Sunday, 26 February 2023

"Deranged Marriage" - a Hindi play staged at Khar (Mumbai) on 25.2.2023 by Jeff Goldberg Studio

 I found my mad girl!  
(A Drama-review)

हिंदी में समीक्षा के लिए -   यहाँ क्लिक करके क्रम सं. 11 देखिए 



Stuck  in the blitzkrieg of reels and live streaming, is there something  called "real life" left in our social ethos? This is an era where all of your feelings, emotions and experiences have reduced to the instances of showbiz. Social media platforms like Whatsapp, facebook, instagram etc. have ransacked the basic fabric of  human life. 

A middle-class couple have a young daughter. The mother is an ultra-extrovert modern woman who is always eager to openly discuss her sweet sixteen fantasies even before her blushing daughter. Her docile husband takes care of household chores and somehow manages his nuptial bond to wife who cherishes a socialite persona for herself. Their daughter is suffering from severe kind of electrophobia i.e. fear of electricity. That is why she has grown seclusive to all electrical gazettes to the extent that she shivers heavily when a mobile phone rings.

Well, a prospect boy from already known faces is pointed out and the girl is encouraged by her parents to go on date with him. Filled with tender romantic feelings the beautiful girl goes to meet the prospect  but to her dismay the boy is nerdy. The boy on the very first date reveals that his first love is his books of  Electrical Engineering. The girl is about to feint but somehow controls herself. 

Nothing comes out in the first date and they agree to meet again. Then a problem comes to surface that the prospect boy has a girlfriend. Now the parents lose all hopes for this match. The reasons are two- One, their daughter has a mental disease of fearing from electricity and Second, that boy already has a girlfriend. 

Now when that boy meets his original girlfriend who is a dazzling stylish lady, he finds that she is always engaged in show off. She would suddenly start dancing with him, would start a romance chat, would show her coquets and styles but would never participate in serious talk. In place of attending to the real relationship issues She would would rather prefer  livestreaming her break up spat on social media. Breaking relation to such a nasty girl, he goes to give his marriage offer to the girl who is afraid of mobile ringing.

The directors and actions have done nice work. The natural rhythm of the story was well-maintained by the directors. The dichotomy of feelings and show off is beautifully etched out in the script and the characters playing the young daughter, prospect boy and his girlfriend did their best to make this dichotomy clearly visible to the viewers. The actors playing the mother and the father were also successful in showing two different approaches of rearing child. Those who acted in it were Nyasa Bijalani, Atherva Kelkar. Anil Mishra, Mallika Bajaj, Rahul Raj C, Nitasha Sharma and Varun Chawla. The directors were Subramanian Namboodiri and Sukaran Chhabra. The script was prepared by Jeff Goldberg and one of his associates.

The trembling body of the daughter should be associated with light and sound effects. The parental fight should be more intense that reaches a full-blown war level each time and then cools down suddenly. After these changes, there would be no need of double-meaning dialogues for humour.

Definitely this play is not only successful in entertaining the viewers but is also able to raise the most pertinent issue of mobile aka social media menace in an emphatic manner. And I would succinct as "Behind all the glamour and glossiness there is a human heart and the feelings unseen by others matter the most". 

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Review by - Hemant Das 'Him'
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Tuesday, 21 February 2023

लेख्य मंजूषा द्वारा ब्लॉगर हेमन्त दास 'हिम' के सम्मान में आकस्मिक गोष्ठी पटना में 19.2.2023 को सम्पन्न

 "क्या आज भी लोग रो लेते है, बिना माईक और कैमरा के? .."
(कवि-गोष्ठी की रपट)


"गजल यह है, हम जिस भाव से यहाँ उपस्थिति हुए हैं बाकी तो जो शे'र अश'आर है सो है" 
ऐसा राष्ट्रीय स्तर के ख्यातिलब्ध गजलकार संजय कुमार कुंदन ने कहा। रविवार/19 फरवरी 2023 अपराह्न ढ़ाई बजे से साहित्यकार हेमन्त दास 'हिम' के सम्मान में लेख्य-मंजूषा  (साहित्य और समाज के प्रति जागरूक करती संस्था) के द्वारा द इंस्टिट्यूट ऑफ इंजीनियर्स में अनेक सुधी साहित्यकार एकत्र हुए. इस अवसर पर उनके "बिहारी धमाका" एवं "बेजोड़ इंडिया" ब्लॉग के माध्यम से सभी साहित्यकारों और रंगकर्मियों को उत्साहित रखने के सराहनीय प्रयास की सामूहिक रूप से प्रशंसा की गई. 

