परम्परा और प्रयोग के विलक्षण नाटककार का अवसान
अभी हाल ही में देश के प्रख्यात रंगकर्मी, नाटककार, अभिनेता और चिंतक गिरीश कार्नाड का निधन हो गया। वे मूलत: अपने नाटकों के लेखन के लिए जाने जाते हैं जिनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं - हयबदन और तुगलक। उनके नाटक दंतकथाओं और मिथकों के माध्यम से समाज और व्यवस्था के छद्म और विरोधाभास से युक्त ताने-बाने पर कड़ा प्रहार किया। नीचे पहले उनके बारे में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली से प्रशिक्षित प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक पुंज प्रकाश के विचार देखिए । उसके बाद स्व.गिरीश कर्नाड की स्मृति में हुई एक सभा की रपट प्रस्तुत है -
गिरीश कर्नाड को 1994 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1998 में ज्ञानपीठ पुरस्कार, 1974 में पद्म श्री, 1992 में पद्म भूषण, 1972 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, 1992 में कन्नड़ साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1998 में ज्ञानपीठ पुरस्कार और 1998 में उन्हें कालिदास सम्मान से सम्मानित किया गया है. 1980 फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार - सर्वश्रेष्ठ पटकथा - गोधुली (बी.वी. कारंत के साथ) इसके अतिरिक्त कई राज्य स्तरीय तथा राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए। बाकी जहां तक सवाल शिक्षा का है तो गिरीश कर्नाड ने कर्नाटक आर्ट्स कॉलेज से मैथेमेटिक्स और स्टेटिक्स में किया था बैचलर ऑफ आर्ट्स। ऑक्सफोर्ड से हासिल की फिलॉसफी, पॉलिटिकल साइंस और इकोनॉमिक्स में मास्टर ऑफ आर्ट्स की डिग्री। 1974 से 1975 तक फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के डायरेक्टर रहे। 1988 से 1993 तक संगीत नाटक अकादमी के चैयरमैन पद को संभाला।
गिरीश कर्नाड की मूल पहचान एक ऐसे नाटककार के रूप में हैं जो किसी एक भाषा के नाटककार न होकर भारतीय नाटककार हो गए। मूलतः कन्नड़ में लिखे उनके नाटक देश के विभिन्न भाषाओं में ना केवल अनुदित हुए बल्कि ख़ूब खेले भी गए और आज भी इनके नाटकों का मंचन लगातार जारी है। ये परम्परा और प्रयोग के ऐसे नाटककार हैं जो भारतीय इतिहास, संस्कृति, परम्परा, इतिहास आदि को अपने नाटकों के केंद्र बिंदु बनाते तो हैं लेकिन यह सब होते हुए इनके नाटक दरअसल आधुनिक या वर्तमान विमर्श को पुरज़ोर तरीक़े से अपने विमर्श के केंद्र में रखता है। उनका नाटक तुगलक केवल तुगलक की बात नहीं करता बल्कि वह एक ऐसे शासक का प्रतिनिधि हो जाता है जो अपने समय से आगे की सोच रखता है लेकिन रूढ़िवादी सोच के लोग न केवल उसके साथ असहयोग करते हैं बल्कि साजिश के तहत उसे बदनाम और उसकी हत्या तक कई साजिश रचते हैं। यहां तुगलक मात्र एक व्यक्ति न होकर आधुनिक विचारों का एक दृढ़ प्रतिनिधि हो जाता है।
वहीं हयवदन के केंद्र में स्त्री और मन और शरीर का विमर्श है। यह नाटक किसी पारंपरिक दंतकथा का भ्रम देता है लेकिन अपने मूल में यह दरअसल दिमाग और शरीर की ही कथा है जिसके केंद्र में बौद्धिक और शारीरिक दोनों आकर्षण है जिसे सुलझा पाना आज भी एक पहेली ही है।
वहीं नागमण्डल का मूल आधार भी दंतकथा ही है लेकिन विमर्श के केंद्र में आधुनिक प्रेम और त्याग ही है। कहने का तातपर्य यह कि कार्नाड ऐतिहासिक और आधुनिक चेतना से लैस एक प्रयोगवादी भारतीय ऐसे नाटककार थे जिन्होंने कभी भी लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन हुआ इन्होंने अपनी आवाज़ बतौर एक लेखक, बुद्धिजीवी, कलाकार और नागरिक बुलंद की, इस बात की परवाह किए बगैर कि इसका अंजाम क्या होगा। वो हमारे समय के बसवन्ना थे। बसवन्ना अर्थात इनके ही नाटक रक्त कल्याण का वो ऐतिहासिक चरित्र जो 12 वीं सदी में कट्टरपंथी विरोध और सुधार आंदोलन, लिंगायतवाद के प्रमुख योद्धाओं में एक रहे थे।
