Saturday, 27 April 2019

आभ्यन्तर यथार्थ के कवि- नरेन्द्र पुण्डरीक (बाँदा, उत्तर प्रदेश) / कुमार सुशान्त

आत्मा की घिसाई खत्म हो रही है



आज लेखन में  अनेकरूपता कम और एकरूपता अधिक है क्योंकि आज के लेखकों का लेखन फार्मूलाबद्ध लेखन हो गया है। आज का लेखक कोई ग्रामीण जीवन पर लिखता है तो कोई शहरी जीवन पर, कोई पर्यावरण पर तो कोई मशीनीकरण पर । कोई स्त्री पर लिखता है तो कोई आदिवासी पर और तो और कोई लोक पर लिखता है तो कोई भूमण्डलीकरण पर । इसे मैं फॉर्मूलाबद्ध लेखन मानता हूँ।

मुझे वैसे लेखक पसंद है जो सभी विषयों पर समानाधिकार के साथ लिख सकें । आज के कठिन समय में समानाधिकार के साथ सभी विषयों पर लिखना एक चुनौती का काम है । आज बहुत ही कम ऐसे लेखक हैं जो सभी विषयों पर लिख सकते हैं। ऐसे ही गिने- चुने लेखकों में से एक 'नरेन्द्र पुण्डरीक' हैं।

आज हमारा समाज बहुत तेजी से बदल रहा है। इस बदलते समाज में रोज नई परिस्थियाँ उत्पन्न हो रही है। बदलती परिस्थियाँ लेखक को भी प्रभावित करती हैं। इन परिस्थितियों के दबाव से नरेंद्र पुण्डरीक की कविताएं उत्पन्न होती हैं। आज के साहित्य की परिस्थियों का पर्दाफाश करते हुए नरेन्द्र 'एक न एक दिन' शीर्षक कविता में लिखते हैं-
      " बिना मारे ही मर जाएंगे वे 
        उनकी कला, उनके विचार, उनके चिंतन
        कविता मर जाएगी
        बचे रहेंगे सिर्फ उत्सव धर्मी आयोजन 
        और आयोजनों में काव्य पाठ करते कवि
        कलाकार
        दाँत चियारते आलोचक
        कविताएं नहीं होगी उनके पास
        होगी कविता की ढप
        मुर्दा शब्दों की खाल से मढ़ी"१

उपर्युक्त पंक्तियाँ आज के साहित्यिक परिदृश्य की सच्चाई है। परिस्थितियों के दबाव से कविताओं का उत्त्पन्न होना ही नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं का वैविध्य है। भारत की जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए 'सब एक ही जैसे थे' कविता में  पुण्डरीक कहते हैं -
        " स्कूल में आये तो आगे हमें नहीं
          उन्हें बैठाया गया 
          तब हमें मालूम हुआ 
          हम और भी अलग थे
          इसके बाद हमें यह बोध
          लगातार कराया जाता रहा 
          हम छोटे हैं और वे बड़े
          उनके बड़े होने की जो परिभाषा 
          हमें बताई गई 
          वह हमारे गले से कभी
          नीचे नहीं उतरी
          लेकिन हमें बिना किसी सीढ़ी के
          आदमी होने के नीचे
          और नीचे उतारा जाता रहा 
          और वह चढ़ते रहे 
          बिना किसी सीढ़ी के ऊपर और ऊपर।२

जब कोई व्यक्ति परिस्थितियों के दबाव में कविता लिखता है तो स्वाभाविक है कि उसकी कविता में विविधता बहुत ही ज्यादा होगी और उसकी कविता बदलती परिस्थितियों के सच को बयान करेगी । यही बात हमें नरेंद्र की कविताओं में भी देखने को मिलती है आज गाँव से निम्न जाति के लोग पलायन कर रहे हैं। गाँव का गाँव खाली होता जा रहा है। शहर की आबादी दिनों दिन बढ़ती जा रही है । निम्न जाति के लोगों से गाँव का खाली होना जीवंतता का खाली होना है। इस दर्द को 'नरेंद्र पुण्डरीक' शिद्दत से महसूस करते हैं । 'इन्हें प्रणाम करो' कविता में वे लिखते हैं -  
      " कहां चले गए गांव से -
        कपड़ा बुनने वाले
        चमरा रंगने वाले
        लकड़ी काटने वाले
        चीरने वाले
        लोहे को गलाकर 
        औजार बनाने वाले
        नदी में डोंगी चलाने वाले
        मछली पकड़ने वाले