इस अवसर पर एक कवि-गोष्ठी का आयोजन भी हुआ. मुंबई से गृहनगर पटना आए हेमंत दास 'हिम' की अध्यक्षता में हुई इस गोष्ठी में उनकी कविताओं जैसे "क्या श्रेष्ठ बाजारवादियों के इस युग में / अब भी उपलब्ध है कोई  फटा रूमाल..." और "क्या आज भी लोग रो लेते है / बिना माइक और कैमरा के..." जैसी पंक्तियों ने श्रोताओं को सोचने पर मजबूर कर दिया.

आकस्मिक रखी गई गोष्ठी में राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित शायर संजय कुमार कुंदन के अलावा लेख्य-मंजूषा के उपाध्यक्ष एवं बेहतरीन कवि मधुरेश शरण, उर्दू-हिंदी शायरी में ऊचा मुकाम हासिल कर चुके सुनील कुमार, संवेदनशील कविगण कृष्ण समिद्ध, कमल किशोर वर्मा, डॉ. मीना परिहार एवं डॉ पूनम देवा, नूतन सिन्हा, ऋचा वर्मा, रंजना सिह, पूनम (कतरियार) तथा डॉ. प्रतिभा रानी की सम्मानीय उपस्थिति रही। आगंतुक युवा कवियों में अमृतेश मिश्रा, अनिकेत पाठक एवं  ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया। सम्पूर्ण आयोजन में लेख्य-मंजूषा की अध्यक्षा विभारानी श्रीवास्तव की केंद्रीय भूमिका रही.

शायर सुनील कुमार ने अपेन प्रभावकारी संचालन द्वारा सब को बांधे रखा. धन्यवाद ज्ञापन मधुरेश नारायण और संस्था की अध्यक्षा विभारानी श्रीवास्तव ने किया. अल्प सूचना पर आयोजित हुए इस कार्यक्रम में कविताओं तथा गज़लों की अविरल रसधार बही।

अज़ीम शायर संजय कुमार कुंदन ने ख़ूबसूरत शायरी का नुस्खा दिया -
"आरजू गर लहू नहीं होती
शायरी ख़ूबरू नहीं होती
अब न कोई कलाम कोई सुखन
ख़ुद से भी गुफ़्तगू नहीं होती
तीरगी का भी एहतराम करो
रौशनी चार सू नहीं होती
तेरी वहशत में मैं नहीं होता
मेरी ख़्वाहिश में तू नहीं होती
कैसे फेरे में पड़ गया 'कुन्दन'
संग से गुफ़्तगू नहीं होती.."
(ख़ूबरू= सुंदर चेहरे वाला, तीरगी= अंधेरा, एहतराम = सम्मान,  वहशत= उन्माद, संग= पत्थर)

डॉ मीना कुमारी परिहार ने अपने मधुर कंठ से स्वरचित रचना का लयबद्ध गायन कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया. उनकी पंक्तियों में बढ़ रही संवेदनहीनता पर कड़ा प्रहार भी था -
"गले भी लगाएं वो और प्यार भी करें
ये आदमी नहीं है इक जात है नई
अक्सर ही लोग जाते हैं छोड़ कर मुझे
तुम भी चले जाओगे, क्या बात है नई.."

डॉ. प्रतिभा रानी ने लोगों के हारते मन में हौसला भरा -
"हे मन, क्यों घबराता है
क्या कोई किसी के काम आता है?
जीत वहीं होती है
जहाँ प्रयास होता है.."

भावप्रवण कवि मधुरेश नारायण ने अपनी पंक्तियों से प्रेम की बरसात कर दी -
"चुपके से कोई मेरे जीवन में 
प्यार के रंग घोल दे
कोई आकर मेरे कानों में 
प्यार के दो बोल, बोल दे.."

लोकप्रिय शायर सुनील कुमार आसमान नापते दिखे -
"चर्चा अब क्यूँ थकान पर करिए
हौसले से उड़ान है प्यारे
हम परिंदे हैं, नाप लेते हैं
मुट्ठी में आसमान है प्यारे.."
उन्होंने कार्यालय के अनुभव पर भी एक सुंदर रचना पढ़ी जो कुछ यूँ थी- 
"तमाम लोग जो अक्सर इधर उधर में रहे
वो सारी जद्दोजहद करके भी अधर में रहे.."

अमृतेश कुमार मिश्रा ने अपनी ग़ज़ल से सब का दिल जीत लिया - 
"हमारी ज़िंदगी में तुम नहीं हो
हमारे दिल में अब धड़कन नहीं है
मेरी पेशानी को चूमा है जबसे
मेरी दुश्मन से भी अनबन नहीं है
घुटन की बात पर इतना कहूँगा
मुहब्बत योग है  बंधन नहीं है
किसी के ताज पे सोना मढ़ा है
किसी के जिस्म पे कतरन नहीं है.."

