Friday, 24 January 2020

लेख्य मंजूषा की साहित्यिक गोष्ठी 19.1.2020 को पटना में सम्पन्न

तेरी मर्जी नहीं मेरी मर्जी पे है / मैं इधर जाऊंगा या उधर जाऊंगा

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मुक्तक छंद की वह विधा है जिसमें चार पंक्तियाँ होती हैं - पहली,दूसरी और चौथी एक ही तुकांत वाली और तीसरी अलग अंत वाली. मुकतक छंद और मुक्तछंद में कोई सम्बंध नहीं है. मुक्तक जहाँ पूरी तरह से छंद की शास्त्रीय बुनावट का पालन करता है वहाँ मुक्तछंद हर प्रकार के छंद-विधान से मुक्त होता है.  मुक्तक को सम,-सम-विषम-सम बनावट के तौर पर भी समझा जा सकता है. छंदशास्त्र और ग़ज़ल के शास्त्रीय विधानों के प्रकाण्ड ज्ञाता कवि घनश्याम ने ये बातें लेख्य मंजूषा की मुक्तक कार्यशाला के दौरान कही.  सभी प्रतिभागियों ने एक से बढ़कर एक कविताओं / गज़लों का पाठ किया किंतु मुक्तक छंद का वर्चस्व छाया रहा.

महिलाओं और पुरुषों की भरपूर भागीदारी वाली क्रियाशील साहित्यिक संस्था  "लेख्य मंजूषा, पटना" की मासिक गोष्ठी दिनांक 19.1.2020 को पटना के आर.ब्लॉक समीप स्थित इंस्टीच्यूट ऑफ इंजीनियर्स भवन में सम्पन्न हुई. इसमें मुक्तक कार्यशाला के अतिरिक्त कवि-गोष्ठी का भी आयोजन था.

इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थे देश के सुप्रसिद्ध लघुकथाकार डॉ. सतीशराज पुष्करणा और इसकी अध्यक्षता की विशुद्ध हिंदी में ग़ज़लें कहनेवाले जादूगर घनश्याम. विशिष्ट अतिथिद्वय में  देश के प्रसिद्ध रेखाचित्रकार और साहित्यकार सिद्धेश्वर एवं नाटक-समीक्षक, कवि एवं ब्लॉगर हेमन्त दास 'हिम' शामिल थे. कार्यक्रम का कुशल संचालन किया संगीता गोविल ने. इस कार्यक्रम की संयोजक थीं लेख्य मंजूषा की कार्यकारी अध्यक्ष रंजना सिंह.

मुख्य अतिथि डॉ. सतीशराज पुष्करणा यूँ तो लघुकथा के राष्ट्रीय महानायक माने जाते हैं. गोष्ठी के दौरान उन्होंने गृहिणियों, कामकाजी महिलाओं और पुरुषों को आपसी सामंजस्य बनाए रखने के अनेक व्यावहारिक नुस्खे दिये क्योंकि अनेक लघुकथाएँ इस समस्या पर लिखी गई हैं. उन्होंने कहा कि विचारों की अभिव्यक्ति की शैली न सिर्फ कागजों पर बल्कि घर-परिवार के अंदर भी मधुर, विनयशील और दूसरों को महत्व देनेवाली होनी चाहिए. 

फिर पुष्करणा जी को अपने विद्यार्थी जीवन का वह सुनहला दौर याद आ गया जब वो किसी की क़ुरबत की चाह लिए उसके दिए जहर को भी खुशी से पिये जा रहे थे-
जहर पे जहर हमको दिये जा रहे हैं / ये हम हैं कि उसको पिये जा रहे हैं
मिल न सकी कुरबत उनकी / दर्द ही उनका लिये जा रहे हैं
सी न सका गिरेबां किसी का / अपनी जबां ही सीये जा रहे हैं
देखी किसी ने ना उल्फत हमारी / इल्जाम ही हमको दिये जा रहे हैं
उनकी नजर का तेवर तो देखो / मर मर के हम जिये जा रहे हैं

अभिलाषा कुमारी खुद को जमीन और इष्ट को आसमान मानने से भी न हिचकी -
मानती हूँ मैं जमीं, तू आसमान जैसा है
पर यह अंतर, ठहर कर सोचना तो कैसा है ?
तुझ पर अर्पण हृदय की समस्त सरस भावना
दे सकती इसके सिवा क्या - प्रेम, पूजा, अर्चना

हेमन्त दास 'हिम' किसी बच्चे के कल के लिए अपने आज का हवन करते दिखे -
एक मासूम की छवि है और सन्नाटा
वह अंधेरे का रवि है और सन्नाटा
किसी का कल करने को देदीप्यमान
मेरे आज का हवि है और सन्नाटा

मीनू झा, पानीपत  (प्रेमलता सिंह द्वारा पढ़ा गया) नारियों पर बंधनों और हिज़ाबों से परेशान दिखीं-
चंद लम्हे पास रहने का अरमान है
गुजरे पलों में भरनी हमें उड़ान है
पर बंधनों में लिपटे ये तन-मन
हमें हिज़ाबों में जीने के फरमान हैं

