मैं भी ‘हफ़ीज़’ उनका पैग़ाम चाहता हूँ
(विविध भा. भाषा संस्कृति संगम द्वारा उपन्यास 'नंदिनी का लोकार्पण की रपट के लिए- यहाँ क्लिक कीजिए)
भूलेगा कोई कैसे ‘हफ़ीज़’ अपने वतन को
मुद्दत की तश्नगी का इनआम चाहता हूँ
मस्ती भरी नज़र से इक जाम चाहता हूँ
कल हमसे कह रहा था शोहरत तलब ज़माना
तुम काम चाहते हो मैं नाम चाहता हूँ
बादे-सबा से कह दो मेरी तरफ़ भी आये
इस नाम की निस्बत से खाए हैं फ़रेब इतने
या सब को पिला साक़ी, या हम को भी प्यासा रख
हम ज़िन्दगी का बोझ उठाये हुए तो हैं
ज़िन्दगी तो उसी की है जिस पर
वह नज़र मेहरबान होती है
इश्क़ की ज़िन्दगी ‘हफ़ीज़’ न पूछ
बला की नजाकत के साथ जिंदगी के फलसफे को बयाँ करनेवाले हफीज बनारसी की याद में एक शानदार कार्य्रक्रम हाल ही में हुआ जिसमें पटना और आसपास के नामी गिरामी शायरों और नए लोगों ने पूरी गर्मजोशी से शिरकत की।
रविवार दिनांक 16 जून 2019 को मरहूम उस्ताद शायर हफ़ीज़ बनारसी के यौमे-वफ़ात के मौके पर "बज़्मे हफ़ीज़ बनारसी : मरकज़-ए-रंग-ए-हुनर" (उनके शागिर्द और वरिष्ठ शायर रमेश 'कँवल' द्वारा स्थापित एक संस्था) ने "एक शाम हफ़ीज़ बनारसी के नाम" से एक मुशायरा बिहार उर्दू अकादमी के सभागार में मुनअक़िद किया था।
इम्तियाज़ अहमद करीमी निदेशक राजभाषा विभाग(उर्दू), बिहार सरकार, कार्यक्रम के मुख्य तिथि थे। अन्य ख़ुसूसी शख्सियतों में, जिन्होंने कार्यक्रम को अपनी मौजूदगी से नवाज़ा उनमें प्रमुख थे बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष अनिल सुलभ, बिहार उर्दू अकादमी के सचिव अजीमुल्लाह अंसारी, प्रो. अलीमुल्ला हाली, खुर्शीद अकबर, मोतबर उस्ताद हफ़ीज़ बनारसी के दो सुपुत्र अख़्तर मसूद व अब्दुल क़ादिर।
मुख्य अतिथि मो इम्तियाज़ अहमद करीमी ने बज़्म की स्मारिका का विमोचन करते हुए इसके संस्थापक रमेश कँवल की भूरी भूरी प्रशंसा की और कहा कि आज की तिथि में रमेश कँवल ऐसी शख़्सियत हैं जो अपने उस्ताद हफ़ीज़ बनारसी की याद में ऐसी शामें मुनअक़िद कर रहे हैं । इस अवसर पर रमेश कँवल जी की ग़ज़लों और नज़्मों के संग्रह “स्पर्श की चांदनी” का भी लोकार्पण किया गया ।
हफ़ीज़ बनारसी की अज़ीम शख़्सियत और शायरी पर ख़ुसूसी मेहमानों के इज़हार-ए-ख़्याल के बाद जिंदगी, मुहब्बत और मयखाना मौजू पर हफ़ीज़ बनारसी के अश'आर मरकज़ के मेम्बरान ख़्वातीन-ओ-हज़रात की जुबानी शाम को और दिलशाद व रंगीन कर गई। हफ़ीज़ बनारसी साहब के दो मिसरा-ए-तरह “अपनी न है यारों पराई है जिंदगी” और "मीर सी कोई ग़ज़ल हो ये कहाँ मुमकिन है" पर मरकज़ के मेम्बरान व पटना के बाहर से आये शोअरा-ए-एकराम ने अपने क़लाम पेश किए।
