दोनों ही एक डाल के पंछी की तरह थे / ये राम वो रसूल, अभी कल की बात है
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नए वर्ष का स्वागत कुछ धमाकेदार तरीके होना लाज़मी होता है इसी बात को ध्यान में रखते हुए त्रिवेणी साहित्य संगम ने पहली जनवरी 2020 को कुर्ला (मुम्बई) के टैक्सीमेन सोसाइटी में स्थित कवयित्री शोभा स्वपनिल के आवास पर देश के सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार हस्तीमल 'हस्ती' को आमंत्रित किया. ये वही ग़ज़लकार हैं जिन्होंने "प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है" (आवाज - जगजीत सिंह) जैसी अनेक लोकप्रिय ग़ज़लों की रचना की है.
इस कवि गोष्ठी के अध्यक्ष हस्तीमल हस्ती थे और संचालन कर रहे थे अवनीश दिक्षित 'दिव्य'. अन्य प्रतिभागी कविगण थे - अशवनी उम्मीद, शोभा स्वप्निल, हेमन्त दास 'हिम', प्रभा शर्मा 'सागर', गुलशन मदान, रेखा किंगर 'रोशनी', प्रमिला शर्मा, हेमा चंदानी और सतीश शुक्ला 'रक़ीब'. गोष्ठी की संयोजक थीं शोभा स्वप्निल और धन्यवाद ज्ञापन किया संतोष खंडेलवाल ने.
गोष्ठी में शुरु से अंत तक सिर्फ और सिफ ग़ज़लें ही छाईं रहीं. सब ने एक से बढ़कर एक रचनाएँ सुनाईं लेकिन निश्चित रूप से हस्तीमल 'हस्ती' तारों के बीच चांद के समान जगमगाते रहे. उनकी गज़लें जहाँ मुहब्बत की ताजगी से भरी होती है वहीं समाज और दुनिया के हालात से भी काफी गहराई में जाकर संवाद करती है.लफ्ज़ इतने सरल इस्तेमाल करते हैं कि हर कोई अचम्भे में रह जाता है पर जब मायनों में डूबता है तब उनके बड़प्पन का अहसास होता है. हालांकि इस गोष्ठी में उन्होंने अध्यक्ष होने के नाते सबसे अंत में अपनी रचनाएँ सुनाईं लेकिन यहाँ पाठकों की बेसब्री को देखते हुए हम सबसे पहले उन्हीं की सुनाई ग़ज़लों की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-
हर सू नहीं थे शूल, अभी कल की बात है
राहों के थे उसूल, अभी कल की बात है
क़ाफी थी एक ठेस बिखरने के वास्ते
इंसान भी थे फूल, अभी कल की बात है
उम्रों का वो लिहाज़ कि बरगद की राह में
आते न थे बबूल, अभी कल की बात है
दोनों ही एक डाल के पंछी की तरह थे
ये राम वो रसूल, अभी कल की बात है
आती थी बात जब भी वतन के वक़ार की
कुर्बानी थी क़ुबूल, अभी कल की बात है
(-हस्तीमल 'हस्ती)
फूल फिर भी कम न होंगे तितलियों के वास्ते
अस्ल में मुजरिम जो थे घर में ख़ुदा के जा छुपे
अब मसीहा रह गये हैं सूलियों के वास्ते'
इश्क, इमां, इल्म, इज़्ज़त, दोस्ती, शोहरत, ज़मीर
ये सभी सामान हैं सौदागरों के वास्ते
(-हस्तीमल 'हस्ती)
वो अंधेरों को भी पुरनूर बना लेते हैं
जो चिरागों की जगह दिल को जला लेते हैं
वो जगह स्वर्ग में तब्दील हुई जाती है
तेरे दीवाने जहां बज़्म जमा लेते हैं
(-हस्तीमल 'हस्ती)
इश्क, उदासी, ग़म, तनहाई
तुझसे मिलने के रस्ते हैं
हम शबरी के बैर सरीखे
जैसे भी हैं प्यार भरे हैं
(-हस्तीमल 'हस्ती)
प्रभा शर्मा ने सामाजिक विरोधाभास को इस तरह से बयां किया -
"वो अक्सर जागते रहते हैं अपने शीशमहलों में
जिन्हें नींद आती है उन्हें बिस्तर नहीं होते
सागर जिनमें जितना जर्फ़ हो खामोश रहता है
यहां उड़ते वही पंछी जिनके पर नहीं होते"
फिर उन्होंने बुरे काम करनेवालों को उनका अंजाम दिखाया -
"यकीनन वो खुद ही एक दिन उसमें डूब जाएगा
जो दूसरों के वास्ते केवल दलदल बनाता है."
