Monday 3 February 2020

आईटीएम काव्योत्सव की कवि गोष्ठी 2.2.2020 को खारघर (नवी मुम्बई) में सम्पन्न

हम अपने वतन को गुलजार समझते हैं 

(हर 12 घंटों के बाद एक बार जरूर देख लीजिए- FB+  Bejod India)



कवि गोष्ठी के मध्य में एकबारगी तो लगा कि कहीं यह साहित्यिक रणक्षेत्र में न बदल जाए और अध्यक्ष को दखल देना पड़ा. लेकिन इसे कहते हैं रचनाधर्मिता कि गर्मागर्म बहस के बाद शीघ्र ही अध्यक्ष की बात मानते हुए सब शांतिपूर्वक बैठ गए सबकुछ पूर्ववत नजर आया मानों कुछ हुआ ही नहीं. इस साहित्यिक जज़्बे को सलाम! एक अन्य विशेष बात यह रही कि दो महत्वपूर्ण स्तम्भ विजय भटनागर (मुख्य संयोजक) और सेवा सदन प्रसाद (वरिष्ठ लघुकथाकार और कवि) अस्वस्थता होने के बावजूद कुछ समय के लिए कार्यक्रम में उपस्थित रहे और सब का हौसला बढ़ाया. काव्योत्सव की अध्यक्ष माधवी कपूर ने भी अपनी रचना का पाठ किया और श्रोताओं को प्रभावित किया.

"आईटीएम काव्योत्सव" की 106 वीं काव्य-संध्या दिनाँक 2.2.2020 को  खारघर (नवी मुम्बई) के सेक्टर 5 स्थित आईटीएम होस्टल में सम्पन्न हुई । कार्यक्रम की अध्यक्षता की डॉ चन्दन अधिकारी ने और विशिष्ट अतिथि थे  श्री सेवा सदन प्रसाद. कार्यक्रम का सुहृदयतापूर्वक संचालन किया विश्वम्भर दयाल तिवारी ने.

सबसे पहले सरस्वती वन्दना कवि अभिलाज के द्वारा प्रस्तुत हुआ फिर राष्ट्रगान भारत भूषण शारदा के नेतृत्व में ससम्मन हुआ.

प्रस्तुत की गई रचनाएँ विभिन्न विषयों पर थीं जिनकी झलक नीचे है-.

दिलीप ठक्कर ने अपनी ज़िंदगी को ग़म का फसाना कहा -
दुनिया ने मेरे ग़म का फसाना नहीं देखा
मेरी हँसी में लहजा पुराना नहीं देखा
जो कट गया आराम से ममता की छाँव में
दिन ऐसा ज़िंदगी में सुहाना नहीं देखा.

वहीं हास्य कवि समर काबिश 'जुगाड़' ने आज के गम्भीर परिवेश में भी सब को हँसा हँसाकर लोटपोट कर दिया-
यहाँ की ख़ाक में जब दफ्न हैं मेरे पुरखे
तो मेरे बाप का हिंदोस्तां नहीं है क्या?
गुम हुई सारी हसीनाएँ हिंदोस्तान से
एक अदद बीबी कोई दिला दे जापान से
अपने हाथों अपनी किस्मत फोड़ी थोड़ी जाती है
लाख लड़ाकन हो बेगम छोड़ी थोड़ी जाती है

हनीफ़ मोहम्मद ने अपना इरादा जाहिर करते हुए कहा कि वे अपने गुलजार वतन को ही अपना घर-बार समझते हैं -
वे खुद को मसीहा का सरदार समझते हैं
पर हम हैं वो जो उन्हें बीमार समझते हैं
हर रंगों-नस्लो-बू के रहते हैं लोग इसमें
हम अपने वतन को गुलजार समझते हैं
कहता है चले जाओ पर कैसे चले जाएँ
इस मुल्क को हम अपना घर-बार समझते हैं

नजर हयातपुरी अपनी आँखों अपनों की दुर्गत होते देखनेवालों को कहा -
वहशते दिल की न ऐसी कभी हालत देखी
बात बेबात पे बेचैन तबीयत देखी
जीते जी जिसने माँ बाप की रक्खी इज्जत
उसने दुनिया की अरसाई में जन्नत देखी
क्या कोई सानहा इससे भी बुरा होगा नजर
सामने आँखों के जब अपनों की दुर्गत देखी

चिरयुवा वरीय कवि विजय भटनागर  आज भी लकीर तलाश रहे हैं -
मिला तो दिया रब ने पर मिलन की लकीर नहीं बनाई
यारों से कहा रास्ता बताओ तो तदबीर नही बताई।
बार बार पूछती है मेरी हमदम कब बजेगी शहनाई
मुझे कहना पड़ता है कि मेरे हिस्से वो नहीं आई।

विश्वम्भर दयाल तिवारी अपने-आप में एक अनुभवों से उपजी सीख की खान हैं. इनकी एक-एक बातें शोधी हुई होती है -
सहनशक्ति साथ में रख
साथी अपने साथ चलता ।
तब सराहे त्याग जीवन
वाणी गुण अनुराग फलता ।
*देख लेना प्रेम से ही
नफरतें लाना नहीं ।
दिया है ईश्वर ने तन-मन
इसको भटकाना नहीं ।