कवयित्री ऋचा वर्मा ने भोग- विलास में लीन, सीमा पर जान की बाजी लगा रहे और आतंकवाद की ओर उन्मुख हो रहे तीनों प्रकार के पुत्रों को उनकी माता की याद दिलाते हुए सच्ची वीरता और देशभक्ति को अपनाने की सीख दी - 
क्या आएगा उसका पूत ?
जीवन की रंगीनियों को तज कर, 
सरहद पर दुश्मनों को मात देकर, 
या, अपनी मातृभूमि को लहुलुहान करने के इरादे को तिलांजलि देकर
शायद . हां, नहीं, जरुर आएगा
क्योंकि 'मां' की दुआएं कभी खाली नहीं जाती.."

पूनम कतरियार ने स्त्री के अस्तित्व पर कहा - 
"अमृत-प्रवाह हूं,
बहने दो मुझे.
ऊंचाई ने दिया आवेग,
प्रस्तर-खंडो ने संघर्ष दिया.
टेढ़े-मेढ़े राह-बाट में,
खर-पतवार भी,खूब  मिलें.
भूख -प्यास से बेहाल,
बांझिन-रेत मिलीं,
तरसती-धरा का क्षोभ दिखा..."

कुछ वीर-रस के कवि भी क्रोध का औचित्यीकरण प्रस्तुत करते हुए साहित्यिक गुणों से परिपूर्ण वीर-रस पर अपनी रचनाएँ पढीं - 
अनिकेत पाठक ने परशुराम जी के क्रोध को दर्शाते हुए कविताएँ पढीं - 
"यदि न्याय न दिला पाए 
तो किस काम का तेरा बल?.."
कवि कमल किशोर ने भी क्रोध को उचित ठहराया - 
"संंधि-प्रस्ताव जब निरस्त हुआ 
कब तक अन्याय सहा जाए?
क्यों नहीं क्रोध किया जाए?.."
इन कवियों की रचनाएँ काफी प्रभावकारी थीं, यहाँ यह कह देना प्रासंगिक होगा कि आधुनिक काल में क्रोध के व्यक्तिकरण का स्वरूप बदल गया है. अन्याय और अत्याचार का कठोर दमन होना ही चाहिए किंतु आधुनिक समय में यह काम सर्वसाधारण जनता का नहीं अपितु सैन्य-बल और पुलिस बल का है. जनता का काम अन्याय और अत्याचार के दमन में उनका सहयोग करना है स्वयं कानून अपने हाथ में लेना नहीं. 

कवि कृष्ण समिद्ध ने कविता नहीं पढ़ी. उन्होंने कहा कि हेमंत जी को मैं ने पहली बार "दूसरा शनिवार" की काव्य गोष्ठी में देखा था. किस गंभीरता से आप पटना कविता और नाटक जगत में आप रहते थे और अपनी कलम से अपने नोट बुक पर हर घटने वाली घटना और पंक्ति को दर्ज किया करता थे.

नूतन सिन्हा ने प्रकृति-प्रेम को चित्रित किया -
"रात्रि के प्यार में 
दिवा रहता है दीवाना.."

अंत में कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हेमन्त दास 'हिम' ने अपने विचार रखे. उन्होंने कहा कि कविता में बुराइयों का विरोध होता है किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह किसी खास राजनीतिक या सामाजिक समूह के खिलाफ है. दर-असल बुराइयाँ हर जगह, हर समूह और हर व्यक्ति में है,  स्वयं उस रचना को लिखनेवाले में भी. अत: कविता सब के साथ-साथ स्वयं उसकी रचना करनेवाले कवि के भी खिलाफ होती है. स्पष्ट है कि कविता में विरोध की अभिव्यक्ति का कभी बुरा नहीं माना जाना चाहिए. उनकी कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थीं - 
"क्या श्रेष्ठ बाजारवादियों के इस युग में
अब भी उपलब्ध है कोई फटा रुमाल
उन गीली आंखों को
जिन्हें पोछने वाला कोई भी नहीं? "

 प्रख्यात शायर संजय कुमार कुंदन जी के बारे में हेमन्त 'हिम' ने कहा कि उनके समक्ष किसी और का सम्मान बेमानी है. साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि यह सत्य है कि उनके पटना छोड़ने के कारण वे स्वयं और पटना के साहित्यिक मित्र एक-दूसरे की कमी को महसूस कर रहे हैं और एकत्र होने के लिए यह बहाना अच्छा था. उन्होंने मौजूद कवि-कवयित्रियों के साथ वर्ष 2019 ई. तक (जब तक पटना में रहे) के संस्मरणों को याद करते हुए लोगों की बातों में हामी भरी कि किस तरह उनके द्वारा रात-रात भर जग कर पटना की लगभग हर गोष्ठी की रपट वर्षों तक प्रकाशित होती रही. उन्होंने मक़बूल शायर सुनील कुमार और उत्तम कवि मधुरेश शरण, कृष्ण समिद्ध समेत, भावप्रवण कवयित्रियों पूनम कटरियार, ऋचा वर्मा, मीना परिहार से अपने ऑनलाइन संवादों को याद किया और आज आमने-सामने होने पर खुशी व्यक्त की. 

