Monday, 5 August 2019

आईटीएम, नवी मुम्बई 100 वाँ काव्योत्सव खारघर (नवी मुम्बई) में 4.8.2019 को सम्पन्न

सौ उत्सव क्या देखना होंगे अभी सहस्त्र 

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"सौ उत्सव क्या देखना / होंगे अभी सहस्त्र
आज विजय का पर्व है / लोग मनायें हर्ष"

आईटीएम काव्योत्सव की शतकीय गोष्ठी खारघर (नवी मुम्बई) स्थित प्रबंधन संस्थान के सभागार में हर्षोल्लास के साथ मनाई गई. इस  विशेष  कवि-गोष्ठी के अध्यक्ष थे मनोहर अभय एवं संचालन कर रहे थे इस काव्योत्सव समूह के संयोजक विजय भटनागर. ध्यातव्य है कि आईटीएम विगत 8 वर्षों से बिना किसी रुकावट के लगातार हर महीने काव्योत्सव का आयोजन करता आ रहा है जहाँ नवी मुम्बई ही नहींं मुम्बई के भी रचनाकार आकर अपनी कविताओं से श्रोताओं को आप्यायित करते हैं. 

रचनाकारों के लिए यह उल्लास का पर्व था जब वे सौवीं बार वहीं काव्यपाठ हेतु इकट्ठे हुए. मंचासीन अन्य साहित्यकार  थे अलका पांडे,  चंदन अधिकारी, रामस्वरूप साहू और शैलेश वफा. इस अवसर पर कुछ चुने हुए रचनाकारों को सम्मानित किया गया जिनमें "बेजोड़ इंडिया ब्लॉग" के हेमन्त दास 'हिम' को भी उनकी सराहनीय सांस्कृतिक पत्रकारिता हेतु सम्मानित किया गया.

सबसे पहले गणमान्य साहित्यकारों ने दीप जलाकार कार्यक्रम का उद्घाटन किया. फिर वंदना श्रीवास्तव के मधुर कंठों से सरस्वती-वंदना का गायन हुआ. तत्पश्चात सभी साहित्यकारों ने खड़े होकर राष्ट्रगाण का विधिवत गान किया. फिर कार्यक्रम आरम्भ हुआ.

विशेष बात यह रही कि वरिष्ठ कवियों के साथ इस प्रबंधन संस्थान के छात्र-छात्राओं ने भी पूरे जोर-शोर से इस काव्य पाठ में भाग लिया और अपनी बेहतरीन रचनाएँ प्रस्तुत कर लोगों की वाहवाही लूटी. इस अवसर पर दंतचिकित्सक डॉ. बनाने तथा अन्य श्रोतागण भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे.  हम कवि/ कवयित्रियों द्वारा पढ़ी गई रचनाओं की एक झलक प्रस्तुत कर रहे हैं -

अशोक वशिष्ट –
सम्बंधों को अनुबंधों को परिभाषाएँ देनी होगी
अधरों संग नयनों को भी कुछ भाषाएँ देनी होगी

अक्षय जाधव -
हर आँख नम हो जाती है / और हर दिल भी रो पड़ता है
न जाने क्यों कोई अपना सा / दूर होने लगता है
जब कोई खबर सरहद से / घर दस्तक दे जाती है

डॉ. हरिदत्त गौतम-
इन्होंने एक देशभक्ति पूर्ण रचना सुनाई.

त्रिलोचन सिंह अरोड़ा –
न हिंदु बुरा है न मुसलमान बुरा है
आपस में जो लड़ाये वो इंसान बुरा है

चंदन अधिकारी-
आ जा  बदरिया तू आ जा तू आ जा
झमझम बरस के धरती पे छा जा

विश्वम्भर दयाल तिवारी –
मत करो आखेट उनका / जो तुम्हारे पास हो
जंगलों मन अब कहीं / पखेरू कोई खास हो

बिमल तिवारी –
कौन कहता है धरा पर प्रीत पग थमने लगे
है अंधेरे रास्ते पर, पद मेरे बढ़ने लगे

मीनू मदान –
बहुत दिनों से  / कविता नहीं हुई

शिवि श्रीवास्तव –
तेरा होना माँ / मेरी जिंदगी में
एक नया वजूद दिलाता है

शोभना ठक्कर –
मैं खुद  को भूल जाती हूँ / याद रखती हूँ तुझे
रोज तेरी यादें ले जाती है / किसी ओर मुझे

रामस्वरूप साहू –
अपनी गिरह में हरदम झाँकते रहो / शीशा हो या मन माँजते रहो
रिश्तों में दरार पर न जाये कहीं / सम्बंधों को हमेशा जाँचते रहो (1)
मूर्तिकार ने / एक पत्थर तराशा
पूजारी ने / मंदिर में सजा दिया
हमारी आस्था ने / पूजा
और उसे देवता बना दिया. (2)

हर्षिता-
क्योंकि
सच्ची हँसी की कोई उम्र नहीं होती.

