Tuesday 7 July 2020

रणीराम गढ़वाली के उपन्यास "सिसकते पहाड़" की कथावस्तु और शिल्प / जितेंद्र कुमार

पुस्तक-चर्चा 
चर्चित कथाकार  रणीराम गढ़वाली का उपन्यास "सिसकते पहाड़" पढ़ते हुए

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समकालीन हिंदी कथा-संसार में रणीराम गढ़वाली एक सुपरिचित नाम है।हिमालय की उपत्यका में बसे गाँवों में, हर बरसात में बाढ़, भूकंप, भूस्खलन, नदियों का कटाव, लोकजीवन को झेलना पड़ता है।"सिसकते पहाड़" रणीराम गढ़वाली की औपन्यासिक कृति है जिसमें वे पहाड़ों के दुख को शिद्दत से चित्रित करते हैं और मानवीय संवेदना को झकझोरते हैं। ग्राम-पटेला, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड में जन्मे रणीराम गढ़वाली पहाड़ी जीवन के इस अटूट दुख को "सिसकते पहाड़" उपन्यास का विषय बनाते हैं।उपन्यास के लिए वे घटना, चरित्र, स्थिति, वातावरण का सार्थक संयोजन करते हैं। पहाड़ी लोकजीवन के कार्य-व्यापारों को चुनते हैं; उन्हें एक कथा सूत्र में पिरोते हैं।लोकजीवन के उन चरित्रों की पहचान करते हैं जो हर बरसात के बाद उठ खड़े होते हैं।ये चरित्र कुदरती तबाही के बाद लोकजीवन को अपने ढँग से पटरी पर लाने की कोशिश करते हैं।इन चरित्रों में स्वयं कुदरत एक चरित्र की तरह उभरती है; गाँव भी एक चरित्र के रूप में दिखता है और नौकरशाही भी।पहाड़ी लोकजीवन के वातावरण पर लेखक की पकड़ उतनी ही मजबूत है जितनी अच्छी पकड़ "मैला आँचल" के कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु को पूर्णियाँ अंचल के लोकजीवन पर थी। लेखक का तादात्म्य संबंध पौड़ी गढ़वाल के लोकजीवन के साथ काफी सांद्र और मधुर है। इसलिए वे डंडेले (बैठक) ,बुकट्या(बकरा), गाड-गदेरियाँ, गुसैणी, भुला, बो (भौजी) ,फाट (किनारा), चुड़पट की रूड़ ( भयंकर  गर्मी), अनेदर (अति), तुमड़ी(कद्दू), गधेरे, झैड़ (बारिश), फींडू (अपशकुन सियार),ढैपुर (कमरे के ऊपर सामान रखने के लिए बनाई गई जगह), भ्वींचोल(भूकंप), थाथपड़ी (बाज), आदि लोकजीवन के अनेक आँचलिक शब्दों का व्यवहार सहज ढंग से उपन्यास में करते हैं। पाठकों की सुविधा के लिए कोष्ठक में उनके हिंदी शब्दार्थ उपलब्ध हैं।

यह उपन्यास केदारनाथ मंदिर के पहाड़ों के ऊपर बादल फटने के बाद आयी भयंकर बाढ़ और उससे मची भयानक तबाही के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया है।उपन्यास की कथाभूमि के ग्रामीण केदारनाथ हादसे की खबर टीवी के पर्दे पर देखते हैं। उस हादसे में कथाभूमि के दो सहोदर भाई भी शिकार बन जाते हैं। छौली (माँ), और खीमा (पिता) का वंश ही उजड़ जाता है क्योंकि उनके वही दो बेटे थे जो हादसे में मारे जाते हैं। केदारनाथ की घटना ग्रामीणों की स्मृति को झंकृत कर देती है।उनके अपने घाव हरे हो जाते हैं।वे याद करते हैं कि पाँच साल पूर्व ऐसे ही हादसे से उनका गाँव गुजर चुका है जिसमें आधा गाँव टूट कर नदी में समा गया था।जिसमें गाँव के सम्पन्न किसान परमा की पत्नी झंपुली, बेटा पिरमा, पिरमा की पत्नी और एक साल का नाती, घर सबकुछ तबाह हो गया था। परमा अगले ही दिन नाती का जन्मदिन मनानेवाले थे। हादसे के बाद परमा की आवाज जाती रही थी।केदारनाथ हादसे की खबर एक ग्रामीण मित्र साधो के घर में देखते हुए करमा के मस्तिष्क पर गहरा झटका लगता है और पाँच साल बाद उनकी आवाज लौट आती है।इसी घटना को उपन्याकार उपन्यास का प्रस्थान बिंदु बनाते हैं। एक नाटकीय उद्घाटन।

