Monday, 2 March 2020

आईटीएम काव्योत्सव 1.3.2020 को खारघर (नवी मुम्बई) में सम्पन्न

घर यहीं ‌पे है तेरा, मेरा ‌भी ठिकाना है

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दिनांक 1.3.2020 को हर बार की भांति इस बार भी देश के प्रसिद्ध प्रबंधन संस्थान आईटीएम, खारघर (नवी मुम्बई) में पुन: काव्योत्सव का आयोजन हुआ जिसमें लगभग दो दर्जन कवि और श्रोता सम्मिलित हुए. यह आईटीएम काव्योत्सव की 107वीं काव्य-संध्या थी.

इस बार अध्यक्ष थे इस काव्योत्सव समूह के संस्थापकों में से एक रहे कवि अनिल पुरबा,  विशिष्ट अतिथि थीं  दिल्ली से पधारी मैथिली की जानी-मानी साहित्यकार  विनीता मल्लिक और कार्यक्रम प्रबन्धक थे सामयिक विषयों पर सुंदर छंदात्मक कविता करनेवाले विमल तिवारी. .

सबसे पहले वन्दना श्रीवास्तव ने अपने सुमधुर कंठ से सरस्वती वंदना प्रस्तुत की. तत्पश्चात  राष्ट्रगान पूरे सम्मान के साथ विहित अवधि में  भारत भूषण शारदा के नेतृत्व में गाया गया. 

साहित्यिक अभिरुचि और विशेष अभिव्यक्ति से अपनी विशेष काव्य प्रस्तुति देनेवाले इक्कीस रचनाधर्मियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया. कुछ को दुबारा भी अवसर दिया गया. एक विशेष बात यह रही है कि आईटीएम काव्योत्सव के प्रमुख संस्थापक विजय भटनागर और अन्य वरिष्ठ सदस्य भारत भूषण शारदा की जन्मतिथि इसी माह में पड़ती है अत: इन दोनों के सम्मान में सभी अपनी कुर्सी से उठकर कुछ देर के लिए खड़े रहे. 

अब आइये देखते हैं पढ़ी गई रचनाओं की एक झलक -

दिलशाद शिद्दिकी ने कितनी भी मजबूरियाँ झेली लेकिन खुद को बेचने से इंकार कर दिया -
फाकाक़शी का दौर भी कभी गुजरा है नजर से 
किरदार का कभी मैंने सौदा नहीं किया 
मजबूरियों के दाम तो मेरे लगे बहुत
बिक जाऊँ चंद सिक्कों में ऐसा नहीं किया
पतवार अपने हाथ में रक्खी है सदा ही
दिलशाद ने मल्लाह पे भरोसा नहीं क्या

आईटीएम काव्योत्सव के प्रमुख स्तम्भ विजय भटनागर समाज में घट रहे असली प्रेम की तस्वीर दिखाई -
दुनिया में प्यार बहुत है पर करनेवाले कम हैं
समर्पण के लिए कोई नहीं, सब सोचते हम ही हम हैं
मासूमियत पनप नहीं पाती, जवानी आ टपकती है
रावण ही रावण हैं जहां में चहुं ओर, राम जहां में कम हैं
फैल गए हैं आतंकी बादल कायनात में हर दिशा में
फैली हुई है दहशतगर्दी हवा में, सुरक्षा कम है

विश्वम्बर दयाल तिवारी ने 'साइकिल' शीर्षक से अपनी सुंदर कविता सुनाई जो पदूषण भी नहीं करती और होली में विशेष उपयोगी होती है. कैसे? देखिए-
मुझको प्यारी / मेरी साइकिल
टनाटन  घंटी बाज रही ।
**हवा भरे दो पहिए लगते
पति-पत्नी की जोड़ी
प्रेम-डगर पर साथ चलें तो
कभी न हिम्मत थोड़ी ।
जब कसके दबे पाइडिल
टनाटन घंटी बाज रही ।
**रंग डालें मुझे राह रोककर
मेरे भारतवासी ।
कार के भीतर जो मैं होता
क्या रंग पाते साथी ।
वाहन चालक चकित यह देख
टनाटन घंटी बाज रही ।
**होली का त्योहार मनाएँ/ रंग लगाएँ सुन्दर 
नहीं प्रदूषण  को बढ़ने दें / हम साइकिल पर चढ़कर ।
धीमी-तेज चले जब साइकिल
टनाटन घंटी बाज रही ।

वंदना श्रीवास्तव ने प्रणय के पर्व फागुन का सत्कार अपने ही अंदाज़ में किया -
ऋतु वसंत का नवल अवतार होता देखिए
इस प्रणय के पर्व का सत्कार होता देखिए 
हर तरफ जैसे हवा में गीत है संगीत है
मद घुला सारी फ़िज़ा में मदमयी सी प्रीत है
हृदय का ज्यों बुद्धि पर अधिकार होते देखिए

हेमन्त दास 'हिम' ने सारे कयदों और बंदिशों को तोड़कर दिल से दिल का करार कर लिया -
कायदे और बंदिशें होतीं हैं नाकाम
दिल से दिल का करार चाहिए
घोंसला बन सके चैन और अमन का
बस थोड़े तिनके और झाड़ चाहिए
स्पर्शहीन, दृष्टिहीन, शब्दहीन हो पर
मन से मन के जुड़नेवाला तार चाहिए

विजया वर्मा पूरी तरह से होली के सतरंगी रंगों में रंगी दिखीं-
    इन्द्रधनुष के सप्त रंगों से ,
             भोर ये रंगमय हो ली ।
   आओ हम भी रंग लें तन - मन ,
                 होली है भई होली ।(1)
आकाश में उड़ते हुए पंछियों के साथ -साथ ,
    मन भी उड़ा जाता है ,
          दूर कहीं दूर....
     सपनो के एक ऐसे देश में ,
          जहां सब "अति सुंदर" है। (2)

