछेक कविताओं में भाव-प्रवाह तो है किंतु कोई दिशा नहीं दिख रही है -
"नयन झील में
जब जम जाती है
दर्द की वर्फ 
और मुड़ जाती हैं धाराएँ
भीतर की ओर
तो समूचा अस्तित्व
बदल लेता है रूप
और झील
परिवर्तित हो जाती है
अंधकूप में
अंधकूप से सागर में
सागर से भँवर में
और भँवर चक्र में फंसकर
डूब जाते हैं सब रिश्ते
यह दर्द की दावाग्नि
जला डालती है स्वयं को
तो कभी परिवार को
तो कभी समाज को"

पर इस कवयित्री में  वह रचनात्मक बेचैनी है जो आनेवाले समय में इनको अवश्य इनको बड़े रचनाकार की सूची में शुमार कर सकता है.  जीवन दुर्लभ है. और जीवन का अर्थ उम्र का गुजरना नहीं वरन् पल-प्रतिपल को पूरी शिद्दत से महसूसना होता है- 
"पल प्रतिपल
होकर भावविह्वल
जीना चाहती हूँ
अक्षर अक्षर किताब
हर पल का हिसाब
पढ़ना चाहती हूँ
बूँद बूँद प्यास
लेकर चातक की आस
पीना चाहती हूँ.
तार तार जख्म 
बिना किसी मरहम
सीना चाहती हूँ"

इस तरह से हम पाते हैं कि शोभा स्वप्निल के कविता-संग्रह "सत्य और मिथा की तुला में" की कविताओं में रागात्मकता की नैसर्गिक अभिव्यक्ति ही नहीं बल्कि उसके साथ-साथ आज के युग के युग के महत्वपूर्ण संदेशों का सम्प्रेषण भी हुआ है. निश्चित रूप से कृति पठनीय  है और रचनाकार बधाई की पात्र हैं.
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समीक्षक - हेमन्त दास 'हिम' प्रतिक्रिया देने हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com, hemantdas2001@gmail.com

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4 comments:

  1. वआआह ,हृदय से आभार हेमन्त जी ,आपने बहुत अच्छी और सार्थक समीक्षा की है।आपकी समीक्षा से निश्चित ही मेरा मनोबल बढ़ा है और सुधार की प्रेरणा प्राप्त हुई है।
    हार्दिक धन्यवाद।आपका लेखन और मंचन नित नए आयाम चढ़े ।

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