कश्मीर के इतिहास को वस्तुनिष्ठ तरीके से समझने की जरूरत
"कश्मीरनामा : इतिहास और समकाल" के लेखक अशोक कुमार पांडेय का व्याख्यान और उस पर चर्चा
"कश्मीरनामा : इतिहास और समकाल" के लेखक अशोक कुमार पांडेय का व्याख्यान और उस पर चर्चा
दिनांक 17 फरवरी 2019 को दोपहर दो बजे – पटना के माध्यमिक शिक्षक संघ भवन का सभागार आगत लेखकों, पाठकों एवं जिज्ञासु श्रोताओं से जीवंत हो रहा था। ‘दूसरा शनिवार’ के महत्वपूर्ण आयोजन में "कश्मीरनामा : इतिहास और समकाल" के लेखक अशोक कुमार पांडेय का व्याख्यान होना था। विषय था - "कश्मीर : कल, आज और कल"।
पटना एवं अन्य जगहों से आये श्रोताओं में कर्मेन्दु शिशिर, अवधेश प्रीत, जितेन्द्र कुमार, अनिल विभाकर, प्रभात कुमार, मुकेश प्रत्युष, अरुण सिंह, पुरुषोत्तम, प्रशांत विप्लवी, राजेश कमल, सुनील श्रीवास्तव, अभय कुमार शर्मा, नताशा, समता राय, रीतिका सिंह, मंजीत कुमार सिंह, श्रीधर करुणानिधि, विद्या भूषण, योगेश प्रताप शेखर, अरुण नारायण, प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा, नरेन्द्र कुमार, अस्मुरारी नंदन मिश्र, श्यामकिशोर प्रसाद, आदित्य कमल, अरविंद पासवान, रणविजय सिंह, मनोज कुमार, सत्येन्द्र कुमार, अरुण शीतांश, संजय कुमार कुंदन, शाहनवाज, उत्कर्ष, शशांक मुकुट शेखर, जफर इकबाल, धनंजय कुमार, उमेश कुमार राय, ध्रुव कुमार, रहमान, राकेश कुमार कश्यप, संतोष कुमार मनमोहन, केशव कौशिक, अमीर हमजा, संतोष झा, अरविंद कुमार, डॉ. बी. एन. विश्वकर्मा, मनजीत कुमार, संजीव, जयप्रकाश एवं अन्य कई लोग शामिल थे।
व्याख्यान और चर्चा के इस कार्यक्रम का संचालन किया लेखक अस्मुरारी नंदन मिश्र ने। कार्यक्रम की शुरुआत में पुलवामा एवं राजौरी हमले में शहीद हुए जवानों एवं साहित्यकार अर्चना वर्मा के निधन पर उनकी स्मृति में दो मिनट का मौन रखा गया। उसके पश्चात अस्मुरारी नंदन मिश्र ने लेखक अशोक कुमार पांडेय का परिचय देते हुए उनकी कृति ‘कश्मीरनामा’ की विशेषताओं पर बात की। उन्होंने कहा कि यह एक संग्रहणीय किताब है जिसमें मिथकों से समकालीन इतिहास तक की यात्रा है। उसके पश्चात उन्होंने अशोक कुमार पांडेय को व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया।
अशोक कुमार पांडेय ने अपनी बात युसुफशाह चक से शुरू की जिसकी कब्र देखने वे नालन्दा जिले के बेशवक गाँव गये थे। उन्होंने कहा कि वह चक साम्राज्य का आखिरी स्वतंत्र राजा था तथा दिल्ली बुलाकर उसे अकबर ने गिरफ्तार करा लिया। यह दिल्ली द्वारा कश्मीर को दिया गया पहला धोखा था। उन्होंने कहा कि कश्मीर दक्षिणी एशिया का ऐसा पूरा भूभाग है जिसका इतिहास लिखित है। इसके उद्भव को बताती तीन मिथकीय कथायें हैं - हिन्दू, बौद्ध एवं इस्लाम के दृष्टिकोण से। हमें इतिहास पढ़ते हुए सावधान