सुखनबर हद मे नही, सरहद के पार बोलता है
हर 12 घंटे पर इसे देखते रहें कि कहीं फेसबुक पर कुछ छुटा तो नहीं- FB+ Watch Bejod India
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किसी कार्य के सफल होने के लिए संसाधन से अधिक संकल्प और उसे यादगार बनाने के लिए संख्या से अधिक गुणवत्ता की जरूरत होती है. कुछ ऐसी ही बात चरितार्थ हुई साहित्य सफर - खारघर चौपाल की मासिक साहित्यिक गोष्ठी में जहाँ घनघोर वर्षा की स्थिति में भी साहित्यकार इकट्ठे हो ही गए और देश, दुनिया के प्रति अपने सोच और भावनाओं का कलापूर्ण प्रदर्शन कर ही दिया.
कुशल संचालन में प्रवीण विश्वम्भर दयाल तिवारी ने "चुपड़ी रोटी" शीर्षक से एक कहानी सुनाई जिसमें गर्मी की छुट्टी में नाना-नानी के पास आए नाती के नानी और नाना के प्रति संवेदना और उनकी मजबूरियों और आकांक्षाओं के प्रति सहानुभूति को दर्शाया गया.
अलका पाण्डेय ने 'शिक्षा' शीर्षक लघुकथा में एक स्कूल शिक्षिका माँ के अपने कार्यालय और घर के प्रति कर्तव्यों के द्वंद्व को दिखाया गया. फिर उन्होंने अपनी युरोप यात्रा के संस्मरण को साझा किया कि ऑस्ट्रिया और बेल्जीयम की वास्तुकला का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि लोग अपनी पुरानी शैली को लेकर काफी गर्वांवित हैं और उन्हें ही बनाये रखना चाहते हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लाखों भवन नष्ट हो गए थे पर उन्हें फिर से वैसा ही बनाया गया जैसा पहले थे. पारिवारिक मूल्य कमजोर हैं. कोई पुरुष या महिला किसी अन्य के साथ रह सकती है बिना अपनी पत्नी या पति को तलाक दिए भी. तलाक भी बहुत आसान है. बच्चों को स्कूल के बाद खुद अपना संभालना पड़ता है लेकिन हर रविवार को सारे परिवार एक साथ खाना खाते हैं.
हेमन्त दास 'हिम' ने एक लघुकथा पढ़ी "लम्बी लड़ाई". इसमें एक नेता के चुनाव जीतते ही फिर अगली बार चुनाव की तैयारी करने के वास्ते उन मूल मुद्दों से ही समझौता करते दिखाई दिये जिस के नाम पर वे चुनाव जीते थे. उन्होंने एक कविता में लोगों को दूसरों के कहने पर नहीं बल्कि खुद सोच समझकर चलने का आह्वाहन किया-
.कि ज़िन्दगी बेहतर हो
हमारी और तुम्हारी भी
कोई आरोप नहीं
बस एक अनुरोध भर है
कि तुम जीयो
अपने तरीके से
भावनाओं को आजाद करते हुए
नई नई खुशियों का ईजाद करते हुए
आनंद मनाते हुए
हर उस तरीके से
जैसा तुम चाहो
बस, उस तरीके से नहीं
जैसा बता रहे हैं तुम्हारे आका
तुम्हारे धर्मगुरु
या स्वयंभू राजनेता।
हाल ही में लघुकथाओं की एक पुस्तक "शब्द रचेंगे इतिहास" से पुन: चर्चित हुए सेवा सदन प्रसाद ने अपनी एक सशक्त लघुकथा सुनाई "मजदूरों का शहर". इसमें उन्होंने काम-काज की तलाश में एक मजदूर को शहर में राजनीतिक दलों का बिना विचारधारा समझे उसका झंडा थामते दिखाया और यह भी कि कैसे इससे उसकी जान तक चली जाती है.
विजय कुमार भटनागर ने एक लघुकथा 'टोटो' सुनाई जिसमें पालतू कुत्तों को सार्वजनिक पार्क में पोटी नहीं कराने की सीख दी क्योंकि इससे बेवजह बदबू फैलती है.