ललित –
और अब क्या चाहिए  / इस जिंदगी में दोस्तों
वो हमेशा खूबसूरत / ख्वाबों को ले आते रहे.

वर्षा –
अपने कलम के जरिये
कुछ जख्म हैं / जिन्हें कुरेदा करती हूँ
कभी हर मर्ज की दवा मिल जाती है
कभी हर मर्ज दवा बन जाती है.

डॉ. सतीश शुक्ल –
सपने सलोने क्यों आते हैं?

प्रकाश चन्द्र झा –
सोशल मीडिया पर निर्भर / हो गई इस कदर
कि जिंदगी में निजता ना रही / हम सार्वजनिक हो गए.

अनिल पूर्वा –
मजहब के इन पाटों के बीच
आज आदमी पिस रहा

अशोक प्रतिमानी –
एक बगल में रोटियाँ / एक बगल में महजबीं
इससे ज्यादा और क्या / चाहता है आदमी?

नजर हयातपुरी –
न तेरे काम के ये न मेरे काम के / बंदे ये जर-गुलाम है रुतबे हैं नाम के
साकी तिरी निगाह में जब सब हैं बराबर / छोटे बड़े फिर क्यूँ हैं पैमाने जाम के.

शैलेश वफा –
अब परस्तिश में असर रहे न रहे / वो रहे कुछ अगर रहे न रहे
मेरे हक में दुआ तो की उसने / अब दुआ में असर रहे न रहे (1)
राख हुआ जलकर अलाव सा वो
भर गया पुराने घाव सा वो (2)

हर्ष कुमार दूबे –
मैं अधूरा सा कोई गीत हूँ
तुम सरगम कोई संगीत हो.

अभिनव यादव –
ने भी एक कविता पढ़ी.

मो. हनीफ –
गुजर रही है जिंदगी अगरचे मिस्तेख्वाब हैं
कदम कदम फरेब हैं इस्तेराब हैं.

कुलदीप सिंह –
माँ के बहादुर लाल थे वो
कद के छोटे मगर दिल के विशाल थे वो

वंदना श्रीवास्तव –
कोख में मारकर मुझे वो खुश होते हैं
मंदिरों में मेरी मूर्तियाँ सजाने वाले

सत्य प्रकाश श्रीवास्तव –
“अप्प दीपो भव” का भाव जलाना है
अपने हिस्से की रोटी से / किसी भूखे की भूख मिटाना है

दीपाली सक्सेना –
यूँ कहाँ आ गए हम साथ चलते चलते
बटर चिकन से चले थे अब मिलेंगे रोज दलिये

दिलबाग सिंह –
कभी बुलबुल, कभी भौंरा, कभी परवाना हूँ

जीतेंन्द्र जगताप –
इन्होंने अपनी एक कविता पढ़ी.

अलका पांडे –
नारी हूँ  मैं नारी का सम्मान चाहिए
नहीं चाहिए पुतली सा नर्तन / चेतना हूँ चेतना का मान चाहिए

दिलीप ठक्कर –
नैन में सपने सजाना सीख लो / रेत पे भी घर बनाना सीख लो
चाहते हो गर खुशी शामिल रहे / गैर को अपना बनाना सीख लो

चन्द्रिका व्यास –
पावस तेरे आने से / गरज बरस जब वर्षा आती
भींगे वस्त्र में वो भी सँकुचाती

राजेन्द्र भट्टर –
मुझको छोड़ अकेले घर में
गई परीक्षा के चक्कर में

जे पी सहरनपुरी –
नींद आये या न आये / ख्वाब आ जाते हैं
यूँ तो हैं राहे-हयात में / गम के अंधेरे मगर
याद आये वो तो / मेहताब आ जाते हैं

भारत भूषण शारदा –
आज आपके शुभागमन से भाग्य कमल हरसाया है
तीन लोक का वैभव मानो सिमट द्वार पर आया है

सेवा सदन प्रसाद –
ढूँढते ढूँढते थक गए हैं मेरे पाँव
पत्थरों के शहर में खो गया है मेरा गाँव