केदारनाथ हादसे की खबर जब टीवी के पर्दे पर चल रही है उस वक्त कथाभूमि में भी तीन चार दिनों से लगातार बारिश हो रही है और ग्रामीण भयभीत हैं फिर किसी अनहोनी की संभावना से।उपन्यास का गाँव कथानक में स्वयं एक चरित्र के रूप में उभरता है। इसकी लोकसंस्कृति में बाढ़ से आयी तबाही के गीत हैं।ग्रामीणों की चेतना में गोबरधन दास का मार्मिक गीत गूँजता रहता है जिसे नजीमाबाद रेडियो स्टेशन भी बीच बीच में सुनवाता है। उपन्यास का एक उल्लेखनीय किरदार गजू कोली उस लोकगीत को गुनगुनाता है। वह शोकगीत पुरे गाँव का शोकगीत है।

रणीराम गढ़वाली उन सामाजिक-आर्थिक-भौगोलिक स्थितियों का कलात्मक चित्रण करते हैं जिसका सामना प्रतिदिन पहाड़ी गाँव के ग्रामीणों को करना पड़ता है। बाढ़-बरसात में उनका जीवन खतरनाक मोड में होता ही है, उसके बाद भी साँप, बिच्छू और जंगली जानवरों के आक्रमण का भय बना रहता है।वहाँ जीवन निरापद नहीं है।इस संकटापन्न जीवन को लेखक प्रतीकात्मक रूप से एक घटना द्वारा संकेतित करते हैं। एक दिन मुख्य किरदार गजू कोली के घर में शाम को लालटेन की क्षीण रोशनी में एक बड़ा काला बिच्छू रेंगते हुए दिखता है। अगर किसी को डंक मार दे तो उस रात में बचने का कोई उपाय नहीं, साधन नहीं। गजू की बेटी रूक्मा साक्षात मृत्यु के दर्शन कर चीख पड़ती है। गजू अपनी लाठी से बिच्छू को दबाकर मार देता है और टॉर्च की रोशनी में उसे घर के बाहर फेंकने जाता है।घर में घूस आए दुश्मन को गृह स्वामी मार डालता है, लेकिन घर के बाहर भी रात के अँधेरे में कोई दुश्मन घात लगाए हो सकता है। लेखक पहाड़ी जीवन की इस स्थितियों को दर्शाने के लिए सटीक कार्य व्यापारों को कथा सूत्र में सही जगह पिरोते हैं। गजू मृत बिच्छू को बाहर फेंकने के लिए जब जाता है तो बड़ा चौकन्ना है। वह टॉर्च की रोशनी को चारों ओर फेंकता है तो उसे आँगन के किनारे बिच्छू से भी भयानक दुश्मन बाघ दिखता है। पूरा परिवार शोर मचाता है। व्यष्टि गजू कोली समष्टि गजू तेली में बदल जाता है। वह अपने परिवार के साथ गाँव वालों को भी बचाना चाहता है बाघ के संभावित हमले से। वह चिल्ला चिल्ला कर गाँव वालों को बाघ के आने की सूचना देता है। तो पहाड़ों-जंगलों के संकटापन्न ग्रामीण जीवन की ओर लेखक संकेत करते हैं।

