जिन करियो गलत गँठजोर सजनजी होरी में
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कवि भागवत शरण झा अपनी धर्मपत्नी के साथ |
लेकिन इन विकट कवियन से बच के रहियो होरी में"
चोरी करना हमारे सजग समाज और बहादुर देशवासियों की फितरत रही है. कोई संदूक में से जेवर चुराता है तो कोई दिल की चोरी करता है. कोई फाइल चुराता है तो कोई किसी की शायरी ही उसके फेसबुक वाल पर से उठाकर अपने वाल पर टांक लेता है एकदम अपने असली नाम से. पिछले सात दशकों में कई बार तो लोगों ने नेताओं पर देश को ही चुरा लेने का आरोप लगाया. अगर इसे पढ़नेवाले कोई नेता या उनके समर्थक हैं तो इत्मिनान रखिए मैं आपकी नहीं दूसरे खेमे के नेताओं की बात कर रहा हूँ. अरे भई होली है आज भर तो ब्रेक दे दीजिए. कल से मैं पक्ष-प्रतिपक्ष सारे नेताओं को दूध का धुला घोषित कर दूंगा.
अब परीक्षा में की गई चोरी के बहुत दिन बीत गए थे. सो फिर कसमसाहट होने लगी. होली के आते ही हालत बेकाबू हो गई और न जाने कितने मित्रों के वाल से फोटो और कितनों के वाल से कवितायें चुरा ली. आज अपनी उन्हीं चुराई हुई सामग्री की प्रदर्शनी लगा रहा हूँ शर्तिया अपने नाम से.
नहीं नहीं आजकल का ट्रेंड यह है कि दूसरों की उम्दा रचनाएँ अपने वाल पर लगा लीजिए लेकिन रचनाकार का नाम ही नहीं लिखिए ताकि लोग समझें कि वह आपकी है. और अगर कोई मौलिकता पर आपत्ति कर भी दे तो शान से जवाब दीजिए कि मैंने कहाँ लिखा है कि मेरी है. होगी आपकी ही - मे बी? बिल्कुल रिस्क फ्री तरीका है यह.
दोस्तो! होली का दिन था. मैंने सोचा कि बाकी दिन तो कोई मिलने का टाइम नहीं देते हैं ऑफिस की व्यस्तता का बहाना बना लेते हैं. आज कहाँ जाएंगे? आज तो घर पर एक-एक को पकड़ुंगा. और जम के लूंग़ा समय. छेड़ दूँगा कोई साहित्यिक चर्चा. नहीं तो एक बक्सा मुक्तछंद कविता किसलिए पड़ी है जिन्हें खुद भी देखने का मन नहीं होता.
कविताओं को झोली में भरकर जैसे ही आगे बढ़ा कि हमारे साहित्यिक गुरु और बड़े भाई सदृश श्री भागवतशरण झा 'अनिमेष' जी का घर आ गया. अब वो ठहरे हमारे भी गुरु तो जब तक मैं अपनी झोली में से कागज निकालता उनका गायन शुरू हो गया-
पूरब न जइयो जी पच्छिम न जइयो
उत्तर न जइयो जी दक्छिन न जइयो
थामे रहियो अँचरवा के कोर सजनजी होरी में
जिन करियो गलत गँठजोर सजनजी होरी में
गोरी निरखियो न काली निरखियो
साला निरखियो न साली निरखियो
मैं हूँ चन्दा और तू है चकोर सजनजी होरी में
जिन करियो गलत गँठजोर सजनजी होरी में
लिट्टी न खइयो समोसा न खइयो
इडली न खइयो जी डोसा न खइयो
खइयो मालपुआ गुझिया बेजोर सजनजी होरी में
जिन करियो गलत गँठजोर सजनजी होरी में
कोसी नहइयो न कमला नहइयो
गंगा नहइयो न जमुना नहइयो
प्रेम-रस से करूँगी सराबोर सजनजी होरी में
जिन करियो गलत गँठजोर सजनजी होरी में।
वे तो प्रेम रस में इतने सराबोर हो चुके थे कि मालपुआ का रस पाने को मेरा जी ललचाता ही रहा और मैं आगे की ओर बढ़ा तो मिले भाँग पीकर मनहरण घरानक्षरी वार्णिक छन्द की धुन रमाये खगड़िया के बादशाह और अंगिका के चमत्कारी कवि श्री कैलाश झा किंकर जी. अब वो भी ठहरे सीनियर आदमी. और हमारे देश में बड़े लोग बस बोलते ही जाते हैं. हम छोटों को बस सुनना पड़ता है. सो सुना-
संगिनी के संग छिकै , मोन फगुआय छै ।
हरा, लाल, पीला,रंग,गोरी के करै छै तंग
भांग पीने छै मतंग,रंग से नहाय' छै ।।
उड़ै सगरो गुलाल , होलै लाल मुँह-गाल
बूढ़ा-बूढ़ी भी बेहाल, खूब खिसिआय छै
भनई कैलाश कवि, होली खेलै खास कवि
ढूँढ़ै छी वसंती छवि ,जहाँ वें नुकाय छै ।
जैसे ही उनका गीत खत्म हुआ मैंने कुछ कहना चाहा पर उन्होंने बिना सुने सीधे सवाल दागा- मेरा बरतुहार (शादी के लिए रिश्ता का प्रस्ताव) लाये कि नहीं? मैं चकित! इस बेटे, पोते वाले को ये क्या सूझ रही है??