रहना चाहिए क्योंकि जो सत्ता में होता है वह ऐसा आख्यान लिखाना चाहता है जो उसके लिये अनुकूल हो। कश्मीर को लेकर अबतक जितने भी इतिहास लेखन हुए हैं, उनका मुख्य आधार धर्म को बनाया गया है। जाहिर है हिन्दू और मुसलमान के आधार पर विभाजित कर लिखे गए इस इतिहास लेखन में वहाँ के समाज की सामूहिक स्मृतियाँ गायब रहीं हैं। मेरा कहना यह है कि कश्मीर पर जो भी इतिहास पढ़े उस लेखक की अवस्थिति (लोकेशन) को जरुर ध्यान रखें, तभी आप वस्तुनिष्ठ तरीके से अपनी समझ विकसित कर पाएँगे।
उन्होंने आगे कहा कि कश्मीर का शुरुआती 400-500 साल का इतिहास उतना विश्वसनीय नहीं है। कल्हण ने इसकी शुरुआत की जो कल्पना और समझ से भरा था। आप अभिनवगुप्त को जाने बिना कश्मीर के इतिहास को नहीं समझ सकते। राजतरंगिणी के रचयिता कल्हण के पिता हर्ष के राज्य में ऊँचे पद पर थे, इस कारण अवस्थिति (लोकेशन) वहाँ भी मायने रखती है। राजतरंगिणी कश्मीर के कुलीन (एलीट) समाज का इतिहास है। कश्मीर को जानने के लिए वहाँ के भूगोल को समझना भी जरूरी है।
उन्होंने हिन्दू, बौद्ध एवं इस्लाम धर्मों एवं उनके संरक्षक राजाओं द्वारा बनते-बिगड़ते कश्मीर पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने चक साम्राज्य के पतन की चर्चा करते हुए कहा कि मुस्लिम सामंतों ने कश्मीरी पंडितों पर भरोसा किया क्योंकि सत्ता में उनका स्टेक (दाँव) नहीं था। इस प्रकार राजस्व व्यवस्था कश्मीरी पंडितों के हाथ में जाना शुरू हो गया । कश्मीरी ब्राह्मण समाज का सारा जोर नौकरी पर होता है तथा इसके लिए वे देशी रजवाड़ों में जाते रहते हैं। श्रीनगर में अंग्रेजों के हस्तक्षेप के समय शासन की भाषा फ़ारसी की जगह उर्दू कर दी जाती है जो फ़ारसी के जानकार कश्मीरी पंडितों को मंजूर नहीं होता है। वे पंजाब, उत्तरप्रदेश, बंगाल से लाये गये लोगों के विरुद्ध ग़ैरमुल्की आंदोलन चलाते हैं, पर मुसलमान इसमें शामिल नहीं थे। फिर नागरिकता कानून बनता है जिसमें नौकरी एवं जमीन खरीदने की सहूलियत लोकल लोगों को दी जाती है। शिक्षा का विस्तार होता जा रहा था पर राज्य जनता की आकांक्षा पूरी करने में सक्षम नहीं होती है। फिर साम्प्रदायिक विभाजन होने लगता है। सूफी संस्कृति टूटने लगती है और कट्टर इस्लामिक परंपरा जन्म लेती है। वहाँ ‘नियंत्रित प्रजातंत्र’ चलता है तथा केंद्र समर्थित पक्ष जीतता रहता है। इस कारण विपक्ष का लोकतंत्र से विश्वास उठता चला जाता है। नब्बे के दशक के बाद स्थिति उलझती चली जाती है। अटल बिहारी वाजपेयी के काल में सकारात्मक पहल होती है और दोनों पक्षों में बात शुरू होती है, पर यह अपना आकार नहीं ले पाती है।
उन्होंने अंत में कहा कि भरोसा बंदूकों से नहीं बातचीत से ही स्थापित होता है। अगर कर पाये तो आगे बात बनेगी, नहीं तो ??