फरबरी का महीना भले ही औरों के लिए वसन्त हो पर वेतनभोगियों के लिए तो बड़ा संकट का महीना होता है. एक तो साल भर का रहा-सहा टैक्स जोड़कर इकट्ठा देना पड़ता है ऊपर से बजट को लेकर उनका रक्तचाप बढ़ा रहता है. अनिल पुरबा ने इस दर्द को अपने तरीके से बयां किया -
इकतीस को मिली पगार, पहली को चुकाया उधार
दो को लेकर निकला थैला, मंहगाई देख चढ़ आया बुखार
सत्ताइस अट्ठाइस रो-धोकर जैसे तैसे दिन निकाले
फरबरी थी इसलिए बच गए वरना पड़ जाते फांकों से लाले

एक सच्चा शायर बंजारा और आशिकमिजाज दोनों होता है. कवि अभिलाज को देखिए -
घर नहीं ना घाट न कोई ठिकाना
काफिलों में मैं जिया जैसे बंजारा
जोर से झटको न तुम गीली ज़ुल्फें
गैर भी देखे कहाँ हमको गंवारा

हेमन्त दास 'हिम' ने फिरकापरस्तों पर धीरे से लगनेवाना जोर का झटका दिया -
चैन-ओ-अमन के साथ मुल्क ये खुशहाल हो
इतनी भली सी बात भी उनको है जंचती नहीं
वे भी कुछ बुरे नहीं और कुछ भले हैं आप भी
दूर की कुछ सोचिए बस फिरकापरस्ती नहीं.

ओम प्रकाश पाण्डेय ने ने लोगों को एकेश्वरवाद की याद दिलाई -
सब कह रहे ईश्वर एक है
हम सब उसकी ही सन्तान है
सब रास्ते वहीं को जाते
सब एक ही का अंश है
पर सब के सब कहते
श्रेष्ठ तो मेरा ही है

विमल तिवारी ने सुंदर प्रकृति वर्णन प्रस्तुत कर सबको मोहित कर दिया-
इतराई रही सरसों खेतन, मन में नवचेतन लावत है
हाँ मंद समीर बहे अंगना, ललना गोदिया हुलसावत है
रंग-विरंग  परिधान धरे, धरा प्रेम ध्वजा लहरावत है

त्रिलोचन सिंह अरोड़ा ने ज़िंदगी का पर्चा हल करने का अलग बिम्ब प्रस्तुत किया - 
तुम्हारे अपने आँसू ही तुम्हारी प्यास बुझाएंगे
तुम अपनी रुलाई पी सको तो चलो
हर मंज़िल कोई इम्तिहान लेती है
ज़िंदगी का पर्चा हल कर सको तो चलो

कृष्णा भटनागर  ने  ज़िंदगी का मजा लेने के मर्म को समझाया
खुद से कीजिए जनाब, तब तो जीने का मजा लीजिए
खुए से बातें किया कीजिए, तब तो जीने का मजा लीजिए

धर्म में गहरी आस्था रखनेवाले कवि भारत भूषण शारदा ने माँ सरस्वती से अपनी 'मनोकामना' की -
जग कणकण मे जीवन भर दे, मेरी  ह्रदय तंत्री की तान।
हँसता रहूँ सदा जीवन मे, दे जाऊँ जग को मुस्कान।
सेवा भाव भरें हों उर मे, सब में अपनापन मैं पाऊँ।
इस धरती के जीव मात्र का, सच्चा सेवक मैं बन जाऊँ।

चन्द्रिका व्यास ने चूड़ियों की खनखनाहट से परिचय कराया -
खनकती चूडि़यों की सरगम / भिन्न भिन्न धुनों से सजती है
कभी प्रियतम के प्यार से सजती / कभी मां की ममता से भर जाती !

अंत में इस गोष्ठी के अध्यक्ष चंदन अधिकारी ने माम-बाप के पुनर्जन्म पर अपनी एक सुंदर रचना का पाठ किया. फिर धन्यवाद ज्ञापन के साथ यह गोष्ठी समाप्त हुई.
 इसके उपरांत एक वरिष्ठ कवि श्री सत्येन्द्र प्रसाद श्रीवास्तव और श्रीमती उषा श्रीवास्तव के विवाह की 45वीं वर्षगांठ मनाई गई जिसमें उनके अनेक परिजन और उपस्थित कवि-कवयित्रियों ने अपनी रचनाएँ सुनाकर उन्हें बधाई दीं.

इस तरह से इस दिन का कार्यक्रम बीच में हुई थोड़ी साहित्यिक बहस के बावजूद विवेकशील सदस्यों द्वारा संभालते हुए सब की मिल्लत को और भी अधिक प्रगाढ़ करनेवाला साबित हुआ.

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रपट का आलेख - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्लॉग और अनिल पुरबा
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com
नोट - 1.बाद में और कुछ चित्र इसमें जोड़कर बेहतर चित्रावली बनाई जाएगी.
2. जिन प्रतिभागी की रचना या फोटो इस रपट में छूट गयाहै. ऊपर दिये गए ईमेल पर भेजिए.












































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