अभागी समझकर सस्रुराल से निकाल दी गई बनी डॉक्टर
युग चाहे कोई भी हो सीता को तो अग्नि परीक्षा से गुजरना ही पड़ता है। क्योंकि आँसू, प्रेम और बलिदान से इतिहास लिखती हुई पुरुषों को श्रेष्ठ बताने वाली स्त्री ही भारतीय संस्कृति तथा परम्पराओं के मानकों पर खरी उतरती है। ऐसे में रीतियों की बेड़ियों में जकड़ना ही स्त्रियाँ अपनी किस्मत मान कर उसे तोड़ने का साहस नहीं जुटा पातीं। क्योंकि उन्हें लक्षमण रेखा को लांघने का परिणाम पता होता है।
महाकवि तुलसीदास ने -
"ढोल, गँवार, शुद्र, पशु, नारी
ये सब तारन के अधिकारी"
लिखकर स्त्रियों को अपमानित किया है तो अंग्रेजी कवि शेक्सपीयर ने दुर्बलता को ही नारी कहा और नीत्शे ने स्त्री को ईश्वर की दूसरी सबसे बड़ी गलती मानी, तो कविवर कबीर दास ने -
नारी की झाई परत, अंधा होत भुजंग
कहकर स्त्री की खूब भर्त्सना की।
सोचने की बात है कि जब बड़े – बड़े संत कवियों ने नारी की निंदा की तो सामान्य जन इस निन्दा की होड़ से कैसे परे रह सकते हैं? उन्हें तो नारी का अबला रूप ही पसंद है ताकि वह उनके प्रति सहानुभूति जताकर स्वयं को श्रेष्ठ साबित कर सकें। लेकिन अब जमाना बदल गया है। अन्य क्षेत्रों के साथ- साथ स्त्रियाँ लेखन क्षेत्र में भी अपनी सराहनीय उपस्थिति दर्ज करा रही हैं । यही वजह है कि आज वह अपना पक्ष मजबूती से रख रही हैं।
तारीफ़ करनी पड़ेगी इस पुस्तक की लेखिका आशा सिंह की जिन्होंने इस उपन्यास के माध्यम से एक ऐसी सशक्त महिला चरित्र से परिचित कराया है जिनके संघर्षों की कथा पढ़कर आज की स्त्रियाँ भी अवश्य प्रेरित होंगी।
1925 ई. में जन्मी सिताबो बाई यानी सीता खूबसूरत होने के साथ - साथ कुशाग्र बुद्धि की स्वामिनी भी थीं। तब कन्या का पढ़ना एक दोष माना जाता था फिर भी सीता के पिता और भाई ने घर की अन्य स्त्रियों के विरोध को झेलते हुए भी सीता को पढ़ाने का जोखिम उठाया। तभी सीता के भाभी के रिश्ते की बूआ आईं और सीता की सुन्दरता पर मुग्ध होकर अपनी सखी के बेटे इन्द्र जीत सिंह जो कि अच्छे-भले रईस ठाकुर परिवार से थे से सीता के विवाह का प्रस्ताव रख दिया। प्रस्ताव रखते समय एक अच्छी अगुवाइन की भूमिका निभाते हुए बूआ इन्द्र जीत सिंह के अनपढ़ होने और सीता के चौथी पास होने की बात छुपा ले गईं। चूंकि विवाह में कोई दान दहेज की मांग नहीं की गई थी इसलिए सीता के पिता और भाई अपनी तंगी हालत को देखते हुए विवाह के लिए राजी हो गये।
सीता का विवाह हो गया और वह बालिका वधु नैहर से विदा होकर आ गईं पीहर। उस छोटी सी कन्या को तो सुहागरात का मायने तक पता न था और पति ने शराब के नशे में सुहाग रात मना लिया ।
सीता को विवाह के दूसरे दिन से ही चूल्हा-चौका की जिम्मेदारी थमा दी गई। सास ननदें रिंग मास्टर की तरह हुकूमत करतीं और वह छोटी-सी जान उनके इशारों पर नाचती रहती थी। किन्तु कुछ ही दिनों बाद सीता की देवरानी आ गई जो उसके काम में हाथ बटाने लगी।
