दुनिया की हलचलों से जुड़ी मनुष्यकेंद्रित कविताएँ
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बारिश होने की सारी संभावनाओं के बीच "दूसरा शनिवार" के आमंत्रण पर अनेक साहित्यप्रेमी दिनांक 27 जुलाई 2019 शनिवार संध्या 5:00 बजे श्रीधर करुणानिधि की कविताओं को सुनने के लिए पटना गाँधी मैदान की गाँधी मूर्ति के पास उपस्थित हुए। प्रत्यूष चंद्र मिश्रा, डॉ. बी. एन. विश्वकर्मा, कौशलेंद्र कुमार, राकेश शर्मा, विद्या भूषण, ओसामा खान, अरुण नारायण, नरेन्द्र कुमार, मुकेश प्रत्यूष, अरविन्द पासवान, चन्दन सिंह एवं आशीष मिश्र गोष्ठी में सम्मिलित हुए।
प्रत्यूष चंद्र मिश्र ने कवि को पाठ के लिए आमंत्रित किया। श्रीधर करुणानिधि अपनी रौ में थे। उन्होंने खोना, मँझधार, अपने-अपने हिंडोले में, चाँद से रिश्ता, डर, चाँद चिड़िया और भूख, तेरे हिस्से का पहाड़ अब उनका, थोड़ा और अँधेरा दे दो, देवताओं की उम्र नहीं पूछी गई, वसंत के पार, हँसोर आदमी की आदत, शोर उस शहर, हमारे हिस्से में, उनका पानी, 30 जनवरी, कभी की बारिश, नादानी, फेंकना, पहरा देने की जिद एवं आराम करने की जगह अच्छी है शीर्षक से कविताएं सुनाई। समकालीन यथार्थ उनकी कविताओं में प्रतिध्वनित हो रहा था। मानवीय सरोकारों से युक्त कविताएँ श्रोताओं तक अपने प्रवाह में सहजता से पहुँच रही थी।
पढ़ी गयी कविताओं पर चर्चा की शुरुआत करते हुए विद्या भूषण ने कहा कि उनका कवि के साथ लंबे समय से साथ रहा है तथा लगातार सुनते रहने का सुख मिला है। उनकी कविताएँ मानवीय सरोकारों की है, मनुष्यता को बचाने की बात कहती हैं। उनकी रचनाओं में जीवन के विविध भाव एवं आयाम सौंदर्य बोध के साथ उपस्थित है। उन्होंने बाजारवाद एवं भूमंडलीकरण के बाद के तानेबाने को समझा है तथा अपनी कविताओं में स्पष्टता से रखा है। कविताओं में प्राकृतिक दृश्यों की भरमार है तथा पर्यावरणविद की तरह वे इनकी चिंता करते हैं… संसाधनों के लूट की बात करते हैं। उनकी भाषा ताजगी लिए हुए है। कविताएँ बिंब गढ़ने वाली हैं तथा व्यंग्य के माध्यम से जटिल यथार्थ को अभिव्यक्त करती हैं।
मुकेश प्रत्यूष चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि "थोड़ा और अँधेरा दे दो" में अँधेरे के अलग-अलग शेड्स हैं। कविताओं में गहराई दिखती है। उन्होंने शास्त्रों का संदर्भ देते हुए बताया कि देवताओं की उम्र भी पूरी हुई है। हनुमान अभी तक जिंदा माने जाते हैं, जो सेवक हैं तथा शिव को अनश्वर माना जाता है विशेषतः शिवलिंग। गाँधी युग नायक थे और उन्हें लाखों लोग सुनते थे। करुणानिधि की कविताएँ अच्छी है, प्रेरक हैं तथा उनकी भाषा अपनी है।
राकेश शर्मा ने अपनी बात रखते हुए कहा कि कवि की कविताओं के मूल में प्रेम है। प्रेम को विचार से और विचार को प्रेम से नहीं काटते हैं। कविताएँ संवेदनापूर्ण हैं।
अरविन्द पासवान कहते हैं कि समकालीन कविताओं को सुनते हुए लगा कि कविताएँ नई एवं ताजी नहीं है, पहले भी ये बातें कही गई हैं, पर कहने का ढंग प्रमुख है। कवि मौसम की बात करते हैं, पेड़-पौधे उनकी अभिव्यक्तियों में आते हैं। वे मानव मूल्य की बात करते हैं।