पूरे व्याख्यान में श्री पांडेय ने विस्तारपूर्वक कश्मीर के अतीत, वर्तमान और आनेवाले कल के बारे में बतलाया। उन्होंने उपस्थित श्रोताओं के प्रश्नों के जवाब भी दिये। श्रोताओं में योगेश प्रताप शेखर, धनञ्जय कुमार, अरविंद पासवान, अरुण सिंह ने अपनी जिज्ञासाएं रखीं।
व्याख्यान पर बात करते हुए कर्मेंदु शिशिर ने कहा कि श्री पांडेय ने कश्मीर के बारे में प्रचलित लीक से हटकर काम किया है। हिंदी में लोग इस तरह का काम कर रहे हैं। ज्यादातर इतिहासकार की दृष्टि डॉक्टर की तरह होती है। साहित्यकार ऐसा नहीं करता। वह जब इतिहास की साहित्य के नजरिये से देखता है तो इतिहासकार का कद बहुत छोटा हो जाता है। कश्मीरनामा को पाठ सुख के लिए भी पढ़ना चाहिए।
आरा से आये जितेंद्र कुमार ने कहा कि कश्मीर के समकाल की अपनी अलग व्याख्या के लिए यह किताब चर्चित रही है। उन्होंने कहा कि कश्मीरनामा के लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने कश्मीर के दो हजार वर्षों के इतिहास और संस्कृति को बहुत संतुलित और वस्तुनिष्ठ ढंग से पटना के प्रबुद्ध श्रोताओं के सामने रखा।”
कथाकार अवधेश प्रीत का कहना था कि कश्मीर को आंकड़ों और उद्धरणों वाले नज़रिये से जानने की बजाय लोक, समाज, स्मृतियों और इतिवृत को समय, संवेदना और मनुष्यता की कसौटी पर देखने का प्रयास सराहनीय है। अशोक कुमार पांडेय ने कई धुंध साफ की, कई भ्रम निष्प्रभावी किये।
लेखक मुकेश प्रत्युष का कहना था कि वाकई यह एक सार्थक आयोजन था। ऐसे आयोजनों की जरूरत बहुत शिद्दत से महसूस की जा रही थी।
विमर्श के इस गहन दौर के लंबा खिंच जाने के कारण सामूहिक काव्य-पाठ का द्वितीय सत्र नहीं करवाया जा सका। अंत में ‘दूसरा शनिवार’ की तरफ से धन्यवाद ज्ञापन प्रत्यूष चन्द्र मिश्र के द्वारा किया गया।
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आलेख - नरेन्द्र कुमार
लेखक का ईमेल आईडी - narendrapatna@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
पटना एवं अन्य जगहों से आये श्रोताओं में कर्मेन्दु शिशिर, अवधेश प्रीत, जितेन्द्र कुमार, अनिल विभाकर, प्रभात कुमार, मुकेश प्रत्युष, अरुण सिंह, पुरुषोत्तम, प्रशांत विप्लवी, राजेश कमल, सुनील श्रीवास्तव, अभय कुमार शर्मा, नताशा, समता राय, रीतिका सिंह, मंजीत कुमार सिंह, श्रीधर करुणानिधि, विद्या भूषण, योगेश प्रताप शेखर, अरुण नारायण, प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा, नरेन्द्र कुमार, अस्मुरारी नंदन मिश्र, श्यामकिशोर प्रसाद, आदित्य कमल, अरविंद पासवान, रणविजय सिंह, मनोज कुमार, सत्येन्द्र कुमार, अरुण शीतांश, संजय कुमार कुंदन, शाहनवाज, उत्कर्ष, शशांक मुकुट शेखर, जफर इकबाल, धनंजय कुमार, उमेश कुमार राय, ध्रुव कुमार, रहमान, राकेश कुमार कश्यप, संतोष कुमार मनमोहन, केशव कौशिक, अमीर हमजा, संतोष झा, अरविंद कुमार, डॉ. बी. एन. विश्वकर्मा, मनजीत कुमार, संजीव, जयप्रकाश एवं अन्य कई लोग शामिल थे।
व्याख्यान और चर्चा के इस कार्यक्रम का संचालन किया लेखक अस्मुरारी नंदन मिश्र ने। कार्यक्रम की शुरुआत में पुलवामा एवं राजौरी हमले में शहीद हुए जवानों एवं साहित्यकार अर्चना वर्मा के निधन पर उनकी स्मृति में दो मिनट का मौन रखा गया। उसके पश्चात अस्मुरारी नंदन मिश्र ने लेखक अशोक कुमार पांडेय का परिचय देते हुए उनकी कृति ‘कश्मीरनामा’ की विशेषताओं पर बात की। उन्होंने कहा कि यह एक संग्रहणीय किताब है जिसमें मिथकों से समकालीन इतिहास तक की यात्रा है। उसके पश्चात उन्होंने अशोक कुमार पांडेय को व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया।
