कब हवा से चराग़ डरते हैं
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अभिव्यक्ति के विविध आयाम होते हैं। उसे साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे कहानी, ग़ज़ल, लघुकथा, हाइकू आदि द्वारा प्रकट किया जाता है। उनके पाठ से मानव जीवन की गुत्थियों की कुछ गांठेंं तो खुलती हैं पर कुछ गहन विषय ऐसे भी होते हैं जिनके लिए रचना रूपी सरिता में बार-बार डुबकी लगानी पड़ती है। यह पुस्तक अथवा पत्रिका द्वारा ही सम्भव है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए लोगों में विशेषकर स्त्रियों में साहित्यिक स्फुरण बनाये रखने को प्रतिबद्ध संस्था "लेख्य-मंजूषा" विगत अनेक वर्षों से एक पत्रिका "साहित्यिक सपंदन" का प्रकाशन भी करती आ रही है। किन्तु वह भी काफी नहीं होता। अभिव्यक्ति हेतु हमें साहित्य से इतर जाकर भी मार्ग ढूँढना पड़ता है जैसे - लघुफिल्म आदि।
दिनांक 4.12.2019 को लेख्य-मंजूषा, पटना ने अपना तृतीय वार्षिकोत्सव पटना के इंस्टीच्यूट ऑफ इंजीनियर्स (इंडिया) भवन, आर ब्लॉक में संस्थान के साहित्योत्सव के रूप में मनाया जिसमें पुस्तक परिचर्चा, पुस्तक और पत्रिका का लोकार्पण, लघुफिल्म प्रदर्शन, गद्य-पद्य व हाइकू पाठ एवं हाइकू दिवस के रूप में मनाया गया।
आज के इस कार्यक्रम का विशेष आकर्षण बनी लेख्य-मंजूषा के बैनर तले निर्मित एक लघुफिल्म “षडयंत्र” जिसकी कहानी, पटकथा, संवाद, गीत-संगीत, निर्देशन और अभिनय यानि सबकुछ लेख्य-मंजूषा के सदस्यों ने स्वयं किया और वह भी बिना इस क्षेत्र के किसी पूर्व अनुभव के और फ़िल्म इतनी अच्छी बनी कि सभी स्तब्ध थे। कम बजट और बहुत ही कम समय में बनाई गई इस फ़िल्म के निर्माण का संकल्प लेख्य-मंजूषा की अध्यक्ष विभा रानी श्रीवास्तव की प्रेरणा और रविश्रीवस्तव के अथक प्रयास से ही सम्भव हुआ। विदित हो कि यह फ़िल्म लेख्य-मंजूषा की अध्यक्ष विभारानी श्रीवास्तव की लघुकथा पर आधारित है। शायर सुनील कुमार इस फ़िल्म में अभिनय व पार्श्व गायन का मौका मिला।
लेख्य-मंजूषा की त्रैमासिक पत्रिका “साहित्यिक स्पंदन” व साझा काव्य संग्रह “हृदय की विह्वल धारा” के लोकार्पण से आरंभ हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ाने का काम सदस्यों के काव्य-पाठ से हुआ।
वयोवृद्ध ग़ज़लगो वरुण आनंद के ग़ज़ल संग्रह “दर्दनामा” पर परिचर्चा में भाग लेते हुए कथाकार व गज़लगो अवधेश प्रीत, कासिम ख़ुर्शीद, संजय कुमार कुंदन व कवि भगवती प्रसाद द्विवेदी एवं डॉ अनिता राकेश ने ग़ज़ल विधा के विभिन्न आयामों, इसके इतिहास, इसकी बारीकियों और शिल्प पर भी चर्चा की जिससे लेख्य-मंजूषा के सदस्य व तमाम श्रोता लाभान्वित हुए।
सदस्यों के अधिकांश या यूँ कहें एक बड़े वर्ग ने आज गद्य-पाठ ही किया क्योंकि लेख्य-मंजूषा का यह त्रैमासिक कार्यक्रम गद्य पर ही केंद्रित था। कुछ अस्थानीय सदस्य जो सभा में उपस्थित नहीं हो पाये उनकी रचना का पाठ अन्य लोगों ने किया जैसे पम्मी सिंह (दिल्ली) की रचना (लघुकथा) के पाठ का दायित्व उनकी अनुपस्थिति में सुनील कुमार को दिया गया।
पढ़ी गई रचनाओं की बानगी देखिए.
