Sunday, 30 June 2019

खारघर चौपाल की कवि गोष्ठी 29.6.2019 को नवी मुम्बई में सम्पन्न

सुखनबर हद मे नही, सरहद के पार बोलता है

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किसी कार्य के सफल होने के लिए संसाधन से अधिक संकल्प और उसे यादगार बनाने के लिए संख्या से अधिक गुणवत्ता की जरूरत होती है. कुछ ऐसी ही बात चरितार्थ हुई साहित्य सफर - खारघर चौपाल की मासिक साहित्यिक गोष्ठी में जहाँ घनघोर वर्षा की स्थिति में भी साहित्यकार इकट्ठे हो ही गए और देश, दुनिया के प्रति अपने सोच और भावनाओं का कलापूर्ण प्रदर्शन कर ही दिया.

दिनांक 29.6.2019 को खारघर (नवी मुम्बई) के सेक्टर 12 के पीआईएमएस संस्थान में मासिक साहित्यिक गोष्ठी सम्पन्न हुई जिसमें अनेक प्रतिबद्ध साहित्यकार और साहित्यप्रेमी सम्मिलित हुए. गोष्ठी की अध्यक्षता डॉ. सतीश शुक्ल और संचालन विश्वम्भर दयाल तिवारी ने किया.

कुशल संचालन में प्रवीण विश्वम्भर दयाल तिवारी ने "चुपड़ी रोटी" शीर्षक से एक कहानी सुनाई जिसमें गर्मी की छुट्टी में नाना-नानी के पास आए नाती के नानी और नाना के प्रति संवेदना और उनकी मजबूरियों और आकांक्षाओं के प्रति सहानुभूति को दर्शाया गया.

अलका पाण्डेय ने 'शिक्षा' शीर्षक लघुकथा में एक स्कूल शिक्षिका माँ के  अपने कार्यालय और घर के प्रति कर्तव्यों के द्वंद्व को दिखाया गया. फिर उन्होंने अपनी युरोप यात्रा के संस्मरण को साझा किया कि  ऑस्ट्रिया और बेल्जीयम की वास्तुकला का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि लोग अपनी पुरानी शैली को लेकर काफी गर्वांवित हैं और उन्हें ही बनाये रखना चाहते हैं. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लाखों भवन नष्ट हो गए थे पर उन्हें फिर से वैसा ही बनाया गया जैसा पहले थे. पारिवारिक मूल्य कमजोर हैं. कोई पुरुष या महिला किसी अन्य के साथ रह सकती है बिना अपनी पत्नी या पति को तलाक दिए भी. तलाक भी बहुत आसान है. बच्चों को स्कूल के बाद खुद अपना संभालना पड़ता है लेकिन हर रविवार को सारे परिवार एक साथ खाना खाते हैं.

हेमन्त दास 'हिम' ने एक लघुकथा पढ़ी "लम्बी लड़ाई". इसमें एक नेता के चुनाव जीतते ही फिर अगली बार चुनाव की तैयारी करने के वास्ते उन मूल मुद्दों से ही समझौता करते दिखाई दिये जिस के नाम पर वे चुनाव जीते थे. उन्होंने एक कविता में लोगों को दूसरों के कहने पर नहीं बल्कि खुद सोच समझकर चलने का आह्वाहन किया-
.कि ज़िन्दगी बेहतर हो
हमारी और तुम्हारी भी
कोई आरोप नहीं
 बस एक अनुरोध भर है
कि तुम जीयो
अपने तरीके से
भावनाओं को आजाद करते हुए
नई नई खुशियों का ईजाद करते हुए
आनंद मनाते हुए
हर उस तरीके से
जैसा तुम चाहो
बस, उस तरीके से नहीं
जैसा बता रहे हैं तुम्हारे आका
तुम्हारे धर्मगुरु
या स्वयंभू राजनेता।

हाल ही में लघुकथाओं की एक पुस्तक "शब्द रचेंगे इतिहास" से पुन: चर्चित हुए सेवा सदन प्रसाद ने अपनी एक सशक्त लघुकथा सुनाई "मजदूरों का शहर". इसमें उन्होंने काम-काज की तलाश में एक मजदूर को शहर में राजनीतिक दलों का बिना विचारधारा समझे उसका झंडा थामते दिखाया और यह भी कि कैसे इससे उसकी जान तक चली जाती है.