दूसरी स्थिति है कि इन दूर दराज के गाँवों-पहाड़ों में अभीतक सड़कें नहीं बनी हैं। आने-जाने का कोई साधन नहीं है। उनके साथ बरसात की अँधेरी रातों में बरसात क्या क़हर बरपाती है यह कोई नहीं जानता। न वहाँ प्रशासन पहुँच पाता है और न पत्रकार पहुँच पाते हैं। उनका रोना धोना कोई नहीं सुनता।वे खुद ही रोते हैं और अपना रोना खुद ही सुनते हैं (पृष्ठ 171)। इन विषम परिस्थितियों में बरसात बीतते ही पहाड़ी गाँवों की जिंदगी जैसे-तैसे पुनः पटरी पर लौटती है।उसे लौटना पड़ता है।पटरी पर लौटते ही जिंदगी वर्णीय-वर्गीय, अमीर-गरीब, मान-अपमान, शोषण-दोहन, जुआ-शराब, बलात्कार आदि की बहुमुखी लड़ाईयों में फँस जाती है।मनुष्य के हजार हजार दुश्मन हैं, लेकिन उनमें मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन मनुष्य ही दिखता है।कुत्ते आपस में एक दूसरे को देखकर गुर्राते हैं; मनुष्य दूसरे मनुष्य को देखकर कुत्तों से अधिक गुर्राता है। सामाजिक, आर्थिक, भौतिक खाईयाँ उसे आपस में लड़ने के लिए उर्वर जमीन उपलब्ध कराती हैं।कथाकार रणीराम गढ़वाली"सिसकते पहाड़" में उन तमाम अंतर्विरोधों की शिनाख्त करने की कोशिश करते हैं जिनके चलते पहाड़ी गाँवों की आपसी आत्मीयता, सहयोग की भावना और शांति तिरोहित हो चुकी है और शहर की संस्कृति हावी होती जा रही है।

भले सन् 1950 में भारतीय जनता ने समानता, भाईचारा और बंधुत्व के आधार पर धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य को स्वीकार किया, लेकिन वर्णगत, जातिगत और वर्गगत असमनताओं को दूर करने का सार्थक प्रयास नहीं किया।पहाड़ी जीवन में मैदानी इलाकों की अपेक्षा गरीबी अधिक है, लेकिन वहाँ भी, वर्णगत, जातिगत, वर्गगत खाईयाँ हैं जो बदली परिस्थितियों में और मुखर हुई हैं।लेखक ने इन खाईयों का चित्रण वस्तुगत ढंग से किया है जिसके चलते इस उपन्यास का कथानक उल्लेखनीय और प्रासंगिक है।लेखक इन अंतर्विरोधों से परिचालित कथाभूमि के मुख्य कार्य-व्यापारों के संश्लेषण से उपन्यास की द्वंद्वात्मक कथावस्तु तैयार करते हैं।गाँव में घनानंद, पिरथी, बौन्या, शेरसिंह जैसे ऊच्च जाति के वर्चस्ववादी मानसिकता के लोग हैं जो गजू कोली और पानू जैसे निम्नवर्ग और वर्ण के ग्रामीणों को सामाजिक आर्थिक रूप से उत्पीड़ित करते हैं और उन्हें तरह तरह से अपमानित करते हैं।लेकिन इस मुद्दे पर सवर्ण समूह का एक ग्रुप अवर्णों के साथ है और उनके साथ छुआछूत का भेदभाव रखने से इंकार करता है।सवर्णों में करमा, पिरमा, साधो, अपशकुनी, गंथी आदि की संवेदना गजू कोली और पानू के साथ है।लेखक उस भौतिक खाई का चित्रण करते हैं जो गाँव में है।गाँव में सबसे बड़ा मकान घना का है जिसमें वह पटवारी के संरक्षण में शराब और जुआ का अड्डा चलाता है।वह शराब बनाता भी है, लेकिन पटवारी कभी उसके घर छापामारी नहीं करता।गाँव के शराबी जुआड़ी उसके चाटुकार हैं।दूसरे ग्रामीण समझ रहे हैं कि घना अपने स्वार्थ में गाँव की नई पीढ़ी को बिगाड़ रहा है।जब प्रशासन की मिली भगत से सब हो रहा है तब ग्रामीण क्या करें?