हफ़ीज़ बनारसी की अज़ीम शख़्सियत और शायरी पर ख़ुसूसी मेहमानों के इज़हार-ए-ख़्याल के बाद जिंदगी, मुहब्बत और मयखाना मौजू पर हफ़ीज़ बनारसी के अश'आर मरकज़ के मेम्बरान ख़्वातीन-ओ-हज़रात की जुबानी शाम को और दिलशाद व रंगीन कर गई। हफ़ीज़ बनारसी साहब के दो मिसरा-ए-तरह “अपनी न है यारों पराई है जिंदगी” और "मीर सी कोई ग़ज़ल हो ये कहाँ मुमकिन है" पर मरकज़ के मेम्बरान व पटना के बाहर से आये शोअरा-ए-एकराम ने अपने क़लाम पेश किए।
आराधना प्रसाद ने ज़िंदगी पर अपने अशआर पेश किये-
मौत को भी मार आई ज़िंदगी
दार पर यूं मुस्कुराई ज़िंदगी
सारा आलम रौशनी से भर गया
नूर में जिस दम नहाई ज़िंदगी
भूल कर मैं भूल ही करती रही
कब हुई अपनी, पराई ज़िंदगी
चार जानिब आ गया सैलाब फिर
आंसुओं से जब नहाई ज़िंदगी
ऐसा लगता है मुहब्बत हो गई
आप आये मुस्कुराई ज़िंदगी
बारहा बेचैनियां, बर्बादियां
ज़िंदगी भर डगमगाई ज़िंदगी।
शकील सासरामी ने मैखाने के नाम से अपनी कई बेशकीमती बातें कही-
उदास क्यों है मेरी ज़िन्दगी का मयख़ाना
कहॉ मिलेगा बताओ ख़ुशी का मयख़ाना
चहार सम्त अंधेरा है गुमरही का यहां
मिले कहीं तो मिले रौशनी का मयख़ाना
मेरी निगाह में बज़्मे-हफ़ीज़ ऐ लोगो
ग़ज़ल की शक्ल में है शायरी का मयख़ाना
शकील कर ली जो तौबा शराब से मैंने
भरा नहीं है कहीं भी किसी का मयख़ाना।
घनश्याम ने अपनी सांसों, धड़कनों में समाई हुई ज़िंदगी की बात की-
जन्नत से चल के सामने आई है ज़िंदगी
साँसों में, धड़कनों में समाई है ज़िंदगी
उस बागबां के हाथ का जादू तो देखिए
सूखे हुए शजर ने पाई है ज़िंदगी
जब ज़िंदगी की डोर भी औरों के हाथ हों
तो जान लीजिए कि पराई है ज़िंदगी
इस ज़िंदगी को खून-पसीने में सींचकर
'घनश्याम' ने जरा सी कमाई है ज़िंदगी।
सुनील कुमार ने वक्त के उर्दू और हिंदी के मिश्रण का अनोखा अंदाज दिखाया-
वक़्त सबका ही प्रबल हो ये कहाँ मुमकिन है
एक सा तेज हो बल हो ये कहाँ मुमकिन है
दिल ने संताप कई झेले थे हँसते हँसते
अब ये पहले सा सबल हो ये कहाँ मुमकिन है
मैं भी आया तो हूँ उम्मीद लिए महफ़िल में
मीर सी कोई ग़ज़ल हो ये कहाँ मुमकिन है
ज़ुल्फ़ शानों पे किसी रोज़ जो लहरा जाती
मन में खिलता न कँवल हो ये कहाँ मुमकिन है
है बसी सूखे गुलाबों की महक साँसों में
भूलना तुमको सहल हो ये कहाँ मुमकिन है
रोज़ वादों का पिटारा ही लिए फिरते थे
इक मुनासिब सी पहल हो ये कहाँ मुमकिन है
घनश्याम ने अपनी सांसों, धड़कनों में समाई हुई ज़िंदगी की बात की-
जन्नत से चल के सामने आई है ज़िंदगी
साँसों में, धड़कनों में समाई है ज़िंदगी