लता तेजेश्वर रेणुका –
झूला झूले न सखियाँ अपने गाँव में
देखो आया है अब शहर अपने गाँव में

रामप्रकाश विशवकर्मा –
इस तृषित हृदय की यदि मृत्यु कभी सुनना
तुम कभी रोना नहीं, मत सिर कभी धुनना

पुष्पा उपाध्याय -
बागों की खुशियाँ बहार रंगीन फूलों से है
तालाब की खूबसूरती रंगीन कमलों से है
लेकिन यह रेगिस्तान ही भाता है हमको
क्योंकि यह वीरान सा है

अभिलाज –
जब भी पढ़ता हूँ नमाज पहले तुझे सलाम करता हूँ
बाद उसके उसकी तारीफ में लिखा / कलाम पढ़ता हूँ

हेमन्त दास ‘हिम’ –
हूँ ईमानदार पर कमजोर नहीं हूँ
अपने गले की फाँसवाली डोर नहीं हूँ
लाख बचने पर भी जो कोई ललकारे
तो प्राण दे दूँ प्रण में रणछोड़ नहीं हूँ

विजय भटनागर –
तेरी जुदाई / है कविताकी अंगड़ाई
तेरा रूठना / कविता की प्रसव वेदना
तेरे विरह मे जो भाव उमड़ते है / हम कागज पर लिख लेते है
जनता के  सामने पढ देते है / जाने क्यों लोग हमे कवि कहते है?

काव्य पाठ का सिलसिला अपनी परिणति पर पहुँचा तो इस गोष्ठी के अध्यक्ष मनोहर अभय आये. उन्होंने इस पिछले आठ वर्षों से चल रहे इस अथक प्रयास की सराहना की और अपनी बधाइयाँ श्री भटनागर और पूरे समूह को दीं -
सौ उत्सव क्या देखना / होंगे अभी सहस्त्र
आज विजय का पर्व है / लोग मनायें हर्ष

अध्यक्ष ने कविता के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा - 
कविता निठल्लेपन का कार्य नहीं. कविता उस बूढ़े चौकीदार का दर्द है जिसे ठोकर मारकर उसके मालिक ने फेंके दिया. कविता पसीना है, पीड़ा है, दर्द है.

डॉ. हरिदत्त गौतम ने भी कार्यक्रम के संचालन में सहयोग किया.

अंत में आये हुए रचनाकारों, श्रोताओं और आयोजक संस्थान को धन्यवाद  पूर्ण उद्गार अर्पित करने के बाद अध्यक्ष की अनुमति से इस ऐतिहासिक साहित्यिक गोष्ठी के समापन की घोषणा की गई. एक चिरस्थायी सुखद स्मृति को लेकर लोगों ने वहाँ से प्रस्थान किया. 
.....

प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - अनिल पुर्वा
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com
नोट - 1. ब्लॉगर द्वारा खींचे गए सारे फोटो नष्ट हो गए हैं. अत: यदि आपके पास अगर इस कार्यक्रम के सुंदर फोटो हों तो जितनी चाहें भेज सकते हैं ऊपर दिये गए हमारे ईमेल पर. 
2. यदि किन्हीं कवि/ कवयित्री की पंक्तियाँ इस रिपोर्ट में नहीं शामिल हो पाई हों तो वो भी ईमेल से भेजें. जोड़ दी जाएंगी.
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मित्रता दिवस (4 अगस्त) विशेषांक भाग-1 / हाइकु कविताएँ

 दो कवयित्रियों की हाइकु कविताएँ   

(मित्रता दिवस भाग-1 देखिए - यहाँ क्लिक कीजिए
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दोस्त है मेरा - बिन कहे समझे- दिल का दर्द / अलका पाण्डेय  


 
दोस्त है वह 
आफताब सा आता 
उजाला लाता 

मित्र है मेरा 
मुश्किलों का साथी 
पथ दिखाये 

सखा है ख़ास 
दर्पण बनकर 
निकाले कमी 

दोस्त तू मेरा 
ज्योत सा जलकर 
हरता तम 

मित्र हो प्यारा 
खुशबू बन आता 
मोगरे  जैसा 

दोस्त है मेरा 
बिन कहे समझे 
दिल का दर्द 

सखा वो मेरा 
कदम कदम पे 
साथ निभाये 

दोस्त है मेरा 
प्रचंड गर्मी में दे 
शीतल हवा 

मित्र है ख़ास 
सुख दुख का साथी 
निस्वार्थ भाव 

सच्चा है मित्र 
वक्त बेवक्त देता 
साथ हमेशा 

मित्रों का साथ 
भावो का गठजोड़ 
सदा निभाये 
...

