Tuesday 10 March 2020

होली 2020 - बेजोड़ इंडिया की अभासी कवि गोष्ठी

फागुन बौराने लगा, मन में उठे हिलोर 

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इस बार मैंने यह सोच रखा था कि होली में भी अपनी शिष्टता पूर्ण बरकरार रखनी है. कोई रंग नहीं, कोई अबीर नहीं, कीचड़ बगैरह तो असंसदीय शब्द हैं, उनकी बातें ही मत करिये. हाँ, करोना वायरस के खतरे को देखते हुए हाथ जरूर धोया फिर मुंह भी कि किसी मित्र के परिवार के द्वारा दिये गए पकवानों का बहिष्कार करना तो अशिष्टता होगी. 

बाहर निकलते ही मोहनपुर (बिहार) के दोहा और गीतों से जीतोड़ खिलवाड़ करनेवाले अक्खड़ कवि हरिनारायण सिंह 'हरि' दिखाई दिये जिन्होंने सुबह सुबह भंग चढ़ा रखी थी. मिलते ही पता नहीं मुँह पर क्या क्या पोत दिया कि मेरा चेहरा लंगूर जैसा हो गया. फिर अपने घर ले गए और बैठा कर लगे फगुआ सुनाने -
असर अहा! अब कर रहा यह फागुनी बयार ।
पिया बसे परदेश में, मन चाहे अभिसार ।।
तन-मन कशमश कर रहा, होली का हुडदंग ।
काला दिखता दाल में, पिया हुए बेरंग ।।
ननद ठिठोली कर रही, देवर जी मनुहार ।
रह -रह मन में आ रहा, प्रियतम तेरा प्यार ।।
फागुन बौराने लगा, मन में उठे हिलोर ।
क्या रोके रुक पायगी, यह तृष्णा बरजोर ।।
ठूंठों में कोंपल लगे, कोमल -किसलय पात ।
मंद-मंद सिहरन भरे, ये बसंत-सौगात ।।
गेहूँ गदराने लगे, सरसों हुई जवान।
पुष्ट मटर की छीमियाँ, विहँसे मन औ' प्राण ।।
झंकृत अब होने लगे, मन-वीणा के तार ।
मन्मथ का इस फाग में गहरा असर -अपार ।।
मैं तो अपने प्राण -संग, खेलूंगी रे फाग ।
रंग-अबीर-गुलाल से अधिक हुआ अनुराग ।।
          
मैं भी कुछ कम नहीं था और सुना दिया कि हाथ-मुँह धोकर आया हूँ. पर उन्होंने कहा कि अभी पुआ वगैरह पक रहा है. लौटते समय खाते जाइयेगा. 

आगे बढ़ा तो युवा कवि वेद प्रकाश तिवारी (देवरिया, उ.प्रो.) दिखाई दिए. उनको दूर से अपना चेहरा दिखाते हुए कहा कि "भाई रंग पड़ गया है. और लगाने की जरूरत नहीं है". पर मेरी बात नक्कारखाने में तूती की आवाज साबित हुई और "खड़ा हूँ कब से राह में तेरे" कहते हुए वेद जी ने पूरी पिचकारी मेरे सफेद शर्ट पर दाग दी. हालाँकि इसी शर्ट को मैं सात सालों से होली में चला रहा हूँ लेकिन आठवें साल भी तो इसपर होली खेलनी है. इस तरह की आक्रमणकारी होली से उस पर खतरा उत्पन्न हो जाता है. फिर कालर पकड़कर ऊपर से रंग डालते हुए उन्होंने कहा कि "सेवा का तुम धर्म निभाते जाओ". मैंने सोचा कि एक तो युवा और ऊपर से कवि - ऐसे को तो स्वयं ब्रह्मा भी नहीं समझा सकते. भागने में ही भलाई है. पर अपनी पूरी कविता सुनाकर ही उन्होंने मुझे पलायन का अवसर दिया -
महुआ, अमवा, पीपल बोले 
खड़ा हूँ कब से राह में तेरे 
कुछ रंग मेरे भी ले जाओ
सेवा का तुम धर्म निभाओ
कहे क्षितिज, सागर, आकाश
मैं भी तो हूँ तेरे साथ- साथ 
ले लो मुझसे भी रंग मेरे
बन जाओ तुम सहृदय विशाल
जो छूट गए पीछे हमसे 
लड़ते जीवन के जंगों से 
है रंगहीन जीवन जिनका
रंगना है उनको रंगों से
तो आओ हम भारतवासी
उन रंगों में अब रंग जाएँ 
सबके सुख-दुःख में साथ रहें
संकल्प यही अब कर जाएँ
तब जश्न मने फिर होली का
और रंगों की बरसात हो
धुले मैल सब अंतर्मन के
हर दिन होली साथ हो। 
- वेद प्रकाश तिवारी