         गांव से उजड़ कर
         उजाड़ कर गांव
         कहाँ चले गए सब के सब"३

कवि को मालूम है कि पृथ्वी जुलाहे, चमार, लकड़हारे, बढ़ई, लोहार, मल्लाह, मछुआरे आदि निम्न जातियों के लोगों के हाथों में सुरक्षित है। इसलिए उपर्युक्त कविता के अन्त में वे कहते हैं -
           "इक्कीसवीं सदी के अंत में
            यह सुर्योन्मुखी आखिरी पीढ़ी है
            इन्हें प्रणाम करो
            इनके ही हाथों में 
            अब तक सुरक्षित रही है
            यह पृथ्वी!"४

आज बाजारवाद का बोलबाला है । हर चीज बिकाऊ है। आज जो व्यक्ति बाजार में जितना बिकता है, वह उतना ही बाजारू चीजों को अपने लिए खरीद पाता है । आज हाट-बाजार की जगह मॉल संस्कृति ने ले ली है। पहले और अब के बाजार के अंतर को नरेंद्र अपनी कविता 'अब हर कहीं' में  बहुत ही साफगोई के साथ व्यक्त करते हैं। एक तरफ वे लिखते हैं -
        "इस वक्त मुझे तेजी से
         गांव कस्बे के वे हाट बाजार याद आ रहे हैं
         जब चीजों की औकात
         आदमी से दो तीन दर्जा नीचे रहती थी
         आदमी उन्हें बनाता था और
         आदमी की औकात से नीचे रखता था

         कभी-कभी तो आदमी को 
         उसकी जरूरत पर 
         चीजें ही चीजों को डपट कर 
         आदमी की चौखट पर पटक देती थी"५

तो दूसरी तरफ अभी की परिस्थिति को बताते हुए वे लिखते है -
         "यह सब बीते समय का और 
          बिना दाँत का पंवारा है 
          जो कभी-कभी कभी बतियाने में अच्छा लगता है    
          लेकिन सच्चाई तो यह है कि 
          अब बात यहां तक पहुंच गई है
          कि अब अच्छा होने के नहीं 
          अच्छा दिखने के दाम हैं
          सो अब हर कहीं
          आत्मा की घिसाई खत्म हो रही है।"६

आज के बदलते परिदृश्य में लोग दूसरों के लिए कम और खुद के लिए ज्यादा जीते हैं । लोगों के भीतर से परोपकार की भावना घटती जा रही है । आज लोग केवल अपने सपने और अपनी भलाई के लिए जी रहे हैं। यह सच्चाई है कि आज के उत्तरआधुनिक समय में, लोगों के भीतर स्वार्थान्धता की भावना पहले से ज्यादा बढ़ी है। इस भावना को ईमानदारी से स्वीकार करना अपने समय की सच्चाई को स्वीकार करना है। 'सपना' नामक कविता में इसी सच्चाई को नरेंद्र पुण्डरीक स्वीकार करते हुए कहते हैं-

     " मेरा सपना नौकरी थी 
       वह मुझे मिली

        मेरा सपना था 
        मेरी एक अच्छी पत्नी हो 
        वह मुझे मिली 

        मेरा सपना था 
        मेरी एक अच्छी पत्नी हो 
        वह मुझे मिली 

        मेरा सपना था
        मेरा घर हो 
        जिस-जिस तरह 
        वह भी पूरा हो गया

        मेरे सपने में कभी नहीं आयी
        यह दुनिया
        जिसमें रहता हूँ मैं
        कि यह दुनिया कैसी हो

        इस दुनिया को अच्छा बनाने का
        सपना मैंने नहीं देखा।

नरेन्द्र के मन में कहीं न कहीं दुनिया को अच्छा और बेहतर ना बना पाने की टीस पहले संग्रह से ही बरक़रार रहती है। यह टीस उनके दूसरे कविता संग्रह 'इन हाथों के बिना' में भी दिखाई देती है। 'दुनिया से लेते समय' कविता में उन्होंने लिखा है--
           " हमने कभी धरती के लिए
              प्रार्थना नहीं की कि 
              धरती बनी रहे हरी भरी 
              ना प्रार्थना की कि 
              नदियों में बना रहे जल

