Monday 22 April 2019

जाबिर हुसैन सम्पादित साहित्यिक पत्रिका 'दोआबा' के नवीनतम अंक पर शहंशाह आलम की समीक्षा

कृष्णा सोबती  विशेषांक 
 दर्द अनेक पीढ़ियों का, तन्हाई अनेक नस्लों की



अब हिंदी में बहुत कम साहित्यिक पत्रिकाएँ ऐसी आ रही हैं जिनके संपादक बेहद सतर्क, बेहद सावधान और बेहद जीवनधर्मी होकर रचनाओं का चयन करते हैं। दोआबा हिंदी की वैसी ही पत्रिका है, जिसका अंक आपके पास आते ही पत्रिका आपको मोह लेती है। इसके संपादक जाबिर हुसेन दोआबा का हर अंक जिस आत्मविश्वास से निकालते हैं। जिस सुसंगत, जिस सुगठित, जिस सुविचारित तरीक़े से अंक का संयोजन-संपादन करते हैं, उनका यह कार्य हिंदी की दूसरी पत्रिकाओं के संपादकों को भी उत्साहित करता है। जाबिर हुसेन की ख़ासियत यह भी है कि पत्रिका का कोई नया अंक लाने से पहले ज़्यादा हो-हल्ला नहीं मचाते। पत्रिका के पाठकों को एक अंक सौंपने के बाद अगले अंक की तैयारियों में लग जाना इनकी आदत है। संपादक की यह आदत विस्मित भी करती है। विस्मित इसलिए कि बाज़ार में अंक छपकर आने तक किसी को यह बात मालूम नहीं होती कि दोआबा का नया आने वाला अंक किस ‘थीम’ अथवा किस ‘सब्जेक्ट’ पर केंद्रित होगा अथवा किन नए प्रश्नों को उठाया जाएगा। 

190 पृष्ठों से ज़्यादा मोटाई लिए दोआबा का नया अंक संपादक की ऐसी ही प्रतिबद्धता का प्रमाण है। यह अंक भी इतना साफ़-सुथरा, आकर्षक और पठनीय है कि आप ‘वाह’ किए बग़ैर रह नहीं पाएँगे। दोआबा का यह अट्ठाईसवाँ अंक कृष्णा सोबती पर एक विशेष खंड लेकर आया है। 

इस ‘स्मृति आयाम’ शीर्षक विशेष खंड में कृष्णा सोबती का पूरा जीवन सजीव हो उठा है। इस खंड की सार्थकता इस बात में है कि इस खंड के सारे आलेख महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में विभिन्न विषयों में शोध कर रहे आठ शोधार्थियों के हैं। अतुल कुमार मिश्र, रेणु शर्मा, आलोक कुमार शुक्ल, भावना मासीवाल, शैलेन्द्र कुमार शुक्ल, राहुल, मनोज कुमार गुप्ता, प्रेम कुमार के आलेख और इन आलेखों के बहाने शंभु गुप्त की आलोचना का पुनर्विमुखीकरण शीर्षक एक बेहद उत्तेजक, सारगर्भित, मार्मिक टिप्पणी भी है। शंभु गुप्त की यह टिप्पणी कृष्णा सोबती के बहाने एक ऐसी अंतर्यात्रा है, जिसमें लेखक का कृष्णा सोबती से गहरा लगाव स्पष्ट दिखाई देता है। 