कार्यक्रम में संस्था द्वारा पुरस्कृत कवयित्री ऋचा वर्मा को पुरस्कार स्वरूप अनिरुद्ध प्रसाद 'विमल' लिखित प्रबंध काव्य 'कृष्ण' को हेमन्त दास 'हिम', संजय कु. कुंदन और मधुरेश शरण के हाथों प्रदान किया गया.
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रपट - पूनम (कतरियार)/ बेजोड़ इंडिया संचालक मंडल
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Tuesday, 14 February 2023

"Dark days & white nights" in Hindi staged at Creative Adda, Versova (Mumbai) on 11.02.2023

 A cast of new societal re-make
(Drama-review)

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Someone is mocking at someone, someone pepping up, someone to wage a war, someone to pacify, someone protruding in other's privacy, someone getting emotional on petty issues. These seemingly unrelated issues are beautifully threaded with a love saga that eventually turns the improvisation into a script. Each piece of activity is a miniature form of a social phenomenon. Showcasing all this was the play “Dark days & white nights” directed by Mr. Sarfaraz under the  production of "The Crafters Acting school". It was presented at Creative Adda, Aram Nagar, Versova (Mumbai) on 11.02.2023.

Let us begin with the love-line. A nice-looking girl is admitted in a higher secondary school where everyone else is a brat. She gets frightened by the undue advancements of the boys except the one who forms a wall to save her. Not in a Bollywood style she fails to fall in deep love for the saviour boy and just accepts him as a good friend. Though the condition of the saviour is different and very delicate. In spite of losing his heart completely for her, he willingly cooperate in her pursuit of the old flame.

All students have a high regard for their excellent biology teacher Mr. Mike. But at the same time, they are also relishing in the gossips of the fledgling romance between him and Kalpana Ma'am. They are always there to scoop Mike and Kalpana. And the limit is transgressed  by one of the boys when he posts on the Instagram in Hindi which virtually means that Mike is using Kalpana for his gratification. On this, Miss Kalpana is so annoyed that she plans to leave the city and so does Mike. Now the students suffer in repentance. They leave that fellow alone who admits his guilt.

Each of the students carry the sweetness or sourness of the conjugal relationship of their parents as a legacy. The absence of father or mother is but obvious in the personality of some ill fated ones and they are looked down upon by others for their shortcoming that was not in their hands.

The communal string also forms one of the motifs of the presentation. While participating in the gossips on Mike-Kalpana, one of the students blames another with the vilest remark "tumhare wale me se hain to tum to support karoge hi". This leaves the victim in black despair but somehow other sensible guys pacifies the situation.

A big tragedy stuns everyone. As soon as the bout of one-sided love of the saviour boy for the girl reaches a point where she is about to show the green signal, the sudden appearance of her old love changes the scene again and she goes with her dropping the saviour guy. When this ill-starred soul shares his hurt feelings to his bosom friend hoping some consolation, he advises him to commit suicide. On this, he takes the poison bottle from the pocket of his  sleeping drunkard friend and pours it under his throat. After shivering for a while, he seems to be lifeless. But he is not, in fact the poison-bottle waved by the boy was just a hoax and it was not poison. But a deep gloom envelops the whole atmosphere when it is known that the boy who suggested the saviour boy to commit suicide himself committed suicide. Actually he was feeling too lonely because of tense conjugal relationship of his parents. He was not among others who was sent to this residential school by choice of parents but he was the only one who himself had preferred to live away from his parents.

Ultimately it comes out that the peaceful or hostile nature of the conjugal relationship between couples is vital for the re-building of a healthy society. The other message comes over the surface is that it all depends upon the guide who can make or mar the society. 

As already mentioned, the script was not a traditional type one and it has been spontaneously improvised by the students with some modulation by the director. And both students and the director have done their jobs deftly to make the bunch of thoughts presentable and meaningful. Barring the God Buddha analogy, everything suited the theme of the play. The students in different roles acted well and the whole idea of the director was superb.
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Review by- Hemant Das 'Him'
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