प्रमिला शर्मा जानती हैं कि चांद और चांदनी के बिना शायरी में मजा कहां? बड़ी नज़ाकत से वो कहतीं हैं -
"चांद की बाहों में जाकर चांदनी थी सो गई
रात होगी, बात होगी, ख्वाब में थी खो गई"
पर रसोईघर की याद आते ही उनका ख्वाब टूट जाता है -
"मेरी पड़ोसन मुझको अक्सर बहुत सताती है
जब भी प्याज खरीद लाती है मुझको दिखाती है'
गुलशन मदान को आशिकी में अजीबोगरीब शिकायतें और और जरूरतें हैं-
"ये लहजा प्यार का सीखा कहां से? / मिला था कौन तुम को हम से पहले?
मुहब्बत के हंसी आलम से पहले / कहां था ग़म तुम्हारे ग़म के पहले"
"कुछ तो बोलो ये खामुशी क्या है? / बेखुदी है या बेरुखी? क्या है?"
कश्तियों को नाख़ुदा भी भी चाहिए / और ख़ुदा का आसरा भी चाहिए
इन हवाओं ने बुझाएं हैं चिराग / और चिरागों को हवा भी चाहिए
रखनी हो कायम जो ये नजदीकियां / रखना थोड़ा फासला भी चाहिए"
अशवनी 'उम्मीद' ने एक बार शायरी के दम पर घर चलाने की ठानी थी तो देखिए क्या लेकर आए -
"कलम से घर को चलाना एक सुनहरा ख्वाब है / ग़ज़ल से रोटी कमाना एक सुनहरा ख्वाब है
इमारत निर्माण करनेवाले एक मजदूर का / फकत अपना घर बनाना एक सुनहरा ख्वाब है"
इसके बाद उन्होंने आज के दौर में सफलता का नुस्खा दिया वह भी विशुद्ध हिंदी में -
"धन लगाकर स्वयं विज्ञापित हुए / इस तरह कुछ लोग स्थापित हुए
सच कहूँ वरदान के हकदार थे / व्यर्थ ही कुछ लोग जो शापित हुए
हैं सुखद अवशेष ये विच्छेद के / जो पुराने पत्र प्रत्यार्पित हुए"
हेमन्त दास 'हिम' को कोई सवाल पूछने से रोक रहा है -
"जिनसे करने हैं हमें लाखों सवाल / है शर्त उनकी कि कुछ न पूछेंगे
उसका एहसां हैं ये बड़ा सा दु:ख / अब किसी ग़म को 'हिम' न बूझेंगे"
फिर वो जहां रहते हैं उसे घर कहने से कोई रोकने लगा -
"गो दिल ये मेरा कोई पत्थर नहीं है / पर जहां रहता हूँ, मेरा वो घर नहीं है
सरहद-ए-उसूल पे हूँ रोज जंग लड़ता / ये अश्क मेरा खून से कमतर नहीं है
जो शख्स बोला उसका ऐसा हुआ इलाज / कि अब भी बोलता है पर असर नहीं है"
शोभा 'स्वप्निल' ने नए साल में भी हाल के न बदलने की बात कही -
"हाँ, सच तो यही है, बदलता है नया साल
सन बदलता है, कैलेंडर बदलता है
पर नहीं बदलता है अपना हाल"
फिर उन्होंने नई सभ्यता की खराबियों से दूर पहले की पहाड़ी संस्कृति की बात की -
"नई सभ्यता का ज्यादा चलन नहीं था
या कहिए कि खरचने को बहुत धन नहीं था"
हेमा चंदानी अपने को कभी तन्हा नहींं होने देतीं-
"अपने को तन्हा मत कर / अपना भी कोई सानी रख
उम्र पके चाहे जितनी / दिल में कुछ नादानी रख
माँ ही काशी काबा है / चरणों में पेशानी रख"
फिर उन्होंने रिश्ता निभाने का शायराना अंदाज दिखाया -
"न उसका दिल बदल पाये ना अपना दिल बदल पाये
न वो कश्ती बदल पाये, न हम साहिल बदल पाये
मुहब्बत में अदावत है, अदावत में मुहब्बत है
न वो फितरत बदल पाया न हम कातिल बदल पाये
बहुत से मोड़ आये थे, बहुत सी मंज़िलें आईं
न उसने रास्ता बदला, न हम मंज़िल बदल पाये"
रेखा किंगर 'रोशनी' इश्क की बेखुदी में डूबकर कहती हैं -
"आरजू तेरी, जुस्तजू तेरी / और कोई दुआ से क्या मतलब
जो है हुस्ने-अमल का शैदाई / उसको गम्ज़ो-सना से क्या मतलब
उनकी फितरत बदल नहीं सकती / अब वफा से जफा से क्या मतलब
जिसे इंसाफ की तवक्को थी / उसे सजा-रिहा से क्या मतलब