विजय कुमार भटनागर ने एक लघुकथा 'टोटो' सुनाई जिसमें पालतू कुत्तों को सार्वजनिक पार्क में पोटी नहीं कराने की सीख दी क्योंकि इससे बेवजह बदबू फैलती है.
उन्होंने अपनी ग़ज़ल में सुखनबरों (कवियों) को सरहद में न बाँटने की अपील की -
अब वो नहीं उसका कलाम बोलता है
उसके हुनरको हर बंदा सलाम बोलता है
बटवारा क्या हुआ सुखनबर हो गए पराए
सुखनबर हद मे नही, सरहद के पार बोलता है
सुखनबरी 'विजय' पराजय नहीं इबादत है
सुखनबरी से अपने वजूद को रब से जोड़ता है।

लता तेजेश्वर 'रेणुका' ने दो लघुकथाएँ सुनाईं - "सिगरेट" और "ट्रिपल तलाक". पहली में यह संदेश दिया गया कि आज तुम सिगरेट पी रहे हो कल यह तुम्हारा लहू पीयेगी. दूसरी में अचानक पति द्वारा तलाक देकर बहिष्कृत कर दी गई रजिया के संघर्ष को दिखाया गया है कि कैसे वह समाज और न्यायालय की मदद से अपने बच्चों को तो हक दिलवा देती है लेकिन खुद अपने जेलयाफ्ता पति की मुहताज नहीं रहकर स्वतंत्र जीवन जीने का रास्ता चुनती है.

अशोक उपाध्याय ने कुछ रचना सुनाने के पहले यह कहकर चौंका दिया कि यहाँ जो अच्छा कार्यक्रम चल रहा है यह उन्हीं के प्रताप से चल रहा है. उनके बिना कोई कुछ न तो लिख सकते हैं न सुना सकते हैं. लोगों के बढ़ते कुतूहल को शांत करते हुए उन्होंने कहा कि वे एक अच्छे श्रोता हैं और श्रोता ही बने रहेंगे क्योंकि रचनाकारों की रचनाएँ श्रोता के लिए ही होती है. वैसे आगे चलकर वे खुद भी कुछ लिख पाएँ जो सुनाया जा सके इसकी कोशिश भी रहेगी.

अंत में अध्यक्ष डॉ सतीश शुक्ल ने भी दो लघुकथाएँ सुनाईं. पहली लघुकथा थी "पराया धन". इसमें एक पिता को अपनी बेटी द्वारा ससुराल में गाली देते देखकर पीड़ित होते दिखाया गया. दूसरी थी 'रेड' जो बहुत ही छोटी होते हुए भी अत्यंत धारदार थी यहाँ पूर्ण रूप में प्रस्तुत है-
"कैसे थानेदार हो? आज दूधवाले ले दूध उधार देने से मना कर दिया."
इंस्पेक्टर बाबूलाल की बीबी अपने पति पर उबल पड़ी.
अगले दिन दूधवाले की बस्ती पर पुलिस की 'रेड' पड़ी.

अंत में विश्वम्भर दयाल तिवारी ने आये हुए रचनाकारों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया. इस तरह से कम उपस्थिति के बावजूद एक सार्थक और सफल गोष्ठी का समापन हुआ.
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आलेख -  हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़  इंडिया ब्लॉग 
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
नोट - जिनकी रचना या चित्र इसमें आना छूट गया वो ऊपर दिये गए ईमेल पर भेज सकते हैं जोड़ने के लिए.





