पर वो गाने लगे-
सब्भे ले' ऐलै बहार,अबकी होली मे ।
केना के' रहियै कुमार, अबकी होली मे ।।
रामू के' भेलै ब्याह श्यामू के' भेलै
हमरा ले' नै बरतुहार, अबकी होली मे ।
हमरा से' छोट-छोट के' कनियाँ बसै छै
ठोकै छी हम्मे कपार, अबकी होली मे ।
तीसो के पार भेलै हम्मर उमरिया
बाबूजी करहो विचार, अबकी होली मे ।
नौकरी नै भेलै ते' हम्मर की दोष छै
ट्यूशन से' तीस हजार, अबकी होली मे।
आगे बढ़ा तो मिले श्री अवधेश कुमार जी. गनीमत है कि उनकी उम्र मुझे मालूम ही नहीं थी सो मैंने यानी हेमन्त दास 'हिम' ने आव देखा न ताव और अपनी बेसिर पैर की कविता वाला गोला दाग दिया -
जंगल में गया तो रस्ता नहीं मिला
बच्चा घर लौटा तो बस्ता नहीं मिला
जो कोई भौजी से होली खेल आया
उस देवर का हाल कभी खस्ता नहीं मिला
कोई पिचकारी नहीं और मुँह में पान
कि लाल रंग इससे कोई सस्ता नहीं मिला?
सब ले जाते घर से पर घरनी के साथ
हाय! लुटेरों का ऐसा दस्ता नहीं मिला.
मेरी कविता सुनकर श्री अवधेश कुमार जी सकपका गए क्योंकि उनकी घरवाली पास ही में थी. उन्होंने कहा कि गुरु मेरा बड़ा डैमेज कर दिया तूने. खैर एक कविता है मेरे पास जो मरहम का काम करेगी. फिर उन्होंने अपनी घरवाली को सुनाई पड़े इतनी तेज आवाज में गाया-
रंग लेके आयी होली, अँखियों से मारे गोली
गोरियों की भींगे चोली, रंग की फुहार में
जिसका भी देखो गाल, रंग से रँगा है लाल
टोली में जवान बाल, पागल है प्यार में
गमक हवाएँ उठी, महक फिजाएँ उठी
दिल में वफ़ाएं उठी, बसंत बहार में
मन ने उड़ान भरी, आफत में जान पड़ी
सबने पहन लिए, बाहों को ही हार में.
कविता सुनाकर वो चले गए बाहों का हार डालने अपनी पत्नी को और मुझे चाय तक को न पूछा. मैंने कान पकड़ा कि अगली बार से किसी कविमित्र के घर पर होली के दिन नहीं जाऊँगा.
मन मसोसकर आगे बढ़ा तो बज्जिका नरेश और हिंदी के बेहतरीन कवि श्री हरिनारायण सिंह 'हरि' जी मिले. वो बड़े विनीत और शिष्ट किस्म के व्यक्ति निकले जो अनुज के समान मेरे जैसे को भी बैठने को कहा. इतना ही नहीं रंग भी लगाने दिया और दहीबड़ा भी दिया खाने को. जब खा पीकर मैं निकलने लगा तो बिगड़ गए. बोले कि तुम्हें इतनी भी समझ नहीं कि कवि के यहाँ आये हो तो कुछ सुना भी करो. मैंने कहा कि समझ तो है लेकिन कुछ और भी कविगण / कवयित्रियाँ बची हुई हैं सो....