इस सभा की विशेश आतिथि दिल्ली से आईं विनीता मल्लिक ने भी होली के अवसर पर वीआईपी भिखाड़ी की दास्तान सुनाकर सबको चकित कर दिया -
....... मैं लगा समझाने
बाबा  नर हो  कुछ काम करो
भगवान के सुंदरतम कृति की छवि  यूँ न नाश करो
वह मुसकराया
मैं कुछ  और  कहता/ इससे पहले  उसने मुझे सुनाया
मुझे  भिखारी कह/ यूँ  न अंडरस्टिमेट करो

भारत भूषण शारदा इस होली में समस्त ऊँच-नीच के किलों को ढहाकर साम्यवाद की तरफ अग्रसर होते दिखे -
मालिक नौकर वाला आओ, मिलकर भेद मिटा दें रे
पूरब पर, पश्चिम, उत्तर पर हर दिशा को चिपका दें रे
ऊँच नीच के किले गिरें, गूँजे समता की बोली रे
चलो मनाएँ मिलकर होली, ओ मेरे हमजोली रे

ओम प्रकाश पाण्डेय  ने प्रेम के अबतक के सारे प्रतिमानों को ध्वस्त करते हुए बस यूँ ही प्रेम करने का प्रस्ताव भरी सभा में रख दिया -
ऑफिस से कभी निकलते हैं जल्दी
टहलते हैं खाली सड़्कों पर यूं ही
...आज जाने देते हैं सूरज को क्षितिज के उस पार
आज बिना हाथ में हाथ डाले
दूर तक साथ-साथ चलते हैं
चलो आज यूं ही मुहब्बत करते हैं

हास्य सम्राट प्रकाश चन्द्र झा जब इस होली में एक नामी रेस्तराँ में फाइन डाइन करने गए तो उनका वो हाल हुआ कि मत पूछिए -
झटपट हमने ऑर्डर दे दिया, बोला जल्दी खाना लाना
आधे घंटे से अधिक बीते पर हलक से नीचे न एक भी दाना
जब भी पूछूँ- "दो मिनट में", मिलता उत्तर एक समाना
"पीक आवर है -इसलिए देरी", बेटर का शाश्वत एक बहाना
मुट्ठी भर सौंफ मुँह में लिए बगल में करे जुगाली है
एक शाम के भोजन में हफ़्ते भर की जेब खाली है

काव्योत्सव की सबसे वरिष्ठ रचनाकार माधवी कपूर ने नारी महत्ता के स्वरूप का दर्शन कराया -
सारा संसार मेरी पगध्वनि पर नाचा है
गीता, रामायण सबने मुझको ही तो बाँचा है (1)
बंद करो मत द्वार / मलय का झोंका आने दो
यूँ तो हर ऋतु को / मधुमास नहीं कहते (2)

डॉ. हरदत्त गौतम यूँ तो वरिष्ठ हैं किंतु होली के अवसर पर नाचने गाने से कोई परहेज नहीं करते और वो भी ब्रजभाशा में -
पीर जरा की हरे, तन यौवन को मधु जो बरसावत होरी
कूदत नाचत धूम मचावत सबको ही हरसावत होरी

दीपाली सक्सेना ने एक हास्य रचना पढ़ी जिसमें एक महिला को जब डॉक्टर ने '"सीरियस बिमारी" से ग्रस्त घोषित कर दिया तो उसने भर्ती होने में एक दिन का समय मांगा. क्यों जानिए-
बताती तो क्या तुम मुझे जाने देते ?
बेरौनक चेहरे को देखकर सब मेरी सही उम्र नहीं जान जाते?

सतीश शुकला ने होली के अवसर पर दूसरे की एक रचना पढ़ी -
पत्नी घर की रानी है
करती अपनी मनमानी है.

अनुभवी कवि त्रिलोचन सिंह अरोड़ा  ने होली में वसंती और हरे दोनों रंग के अबीर को चुनकर एक व्यापक संदेश दिया -
एक हाथ में रंग वसंती, एक हाथ में हरा 
इतने रंगों में होली खेली मैंने
फिर भी मन नहीं भरा 
**करेगा बेदखल क्या बागबाँ मुझको 
ये गुलशन मेरा है, गुल मेरा है, तितलियाँ मेरी

युवाकवि अली अनवर ने अपनी ग़ज़ल सुनाई जिसमें कुछ महत्वपूर्ण सामयिक संदेश थे -
वक़्त का तकाजा़ है और तुझको जाना है
एक पल ठहर जा ‌तू कि एक युग बिताना है
इश्क को रिवाजों की बेड़्यां न पहनाऔ
कौन‌ किस धर्म का है कोन सा घराना है ?
शेख जी और पंडित कल साथ में थे  मैखा़ने
कह रहे थे चुप रहना रोज़ आना जाना है
किस की बात करते हो कौन वो‌ अली अनवर
फ़लसफी़‌ है शायर है थोड़ा सा दिवाना है
इस वतन की रखवाली ‌सब की ‌जिमेदारी है
घर यहीं ‌पे है तेरा मेरा ‌भी ठिकाना है

अंत में इस गोष्ठी के अध्यक्श अनिल पुरबा ने अपनी रचना सुनाई जिसमें स्वयं को समाज से जुड़ी नाना प्रकार की जिम्मेवारी के लिए प्रतिबद्ध होने की मंशा जताई -
वो मैं हूँ
..............

रपट की प्रस्तुति - विश्वम्भर दयाल तिवारी / हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्लॉग एवं अनिल पुरबा
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com
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