सब ठीक चल रहा था तभी घर में किसी बात पर तर्क-वितर्क में अचानक सीता की देवरानी के मुख से सीता के पढ़े-लिखे होने का राज खुल गया। इस बात को जानकर टोले मुहल्ले की औरतें सीता से चुपके से चिट्ठियाँ लिखवाने और पढ़वाने आने लगीं। जब यह बात सीता के सास और पति को पता चली तो उनके के अहम् को चोट पहुँची और वे चोटिल भुजंग की भांति फुफकार उठे। उपर से सीता ने ससुराल वालों के सपनों पर पानी फेरते हुए एक कन्या को जन्म दे दिया। अब इतने बड़े अपराध को कैसे माफ किया जा सकता था? कन्या भी कुछ ही दिनों बाद टिटनस की वजह से ईश्वर को प्यारी हो गई। ऐसे में ससुराल की अदालत में सीता को मायके रूपी बनवास की सजा सुनाई गई।
सीता के भाई गजोधर सिंह अपने किये का प्रायश्चित करते हुए घर की महिलाओं के विरोध के बावजूद भी सीता को पढ़ने के लिए स्कूल भेजने लगे। सीता चूंकि पढ़ने में अव्वल थीं इसलिये छात्रवृत्ति मिलने लगी।
सीता की मेहनत रंग लाई और वे डाॅक्टर बन गईं। उनकी खूबसूरती और सादगी के कायल एक अंग्रेज डाॅक्टर था जो उनकी जिंदगी में रंग भरना चाहता था, किन्तु भारतीय महिलाएँ विवाह के बाद कहाँ किसी अन्य के बारे में सोच सकतीं हैं। सीता की कीर्ति फैलने लगी और वह बन गईं सीता से डाॅ सिताबो बाई।
गोल पृथ्वी की परिक्रमा करते - करते पुनः पहुँच गईं वाराणसी, जहाँ उनकी पुरानी स्मृतियाँ उन्हें व्यथित करने लगीं। अब आगे की कहानी इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आपको पता चलेगी। कहानी में रोचकता, कौतूहल तथा प्रवाह प्रचूर है।
पुस्तक बहुत ही सरल भाषा में लिखी गई है। पुस्तक के कवर पृष्ठ पर डाॅक्टर सिताबो बाई की खूबसूरत चित्र बनाई गई है। पन्ने उच्च श्रेणी के हैं तथा छपाई भी स्पष्ट है।
आज के इस भौतिकता वादी और फिल्मी युग में इस तरह की कहानी न केवल स्त्री को बल्कि समस्त पुरुष वर्ग को भी स्त्री की शक्ति और साहस को दाद देने पर विवश करने में सक्षम है, अतः यह कहानी पठनीय तथा संग्रहणीय है।
इतनी खूबसूरत और प्रेरक कथा को पाठकों तक पहुंचाने के लिए इस उपन्यास की लेखिका आशा सिंह बधाई की पात्र हैं।
पुस्तक amazon पर उपलब्ध है।
डाॅ सिताबो बाई - लघु उपन्यास
लेखिका - आशा सिंह पृष्ठ - 85
मूल्य - रूपया 150
समीक्षक - (श्रीमती) किरण सिंह
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
किरण सिंह ने बडी गहराई से उपन्यास का अध्ययन कर उसके मर्म को छुआ है।उत्कृष्ट समीक्षा की।यह पुस्तक मेरी और किरण जी की ओर से एक भावभीनी श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteमधुर उद्गार हैतु हार्दिक धन्यवाद।
Deleteअत्यंत सुंदर समीक्षा।
Deleteकिरण जी बहुत सुंदर समीक्षाहै,आपको और आशा जी को साधुवाद।डॉ सिताबो जी का जन्म आपने सन में बताया है जबकि वो संबत होना चाहिए।1904 में सिताबो जी डॉ बनी और1946 में निधन हुआ।
Deleteसादर आभार
ReplyDelete