इस पर वो आगबबूला हो उठे और बोले ठीक है जाओ लेकिन फिर कभी नहीं आना. मैंने स्थिति को समझा और उनसे कुछ कविता सुनाने का निवेदन किया. वो तो इसी इंतजार में थे ही सो फागुनी बयार बहाने लगे-
असर अहा! अब कर रहा, यह फागुनी बयार
पिया बसे परदेश में, मन चाहे अभिसार ।
तन-मन कशमकश कर रहा, होली का हुडदंग
काला दिखता दाल में, पिया हुए बेरंग ।
ननद ठिठोली कर रही , देवर बना लफार
रह-रह मन में आ रहा , प्रियतम! तेरा प्यार ।
फागुन बौराने लगा , मन में उठे हिलोर
क्या रोके रुक पायेगी . यह तृष्णा बरजोर ।
ठूँठों में कोंपल लगे , कोमल किसलय-गात
मंद - मंद सिहरन भरे , ये वसंत - सौगात ।
गेहूँ गदराने लगे , सरसों हुईं जवान
पुष्ट मटर की छीमियाँ, अरहर छेड़े तान ।
झंकृत अब होने लगे , मन - वीणा के तार
मन्मथ का इस फाग में, गहरा असर -अपार ।
मैं तो अपने प्राण - संग , खेलूँगी रे फाग
रंग - अबीर - गुलाल से हुआ अधिक अनुराग ।
फिर उन्होंने, अबीर, गुलाल का क्या कहें कीचड़ भी लगाने से परहेज नहीं किया. पता नहीं कैसी होली खेलते हैं यह सोचते हुए आगे बढ़ रहा था कि कवयित्री बहन मोहतरमा निखत आरा जी मिल गईं. एक ओर तो मुझे शर्म आ रही थी कि 'हरि' जी ने कीचड़ लगा के मुझे कहीं का नहीं छोड़ा था पर दूसरी ओर ये आश्वस्ति भी हुई कि कम-से-कम ये सम्भ्रांत महिला हैं तो मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. तो मैं उनके घर पर जाकर अपना हाथ-पैर धोया. फिर आराम से अल्पाहार लेते हुए उनकी कविता सुनने लगा जो उन्होंने होली के अवसर पर अपने शौहर को सम्बोधित करते हुए लिखी थी-
होली रे आई है सनम तोरे हुजरे में
खोल दो अपने नयन भोरे उजले में
सखियों संग करूं मिलाप बनके रंगीली
खेलूं मैं रंग और गुलाल तेरे रस्ते में
होली रे आई है सनम तोरे हुजरे में
आओ ना तुम भी सनम देखो रंग ओ समां
रूठो ना हमसे पिया है ये कैसी हया
आंखों में भर लो मुझे कि फूल मुस्काएं
छेड़ दो सारे तरंग कि फागुन है ये नया
होली रे आई है सनम तोरे हुजरे में
है ये कैसी अगन रोम झुलसाए
बयार बहती है जो हमसे टकराए
फागुन होके आया मोरे घर अगंना
है संदेश लाया हम तो शरमाए
होली रे आई है सनम तोरे हुजरे में
खुशी की आई है बेला रंग बरसेंगे
हैं जो अपनो से दूर वो खूब तरसेंगे
भर लो पिचकारी छोड़ दो रंग सारी
आज हम दोनो पिया फिर से निखरेंगे
होली रे आई है सनम तोरे हुजरे में.
मेरी आँखें भर आईं और यह जानकर आश्चर्य हुआ कि हमारे देश में त्यौहारों को अब भी एक धर्म से जोड़कर देखनेवाले लोग रहते हैं.
आगे बढ़ा तो एक आदरणीया दीदी और मिल गईं. ये थीं (श्रीमती / सुश्री) रानी श्रीवास्तव जी. हमेशा धीर गम्भीर बनी रहती हैं. होली के दिन भी इन्होंने एक गम्भीर किंतु अत्यंत भावपूर्ण रचना सुनाई और होली के दूसरे पहलू से परिचय करवाया-
हर ऋतु की देहरी पर बैठ
मैंने तुम्हारी राह देखी
आखों पर हाथ रखकर
हथेलियों पर दीप
साँसों पर विश्वास के साथ
बाट जोहा तुम्हारा
सूरज की तपिश में ठिठुरती रही
चाँदनी में शूलों से लिपटी
मन में अँखुआए प्यार को
आँसुओं से सींचा
मंदिर के आगे
भिखारन सी बैठी
रंगों के मौसम में
जोगन सी रोती
मगर तुम न आये
फिर भी मगर प्यार की डगर पर बैठी मैं
जानती हूँ मैं तुम अवश्य आओगे
तुम आओगे
गुलाबी ठंढ की सौगात लेकर
हरसिंगार का चंदोवा लेकर
आँखों में नीला समंदर लेकर
साँसों में पूरी दुनिया लेकर
तुम आओगे
आओगे बिल्कुल उसी तरह
जैसे आते हैं फूल और मौसम
..... गौरैये की बाहों में
तुम आओगे
आओगे तुम
फिर कभी ना जाने का
अनकहा अनुबंध लेकर.