              पक्षियों के लिए भी हमने
              प्रार्थना नहीं की कि
              वे बनी रहे हमेशा धरती में
              गुंजाते रहे अपनी बोली बानी का गीत संगीत।"८

कवि नरेन्द्र पुण्डरीक द्वारा धरती, पेड़-पौधे, नदी, पक्षी आदि प्राकृतिक उपादानों की चिंता करना यह दिखलाता है कि वे पर्यावरण के प्रति भी सचेत हैं। उन्हें मालूम है कि पेड़-पौधे, नदी, पक्षी और धरती के रहने पर ही मनुष्य का अस्तित्व बचेगा। आने वाले समय में जितना खतरा इन प्राकृतिक उपादानों पर उत्पन्न होगा उतना ही खतरा मनुष्य के अस्तित्व पर भी उत्पन्न होगा।

'कॉमेडी' की दुनिया में कहा जाता है कि जो खुद पर हँसता है या जो खुद का मज़ाक बनाता है या जो खुद पर व्यंग्य करता है वही असली या बड़ा 'कॉमेडियन' है। मेरे अनुसार यही नियम साहित्य पर भी लागू होता है। खुद की निष्क्रियता और मतलबीपन पर कविता लिखना आसान काम नहीं है लेकिन अपने काहिलपन और स्वार्थान्धता पर 'नरेन्द्र पुण्डरीक' ''फिलहाल'' नामक छोटी कविता लिखते हैं। नीचे कविता को पढ़ें और आज के बदलते सामाजिक परिदृश्य और राजनीति की सच्चाई देखें -
             "फिलहाल
              आज एक आदमी
              मेरे शहर में मारा गया
              एक आदमी कल
              मारा गया था कानपुर में
              और एक आदमी मार गया इलाहाबाद में
               एक आदमी आने वाले कल में
               लखनऊ में मारा जायेगा

               फिलहाल मैं दिल्ली-मुंबई की
               गिनती नहीं कर रहा
               वह मुझसे काफी दूर हैं
   
               इस वक्त तो मेरी कोशिश है कि
               मच्छरदानी ठीक से लग जाय और
               मैं बिना किसी खलल के सो सकूँ "९

यहाँ कवि भले 'मैं' शब्द का प्रयोग कर रहा है लेकिन इस 'मैं' के माध्यम से कवि अधिकांश लोगों की प्रवृत्ति को उजागर कर रहा है। आज समाज में स्वार्थान्धता के कारण लोग चुप रहते हैं। वे जानबूझकर गलत के विरोध में आवाज नहीं उठाते हैं।आज रोज कहीं न कहीं कोई मारा जा रहा है। लोग भक्त बने चुपचाप बैठे हैं।जब घटना घटती है तो संवेदना दिखाने के लिए कैंडल मार्च निकाल दिया जाता है। दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि दे दी जाती है। फिर दो दिनों बाद सभी घटना को भूल जाते हैं। स्थिति जस की तस बनी रहती है। आज के लोगों की इसी प्रवृत्ति की ओर उपर्युक्त कविता में कवि इशारा करते हैं।

किसी भी कवि के कहन और भाषा पर अधिकार का पता इस बात से चलता है कि वह कितने सरल शब्दों में अपनी बात सम्प्रेषित करता है । इस मामले में नरेन्द्र पुण्डरीक आज के दौर के गिने-चुने कवियों में से एक हैं। उनकी भाषा सहज और सुबोध है। उनकी कविताओं के प्रत्येक शब्द का अर्थ पाठक को पता होता है इसलिए उनकी भाषा के साथ पाठक आसानी से जुड़ पाता है। उनकी कविता की भाषा आम बोलचाल की भाषा है। सहज शब्दों के साथ अपनी बात कहना वे अच्छी तरह जानते हैं। उदाहरण स्वरूप 'ईश्वर कुछ करें ना करें' कविता की अंतिम पंक्तियों में भाषा की सहजता और अर्थ सम्प्रेषित करने की कौशल देखें -
             "चीजों से भरे इस संसार में
               अक्सर मुझे स्त्रियाँ
               चीजों के बीच खड़ी होकर
               जीवन को बीनती दिखाई देती हैं
               स्त्रियों को चीजों के बीच
               जीवन को सजा कर रखना अच्छा लगता है
               शायद दुनिया की यह सबसे बड़ी चीज है।"
               जो स्त्रियों के पास होती है।"१०