सुनील कुमार वो चिराग हैं जो हवाओं से नहीं डरते -
नेक रौशन वफ़ा से खिलते हैं
कब हवा से चराग़ डरते हैं
ख़ार कितने चुभे हों ज़ेर-ए-क़दम
वो इरादे नहीं बदलते हैं
रक़्स करते रहो इशारों पर
सूरत-ए-हाल कब सँवरते हैं
“निर्भया” अब यक़ीन किस पे करे
उसको वहशी-दरिंदे खलते हैं
विष फ़िज़ा में ही घुला हो अगर
क्यूँ हवा का मलाल करते हैं।
नीलांशु रंजन -
गर कुछ होंगीं / तो होंगी खामोशियाँ
जो बहुत कुछ कहेंगीं - कह जाएंगीं
आंखों ही आंखों में
और बुनेंगीं अल्फ़ाज़ मुहब्बत के
कई- कई रंगों के
और मुहब्बत का वो हर रंग
खिल उठेगा- खिलखिला उठेगा
तुम्हारे छू भर देने से
और वो शाम
मेरे पास रह जाएगी
अमानत की तरह
कभी तुम्हें लौटाने के लिए
नीलांशु रंजन -
गर कुछ होंगीं / तो होंगी खामोशियाँ
जो बहुत कुछ कहेंगीं - कह जाएंगीं
आंखों ही आंखों में
और बुनेंगीं अल्फ़ाज़ मुहब्बत के
कई- कई रंगों के
और मुहब्बत का वो हर रंग
खिल उठेगा- खिलखिला उठेगा
तुम्हारे छू भर देने से
और वो शाम
मेरे पास रह जाएगी
अमानत की तरह
कभी तुम्हें लौटाने के लिए
निधि राज का जज़्बा भी कुछ कम नहीं है -
किसी के रोकने से न रुकने वाली
किसी के टोकने से न घात लगने वाली मैं|
मैं मैं हूँ|- न मुड़ुगी, न झुकुंगी|
बस आगे बढती चलूँगी मैं|
उड़ूंगी मैं।
घनश्याम कुछ परेशान-से दिखे उनसे जो खुद तो कुछ करते नहीं और काम करनेवालों की गिरेबां नें झांकते रहते हैं -
वो अपनी ख़ामियों को ढांकता है
गिरेबां में हमारी झांकता है
जिसे करना नहीं होता है कुछ भी
वही लफ़्ज़ों की गाड़ी हांकता है
प्रसव पीड़ा भला क्या बांझ जाने
व्यथित मन ही व्यथा को आंकता है
अंधेरे की जहां होती हुकूमत
उजाला धूल ही तो फांकता है
वही "घनश्याम" है जो स्वप्न-पट में
सुनहरे बेल-बूटे टांकता है
इस कार्यक्रम में गद्य रचनाएँ विशेष रूप से पढ़ीं गईं। मो. नसीम अख्तर ने 'आंदोलन' शीर्षक लघुकथा पढ़ीं। पूनम कतरियार ने 'केक' कथा का पाठ किया। यह गरीब तबके के ठेस लगे बालमन में विरोध की सुगबुगाहट को दर्शाती एक छोटी कथा थी। राजकान्ता राज ने हाइकु सुनाया।
घनश्याम कुछ परेशान-से दिखे उनसे जो खुद तो कुछ करते नहीं और काम करनेवालों की गिरेबां नें झांकते रहते हैं -
वो अपनी ख़ामियों को ढांकता है
गिरेबां में हमारी झांकता है
जिसे करना नहीं होता है कुछ भी
वही लफ़्ज़ों की गाड़ी हांकता है
प्रसव पीड़ा भला क्या बांझ जाने
व्यथित मन ही व्यथा को आंकता है
अंधेरे की जहां होती हुकूमत
उजाला धूल ही तो फांकता है
वही "घनश्याम" है जो स्वप्न-पट में
सुनहरे बेल-बूटे टांकता है
इस कार्यक्रम में गद्य रचनाएँ विशेष रूप से पढ़ीं गईं। मो. नसीम अख्तर ने 'आंदोलन' शीर्षक लघुकथा पढ़ीं। पूनम कतरियार ने 'केक' कथा का पाठ किया। यह गरीब तबके के ठेस लगे बालमन में विरोध की सुगबुगाहट को दर्शाती एक छोटी कथा थी। राजकान्ता राज ने हाइकु सुनाया।
इस तरह से एक सौहार्दपूर्ण माहौल में इस कार्यक्रम का समापन हुआ।
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रपट का आलेख - सुनील कुमार / हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र सौजन्य - सुनील कुमार और अन्य सदस्य
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com
नोट - 1.जिनकी पंक्तियाँ नहीं सम्मिलित हो पाईं हैं ऊपर दिये गए ईमेल आईडी पर भेजिए।
2. इसी कार्यक्रम पर दूसरी रपट देखिए - यहाँ क्लिक कीजिए
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गद्य पर केंद्रित होने के बावजूद गद्य-पाठ करनेवाले स्थानीय रचनाकारो का उल्लेख रपट में नहीं है.यद्यपि कुछ की तस्वीरें जरूर रपट में हैं.बाकियों के नाम एवं रचनाओं का उल्लेख तो होना चाहिए था.अन्यथा न लेंगें, सादर सुझाव मात्र.
ReplyDeleteइस रपट में सामग्री जोड़ी जाएगी। आप भी ईमेल से जानकारी दे सजते हैं - editorbejodindia@gmail.com
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