Monday 6 January 2020

आईटीएम काव्योत्सव की 105वीं गोष्ठी खारघर (नवी मुंबई) में 5.1.2020 को संपन्न

गिरते का हाथ थामना तो दूर की है बात / बेदर्द जमाना है जो हँसने में लगा है

(हर 12 घंटों के बाद एक बार जरूर देख लीजिए- FB+ Today Bejod India)



जब आंधियों के बीच कोई खड़ा रहता है तो उसे अपवाद कहते हैं. जब देश भर में उथल-पुथल मची हो ऐसे में नववर्ष जैसा उत्सव मनाना तो दूर की बात है दिल को कोई ढाढस भी बँधा दे तो बहुत समझिये. इस परिदृश्य में एक काव्योत्सव की गोष्ठी विविध विचारधाराओं के कवियों के बीच अत्यंत सौहार्दपूर्ण माहौल में चली इसे एक सुखद आश्चर्य कहा जा सकता है. और आप जानकर हैरान होंगे कि एक ही स्थल पर ऐसी आश्चर्यपूर्ण घटनाओं का यह 105वाँ उदाहरण था.

दिनांक 5.1.2020 को आईटीएम, नवी मुम्बई के एक कमरे में काव्योत्सव की 105वीं गोष्ठी सम्पन्न हुई जिसमें मुम्बई के लगभग 30 वरिष्ठ और युवा साहित्यकारों ने पूरी गर्मजोशी से भाग लिया. इस गोष्ठी के अध्यक्ष थे डॉ. हरिदत्त गौतम, विशिष्ट अतिथि थीं कुमकुम और संचालक थे अनिल पुरबा.

भारत भूषण शारदा ने नववर्ष का अभिनंदन बड़े ही सुंदर शब्दों में किया -
आशा और उत्साह, उमंग का, / लेकर मन में स्पन्दन!
आओ करें हम मिलजुल कर / नये वर्ष का अभिनन्दन!
पिछली  कटुताओ' को भूले / निर्मल मन को बनाये
भेदभाव की जंजीरों में / अब कोई नहीं जकडा जाये!
ऐसे भाव उठ जायें हृदय में, / कुछ रहे ना तेरा मेरा,
विमल प्रेम की वर्षा करता / आये सुखद सवेरा!
इस आशा से आज करें / मिल कर सब संघर्ष
शायद राहत लेकर आये / अब तो नूतन वर्ष!

सिराज गौरी ने तरन्नुम में ग़ज़ल सुनाकर बेदर्द ज़माने की फितरतों को बयाँ कर डाला -
नफरत का नाग मुल्क को डँसने में लगा है / ख़ुद ही बिछा के जाल वो फँसने में लगा है
सोना निकाल ले गए होशियार जौहरी / मजदूर तो बस कोयला घसने में लगा है
दुनिया ये चाहती है कैसे उजाड़ दूँ / एक मेरा ख़ानदान जो बसने में लगा है
गिरते का हाथ थामना तो दूर की है बात / बेदर्द जमाना है जो हँसने में लगा है

विश्वम्भर दयाल तिवारी अपनी साधना और आराधना के दीप सौपने हेतु सुयोग्य पात्र को ढूंढ रहे थे -
साधना के दीप / किसको सौंप दूँ
आराधना के दीप /  किसको सौंप दूँ
सुमन-श्रद्धा साथ ले / तन मन उपस्थित
अभ्यर्थना के थाल / किसको सौंप दूँ?
मानता हूँ देव / पृथ्वी पर बहुत हैं
भक्त हठधर्मी विविध / अनुरक्त हैं
रक्त भी होता कुपित / नर पैशाचिक देखकर
जान स्वजनों की है / किसको सौंप दूँ

नज़र हयातपुरी ने पहले तो चुप रहना चाहा पर अपने यारों के आगे धीरे-धीरे दिल की सारी बातें कह डालीं -
जुनूने-शौक जो कुछ न कहें तो अच्छा है / ये दिल की बात है दिल में रहे तो अच्छा है
हम एक शजर के हैं डाली हमारा गुलशन है / हरेक शाख ही फूले-फले तो अच्छा है
उखाड़ फेकेंगे हम इत्तेहाद से अपनी / वो अपने-आप ही चलता बने तो अच्छा है
जरा ये कह दो अभी सरफिरी हवा से 'नज़र  / चले न तेज, हद में रहे तो अच्छा है