ये मरज लादवा है चारागर / दर्दे-दिल को दवा से क्या मतलब"
फिर वो एक पुरानी मधुर स्मृति के पन्ने पलटती हैं -
"गमों की आड़ में था मुस्कुराता / वो जालिम दर्द का मारा बहुत था
अभी तो कर रहा है बेवफाई / मगर उसने मुझे चाहा बहुत था
कसक अंजान सी दिल में छुपाए / वो बंजारा मुझे भाया बहुत था
मुसलसल तीरगी में जगमगाता / बकौले 'रोशनी' तारा बहुत थ"
अवनीश दिक्षित 'दिव्य' जो इस गोष्ठी का शानदार संचालन कर रहे थे ने अपनी रचनाओं से पहले तो इश्क-मुहब्बत का समां बांधा और फिर जमाने के विपर्यय पर ध्यान खींचा -
"उनको वो सब दीजिए जिनको जो दरकार / मुझको अपना प्यार ही दे दीजिए सरकार"
"जिसको खुद पे यक़ीन होता है / उसका होना हसीन होता है
अपनी हस्ती की जानकारी से / आदमी बेहतरीन होता है"
"मुहब्बत आशनाई भर नहीं है / हिसाब इक पाई पाई भर नहीं है
बहुत कुछ मिल गया है आदमी को / तबीयत मुस्कुराई भर नहीं है
मेरे भाई मेरी एक बात तू सुन ले / तू मेरा एक भाई भर नहीं है"
"चश्म तर हों, होठों पर भी हंसी छाई हो / ऐसे होता है मुलाकात को ज़िंदा रखना
एक राहू का गला कटवा दिया अमृत ने / जहर को आता था सुकरात को ज़िंदा रखना"
सतीश शुक्ला 'रक़ीब' की कशमकश अजीब है -
"बोल भी सकता नहीं है ठीक से जो / उसके अंदाजे-बयां पे बोलना है
खामुशी से ही 'रक़ीब' इस बज़्म में अब / अब ज़िंदगी की दास्तां पर बोलना है"
फिर वे ज़िंदगी जीने की कुछ नसीहतें देते हैं -
"जब कभी मिला करो / कुछ कहा करो, कुछ सुना करो
हुस्न की शिक़ायते / इश्क से किया करो
बांट कर किसी के ग़म / राह तय किया करो
कह के सोचना नहीं / सोचकर कहा करो
मुफ्त कुछ कर लो कभी / कीमतें दिया करो"
अंत में संतोष खंडेलवाल ने आए हुए साहित्यकारों का धन्यवाद ज्ञापन किया और अध्यक्ष की अनुमति से आशिकी और फिक्र से लबरेज़ एक शानदार कवि-गोष्ठी हमेशा के लिए सभी प्रतिभागियों की सुनहरी स्मृति में समा गई. यह एक ऐसी गोष्ठी साबित हुई जिसके बारे में पढ़कर हजारों लोग आनेवाले सालों में शायरी का भरपूर लुत्फ़ उठा पाएंगे.
..............रपट के लेखक - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्लॉग
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प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejdondia@gmail.com
नोट - प्रतिभागी अपनी अन्य पढ़ी गई और पंक्तियाँ इसमें जोड़ना चाहें या कोई सुधार करवाना चाहें तो उपर्युक्त ईमेल पर सम्पर्क कर सकते हैं.
आप सभी महानुभावों को नव वर्ष की हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामना ।
ReplyDeleteबहुत बढ़ियाँ संगोष्ठी एवं कविता पाठ । मधुर सवाल जवाब से लबरेज़ मधुर साल फिर एक आगे बढ़े ।
हार्दिक आभार मेरे संग इस प्रस्तुति को साझा करने हेतु 🙏🏻🙏🏻
सादर
विजय बाबू
बहुत बहुत धन्यवाद विजय जी। आपको भी नववर्ष की शुभकामनाएं!
Deleteएक से बढ़कर रचनाकारों से सजी एक यादगार महफ़िल।
ReplyDeleteसरहद-ए-उसूल पे हूँ रोज जंग लड़ता
ये अश्क मेरा खून से कमतर नहीं है
वाहः क्या कहने 👌 लाजवाब।
सराहना हेतु आभार महोदय.
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ReplyDeleteWe are urgently in need of Organs Donors, Kidney donors,Female Eggs
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