महका प्राण- बने हो संजीवनी - भर के जख्म / मंजु गुप्ता 





मैत्री की डोर
 जग से बाँध करूँ 
गठबन्धन 

मैत्री के बीज 
बो के दूँ फलदार
सुख की छाँव

रिश्ता  रक्त का 
न हो के दोस्त बाँटे
 खुशी का जग 

महका प्राण 
बने हो संजीवनी 
भर के जख्म ।  
......


कवयित्री - अलका पांडे / मंजु गुप्ता 
पता -  नवी मुम्बई (महाराष्ट्र)
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com

बिहार वित्तीय सेवा में चयनित देश के मशहूर शायर समीर परिमल अपने बैच के सहकर्मियों के साथ मित्रता निभाते हुए


Thursday, 1 August 2019

साहित्यिक पुस्तकों की बिक्री की समस्या - विविध भारतीय भाषा संस्कृति संगम, नवी मुम्बई व्हाट्सएप्प समूह की चर्चा दि. 31.7.2019 को सम्पन्न

पुस्तक खरीदने के प्रति जागरूकता और ऑनालाइन पुस्तकों का व्यवसायीकरण ही समाधान

(लघु समाचार - उ.प्र. के देवरिया में पुस्तक चर्चा /हर 12 घंटे पर एक बार देख लें - FB+ Watch Bejod India)



हेमन्त दास 'हिम' - 
आज की परिचर्चा "साहित्यिक पुस्तकों में बिक्री की समस्या " पर है।
इस विषय पर हमारे वीबीबीएसएस (विविध भारतीय भाषा संस्कृति संगम) ग्रुप में सदस्य क्या कहते हैं वह जानना चाहेंगे।

चर्चा के मुख्य बिन्दु निम्नानुसार हैं-
1.हिंदी की किताबें कितनी बिकती हैं? अगर बिकती हैं तो किस कारण? क्या चर्चित लेखक के नाम पर ही किताबें बिकती हैं या किसी अन्य कारणों से?
2.क्या सिर्फ हिंदी किताबें नहीं बिकतीं या अन्य भाषाओं में भी यही हाल है?
3. देखा गया है कि हिंदी पुस्तकें खरीदी नहीं जाती ज्यादातर लेखकों को अपनी किताबें बांटनी पड़ती हैं, इस पर आपका राय क्या है?
4. अगर लेखक किताबें बांटने लगे तो प्रकाशक की पुस्तक बिकेगी कैसे? और किताबें नहीं बिकेंगी तो रॉयल्टी लेखक को मिलेगा कैसे? क्या यही कारण है कि लेखक को हर बार अपनी किताब के लिए पैसे देकर छपानी पड़ती है।

शिल्पा सोनटक्के - 
 1.हां, केवल चर्चित लोगों की ही किताबें बिकती हैं, क्योंकि लोग उन्हे जानते हैं या उनके फैन होते हैं
2. दूसरी भाषाओं का पता नहीं, मगर हिंदी की किताबें कम बिकती हैं, अंग्रेज़ी स्कूलों में बच्चों के पढने की वजह से अन्य भाषाओं में रूचि नहीं जगती
3.ये लेखक पर निर्भर करता है कि वो साहित्य से लगाव रखते हैं या उनका दृष्टिकोण व्यवसायिक है
4.प्रकाशक का ग्राहकवर्ग अलग होता है और लेखकों का मित्रवर्ग अलग

हेमन्त दास 'हिम' - 
धन्यवाद शिल्पा जी आपके विचारों के लिए

शिल्पा सोनटक्के -
बहुत से कारण है कि किताबें बिकती नहीं खास कर कविताओं की, हर किसीको अपनी सुविधा, अपनी जेब, अपने परिचितों के हिसाब से पुस्तक प्रकाशन के बारे में सोचना चाहिए, साझा संग्रहों का विकल्प ठीक लगता है... खर्च बंट जाता है, सभी द्वारा जितना बिक सके बेचने का प्रयास किया जा सकता है
अंतत: या लेखकों की इच्छा पर निर्भर करता है कि वे पुस्तकें बाँटें या बेचें

हेमन्त दास 'हिम' -  सही कह रही हैं.