आगे बढ़ने पर कवयित्री अलका पांडेय (नवी मुम्बई) जी अपने दरवाजे पर दिखाई दीं. जान में जान आई कि चलिए कम-से-कम ये तो आक्रमणकारी रवैया में विश्वास नहीं रखती होंगी और उदारवादी विचारधारा को अपनायेंगी. मेरा अनुमान सही निकला. उनके कपड़े भी साफ थे और मेरे कपड़े को उन्होंने यथावत रहने दिया. फिर ऊँच नीच का भेद मिटाते हुए अपना होली गीत सुनाया जिसे मैंने भी बड़े ध्यान से सुना.-
रंग जमाने धूम मचाने
ऊंच-नीच का भेद मिटाने
चंचल धड़कन की मृदंग पर, फागुन का संगीत सुनाने।
आया लेकर प्यार सखी री
होली का त्यौहार।
होली का त्यौहार सखी री होली का त्योहार ।
धानी आंचल लहराया है
मन रंगों से इठलाया है।
नील गगन भी हुआ रंगीला
धरती का मन हरषाया है।
प्यार भरे रंगों से अपना करने को श्रंगार सखी री ।
हो जाओ तैयार 
होली का त्यौहार सखी री होली का त्यौहार ।
गोरी की पिचकारी न्यारी
सब जन को लगती है प्यारी ।
गाल गुलाबी करने उसके
बाट जोहते सब नर नारी ।
प्रेम शिला पर टिका हुआ है यह सारा संसार सखी री ।
हो जाओ तैयार ,
होली का त्यौहार सखी री होली का त्यौहार।

कुछ देर में होली के पकवान और दही-बड़े भी दिए और मैं तो जैसे इंतजार में ही था उस पर टूट पड़ा. मन प्रसन्न था कि इस तरह से होली खेलनी चाहिए कि "रंग लगे ना फिटकिरी और फिर भी रंग चोखा". ये है असली होली! लेकिन जनाब जैसे ही आगे बढ़ा कि पता नहीं कहाँ से सात-आठ स्कूली बच्चे आये और मुझे घेर लिया. बेतरह पिचकारियों के प्रहार होने लगे  और एक ने तो आकर पंजा छाप भी लगा दिया बैंगनी रंग का. फिर भागना पड़ा मुझे जान बचाकर क्योंकि होली में युवाकवि के बाद कोई सबसे खतरनाक प्राणी होता है तो वो है स्कूली बच्चा.

आगे बढ़ा तो बहुत पुरानी जान-पहचान की चिर-युवा कवयित्री लता प्रासर (पटना) दिखाईं दीं जो बड़ी हड़बड़ी में दिख रही थीं क्योंकि उन्हें अपने हजारों फैंस के लिए कोई होली वाला वीडियो अपलोड करना था. फिर भी मैं हिम्मत करके पास में गया और "होली मुबारक" कहा. उन्होंने अपनी मुबारकबाद पूर्वाभाद्र नक्षत्र का स्वागत करते हुए कुछ यूँ दिया -
भोरे-भोरे चली पुरवैया फागुन के लेकर संदेश
कहां उड़े रंग कहां गुलाल मौसम के देने संदेश
बड़ी दूर बसे जो बहन भैया लौट के आजा अपन देश
भोरे भोरे चली पुरवैया फागुन के लेकर संदेश