Friday, 28 June 2019

आशा सिंह रचित "डॉ.सिताबो बाई" - लघु उपन्यास की किरण सिंह द्वारा समीक्षा

अभागी समझकर सस्रुराल से निकाल दी गई बनी डॉक्टर
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युग चाहे कोई भी हो सीता को तो अग्नि परीक्षा से गुजरना ही पड़ता है। क्योंकि आँसू, प्रेम और बलिदान से इतिहास लिखती हुई पुरुषों को श्रेष्ठ बताने वाली स्त्री ही भारतीय संस्कृति तथा परम्पराओं के मानकों पर खरी उतरती है। ऐसे में रीतियों की बेड़ियों में जकड़ना ही स्त्रियाँ अपनी किस्मत मान कर उसे तोड़ने का साहस नहीं जुटा पातीं। क्योंकि उन्हें लक्षमण रेखा को लांघने का परिणाम पता होता है। 

महाकवि तुलसीदास ने -
"ढोल, गँवार, शुद्र, पशु, नारी
ये सब तारन के अधिकारी"
लिखकर  स्त्रियों को अपमानित  किया है तो अंग्रेजी कवि शेक्सपीयर ने दुर्बलता को ही नारी कहा और नीत्शे ने स्त्री को ईश्वर की दूसरी सबसे बड़ी गलती मानी, तो कविवर कबीर दास ने -
नारी की झाई परत, अंधा होत भुजंग 
कहकर स्त्री की खूब भर्त्सना की। 

सोचने की बात है कि जब बड़े – बड़े संत कवियों ने नारी की निंदा की तो सामान्य जन इस निन्दा की होड़ से कैसे परे रह सकते हैं? उन्हें तो नारी का अबला रूप ही पसंद है ताकि वह उनके प्रति सहानुभूति जताकर स्वयं को श्रेष्ठ साबित कर सकें। लेकिन अब जमाना बदल गया है। अन्य क्षेत्रों के साथ- साथ स्त्रियाँ लेखन क्षेत्र में भी अपनी सराहनीय उपस्थिति दर्ज करा रही हैं । यही वजह है कि आज वह अपना पक्ष मजबूती से रख रही हैं। 

तारीफ़ करनी पड़ेगी इस पुस्तक की लेखिका आशा सिंह की जिन्होंने इस उपन्यास के माध्यम से एक ऐसी सशक्त महिला चरित्र से परिचित कराया है जिनके संघर्षों की कथा पढ़कर आज की स्त्रियाँ भी अवश्य प्रेरित होंगी। 

1925 ई. में जन्मी सिताबो बाई यानी सीता  खूबसूरत होने के साथ - साथ कुशाग्र बुद्धि की स्वामिनी भी थीं। तब कन्या का पढ़ना एक दोष माना जाता था फिर भी सीता के पिता और भाई ने घर की अन्य स्त्रियों के विरोध को झेलते हुए भी सीता को पढ़ाने का जोखिम उठाया। तभी सीता के भाभी के रिश्ते की बूआ आईं और सीता की सुन्दरता पर मुग्ध होकर अपनी सखी के बेटे इन्द्र जीत सिंह जो कि अच्छे-भले रईस ठाकुर परिवार से थे से सीता के विवाह का प्रस्ताव रख दिया। प्रस्ताव रखते समय एक अच्छी अगुवाइन की भूमिका निभाते हुए बूआ इन्द्र जीत सिंह के अनपढ़ होने और सीता के चौथी पास होने की बात छुपा ले गईं। चूंकि विवाह में कोई दान दहेज की मांग नहीं की गई थी इसलिए सीता के पिता और भाई अपनी तंगी हालत को देखते हुए विवाह के लिए राजी हो गये। 

सीता का विवाह हो गया और वह बालिका वधु नैहर से विदा होकर आ गईं पीहर। उस छोटी सी कन्या को तो सुहागरात का मायने तक पता न था और पति ने शराब के नशे में सुहाग रात मना लिया । 

सीता को विवाह के दूसरे दिन से ही चूल्हा-चौका की जिम्मेदारी थमा दी गई। सास ननदें रिंग मास्टर की तरह हुकूमत करतीं और वह छोटी-सी जान उनके इशारों पर नाचती रहती थी। किन्तु कुछ ही दिनों बाद सीता की देवरानी आ गई जो उसके काम में हाथ बटाने लगी। 