देविका मिश्रा -
किताबें न बिकने का सबसे बड़ा कारण गूगल औऱ पाठकों की अरूचि है । औऱ इतनी ज्यादा मात्राओं में प्रकाशन का होना ।

सारिका -
एक और कारण हो सकता है , शायद वैसा लिखा ही नहीं जा रहा हैं ।
आज भी किताब अगर कोई साहित्य पढ़ना चाहता है तो पहले वह प्रेमचंद , बच्चन और दिनकर की किताबें ही खरीदेगा ।
रस्किन बांड ने  कुछ महीनें लिखा था , भारत में लेखक ज्यादा और पाठक कम होते जा रहे हैं
हम लिखना तो चाहते है, पढ़ना नहीं चाहते
अगर उस स्तर का लिखा जाएगा तो किताबें प्रकाशित भी स्वतः होंगी और बिकेंगी भी।

देविका मिश्रा -
मुझे लगता है, आज भी इतनी प्रभाव शाली हैं ।

सारिका -
जी।

नीलम सोमानी -
शायद वक्त का अभाव ओर   व्हाट्सएप्प और सोशल मीडिया का जादू...कोई अन्य चीजों की ओर आकर्षित ही नही होता।

सारिका -
सूर्य की रोशनी कौन छुपा पाया है कभी, लेखनी में कमी हैं ।

लता तेजेश्वर रेणुका -
बिल्कुल किताबें नाम से बिकती हैं कुछ दिनों पहले यही बात एक प्रकाशक से हुई थी तो उन्होंने यही बताया कि किताबें नाम से बिकती हैं, यानी जिस लेखक के नाम 15-20 से ज्यादा किताब हों उन्हें बिना पढ़े ही सेलेक्ट किया जाता है और नया लेखक को उस मुकाम तक पहुँचने कितने साल इन्तजार करनी होगी? और एक बात भी है अगर लेखक सेलेब्रिटी हो जैसे कि फ़िल्म संसार की हो तो भी मुफ्त में प्रिंट होते हैं और बहुत कम प्रकाशक ऐसे हैं जो पांडुलिपि पढ़कर उसकी गुणबत्ता से किताब का चयन करते हैं। ऐसे प्रकाशक बहुत व्यस्त होते हैं और महीनों इंतज़ार करना पड़ता है।
मेरे ख्याल से कुछ दूसरी भारतीय भाषाओं भी यही हाल है। अंग्रेज की एक किताब छपने पर "टाइम्स ऑफ इंडिया" में बड़ी सी छवि आ जाती है।
किताबें बांटनी पड़ती जरूर है लेकिन उसके बाद क्या लेने वाले उस किताब को उतना मूल्यवान समझते हैं? या उनकी टेबल या अलमारी के एक कोने सुशोभित होता है। अगर पढ़ने का इच्छा न हो ऐसे किताबें बाँटना मैं किताब का तौहीन समझती हूँ। इसलिए मेरा मानना जो किताब खरीद कर पढ़ते हैं वही उस किताब को मूल्यवान समझते हैं और उसकी कदर करते हैं। कई बार देखा गया है लेखक खुद ही अपनी प्रति खरीदने को कतराता है ऐसे में लेखक कैसे आशा कर सकता है कि उनकी किताब कोई खरीद कर पढ़े।

यह प्रकाशक की व्यथा भी है लेकिन जब लेखक खरीद कर बांटे तो उन्हें भी कतई ऐतराज नहीं होगा। क्योंकि उन्हें भी पैसे लगाने पड़ते हैं। जी आदतन लेखक प्रकाशन के लिए महीने इंतज़ार नहीं कर पाते क्यों कि किताब की गुणबत्ता के अनुसार अगर प्रकाशक अस्वीकार कर दे तो खुद से किताब छपवानी है ही, फिर क्यों न पहले ही बनवा ले, यही सोच लेने से प्रकाशक के लिए भी बिक्री में आसानी हो जाती है। प्रकाशक तो व्यापार करते हैं वह नहीं चाहेंगे कोई किताब को वह अपने कुछ हजार खर्च कर बनाए और गोदाम में किताब सालों पड़ी रहे।