उपन्यास की कथा में नाटकीय गतिशीलता तब आती है जब गाँव का दबंग शराब माफिया घनानंद एक दिन गजू कोली को करमा के डंडेले(बैठक)से निकलते देखता है।मनुवादी मानसिकता का घना गाँव में हंगामा खड़ा करता है कि एक कोली(दलित)एक उच्च जाति के डंडेले में जाने और बैठने की हिम्मत कैसे कर लिया?यह तो गाँँव की परंपरा को तोड़ना हुआ। वह गाँव में पंचायत बुलाकर गजू कोली को दंडित करने की योजना बनाता है।गाँव में विमर्श छीड़ जाता है। दरअसल पर्दे के पीछे घना की मंशा दलित गजू कोली को तीन खेतों से वंचित करना है जिसे करमा के दादा ख्यातू ने गजू की माँ परुली को परमा के जन्म के उपलक्ष्य में बक्शीश किया था।लेखक यहाँ करमा और गजू कोली के मधुर संबंधों के कार्य-कारणों की बड़ी सटीक खोज करते हैं।एक सकारात्मक विश्वसनीय कथा रचते हैं।यह कहीं से मनगढ़ंत नहीं लगता।इसकी कथा युक्ति भी श्लाघनीय है। कथा के शिल्प में गजू कोली को फ्लैश बैक में ले जाकर करमा की जन्म कथा बताते हैं। गजू कोली याद करता है कि उसके पिता रेवा ने बताया था कि उसकी माँ परुल बहुत अच्छी दाई थी।सुरक्षित प्रसव कराने में वह प्रशिक्षित दाई से भी हुनरमंद थी।करमा की माँ को प्रसव पीड़ा थी।वे दर्द से छटपटा रही थी और बारिश हो रही थी।पहले तो ख्यातू ने दूसरी दाई को बुलाया था, लेकिन वो असफल रही।तब अछूत परुल को बुलाना पड़ा।करमा की माँ का जीवन संकट में था।सवर्ण ख्यातू को पतोहू और और जन्मनेवाले शिशु को बचाना था। उन्होंने परुल को घर में घूसने की इजाजत दे दी।जच्चा बच्चा बच गये।करमा का जन्म हुआ।उसके दादा ने परुल को बिना माँगे गाँव के ऊपर के तीन खेत दे दिये।परुल स्वयं गर्भवती थी। करमा के जन्म के कुछ दिनों बाद परुल ने गजू को जन्म दिया। इस तरह करमा और गजू समवयस्क हैं।परमा मानता है कि गजू की माँ ने ही उसकी माँ को बचाया और उसको इस धरती पर जीवित रहने का अवसर दिया।दोनों के मैत्री संबंधों के बीच कार्य-कारण का मजबूत आधार है।पहले भी गाँव की वर्णवादी मनुवादी मानसिकता ने ख्यातू की उदारता की आलोचना की थी।

करमा का बेटा पिरमा है। विवाह के बारह वर्ष पश्चात् पिरमा की पत्नी बेटे को जन्म देती है करमा के घर में बहुत खुशी है।एक साल बाद करमा नाती का जन्मदिवस धूमधाम से मनाना चाहता है।जन्मदिवस की पूर्व संध्या पर गजू कोली करमा के घर बधाई देने जाता है।करमा उसे डंडेले में बैठाकर साधो के साथ चाय पिलाता है।डंडेले से बाहर निकलते समय घना और पिरथू गजू को देख लेते हैं।बस सामाजिक झमेला खड़ा करते हैं कि एक कोली एक उच्च जाति के डंडेले में कैसे बैठ सकता है?दरअसल यह पुराने मूल्यों और नये मूल्यों के बीच संघर्ष है।गाँव में एक विमर्श छिड़ जाता है।लेखक गाँव के इस विमर्श का चित्रण बेजोड़ करते हैं।

घना पुराने मूल्यों का प्रतीक है।करमा से भी उसकी प्रतिद्वंदिता है।वह उसे भी अपमानित करना चाहता है।लेकिन करमा के खिलाफ पंचायत बुलाने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ती क्योंकि करमा से उसने पचास हजार रुपये का कर्ज लिया है।दूसरी ओर उसकी नजर गजू के तीन खेतों पर है।एक तथ्य और है कि गजू का बेटा पढ़ लिखकर पटवारी नियुक्त हो गया है।हालांकि उपन्याकार ने गजू के पटवारी बेटे का उपन्यास में समुचित चरित्र खड़ा नहीं किया है, लेकिन पाठकीय चेतना इस अधूरेपन को अपनी कल्पनाशीलता से भर सकता है।