सब ठीक चल रहा था तभी घर में किसी बात पर तर्क-वितर्क में अचानक सीता की देवरानी के मुख से सीता के पढ़े-लिखे होने का राज खुल गया। इस बात को जानकर  टोले मुहल्ले की औरतें सीता से चुपके से चिट्ठियाँ लिखवाने और पढ़वाने आने लगीं। जब यह बात  सीता के सास और पति को पता चली तो उनके के अहम् को चोट पहुँची और वे चोटिल भुजंग की भांति फुफकार उठे। उपर से सीता ने ससुराल वालों के सपनों पर पानी फेरते हुए एक कन्या को जन्म दे दिया। अब इतने बड़े अपराध को कैसे माफ किया जा सकता था? कन्या भी कुछ ही दिनों बाद टिटनस की वजह से ईश्वर को प्यारी हो गई। ऐसे में ससुराल की अदालत में सीता को मायके रूपी बनवास की सजा सुनाई गई। 

सीता के भाई गजोधर सिंह अपने किये का प्रायश्चित करते हुए घर की महिलाओं के विरोध के बावजूद भी सीता को पढ़ने के लिए स्कूल भेजने लगे। सीता चूंकि पढ़ने में अव्वल थीं इसलिये छात्रवृत्ति मिलने लगी। 

सीता की मेहनत रंग लाई और वे डाॅक्टर बन गईं। उनकी खूबसूरती और सादगी के कायल एक अंग्रेज डाॅक्टर था जो उनकी जिंदगी में रंग भरना चाहता था, किन्तु भारतीय महिलाएँ विवाह के बाद कहाँ किसी अन्य के बारे में सोच सकतीं हैं। सीता की कीर्ति फैलने लगी और वह बन गईं सीता से डाॅ सिताबो बाई। 

गोल पृथ्वी की परिक्रमा करते - करते पुनः पहुँच गईं वाराणसी, जहाँ उनकी पुरानी स्मृतियाँ उन्हें व्यथित करने लगीं। अब आगे की कहानी इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आपको पता चलेगी। कहानी में रोचकता, कौतूहल तथा प्रवाह प्रचूर है। 

पुस्तक बहुत ही सरल भाषा में लिखी गई है। पुस्तक के कवर पृष्ठ पर डाॅक्टर सिताबो बाई की खूबसूरत चित्र बनाई गई है। पन्ने उच्च श्रेणी के हैं तथा छपाई भी स्पष्ट है। 

आज के इस भौतिकता वादी और फिल्मी युग में इस तरह की कहानी न केवल स्त्री को बल्कि समस्त पुरुष वर्ग को भी स्त्री की शक्ति और साहस को दाद देने पर विवश करने में सक्षम है, अतः यह कहानी पठनीय तथा संग्रहणीय है।

इतनी खूबसूरत और प्रेरक कथा को पाठकों तक पहुंचाने के लिए इस उपन्यास की लेखिका आशा सिंह बधाई की पात्र हैं। 
पुस्तक amazon पर उपलब्ध है। 

डाॅ सिताबो बाई - लघु उपन्यास 
लेखिका - आशा सिंह पृष्ठ - 85 
मूल्य - रूपया 150
समीक्षक - (श्रीमती) किरण सिंह
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com





Sunday, 23 June 2019

Black Pearl Delhi presented 'Maharathi' at Versova (Mumbai) on 20.6.2019

The discourse of a motherless hero 

हिंदी में पढ़िए इस नाटक की समीक्षा - यहाँ क्लिक कीजिए  / आज का FB Watch  देखिए - यहाँ क्लिक कीजिए





The question of Karna to his mother Kunti is why she came now when the battle of Mahabharata has been announced? Why she did not accept him as a son in action or words? Why he had to bear the utmost scorn of the society with a low-caste tag that was false? Why he was insulted in the 'swaymvar' of Draupadi because he could not carry the name of his lineage with him? And the vital question comes here - why she did not remember her first most lovable child for decades ? Kunti says she never forgot her child but as he was taken birth before her marriage so she could not announce her relation to him in public. Karna says the world would not have collapsed had she announced her motherhood to him. She must have dared.