कुलदीप सिंह 'दीप' ने नेताओं की चमक-दमक के बीच भुला दिये गए देश के अनमोल रतन, लाल बहादुर को याद किया -
माँ के बहादुर लाल थे वो
कद के छोटे मगर दिल के विशाल थे वो

त्रिलोचन सिंह अरोड़ा ने ज़िंदगी के इम्तिहान में हमेशा डटे रहने की बात की -
मुश्किल  में भाग जाना आसान होता है
हर पल ज़िंदगी का इम्तिहान होता है

दिलीप ठक्कर 'दिलदार' के दिल का दीपक न डरता है कभी न बुझता है -
की कोशिशें आंधी ने बुझाने की मगर / था हौसला हमारा कि अबतक बुझा नहीं
'दिलदार' उसके ख़ौफ से क्यूँकर हम डरें /  होगा किसी का मगर मेरा खुदा नहीं

चन्द्रिका व्यास को युगों पहले एक कोने में किसी के साथ ली गई चाय की चुस्की हमेशा याद रहती है-
याद है कैफे के उस कोनें में  / चाय की चुस्कियों के साथ
तुमनें कुछ बातें की थीं / आज मैं तिरस्कृत
तुम्हें देख याद करती हूँ

अशोक प्रीतमानी सुट्टा लगाते हुए जीवन दर्शन के विविध आयामों से परिचय कराते चलते हैं -
क्या तुझे मालूम है / आखरी सुटे का मज़ा ही कुछ और है
फिर चिलम झाड़ देंगे / धो पोंछ के रख देंगे
फिर जब यार मिलेंगे भर देंगे / बड़ा रिस्की काम है यार
इस तरह चिलम पीना आखरी कश तक / कभी नाम के आगे, कभी पीछे
भोले बाबा का स्टीकर चिपक जाता है / इधर किस को फिकर है

निरुपमा को सन्नाटों भरी रात का ब्यौरा देती दिखीं -
आज फिर सन्नाटों ने / कोई चीख सुनी होगी
आज फिर स्याह रात पर / कोई कालिख पुती होगी

हेमन्त दास 'हिम' हालाँकि पत्थरदिल नहीं है पर उनकी अपनी परेशानियाँ हैं -
ग़ो दिल ये मेरा कोई पत्थर नहीं है / पर जहाँ मैं रहता हूँ, मेरा घर नहीं है
जो शख्स बोला उसका ऐसा हुआ इलाज / कि अब भी बोलता है पर असर नहीं है

वंदना श्रीवास्तव ने आजकल समाज में बच्चियों की सुरक्षा को लेकर सशंकित हैं -
अपनों के वेष में हौवान फिरा करते हैं / घर की बिटिया को क्या शमशीर थमा दी जाय
हाथ से छूटा, गिरा,  छन्न से टूट गया / चीज नाज़ुक थी कब तक ये संभाली जाय

चंदन अधिकारी ने पड़ाव को ही मंज़िल कह डाला -
सीखने का जज़्बा रखकर / आगे तू बढ़ता चल
हर पड़ाव है एक मंजिल / यह सोच तू बढ़ता चल

दीपाली सक्सेना ने इस गोष्ठी में एक फिटनेस एस्पर्ट की भूमिका निभाई
बॉडी का कैलोरी थोड़ा कम कीजिए
एक्सरसाइज, योगा या जिम कीजिए

अशोक वशिष्ट ने विरहिणी की व्यथा को चित्रांकित किया -
अंखिया पंथ निहारती / सजन न आये गेह
मन बंजारा हो गया / बंजर हो गई देह
चूड़ी खन-खन खनकती / पायल करती शोर
बार-बार हिचकी कहे / आवेगा चितचोर

विजय भटनागर जो  इस काव्योत्सव के मुख्य संयोजक रहे हैं वे अपनी शल्य-चिकित्सा होने के बावजूद भी कुछ देर के लिए उपस्थित होकर सभी लोगों के हौसले में उछाल भर गए -
जब हौसला भर लिया उड़ान का
फिर क्या कद देखते हो आसमान का

जय सिंह की नजरों में पहले सभी एक ही मिट्टी ले लाल हैं फिर हिंदू या मुसलमान -
तुम ईद को हमें गले लगा लो / हम होली में डालें गुलाल
हिंदु-मुस्लिम बाद में हैं हम / पहले हैं इस मिट्टी के लाल

विमल तिवारी अपने  ही लोगों को चिन्हित करने पर बड़ा आश्चर्य जताया -
क्या खुशियों को सीमित कर लें / क्या अपनों को चिन्हित कर लें?
कि विश्व रहा परिवार यहाँ / जन-जन दायित्व निभा जाएँ