हेमन्त दास 'हिम' -
कृपया अन्य सदस्य भी अपने बहुमूल्य विचार दें।

पूर्णिमा पाण्डेय -
हिंदी क्या अन्य भाषाओं में भी पुस्तकें कम बिकती हैं।
अधिकांशत: चर्चित लेखकों की किताबें ज्यादा बिकती हैं।
अंग्रेजी का प्रभाव भी कहीं न कहीं असर डाल रहा है। अब हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाएँ इनमें मातृभाषाएँ भी शामिल हैं; धीरे-धीरे दम तोड़ रहीं हैं। बच्चे अंग्रेजी माध्यम में पढ़ते हैं। घर मे अपनी भाषा बोलते हैं परिणामस्वरूप न अपनी भाषा में समृद्ध हो पाते हैं न अंग्रेजी में अपनी पैठ बना पाते हैं। अब ये पीढ़ी तो क्षेत्रीय भाषा मे किताबें,पत्रिकाएँ, समाचारपत्र पढ़ने से रही।
आज जीवनशैली में आया बड़ा बदलाव भी लोगों को पुस्तक-वाचन से दूर कर रहा है। दुनिया मुठ्ठी में ला देनेवाले स्मार्टफोन / टैब, लैपटॉप, डेस्कटॉप को भला कैसे भूला जाए। दुनियाभर का ज्ञान, विज्ञान, मनोरंजन, फिक्शन, धर्म, अध्यात्म, साहित्य अनेक भाषाओं में बस एक क्लिक पर हाजिर हो जाता है। बस अपना मनपसंद क्षेत्र चुनिए और पढ़िए।
आज जबकि तकनीक हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुकी है तो वाचन भी इसी के द्वारा हो रहा है। यह वाचन एक तरह से मुफ्त में उपलब्ध है। आज अधिकांश पत्र- पत्रिकाएँ ऑनलाइन सहज हासिल हो जाती हैं। तो -
कहीं दूर क्यों जाया जाए
चलो किसी बटन को दबाया जाए
किसी भी पुस्तक से मन बहलाया जाए😁

मुझे तो लगता है कि किताबें अब ऑनलाइन प्रकाशित करनी चाहिए। प्रकाशकों से भी मुक्ति मिलेगी और उनके अनावश्यक तनाव से भी।
इस तरह की साइट विकसित की जाए कि जहाँ किताब की कुछ समीक्षा हो, प्रचार हो, विज्ञापन हो यानी एक बाज़ार ही डेवेलप हो। हाँ किताब की प्रूफ रीडिंग वगैरह यहाँ भी ठीक से हो। वर्तनी,व्याकरण आदि पर पूरा ध्यान दिया जाए। क्योंकि सही मात्रा, व्याकरण, कथानक, विषयवस्तु रचना की आत्मा होते हैं। पुस्तक का कलेवर भले बदल जाए पर आत्मा बना रहे तभी वह जीवंत लगेगी तथा पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल होगी।
यदि किसी को दिलचस्पी हो तो कुछ पेमेंट करके ऑनलाइन ही पढ़ सके। लेकिन यह डाउनलोड न हो, स्क्रीनशॉट न लिया जा सके आदि-आदि। यदि सचमुच अच्छी रचना होगी ( कविता,कहानी,उपन्यास आदि) तो लोग जरूर पढ़ेंगे।
नवीन बदलावों में समायोजन का रास्ता ढूँढना होगा तभी वाचन परंपरा बचेगी वरना हम देखते रह जाएँगे और किताबें अतीत की मधुरिम यादें बन कर रह जाएगी।

लता तेजेश्वर रेणुका -
वाह बहुत सुंदर और विस्तार से लिखा है आपने पूर्णिमा जी, सचमुच टेक्नोलॉजी के रहते पुस्तक बिके या खरीदी जाने का सपना हो सकता है नज़दीक भविष्य में खत्म हो जाए। ऐसा न हो इसका ख्याल हमें रखना होगा नहीं तो पत्र व्यवहार की तरह पुस्तकें भी अतीत की चीजें होकर रह जायें ऐसा खतरा है।
सच सभी लेखक बन जाए तो पाठक बनेगा कौन। पाठक का दायरा भी बहुत बड़ा है। अच्छे पाठक को भी एक लेखक जितना कर्तव्यनिष्ठ होना पड़ता है
सही, सिर्फ पुराने रचनाएँ पढ़ी जाए तो नई किताबें कौन पढ़ेगा। इसलिए बहुत चर्चित किताबें ही बिकती है। और इसके लिए पब्लिसिटी भी एक जरिया है।