अरुण नारायण ने कहा कि श्रीधर करुणानिधि की कविताएँ सुनते हुए सुखद आश्वस्ति महसूस हुआ। यह विचारहीनता का दौर है, लेखकीय संगठन कमजोर पड़ते चले गये हैं। आग्रह तो यह है कि आदमी को मजहब की तरह सोचना है। कवि उसी कोशी अंचल से आते हैं जहाँ से रेणु, अनूप लाल मंडल, सुरेन्द्र स्निग्ध आदि की सुदीर्घ परंपरा रही है।
कौशलेंद्र कुमार कहते हैं कि कविताओं में चाँद भी लगातार बढ़ रहा है, खूबसूरती है, उम्मीदें हैं।
पटना के एक कार्यक्रम में शामिल होने वर्द्धा से आये कविता के गहरे आलोचक हमारे मित्र आशीष मिश्रा सीधे होटल न जाकर गाँधी मैदान "दूसरा शनिवार" की गोष्ठी में शामिल होने गाँधी मैदान आये, दूसरा शनिवार उनका आभार व्यक्त करता है। उनके पास कवि की कुछ कविताएँ हमने पहले भेज रखी थीं। उन्होंने कहा कि कविताओं को पढ़ते हुए लगा कि कवि दुनिया में होने वाले परिवर्तनों, हलचलों से जुड़ा हुआ है। नई शक्तियां उभर रही है, कवि केवल इसकी पहचान ही नहीं करते बल्कि उससे लड़नेवालों की भी पहचान करते हैं। "30 जनवरी" कविता जब दादी की कोमल याद से जुड़ जाती है तो महत्वपूर्ण हो जाती है। यह मनुष्यकेन्द्रीयता ही अच्छी कविता की पहचान है। मनुष्य को उसके दुख-दर्द, शोषण, संघर्ष से अलग कर नहीं देख सकते। हम बिना संदर्भ के लड़ नहीं पाएंगे।
चन्दन सिंह ने कहा कि आलोचक दरवाजे खोलता है। कविता किसी भी क्षण में प्रकट हो सकती है। उन्होंने नेरुदा को संदर्भित करते हुए कहा कि राजनीतिक कविताओं को प्रेम कविताओं की तरह लिखा जाना चाहिए। श्रीधर करुणानिधि की कविताएँ वायवीय नहीं हैं, वे मिट्टी से जुड़ी हुई हैं। आखिरी कविता "30 जनवरी" उन्हें अच्छी लगी।
नरेन्द्र कुमार ने कहा कि कवि अपनी कविता ‘खोना’ में भूख के साथ हँसी की बात करते हैं। उभरती शक्तियां ‘हँसी’ तो ले जाती हैं, पर ‘भूख’ को छोड़ देती है, इसे अभिव्यक्त करना कवि की प्राथमिकता में है। दूसरी कविता ‘मँझधार’ में वे शहर और गाँव की चर्चा करते हुए उन्हें मिलाने वाले पुल की बात करते हैं जहाँ दोनों जगहों के लोग अपना दुख-दर्द कहते हैं। उनकी चर्चाओं में शहर का विकास और गाँव का नोस्टाल्जिया नहीं है, बल्कि त्रासद स्थिति है। कवि की यही सार्थकता है।
डॉ बी एन विश्वकर्मा ने कहा कि "थोड़ा और अँधेरा दे दो" कविता उन्हें अच्छी लगी। सभी कविताएँ संवेदनापूर्ण लगीं। कवि समस्याओं से जुड़ते हैं।
प्रत्यूष चंद्र मिश्रा ने अपनी बात रखते हुए कहा कि कवि वैचारिक कविता को रचते हुए जमीन पकड़े रहते हैं। पूर्णिया एवं पटना की स्थानिकता उनकी कविताओं में आयी हैं तथा वे परिवेश को बहुत ही खूबसूरती से रचते हैं।
अंत में नरेन्द्र कुमार द्वारा धन्यवाद-ज्ञापन किया गया।
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आलेख - नरेन्द्र कुमार
लेखक का लिंक - http://aksharchhaya.blogspot.com/
छायाचित्र - दूसरा शनिवार
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