उन्होंने अपनी ग़ज़ल में सुखनबरों (कवियों) को सरहद में न बाँटने की अपील की -
अब वो नहीं उसका कलाम बोलता है
उसके हुनरको हर बंदा सलाम बोलता है
बटवारा क्या हुआ सुखनबर हो गए पराए
सुखनबर हद मे नही, सरहद के पार बोलता है
सुखनबरी 'विजय' पराजय नहीं इबादत है
सुखनबरी से अपने वजूद को रब से जोड़ता है।
लता तेजेश्वर 'रेणुका' ने दो लघुकथाएँ सुनाईं - "सिगरेट" और "ट्रिपल तलाक". पहली में यह संदेश दिया गया कि आज तुम सिगरेट पी रहे हो कल यह तुम्हारा लहू पीयेगी. दूसरी में अचानक पति द्वारा तलाक देकर बहिष्कृत कर दी गई रजिया के संघर्ष को दिखाया गया है कि कैसे वह समाज और न्यायालय की मदद से अपने बच्चों को तो हक दिलवा देती है लेकिन खुद अपने जेलयाफ्ता पति की मुहताज नहीं रहकर स्वतंत्र जीवन जीने का रास्ता चुनती है.
अशोक उपाध्याय ने कुछ रचना सुनाने के पहले यह कहकर चौंका दिया कि यहाँ जो अच्छा कार्यक्रम चल रहा है यह उन्हीं के प्रताप से चल रहा है. उनके बिना कोई कुछ न तो लिख सकते हैं न सुना सकते हैं. लोगों के बढ़ते कुतूहल को शांत करते हुए उन्होंने कहा कि वे एक अच्छे श्रोता हैं और श्रोता ही बने रहेंगे क्योंकि रचनाकारों की रचनाएँ श्रोता के लिए ही होती है. वैसे आगे चलकर वे खुद भी कुछ लिख पाएँ जो सुनाया जा सके इसकी कोशिश भी रहेगी.
उसके हुनरको हर बंदा सलाम बोलता है
बटवारा क्या हुआ सुखनबर हो गए पराए
सुखनबर हद मे नही, सरहद के पार बोलता है
सुखनबरी 'विजय' पराजय नहीं इबादत है
सुखनबरी से अपने वजूद को रब से जोड़ता है।
लता तेजेश्वर 'रेणुका' ने दो लघुकथाएँ सुनाईं - "सिगरेट" और "ट्रिपल तलाक". पहली में यह संदेश दिया गया कि आज तुम सिगरेट पी रहे हो कल यह तुम्हारा लहू पीयेगी. दूसरी में अचानक पति द्वारा तलाक देकर बहिष्कृत कर दी गई रजिया के संघर्ष को दिखाया गया है कि कैसे वह समाज और न्यायालय की मदद से अपने बच्चों को तो हक दिलवा देती है लेकिन खुद अपने जेलयाफ्ता पति की मुहताज नहीं रहकर स्वतंत्र जीवन जीने का रास्ता चुनती है.
अशोक उपाध्याय ने कुछ रचना सुनाने के पहले यह कहकर चौंका दिया कि यहाँ जो अच्छा कार्यक्रम चल रहा है यह उन्हीं के प्रताप से चल रहा है. उनके बिना कोई कुछ न तो लिख सकते हैं न सुना सकते हैं. लोगों के बढ़ते कुतूहल को शांत करते हुए उन्होंने कहा कि वे एक अच्छे श्रोता हैं और श्रोता ही बने रहेंगे क्योंकि रचनाकारों की रचनाएँ श्रोता के लिए ही होती है. वैसे आगे चलकर वे खुद भी कुछ लिख पाएँ जो सुनाया जा सके इसकी कोशिश भी रहेगी.
अंत में अध्यक्ष डॉ सतीश शुक्ल ने भी दो लघुकथाएँ सुनाईं. पहली लघुकथा थी "पराया धन". इसमें एक पिता को अपनी बेटी द्वारा ससुराल में गाली देते देखकर पीड़ित होते दिखाया गया. दूसरी थी 'रेड' जो बहुत ही छोटी होते हुए भी अत्यंत धारदार थी यहाँ पूर्ण रूप में प्रस्तुत है-
"कैसे थानेदार हो? आज दूधवाले ले दूध उधार देने से मना कर दिया."
इंस्पेक्टर बाबूलाल की बीबी अपने पति पर उबल पड़ी.
अगले दिन दूधवाले की बस्ती पर पुलिस की 'रेड' पड़ी.
अंत में विश्वम्भर दयाल तिवारी ने आये हुए रचनाकारों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया. इस तरह से कम उपस्थिति के बावजूद एक सार्थक और सफल गोष्ठी का समापन हुआ.
.......
आलेख - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्लॉग
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
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