रतनलाल मेनारिया - 
आज की परिस्थिति मे लेखक की बहुत दयनीय स्थिति हे ,
वह कितना ही अच्छा लिखे कितनी मेहनत से लिखता हे  लेकिन पाठको की कमी की वजह से  या आज लोगो की पुस्तके पढने मे रूची कम हो गई है इसलिए अच्छी पुस्तके भी गुमनाम हो जाती है।
मेरी निजी सोच के अनुसार आज ऐसे कही लेखक हे जो दिनकर की तरह लिखते हे। मुंशी प्रेमचंद जी के जेसे उपन्यास लिख सकते है। शरतचंद्र चट्टोपाध्याय जेसे उपन्यास भी लिख सकते है
में तो यहा तक कहता हू वर्तमान के साहित्यकार उनसे बेहतर लिख सकते है।
लेकिन आज के लेखको की बद किस्मत हे की अच्छा साहित्य लिखने के बावजूद उसकी कोई कदर नही ।
बहुत सारे प्रकाशक लेखक की कोई मदद नही करते हे ।
मेरे हिसाब से सभी लेखक को नई सुरूवात करनी होगी एक दुसरे से पुस्तक का मुल्य देकर ही लेवे
सप्रेम भेट देने पर ऊस पुस्तक की की किमत अदा करे तो लेखक केलिए बड़ी खुशी होगी।

परमिता सारंगी -
सब के विचार सही लगते हैं. और क्या कहूँ?

लता तेजेश्वर 'रेणुका' (रतनलाल मेनारिया के कथन पर) -
बिल्कुल सही कहा, जब एक दूसरे की किताब लेते है उसका मूल्य चुका कर ही लें। मुझे यही बात कैनेडा के सरन घई जी के पटल पर मिली थी, कि उनका यही कहना था कि वे मुफ्त में किसी की किताब नहीं लेते, चाहे लोकार्पण में मुख्य अतिथि ही क्यों न हो। मुझे याद है बीकानेर में 4था सोशलमीडिया सम्मेलन हुआ था जिसमें मेरी अंग्रेजी किताब The waves of life का लोकार्पण हुआ, तब सरन घई भैया ने बाकी सभी अतिथियों जो मंच पर मौजूद थे उन्हें मिली किताबों में से एक प्रति पर सभी अतिथियों के दस्तखत कराकर उसी प्रति को संभालकर रखने के लिए मंच पर भेंट कर दिए, जिससे उनके किताब लौटाने से दुख से ज्यादा सभी अतिथियों के दस्तखत देख बहुत खुश थी। ये एक उदाहरण मात्र है।

रतनलाल मेनारिया -
लता जी, आपने बिल्कुल सही कहा। एक दूसरे से पुस्तकें खरीदकर ही लेनी चाहिए।

लता तेजेश्वर 'रेणुका' (परमिता सांगी के कथन पर) -
आपने पढ़ी यही बहुत है।

लता तेजेश्वर 'रेणुका' -
आज की परिचर्चा यहीं खत्म करते हैं। आज बहुत अच्छी चर्चा हुई इसलिए सब का धन्यवाद, बेहतर रचनाएँ लिखें बांटे जरूर लेकिन जो अच्छा पाठक लगे उन्हें दीजिए, न कि किसीके ड्राइंग रूम पड़े रहे ऐसे लोगों को न बांटे तो ही बेहतर है। चलिए शुभरात्रि, अगली बुधवार को किसी नए विषय पर हाज़िर होते हैं।  हेमंत जी का बहुत बहुत धन्यवाद आज दिन भर चर्चा में शामिल रहने के लिए। धन्यवाद आप सब का।

हेमन्त दास 'हिम'-
वास्तव में बहुत अच्छी चर्चा हुई। मैं भी अपने विचार रख रहा हूँ नीचे। सभी भाग लेनेवाले गुणी साहित्यकारों का हृदय से आभार।

साहित्य के पाठक तक पहुँचने का पारम्परिक और सबसे मजबूत जरिया है पुस्तकें। देश की आजादी के पूर्व किताबें और पत्रिकाएँ खूब लोकप्रिय थीं और लोग बड़े चाव से मनोरंजन तथा चेतना के संवर्धन हेतु पढ़ा करते थे. सिनेमा जहाँ शुद्ध मनोरंजन के लिए था वहीं किताबें लोगों में देश के प्रति जागृति पैदा कर रही थी। रेडियो ने पाठकवर्ग को अधिक नुकसान नहीं पहुँचाया क्योंकि वह मुख्यत: गीत-संगीत का  माध्यम था और पुस्तकें कथा, उपन्यास एवं कविता की। कालांतर में कविता छंदमुक्त और गूढ़ होती चली गई जो सामान्य लोगों की समझ के बाहर होती गई और प्रबुद्ध से अति-प्रबुद्ध वर्ग का माध्यम हो गई। कविवर्ग ही कविता रचने और पढ़ने लगे।  और तो और, वे इस बात पर गर्व भी करने लगे कि अब कविता मंच पर सुनाने और सुननेवालों द्वारा  शीघ्र प्रतिक्रिया व्यक्त करने की चीज नहीं रह गई है। यह भ्रामक आत्मसुखवाद की स्थिति अब भी शान से कायम है. जाहिर है अगर हम ग़ज़लों को छोड़ दें तो कविता (पद्य) का पाठकवर्ग आज नगण्य होकर रह गया है।