उस बागबां के हाथ का जादू तो देखिए
सूखे हुए शजर ने पाई है ज़िंदगी
जब ज़िंदगी की डोर भी औरों के हाथ हों
तो जान लीजिए कि पराई है ज़िंदगी
इस ज़िंदगी को खून-पसीने में सींचकर
'घनश्याम' ने जरा सी कमाई है ज़िंदगी।
सुनील कुमार ने वक्त के उर्दू और हिंदी के मिश्रण का अनोखा अंदाज दिखाया-
वक़्त सबका ही प्रबल हो ये कहाँ मुमकिन है
एक सा तेज हो बल हो ये कहाँ मुमकिन है
दिल ने संताप कई झेले थे हँसते हँसते
अब ये पहले सा सबल हो ये कहाँ मुमकिन है
मैं भी आया तो हूँ उम्मीद लिए महफ़िल में
मीर सी कोई ग़ज़ल हो ये कहाँ मुमकिन है
ज़ुल्फ़ शानों पे किसी रोज़ जो लहरा जाती
मन में खिलता न कँवल हो ये कहाँ मुमकिन है
है बसी सूखे गुलाबों की महक साँसों में
भूलना तुमको सहल हो ये कहाँ मुमकिन है
रोज़ वादों का पिटारा ही लिए फिरते थे
इक मुनासिब सी पहल हो ये कहाँ मुमकिन है
मो. नसीम अख्तर ने ज़िंदगी को तकब्बुर न करने की सलाह कुछ इस तरह से दी -
ख़ाक होती है दुनिया में हर ज़िन्दगी
इसलिए तू तकब्बुर न कर ज़िन्दगी
तुझको कहता मैं रश्के क़मर ज़िंदगी
चार दिन की न होती अगर ज़िन्दगी
एक दिन होगी अपनी सिफर ज़िन्दगी
मौत का कर रही है सफर ज़िन्दगी
दाल रोटी पे आफत हमारे लिए
हम ग़रीबों की ख़ातिर सक़र ज़िन्दगी
छोड़िए डरना मरना तो है एक दिन
चैन से आप करिए बसर ज़िन्दगी
जैसा बोते हैं हम वैसा हैं काटते
अपने कर्मों का "अख्तर "समर ज़िन्दगी।
डॉ आरती कुमारी वो शायरा हैं जो ख़ार से उलझते हुए भी फूल सी महकती शायरी करती हैं -
इसलिए तू तकब्बुर न कर ज़िन्दगी
तुझको कहता मैं रश्के क़मर ज़िंदगी
चार दिन की न होती अगर ज़िन्दगी
एक दिन होगी अपनी सिफर ज़िन्दगी
मौत का कर रही है सफर ज़िन्दगी
दाल रोटी पे आफत हमारे लिए
हम ग़रीबों की ख़ातिर सक़र ज़िन्दगी
छोड़िए डरना मरना तो है एक दिन
चैन से आप करिए बसर ज़िन्दगी
जैसा बोते हैं हम वैसा हैं काटते
अपने कर्मों का "अख्तर "समर ज़िन्दगी।
डॉ आरती कुमारी वो शायरा हैं जो ख़ार से उलझते हुए भी फूल सी महकती शायरी करती हैं -
ख़ार से भी उलझती रही ज़िंदगी
फूल बन के महकती रही ज़िंदगी
वक़्त की कैद में सांस की है लड़ी
लम्हा लम्हा तड़पती रही ज़िन्दगी
इश्क़ में वस्ल कम था, जुदाई बहुत
करवटों में सिसकती रही ज़िंदगी
कौन समझायेगा ज़ीस्त का फ़लसफ़ा
आज खुद ही समझती रही ज़िंदगी
मैं उठाती रही नाज़ इसके सभी
इसलिए तो बहकती रही ज़िन्दगी
डा.अर्चना त्रिपाठी अपनी गुबारो-गर्द ज़िंदगी को भी सार्थक मानती हैं क्योंकि वो किसी की राहते-जाँ हैं-
उनकी नज़र में राहते-जां से न है ये कम
मेरी नजर में है गुबारो-ग़र्द जिंदगी
न बंदगी, न सज्दा ख़ुदा का कभी किया