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दिनांक 12.6.2019 को पटना के रंगकर्मियों द्वारा नाटककार, अभिनेता व चिंतक गिरीश कार्नाड की याद में प्रेमचंद रंगशाला के प्रांगण में "स्मृति-सभा का आयोजन किया गया। इस आयोजन में पटना के विभिन्न नाट्यदलों के रंगकर्मियों के अलावा नृत्य, संगीत, सिनेमा और साहित्य से जुड़े लोगों ने अपनी भागीदारी की। सभा को संबोधित करते हुए फिल्म व रंगमंच अभिनेता विनीत कुमार ने कहा कि उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उन्होंने जो कुछ भी लिखा और कहा है उसे जीवन मे अनुसरण करें।
वरिष्ठ साहित्यकार हृषिकेश सुलभ जी ने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि मृत्यु का भी अपना एक सौंदर्य होता है। वो एक सृजनशील व्यक्ति थे। प्रत्येक लेखक अपनी कृति में हमेशा उपस्थित होता है और उस कृति के द्वारा उसके विचार युगों युंगो तक जिंदा रहता है। उन्होंने अपने नाटको के द्वारा देश और भारतीय समाज की समस्याओं को मुखरता के साथ प्रस्तुत किया । हमें औपचारिकता से बचना चाहिए। युवाओं के संदर्भ में उन्होंने कहा कि आज के युवाओं को अपने देश कला के साहित्य का अध्ययन करना चाहिए।
वरिष्ठ रंगकर्मी तनवीर अख्तर ने इनके द्वारा लिखित और अपने द्वारा निर्देशित रक्तकल्याण का जिक्र करते हुए कहा कि कर्नाड जी का सामाजिक सरोकार बहुत ज्यादा था । वे हमेशा सामाजिक न्याय के समर्थन में खड़े रहे। कार्नाड का जीवन और रचनाकर्म एक कलाकार की सामाजिक ज़िम्मेदारी का भी एक जीत जागता उदाहरण है।
वरिष्ठ रंगकर्मी संजय उपाध्याय ने कहा कि उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि यह होगी कि हम कर्नाड जी को समझे, उनके विचारों को समझे। किसी भी नाटक को आधुनिकता से जोड़ कर प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि नाटक सवाल खड़ा करता है। उन्होंने युवा रंगकर्मी को साहित्य से जुड़ने और अपनी बौद्धिकता बढ़ाने के लिए प्रेरित किया।
फ़िल्म समीक्षक विनोद अनुपम उपरोक्त लोगों से सहमति जताते हुए उनके सिनेमा में योगदान के संदर्भ में बातें की।
वरिष्ठ रंगकर्मी जावेद अख्तर ने अपने द्वारा अभिनीत नाटक रक्तकल्याण को याद करते हुए श्रदांजलि दी।युवा रंगकर्मी और अभिनेता पुंज प्रकाश ने उन्हें याद करते हुए कहा कि गिरीश कर्नाड जी से हमे एक चीज़ सीखने को मिलती है कि कैसे लोकतांत्रिक अधिकारों का समुचित इस्तेमाल करते हुए असहमति भी शालीनता के साथ दर्ज की जाती है। किसी भी विचारों से सहमत या असहमत होने के पहले उनके बारे में अच्छी तरह से जानें फिर सहमति या असहमति प्रकट करें।
साथ ही रंगकर्मी विनीत कुमार झा, मोना झा, मिथलेश सिंह, रेखा सिंह, कुंदन कुमार, रघु, आदर्श रंजन आदि रंगकर्मियों ने भी संबोधित किया। इस मौके पर बहुत सारे युवा रंगकर्मी भी मौजूद थे जिन्होंने अपने अपने विचार रखे। सभा का आयोजन पटना के तमाम रंगकर्मियों द्वारा किया गया, जिसका संचालन पुंज प्रकाश ने किया।
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आलेख - पुंज प्रकाश
रपट की प्रस्तुति - सुभाष कुमार, परिकल्पना मंच
रपट की प्रस्तुति - सुभाष कुमार, परिकल्पना मंच
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
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