घना उस दिन का इंतजार करता है जब करमा और उसका बेटा पिरमा किसी कार्यवश गाँव से बाहर जाते हैं।वह छल करके गजू के खिलाफ पंचायत बुला लेता है।अगर पंचायत में करमा होता तो घना पंच नहीं बन पाता क्योंकि परंपरा के अनुसार पंचायत बुलानेवाला स्वयं पंच बनने का अधिकारी नहीं होता।वह अपने दो चाटुकारों पिरथू और पियक्कड़ शेरू को अपने साथ पंच बना लेता है।लेखक आज के गाँवों की तथाकथित पंचायतों की धांधली,अन्याय और मनमानी को सफलतापूर्वक बेनकाब करते हैं।

गजू कोली मेहनत, भाईचारा, सामाजिक सरोकार, ईमानदारी, दाम्पत्य प्रेम और आधुनिक चेतना का प्रतीक है।घना द्वारा आहूत पंचायत में वह शामिल होता है, लेकिन घना को सार्वजनिक रूप से पंच के रूप में मान्यता देने से इंकार कर देता है।क्योंकि यह पंचायत करमा की उपस्थिति में बुलाई जानी चाहिए थी।वह करमा के कहने से उसके डंडेले में गया था।घना आरोप लगाता है कि गजू निम्नवर्ण का होकर उच्चवर्ण के करमा के डंडेले में जाने का अधिकार नहीं रखता।गजू कोली घना के प्रश्नों का सटीक उत्तर देते हुए आधुनिक चेतना का परिचय देता है,"मुझे तुम्हारी बराबरी करने का कोई शौक नहीं है।मैं अपनी जाति से बहुत प्यार करता हूँ।....रही बात अधिकार की तो वह मैं आपसे ज्यादा जानता हूँ ....।यह पंचायत आपको करमा दा के रहते बिठानी चाहिए थी"।गजू आगे चुनौती देता है,"आप मुझे कहीं से खरीद कर नहीं लाए हैं।गुलामी का जमाना चला गया।अँग्रेज चले गये हैं तो उनके साथ उनके नियम उनके कानून उनकी सत्ता सब चली गई है(पृष्ठ 55)"।

पंचायत में सजा सुनाए जाने पर गजू जरा भी विचलित नहीं होता; वह घोषणा करता है,"मैं गजू कोली भरी पंचायत में अपने कुल देवता नरसिंह देवता की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं आज की पंचायत को नकारता हूँ।इसका फैसला नहीं मानता और न ही इस पंचायत के पंचों को मानता हूँ"। इस तरह गजू कोली के रूप में लेखक एक अविस्मरणीय चरित्र का सृजन करते हैं।

पंचायत के फैसले के खिलाफ गजू करमा दा और साधो वगैरह की सहमति से महापंचायत बुलाने का विधिवत आवेदन देता है।लेकिन उसके भीतर एक डर भी है कि पता नहीं महापंचायत का फैसला कैसा हो!

लेखक रणीराम गढ़वाली गजू का चरित्र सृजित करने में पर्याप्त सावधानी बरतते हैं।गजू के चरित्र में लचीलापन और व्यवहारकुशलता भी है।पंचायत की मीटिंग में वह जैसी निर्भीकता और आधुनिक चेतना का परिचय देता है, वैसी निर्भीकता वह पटवारी केसरीलाल के समक्ष नहीं दिखा पाता।पटवारी केसरीलाल भ्रष्ट नौकरशाही का चेहरा है।पटवारी मैदानी इलाकों में राजस्व कर्मचारी होता है।वह जमीन का खाता खेसरा खतियान रखता है, मालगुजारी वसूल करता है, लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पटवारी को कोल्हू मशीन की छानबीन से लेकर बलात्कार का केस दर्ज करने, अपराधी को गिरफ्तार करने तक का हक है।गजू तेली कोल्हू मशीन में सरसों का तेल पेरता है।एक दिन पटवारी उसके घर आता है और बेवजह गजू को सरसों तेल में मिलावट का आरोप लगाता है।वह बेशर्मी के साथ गजू से माँग करता है,"कभी-कभी दो चार सेर सरसों तेल हमारी चौकी पर पहुँचा दिया करो गजू"।गजू थोड़ा चौंकता है तो नौकरशाही का भ्रष्ट चेहरा कहता है,"हम यहाँ के पटवारी हैं रे गजू।हमारा मान सम्मान करना आपका फर्ज है"।तभी गजू की बेटी घर से दुमुँहा त्रिशूल लेकर निकलती है।गरीब गजू के घर में जंगली जानवरों से बचाव के लिए वही एकमात्र हथियार है।पटवारी दुमुँहा त्रिशूल गजू से माँग लेता है।गजू की पत्नी पटवारी के व्यवहार से परिचित है, वह जल में रहकर मगर से झंझट नहीं लेना चाहती।गजू वहाँ लचीला और व्यवहारकुशल दिखता है।