इस मार्मिक रचना को सुनकर मैं कुछ देर स्तब्ध रहा फिर नमस्कार करते हुए आगे बढ़ा. आगे बढ़ा तो पाया कि एक युवक मेरी ओर बढ़ा आ रहा है तेजी से. मैंने सोचा कि आजकल जमाना ठीक नहीं है पता नहीं ये कहीं कुछ लूटने तो नहीं आ रहा है. फिर सोचा कि होली के दिन ये दस साल पुरानी कमीज और अंदर में फटी बनियान पहन के निकला हूँ ये लूट भी लेगा तो क्या है? वैसे ही इस देश में आजादी के बाद से ही.... ओके, नो पॉलिटिक्स!!
वह युवक पास आकर बोला मेरा नाम राकेश रंजन है. मैं चौंक सा गया. मैंने कहा कि भाई, कोई भी आकर बोलेगा कि मैं प्राइममिनिस्टर हूँ तो मैं मान लूँगा क्या ? अभी तुम बिल्कुल युवा लग रहे हो और श्री राकेश रंजन जी तो बहुत वरिष्ठ कवि हैं जिनके अनेक कविता संग्रह निकल चुके हैं और चर्चित हुए हैं. अंत में जब उस युवक ने अपना आईकार्ड दिखाया तो मानना पड़ा कि वही है राकेश रंजन.
मैंने अनुरोध किया कि कुछ अपनी पसंद की एक स्वरचित रचना सुनाइये. इस पर उन्होंने कहा कि आपने ऐसा कह के मुझे बाँध दिया क्योंकि अगर सुपरपावर कंट्री के राष्ट्रपति या आर्मी चीफ को भी अपनी पसंद की कविता सुनाने को कहा जाय तो उनमें इतनी हिम्मत न होगी कि वे अपनी पत्नी प्रशंसा के सिवा कुछ और सुनाने की जुर्रत करें. तो लीजिए सुनिए-
माधुरी के लिए
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आली, आ!
स्वर्णाभा से सजी हुई
मदिर गंध में बजी हुई
मंजरियों की डाली, आ!
फुलसुँघनी-सी हरी-हरी
विकल पुलक से भरी-भरी
ओ छलबल से खाली, आ!
मेरे मन की इकतारा
प्रानों की घन झनकारा
घर-बन की हरियाली, आ!
ओ रूठन की कोमल धाह
और लाज की बेसुध आह
प्रनय-छीर की छाली, आ!
घन अभाव की जनी हुई
दारिद उर में सनी हुई
बिपद-बिथा की पाली, आ!
कर में लेकर मंगल-दीप
और सहेजे जीवन-सीप
ओ मेरी घरवाली, आ!
अब मुझे लगा कि घर लौटना चाहिए क्योंकि वहाँ मेरा बेसब्री से इंतजार हो रहा होगा. होली तो बाद में भी खेल लेंगे पहले खुद को बचाएँ. और मैं विदा लेकर लौटा पड़ा.
होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
............
आलेख और संयोजन - हेमन्त दास 'हिम'
कविगण / कवयित्रियाँ (जिनकी रचनाएँ सम्मिलित हैं)- भागवतशरण झा 'अनिमेष', कैलाश झा किंकर, हेमन्त दास 'हिम, अवधेश कुमार, हरिनारायण सिंह 'हरि', निखत आरा, रानी श्रीवास्तव एवं राकेश रंजन.
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी- editorbejodindia@yahoo.com
नोट - 1. जो शामिल कवि / कवयित्री अपनी पसंद का चित्र देना चाहते हैं वो दिये गए ईमेल पर भेज दें.
2. सभी रचनाकारों और पाठकों से अनुरोध है कि वो इस ब्लॉग को कम्पूटर अथवा मोबाइल के डेस्कटॉप वर्शन पर खोलकर Follow बटन पर क्लिक करें फिर नारंगी रंग के बॉक्स दिखने पर उस पर भी क्लिक करें. बस आप बन गए मेम्बर और आप इस ब्लॉग पर अपनी रचना प्रकाशित करवा सकते हैं . कुछ पूछना हो तो दिये गए ईमेल आईडी पर सम्पर्क करें.
(चश्मा पहने हुए) कवि कैलाश झा किंकर
|
कवयित्री - निखत आरा (दायीं ओर) |
कवि राकेश रंजन अपनी पत्नी और बच्चे के साथ |
कवि हरिनारायण सिंंह 'हरि'
|
वाहः
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत अदायगी
बहुत बहुत आभार आपका आदरणीया.
Deleteवाह बेहद खूबसूरत संयोजन।
ReplyDeleteदिल से शुक्रगुजार हूँ आपका.
Deleteurgently in need of Kidney donors with the sum of $500,000.00,Email:healthc976@gmail.com
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