नरेन्द्र पुण्डरीक की सरल भाषा की एक और बानगी 'मैं इस शहर में' कविता के अंत की कुछ पंक्तियों में देखें--
      "इस शहर के वस्तुनिष्ठ में अयोध्या के बाद
      एक नया टकसाली नाम गोधरा जुड़ गया है
      जिससे कुछ न कुछ बिक्री होती रहती है
      ..
       शब्द यहाँ हथियार की शक्ल में तब्दील होकर
       आदमी होने के पक्ष में खड़े हो रहे थे।"११
               
सहजता से अपनी बात कहने का यही गुण कवि नरेन्द्र पुण्डरीक को विशिष्ट बनाता है।

नरेन्द्र पुण्डरीक की कविता बदलते सामाजिक परिस्थियों के दबाव से उत्पन्न होने के कारण अपने समय और समाज के विभिन्न पहलुओं की सच्चाई को व्यक्त करती है। यह सच्चाई ही समाज का आभ्यंतर यथार्थ है। अन्तः यही कहना चाहूँगा की नरेन्द्र पुण्डरीक ''परिस्थियों के दबाव का कवि" , ''आभ्यंतर यथार्थ के कवि" हैं।

संदर्भ
१.  नरेन्द्र पुण्डरीक, इन्हें देखने दो उतनी ही दुनिया,
      अनामिका प्रकाशन, ५२ तुलारामबाग,
      इलाहाबाद - २११००६,
      ISBN : ९७८-८१-८७७७०-५९-६
      Email :anamikabooks@gmail.com,
      vks185@rediffmail.com
      प्रथम संस्करण :२०१४, पृष्ठ-९६.  
२.  नरेन्द्र पुण्डरीक, इन हाथों के बिना, बोधि प्रकाशन
      सी-४६, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन
      नाला रोड, २२गोदाम, जयपुर-३०२००६, 
      Email : bodhiprakashan@gmail.com 
      प्रथम संस्करण : जनवरी,२०१८, पृष्ठ-३२.   
३.  नरेन्द्र पुण्डरीक, इन्हें देखने दो उतनी ही दुनिया,
     अनामिका प्रकाशन, ५२ तुलारामबाग,
      इलाहाबाद - २११००६,
      ISBN : ९७८-८१-८७७७०-५९-६
      Email :anamikabooks@gmail.com,
      vks185@rediffmail.com
      प्रथम संस्करण :२०१४, पृष्ठ-३७.  
४.   वही, पृष्ठ-३८.   
५.  नरेन्द्र पुण्डरीक, इन हाथों के बिना, बोधि प्रकाशन
      सी-४६, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन
      नाला रोड, २२गोदाम, जयपुर-३०२००६, 
      Email : bodhiprakashan@gmail.com 
      प्रथम संस्करण : जनवरी,२०१८, पृष्ठ-६१-६२
६.  वही, पृष्ठ-६२.
७.  नरेन्द्र पुण्डरीक, इन्हें देखने दो उतनी ही दुनिया,
      अनामिका प्रकाशन, ५२ तुलारामबाग,
      इलाहाबाद - २११००६,
      ISBN : ९७८-८१-८७७७०-५९-६
      Email :anamikabooks@gmail.com,
      vks185@rediffmail.com
      प्रथम संस्करण :२०१४, पृष्
......

आलेख - कुमार  सुशान्त
परिचय - चर्चा में केंद्रित कवि श्री नरेन्द्र पुण्डरीक, बाँदा (उ.प्र.) में रहनेवाले एक चर्चित कवि हैं और समीक्षक कुमार सुशान्त, कोलकाता (प.बंगाल) में परास्नातक हिन्दी शिक्षक हैं.
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com


समीक्षक-  कुमार सुशान्त

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