पटवारी केसरीलाल का चरित्र आजादी के बाद के नौकरशाही के भ्रष्ट चरित्र का आईना है।सिसकते पहाड़ की कथा का इकहरापन टूटतापहाड़ी अंचल के गाँव सिर्फ बाढ़ और कटाव से त्रस्त नहीं हैं, बल्कि वे भ्रष्ट नौकरशाही और मनुवादी वर्णवादी मानसिकता से भी गाँव त्रस्त हैं।

पटवारी का चरित्र भी उल्लेखनीय है।लेखक उसी के चपरासी गंथी द्वारा उसका चरित्र चित्रण कराते हैं।"पता नहीं जिंदगी में कैसे पटोरी से पाला पड़ा है।साला कोबरा है कोबरा!...जब से यहाँ आया है लोगों का जीना हराम कर रखा है।इसका बस चले तो यह खेतों में गुड़ाई निराई करनेवाली औरतों और घसियारिनों को मुँगरी(भुट्टा)की तरह नंगा कर दे"।पानू को घना के साथ मिलकर पटवारी ने जेल भेजवा दिया और दोनों ने उसकी सुंदर पत्नी का लगातार यौन शोषण किया।इस तरह लेखक दिखाते हैं कि पहाड़ों में भी गरीब मजलूम स्त्रियों का यौन शोषण सत्ता के संरक्षण में गाँव के दबंग और अमीर करते हैं।

पहाड़ी गाँवों के यथार्थ चित्रण के लिए लेखक किरदारों को अतीत दीप्ति में भेजते हैं। मुख्य किरदार गजू बार बार स्मृतियों में जाकर पूरे गाँव की आर्थिकी पर प्रकाश डालता है।पहले के जमाने में इन पहाड़ों में आज की तरह सड़कें नहीं थीं।आने जाने के लिए पतली पतली पगडंडियाँ होती थीं।....लोग साथ मिलकर सामान लेने के लिए सौ दो सौ किलोमीटर दूर तक पहाड़ के उबड़ खाबड़ रास्तों पर.... जंगलों में रातें बिताते हुए, अपनी जरूरत का सामन लेने के लिए रामनगर जाते थे।तब गाँवों में भोटिया लोग अपनी भेड़ों पर सामान लाते थे।

महापंचायत वाली घटना से उपन्यास के कई चरित्रों--करमा, गजू, दिकुली, घना, गंथी, भीमा, अशगुनी, मनबर सिंह, बसन्तू, बैसखू, कलमू, शेरू, हरकू, बीरू, साधो, खिमुली, बिंदुली आदि पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।महापंचायत ने गाँव में अद्भुत बहस छेड़ दिया। पुराने मूल्यों और नये मूल्यों के बीच टकराहट तो होती है, भ्रष्टाचार और दबंगई के खिलाफ भी जनता जागरूक होती है।महापंचायत के पंचों में ईमानदारी, न्याय बोध और नैतिक बोध का प्रस्फुटन होता है और घना जैसी मनुवादी अन्यायवादी शक्तियाँ पराजित होती हैं। गजू कोली की जीत होती है और घना, पिरथू, शेरू को अपने गाँव के अलावा कहीं भी, किसी गाँव में पंच बननेका अधिकार छीन लिया जाता है।इस तरह जनमत और बहुमत के साथ नये मूल्यों की जीत होती है।"सिसकते पहाड़"की कथा वस्तु की यही सार्थकता है।
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इस आलेख के लेखक - जितेन्द्र कुमा
आलेख के लेखक का ईमेल आईडी - jitendrakumarara46@gmail.com
संदर्भ :सिसकते पहाड़(उपन्यास)
उपन्यास के लेखक:रणीराम गढ़वाली
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com





आलेख के लेखक - जितेंद्र कुमार


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