ओम प्रकाश पांडेय ने फिर से जवानी की बात की -
आओ फिर से मुहब्बत करते हैं
माना कि हम उनके काबिल न थे

अभिलाज ने अनोखे बिम्बों के सहारे अपनी बातें दो कविताओं में रखीं
कल रात तेरी महफिल में / रात को देखा था
तारों के साथ हमनें / महताब को देखा था (1)
रोऊँ मैं यूँ जेठ में रोए / जैसे छत का टीन है
आधी जल में आधी बाहर / जैसे रोए मीन है (2)

सुनीता घोष को बमुश्किल नींद आई भी तो देखिए क्या हुआ -
अब्बल तो ये कि नींद न आए तमाम रात / आए तो आके ख्वाब में सताए तमाम रात
बेदारियों ने ख़्वाब दिखाये तमाम रात / या रब उसे भी नींद न आये तमाम रात

प्रकाश चन्द्र झा आज के युग में सुंदरता के नए विधान पर करारा व्यंग्य किया -
अब तो खा लो पान प्रिये
इस सुंदर कोमल काया से / तुम कितना वर्जिश करती हो
इस अंगूरी यौवन को तुम / पिघलाकर किशमिश करती हो
सिगरेट सरीखी बाँहें कर लीं / मोमबत्ती सी टाँग
मन ही मन भरने लगी / सुंदरता का स्वांग
स्वस्थ, सुडौल, सुंदर काया को / अब कहाँ हसीन कहते हैं
जिसके बदन की हड्डी गिन लो /  उसको अब ब्यूटी-क्वीन कहते हैं
सुंदरता परिभाषित करने का / यह है नया विधान प्रिये
अब तो खा लो पान प्रिये.

मो. हनीफ ने आज के अस्त-व्यस्त हालात को बयाँ किया -
शहर में हर कोई बिखरा पड़ा है
कहीं पे तन तो कहीं पे चिथड़ा पड़ा है

डॉ. मनोहर अभय ने "गजरे बेच रही लड़की" की गरीबी को बेधक शब्दों में प्रस्तुत किया -
जूड़ा खोले / बाल बखेरे
गजरे बेच रही लड़की
बाप गाँठता जूते / भैय्या रिक्शा खींचे
गुदड़ी   सीती मैय्या/ बैठ नीम के नीचे
कड़क ठण्ड सी / झेल रहे सब कड़की |
*गली- गली में फिसलन / पाँव नहीं फिसले
मणि वाले नागों के/ मुखड़े हैं कुचले
देते  रहे  मवाली / पग- पग पर घुड़की |
*बादल गरजे पानी बरसे / गजरे बेचेगी
घिरे अँधेरे की / लम्बी जुल्फें खींचेगी
रस्ता रोक रही  आँधी/ तड़क-तड़क बिजली तड़की|
*गिन्नी देख इकन्नी / बड़े- बड़े बिक जाते
जी हुजूर की थामे पगड़ी / घुटनों तक झुक जाते
*घास -फूँस की बनी रहे छपरी/ गरीबी बेच रही लड़की |

विशिष्ट अतिथि कुमकुम ने पहरे को प्यार का एक अंदाज़ बताया- 
ये इश्क़ नहीं तो और क्या है
हर पल तेरे नाम का पहरा है.

गोष्ठी के अध्यक्ष डॉ. हरिदत्त गौतम ने एक लम्बी किंतु अत्यंत भावपूर्ण रचना सुनाकर पिताजी के गुणों का अत्यंत सजीव वर्णन किया -
जब स्खलित हुआ, बहका, डूबा / तब हाथ बढ़ाकर आ जाते
आचार्य,  मित्र, मंत्री, नाविक / कितने किरदार पिताजी थे
बन सका न मैं जो आवारा / ऐयाश, नशेरी, नाकारा
रुक गई पतन की सुनामी / वह दीवार पिताजी थे

अनिला पुरबा जो इस कार्यक्रम का अत्यंत रोचक ढंग से संचालन कर रहे थे, ने  दोस्ती निभाने में माफी माँगने से कभी नहीं हिचकने की बात की -
दोस्त बनाने के मौका तलाश लेता हूँ
गलती हो न हो माफी जरूर माँग लेता हूँ.

अंत में आये हुए कवियों का ज्ञापन किया गया और अध्यक्ष की अनुमति से सभा की समाप्ति की घोषणा हुई.
.......
रपट का आलेख - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्लॉग
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1 comment:


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