कृष्णा सोबती के रचना-कर्म को केंद्र में रखकर छापे गए सारे आलेख दिलचस्प हैं और उनके मानवीय संवेगों को गहरे जाकर बेहद अभिनव तरीक़े से उकेरे गए हैं। कृष्णा सोबती के रचना-कर्म को देखने, परखने और बरतने की यह नई आतुरता प्रभावकारी है। जाबिर हुसेन ने भी अपने संपादकीय में कृष्णा सोबती को बड़ी ख़ूबसूरती और बेहद मार्मिकता से याद किया है। जाबिर हुसेन ने कृष्णा सोबती के आख़िरी उपन्यास चन्ना के बहाने उन्हें याद करते हुए लिखा हैं, ‘मैंने किताब सीधी की। कृष्णा सोबती की भूमिका पढ़ी, और उपन्यास पढ़ने लगा। धीरे-धीरे, चनाब की लहरों पर बहने वाली कश्ती आँखों के परदे पर उभरती गई। आँखों को गीला करती गई। विभाजन पर लिखे गए उपन्यासों और कहानियों का शोर इस उपन्यास में नहीं दिख रहा। इसमें दर्द है, हिजरत है, तन्हाई है, मगर शोर नहीं। दर्द भी एक से अधिक पीढ़ी का है, तन्हाई भी दो-तीन नस्लों की है। मगर शोर नहीं। …कृष्णा सोबती बड़ी ख़ूबसूरती से याद कराती हैं : दर्द में शोर कैसा! जलती हुई मोमबत्ती पिघलते वक़्त शोर कहाँ करती है! दिल कोई मिस्र का बाज़ार नहीं! जहाँ फ़ैसले शोर से होते हैं!’

जाबिर हुसेन ने संपादकीय में कभी-कभी हमें अतीत की ओर भी झाँकना चाहिए शीर्षक से नामवर सिंह को भी पूरी शिद्दत से याद किया है। नामवर जी की आलोचना-दृष्टि, उनके विचार, उनके आत्मबोध हमेशा उन्हें जिलाए रखेंगे। संपादकीय की कितनों को है संकट का अहसास शीर्षक जाबिर हुसेन की टिप्पणी भी विचारोत्तेजक है। इस टिप्पणी में जाबिर हुसेन सांस्कृतिक घटाटोप से आक्रांत अपने देश के बारे में वाजिब चिंता प्रकट करते हैं। संपादकीय की तीनों टिप्पणियाँ ज़रूर पढ़ी जानी चाहिए।

इस अंक में नरेश गोस्वामी का जहाँ उपन्यास अंश ये कौन-सा दयार है छापा गया है, वहीं जयंत की कहानी नज़रबंद छापी गई है। इन दोनों कथा-रचना का समय हमारे आसपास बढ़ रहे संघर्ष, विरोधाभास, अहंकार आदि को चित्रांकित करता है और हमारी परेशानियों को उजागर करता है। 

कविता-खंड में प्रकाशित कृष्ण कल्पित, हुम्बर्तो अकाबल, अनादि सूफ़ी की कविताएँ अरसे तक याद की जाएँगीं। अन्य कवियों में मालिनी गौतम, रंजना श्रीवास्तव, आभा दुबे, लाल्टू, नन्दिता राजश्री, ज्योति मोदी, अनिता रश्मि की कविताएँ भी अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराती हैं। संवाद समय-खंड में रामधारी सिंह दिवाकर से मनोज मोहन की तथा जाबिर हुसेन से शहंशाह आलम की बातचीत छापी गई है। ये दोनों बातचीत बेहद संवेदनशील हैं। मूल्यवान भी हैं। 

इस अंक में राकेशरेणु की किताब पर अरुणेंद्रनाथ वर्मा, संजीव ठाकुर की किताब पर सुमन कुमारी, जाबिर हुसेन की किताब पर अवध बिहारी पाठक की समीक्षा के अलावा कुछ चिट्ठी भी छापी गई है। सम्पूर्णता में कहें, तो दोआबा का यह अंक साहित्य की जड़ों को मज़बूत करता है।
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#दोआबा, संपादक : #जाबिर_हुसेन, संपादकीय संपर्क : #दोआबा_प्रकाशन, 247 एम आई जी, लोहियानगर, पटना - 800 020 / मूल्य : ₹50 / मोबाइल संपर्क : 09431602575
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समीक्षक - शहंशाह आलम
समीक्षक का ईमेल आईडी- shahanshahalam01@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु  अन्य ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com






(बायें से- 'दोआबा' के सअम्पादक जाबिर हुसैन और समीक्षक सहंशाह आलम)

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