He is a the man in the royal palace still a motherless destitute. He is the eldest prince of Hastinapur and should have been crowned but is reduced to just an underdog of his younger brother Duryodhan. He is the most able warrior of the time and from Rajputra caste still not accepted for training by Dronacharya with other princes because of low-caste tag as his virtual father was a chariot driver. He maintained the highest ethical standards to keep his words and was cheated to lose his vital armour to Indra for the very reason. The tale of this bravest warrior of the age is a series of neglect and ignominy for no fault of self. Even his mother proved to be the most forgetful for him who just after his birth kept him in a box and left it on the waves of a river. 

Lord Krishna's actions in this episode is also is just of a shrewd politician who also abets Arjuna for breaking the set standards of ethics. The view of Krishna was that for achieving a larger good for the society many smaller bad means can be adopted. Though our society nowadays have adapted in the manner that any bad means can be adopted for showing a false dream to the society ofsome good object.

Lord Krishna goes first to Duryodhana and after his rejection to Karna to avoid the Mahabharata war. Though Karna is respectful to Lord Krishna but shows his inability to desist from his loyalty to Hastinapur prince Duryodhaa 

As a result of curses the wheel of Karna is trapped in the mud and Arjuna shoots arrow killing him. The climax is not when Krishna actuates a reluctant Arjuna to shoot the arrow on the unarmed Karna but is when after his death his mother Kunti cries saying that she had lost her most able 'son'. And the poignancy reaches its peak when after the death of Karna she could not resist declaring that the best warrior who died was also her real son. A mother hugs the disgrace of prenuptial motherhood proving that nothing is more important in this world than her motherhood. This is also the first reward in the real sense to Karna that he could not get throughout his life. The story of the a man thirsty of mother's affection comes to its logical end.

The play is also more about the tale of neglect and ignominy suffered by a low-caste people in our society still today. Since our national independence, the so-called lower caste people have been getting facilities in form of reservations in government jobs etc but they are still not getting the proper respect from the society who still treat them as a second-class citizen. 

The script of Vibhanshu Vaibhav is based fully on Mahabharata but he has succeeded in arousing a lively discussion on the matters of differentiation based on caste vs. merit. The basic tenet of motherhood is questioned. Kunti has to decide which one is more important - her child or the society?  Giving the conversation between Kunti and Karna a full space was a good idea on his part. The discourse after Karna's death between him and Krishna is another point to score to the script writer. 

The characters played by the artists were Karn- Rahul gupta,  Kunti- Aiman Khatoon,  Duryodhan- Prem Nagal,  Krishna-Nayandeep. The other artists may have been from among - On Stage:  Praveen Sagar, Shalini, Teresa, Mohit Vaid, Shubham, Avinash Rai, Amit / Back Stage: Ashutosh Kushwaha, Raghav, Sumit Suman, Bhawna.

The actors showed their mettle of living the hisitorical characters in their typical form. Still, the man/woman who played the respective role of Karna, Kunti , Duryodhana etc charmed with their impressive dialogue delivery and body movements. Krishna seemed to be behaving like a human being and in my view there should have been some god-like aura with him while delivering dialogues. Nevertheless he acted superbly good. All other actors also did justice with their respective characters.

Director Amul Sagar  knows well how to take the good acting out from able actors. The way he delivered the scene of murder of Karna impressed everybody. On the left and right half of the stage the same scene was running in two parallel fragments concurrently so that all of Krishna, Arjuna and Karna should face the audience.

External music and sound effects were also well synchronised. 

The show by Black Pearl Arts on 20.6.2019 at Veda Factory, Versova (Mumbai) was a most successful one and was well appreciated by the audience. The viewers were seen sympathising with Karna after coming out of the auditorium. 
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Review by - Hemant Das 'Him'
Photogrphs by - Bejod India blog
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