हद तो तब हो गई जब बहुत सारे लोग बिना मुक्तछंद की गम्भीरता और महत्व को समझे अपनी कोई भी मामूली बात को शिल्पगत स्वछंदता का लाभ उठाते हुए कविता का नाम देने लगे। प्रकाशक कवियों की कविताएँ छापने के नाम पर भड़कने लगे जब तक कि रचयिता उंगलियों में गिने जाने योग्य शीर्षस्थ कवि न हों।  कथा-उपन्यास में अपेक्षाकृत रोचकता का कम ह्रास हुआ इसलिए वे लोगों के द्वारा पसंद किये जाते रहे लेकिन उन्हें चूँकि लगभग मुफ्त में टीवी पर धारावाहिक आदि की शक्ल में कहानियाँ मिलने लगी  तो पुस्तकों में पैसा लगाना उन्होंने छोड़ दिया। वे अब टेलीविजन धारावाहिकों की उच्चवर्गीय परिवारों की चकाचौंध में 'विकैरियस' आनंद (दूसरे के ऐश्वर्य को देखकर स्वयं महसूस करना) लेने लगे। अत्याधुनिक फैशन के परिधान में आलीशान महलों में रहते हुए छिछले प्रेम में रिश्ते बनाना, तोड़ना और सास-बहू का साश्वत युद्ध उन्हें ज्यादा भाने लगा. अत: किताबें खरीदना उन्होंने पूरी तरह से बंद कर दिया। अब लेखक बनना एक शौक और प्रतिष्ठासूचक  कार्य हो गया. सो लोग खुद पुस्तकें छपाकर बाँटने लगे।

समाधान यह है कि लोगों में पुस्तकों को लेकर जागरूकता लाई जाय कि पुस्तकें रचनाकार की कृति का मूल स्वरूप हैं अत: उन्हें पढ़ना ही असली साहित्य है न कि टीवी पर धारावाहिकों को देखना। यहाँ तक कि अच्छी कहानियों-उपन्यासों और पद्य को जो पढ़ने में मजा है वह टीवी या सिनेमा में देखने में नहीं। ऐसा इसलिए है कि जब आप शब्दों में व्यक्त कहानी या कविता पढ़ते हैं तो पात्रों, बिम्बों और स्थितियों को अपने अवचेतन में मौजूद अनुभवों के अनुरूप ढालकर देखते और समझते हैं जो कि टीवी-सिनेमा जैसे दृश्य माध्यमों में सम्भव नहीं है।

पुस्तक मेले पुस्तकों की खरीद-बिक्री और अन्य साहित्यकर्म को आधुनिक फैशन से जोड़ने में अच्छा काम कर रहे हैं। इंटरनेट पर अच्छा साहित्य उपलब्ध तो है लेकिन एक ही मुद्रा में बैठकर और एक ही जगह आँखें गड़ा कर पढ़ना पड़ता है जो आँखों को ही नहीं पूरे शरीर को नुकसान पहुँचाता है। साथ ही न तो आप कुछ रेखांकित कर पाते हैं न ही पृष्ठ को मोड़कर रख पाते हैं अगले दिन वहाँ से शुरुआत करने के लिए।

साथ ही यह भी समझना आवश्यक है कि जो लेखक आपको अपने जीवन के अनुभवों को निचोड़कर आपके दुखों को साझा करने की चीज प्रस्तुत कर रहा है उसकी पुस्तक को खरीदकर आप उसके प्रति अपनी कृतज्ञता भी व्यक्त कर रहे हैं। इंटरनेट पर उस लेखक की रचना को पढ़ लेने से उस लेखक का कोई आर्थिक लाभ नहीं होता और हो सकता है वह गम्भीर आर्थिक कठिनाई झेल रहा हो. अत: पुस्तकों को खरीदकर पढ़ना पाठक, लेखक और सम्पूर्ण रचना संसार के लिए एक पुनीत और आवश्यक कर्तव्य भी है।
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प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
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