मैंने उनकी पंक्तियों की तारीफ करते हुए कहा कि आजकल तो आप शिक्षक आंदोलन का परचम लहराती नजर आती हैं. इन चार पंक्तियों में कहीं वह दर्द नहीं दिख रहा है. इतना कहना था कि दो बड़ा  सदूक दिखाती हुईं बोली सारा शिक्षक आंदोलन का काव्य इन दोनों में कैद है. कहिए तो आपके समक्ष एक-एक कर उन्हें आजाद करूँ? मैंने मन ही मन कहा कि "बुरे फँसे."  कहा कि देखिए मैंने अभी मुँह भी नहीं धोया है इसलिए मुझे घर लौटना तुरंत जरूरी है. मुझे बहुए सालों से पहचाननेवाली इस कवयित्री ने सम्पूर्ण स्थिति को ताड़ लिया और कहा कि "चिंता मत करिए, आपको यहाँ नहीं सुनाऊंगी. व्याट्सएप्प काहे के लिए है? उसी से भेज दूंगी. फिर मुस्कुराते हुए कहा कि कभी-कभी बिना मुँह धोये भी पकवान खाया जा सकता है. मेरी जान में जान आई.

आगे बढ़ा तो इस कवि-गोष्ठी के सचमुच बड़े ही सुसभ्य और सुसंस्कृत कवि मधुरेश नारायण अपने घर से निकलते दिखे और उन्होंने ये सुंदर चार पंक्तियाँ पढ़ी -
शब्दों की बालटी में भावनाओं का रंग घोले।
जिह्वा की पिचकारी से मीठे हर बोल बोले।
सरसों से चुराये पीला रंग, आसमाँ से नीला
हरा ले धरा से जिसे देख सब का मन डोले।
फिर घर के अंदर अभिभावक सदृश भाभी का सत्कार नकार नहीं पाया. 

आगे बढ़ते ही अंगिका भाषा के आंदोलनकारी कवि सुधीर कुमार प्रोग्रामर  (भागलपुर) खिड़की से झाँकते दिख गए. जो अजब रंग में थे-
सर र- र- र- र-र रा  रंग डालै।
केकरा पे सब रंग डालै किसनमां
सर र- र- र- र-र रा  रंग डालै।
खेतों मे डालै, खम्हारी पे डालै
रैची के खुल्लो दुआरी पे डालै
चिकना के पकडै मुरेठा किसनमां
सर र- र- र- र-र रा  रंग डालै।
सर र- र- र- र-र रा  रंग डालै सिपहिया
सर र- र- र- र-र रा  रंग डालै।
थाना में डालें, कि हाजत में डालें
टोपी पहन रंग डाले सिपहिया
सर र- र- र- र-र रा  रंग डालै।
उनकी मस्ती ने मुझे भी झूमने पर मजबूर कर दिया. फिर उन्हें घर से बाहर न निकलने की सलाह देते हुए मैं  (हेमन्त दास 'हिम',  नवी मुम्बई) ने  भी कुछ अर्ज कर ही दिया -
तेरे प्यार से घुला हुआ यह जीवन है रंगीन
पतझड़ में हरियाली है और दिल विरक्त शौकीन
काले केश का जाल अजब और होंठ हैं रक्तिम लाल
मारक तीर इशारों के हैं, सबकुछ है संगीन
एक है साकी एक है प्यासा, बहिर्गमन की कोई न आशा 
'कोरोना'  का कहर है बाहर, यहीं रहो तल्लीन.

इस तरह से वर्ष 2020 के मेरे होली पर्व की शुरुआत हुई.
.............

संकलन और प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com














2 comments:

  1. Thanks
    Regards,
    Alka pandey | alkapandey74@gmail.com

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  2. ह्दयतल से आप का आभार
    Regards,
    alkapandey74@gmail.com

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