फिर आपके लिए तो है सहरा ये ज़िन्दगी।
पूनम सिन्हा श्रेयसी का मानना है कि मुहब्बत में आँखें बन जाती हैं जुबाँ -
पूनम सिन्हा श्रेयसी का मानना है कि मुहब्बत में आँखें बन जाती हैं जुबाँ -
मुहब्बत में कोई गिला तब कहाँ था
दिलों में रखें फासला तब कहाँ था।
मुहब्बत में आँखें बनी है ज़ुबाँ भी
कि बातों का ये सिलसिला तब कहाँ था।
मुहब्बत में दिल ये परेशाँ रहे क्यों
करें जो तुरंत फैसला तब कहाँ था।
मुहब्बत में हारे कि जीते दिलों को
हिक़ारत से दिल अब मिला तब कहाँ था।
किये जा रही क्यों मुहब्बत है 'पूनम'
बढ़ा जो अभी हौसला तब कहाँ था ।
डॉ. सुधा सिन्हा ने अपनी एक ग़ज़ल पढ़ी जिसकी पंक्तियाँ कुछ यूं थीं -
आपकी याद आपका गम है
जिंदगी के लिए यह क्या कम है ?
डॉ. सुधा सिन्हा ने अपनी एक ग़ज़ल पढ़ी जिसकी पंक्तियाँ कुछ यूं थीं -
आपकी याद आपका गम है
जिंदगी के लिए यह क्या कम है ?
इनके अलावा जिन शायरों और शायरात ने अपने कलाम पढ़े वो ये हैं घनश्याम, निकहत आरा, अरुण कुमार आर्य, इरफान अहमद बेदालवी, कुमारी स्मृति, नईम सबा, नेयाज़ नज़र फातमी ,मासूमा खातून, शाज़ीया नाज़, डॉ. शालिनी पाण्डेय ,शुभ चन्द्र सिन्हा, हिना रिज़्वी हैदर, ज़ीनत शेख, मीना कुमारी परिहार इत्यादि। जनाब बर्क़, तलअत परवीन, आर पी घायल आदि नहीं आ पाये।
इस तरह से हफीज़ बनारसी साहब की बेमिसाल ग़ज़लों का पूरे जोशो-खरोश के साथ पाठ करते हुए और आज के ग़ज़लकारों ने अपने भी कलाम सुनाते हुए उस महान शायर की याद में आयोजित कार्यक्रम को अपने यादगार अंजाम तक पहुँचाया।
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आलेख - सुनील कुमार / मो. नसीम अख्तर
छायाचित्र सौजन्य - सुनील कुमार / मो. नसीम अख्तर
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
नोट- डॉ. सुधा सिन्हा का नाम और उनकी पंक्तियाँ बाद में दि. 25.7.2020 को जोड़ा गया है उनके द्वारा यूट्यूब वीडियो दिखाए जाने के बाद.
अनेक शायरों की प्रस्तुतियों का समावेश/उल्लेख नहीं है
ReplyDeleteफिर भी इस संक्षिप्त रिपोर्टिंग के लिए बहुत बहुत बधाई.
त्रुटि पर ध्यान दिलाने हेतु आभार आदरणीय. नामों को यथासंभव जोड़ दिया गया है. फिर भी छुटे रह गए हों ईमेल से बताया जाय. आपसे अनुरोध है कि अपनी ग़ज़ल और तस्वीर को ईमेल से दिया जाय.
Deleteअनेक शायरों की प्रस्तुतियों का समावेश/उल्लेख नहीं है
ReplyDeleteफिर भी इस संक्षिप्त रिपोर्टिंग के लिए बहुत बहुत बधाई.
कृपया छूटे हुए नाम और पंक्तियाँ ईमेल से दिये जाएं - editorbejodindia@yahoo.com
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