राजेन्द्र पुरोहित (रब्बान अली द्वारा पढ़ा गया) ने समरसता के पुष्प पिरोकर माहौल को और अधिक सौहार्दपूर्ण बना दिया-
सत्य, अहिंसा और प्रेम के / बीज जगत में बोने होंगे
मन-मिटाव के दाग हमें फिर / प्रेम-सुधा से धोने होंगे
भारत रूपी इस उपवन से / चुनकर समरसता के पुष्प
मातृभूमि की जयमाला में / हमको आज पिरोने होंगे

कल्पना भट्ट, भोपाल (अन्य सदस्य द्वारा पढ़ा गया) ने सार छन्द की बानगी प्रस्तुत कर पर्यावरण प्रेम का जरूरी संदेश दिया -
छन्न पकैया, छन्न पकैया, सब को ये समझाना
पशु-पक्षी, पेड़-पौधों से प्यार सदा जतलाना
छन्न पकैया, छन्न पकैया, जीना चाहे मरना
नाना सदा यही कहते थे, प्यार सभी से करना

अंकिता कुलश्रेष्ठ (रजना सिंह द्वारा पढ़ा गया) भी कल्पना जी की तरह जानती हैं कि आधुनिक युग में अगर कोई मुद्दा है तो पर्यावरण बाकी सब राजनीति है. इसलिए उन्होंने भी तरु को ही नेह न्यौछावर करने का विवेकपूर्ण निर्णय लिया -
सुदृढ़, बलशाली बनकर भी /  क्यों मौन बने रहे तुम सदा
चोटिल तन, बिंधित तन लेकर / तुम तो मुस्काते रहे सदा
अपने कर्मों पर अडिग रहे / हे तरु, तव नेह!

अनीता मिश्रा" सिद्धि' (डॉ. रब्बान अली द्वारा पढ़ा गया) उम्र की ढलान पर खड़ी अपने इष्ट को प्रेम का आह्वाहन करती दिखीं-
देखो न! रेशमी काली लटों में / सफेद चाँदनी छा रही
कजरारे नयनों में / मोतियाबिंद की धुंध है
होठों की नर्म लाली / अब काली स्याह सी हो चली
ढलान पर खड़ी हूँ / बिखर रही हूँ
समेटो न / अपनी सुदृढ़ बाहों में

सिद्धेश्वर ने भगवान रूपी बच्चे का इंसान में बदलने की प्रक्रिया का कटु यथार्थ रखा -
बच्चे झूठे नहीं होते 
मगर पसंद होते हैं माँ बाप को झूठे बच्चे
उनसे कबूलवाते हैं झूठ 
भगवान से इंसान बनते-बनते 
सीख लेता है बच्चा सैकडों अपराध

पम्मी सिंह 'तृप्ति' (संगीता गोविल जी द्वारा पाठ) ने अपनी  कुंडलिया छंद के द्वारा जनसामान्य की उस मानसिकता पर प्रहार किया जिसमें सिर्फ चर्चित व्यक्ति की जान की परवाह की जाती है, दर्जनों मजदूरों की आपराधिक लापरवाही के कारण हुई अग्निकांड में मौत पर कोई जुलूस नहीं निकलता -

दीये मद्धिम पड़ रहे, कैसा समय विधान।
मज़दूरों की सांस थमी, सस्ती हुई अब जान।।
सस्ती हुई अब जान, च़राग तले अंधेरा।
फ़ैक्टरी की आग ने , श्रमिकों का चित्र उकेरा।।

अंत में गोष्ठी के अध्यक्ष घनश्याम ने अपनी मर्जी का झंडा लहरा दिया-
मुझको मरना ही होगा तो मर जाऊंगा / अपनी खुशबू तेरे नाम कर जाऊंगा
भूल कर भी नहीं यह भरम पालना / तू जो धमकाएगा तो मैं डर जाऊंगा
मुझको परदेस हरगिज सुहाता नहीं / अपना वभव संभालो मैं घर जाऊंगा
जिसकी मिट्टी से ही मेरा अस्तित्व है / एक दिन उसी में मैं बिखर जाऊंगा
तेरी मर्जी नहीं मेरी मर्जी पे है / मैं इधर जाऊंगा या उधर जाऊंगा.

इसके उपरांत धन्यवाद ज्ञापन और अध्यक्ष की अनुमति से सभा की समाप्ति की घोषणा की गई. बाहर चल रही राज्यव्यापी मानव श्रृंखला कार्यक्रम के कारण यह  विशिष्ट कार्यक्रम हालांंकि कम संख्या में साहित्यकारों की उपस्थिति के बीच सम्पन्न हुई लेकिन निश्चित रूप  से एक सफल, सार्थक और आवश्यक गोष्ठी साबित हुई . 
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रपट का आलेख - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र -  बेजोड़ इंडिया ब्लॉग
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com



































4 comments:

  1. श्रम साध्य कार्य के लिए हम आभारी हैं

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    1. हार्दिक धन्यवाद।

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  2. बहुत बढ़िया रपट। साधुवाद

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    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद।

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