अशोक कुमार पांडेय ने अपनी बात युसुफशाह चक से शुरू की जिसकी कब्र देखने वे नालन्दा जिले के बेशवक गाँव गये थे। उन्होंने कहा कि वह चक साम्राज्य का आखिरी स्वतंत्र राजा था तथा दिल्ली बुलाकर उसे अकबर ने गिरफ्तार करा लिया। यह दिल्ली द्वारा कश्मीर को दिया गया पहला धोखा था। उन्होंने कहा कि कश्मीर दक्षिणी एशिया का ऐसा पूरा भूभाग है जिसका इतिहास लिखित है। इसके उद्भव को बताती तीन मिथकीय कथायें हैं - हिन्दू, बौद्ध एवं इस्लाम के दृष्टिकोण से। हमें इतिहास पढ़ते हुए सावधान रहना चाहिए क्योंकि जो सत्ता में होता है वह ऐसा आख्यान लिखाना चाहता है जो उसके लिये अनुकूल हो। कश्मीर को लेकर अबतक जितने भी इतिहास लेखन हुए हैं, उनका मुख्य आधार धर्म को बनाया गया है। जाहिर है हिन्दू और मुसलमान के आधार पर विभाजित कर लिखे गए इस इतिहास लेखन में वहाँ के समाज की सामूहिक स्मृतियाँ गायब रहीं हैं। मेरा कहना यह है कि कश्मीर पर जो भी इतिहास पढ़े उस लेखक की अवस्थिति (लोकेशन) को जरुर ध्यान रखें, तभी आप वस्तुनिष्ठ तरीके से अपनी समझ विकसित कर पाएँगे।
उन्होंने आगे कहा कि कश्मीर का शुरुआती 400-500 साल का इतिहास उतना विश्वसनीय नहीं है। कल्हण ने इसकी शुरुआत की जो कल्पना और समझ से भरा था। आप अभिनवगुप्त को जाने बिना कश्मीर के इतिहास को नहीं समझ सकते। राजतरंगिणी के रचयिता कल्हण के पिता हर्ष के राज्य में ऊँचे पद पर थे, इस कारण अवस्थिति (लोकेशन) वहाँ भी मायने रखती है। राजतरंगिणी कश्मीर के कुलीन (एलीट) समाज का इतिहास है। कश्मीर को जानने के लिए वहाँ के भूगोल को समझना भी जरूरी है।
उन्होंने हिन्दू, बौद्ध एवं इस्लाम धर्मों एवं उनके संरक्षक राजाओं द्वारा बनते-बिगड़ते कश्मीर पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने चक साम्राज्य के पतन की चर्चा करते हुए कहा कि मुस्लिम सामंतों ने कश्मीरी पंडितों पर भरोसा किया क्योंकि सत्ता में उनका स्टेक (दाँव) नहीं था। इस प्रकार राजस्व व्यवस्था कश्मीरी पंडितों के हाथ में जाना शुरू हो गया । कश्मीरी ब्राह्मण समाज का सारा जोर नौकरी पर होता है तथा इसके लिए वे देशी रजवाड़ों में जाते रहते हैं। श्रीनगर में अंग्रेजों के हस्तक्षेप के समय शासन की भाषा फ़ारसी की जगह उर्दू कर दी जाती है जो फ़ारसी के जानकार कश्मीरी पंडितों को मंजूर नहीं होता है। वे पंजाब, उत्तरप्रदेश, बंगाल से लाये गये लोगों के विरुद्ध ग़ैरमुल्की आंदोलन चलाते हैं, पर मुसलमान इसमें शामिल नहीं थे। फिर नागरिकता कानून बनता है जिसमें नौकरी एवं जमीन खरीदने की सहूलियत लोकल लोगों को दी जाती है। शिक्षा का विस्तार होता जा रहा था पर राज्य जनता की आकांक्षा पूरी करने में सक्षम नहीं होती है। फिर साम्प्रदायिक विभाजन होने लगता है। सूफी संस्कृति टूटने लगती है और कट्टर इस्लामिक परंपरा जन्म लेती है। वहाँ ‘नियंत्रित प्रजातंत्र’ चलता है तथा केंद्र समर्थित पक्ष जीतता रहता है। इस कारण विपक्ष का लोकतंत्र से विश्वास उठता चला जाता है। नब्बे के दशक के बाद स्थिति उलझती चली जाती है। अटल बिहारी वाजपेयी के काल में सकारात्मक पहल होती है और दोनों पक्षों में बात शुरू होती है, पर यह अपना आकार नहीं ले पाती है।
उन्होंने अंत में कहा कि भरोसा बंदूकों से नहीं बातचीत से ही स्थापित होता है। अगर कर पाये तो आगे बात बनेगी, नहीं तो ??
पूरे व्याख्यान में श्री पांडेय ने विस्तारपूर्वक कश्मीर के अतीत, वर्तमान और आनेवाले कल के बारे में बतलाया। उन्होंने उपस्थित श्रोताओं के प्रश्नों के जवाब भी दिये। श्रोताओं में योगेश प्रताप शेखर, धनञ्जय कुमार, अरविंद पासवान, अरुण सिंह ने अपनी जिज्ञासाएं रखीं।
व्याख्यान पर बात करते हुए कर्मेंदु शिशिर ने कहा कि श्री पांडेय ने कश्मीर के बारे में प्रचलित लीक से हटकर काम किया है। हिंदी में लोग इस तरह का काम कर रहे हैं। ज्यादातर इतिहासकार की दृष्टि डॉक्टर की तरह होती है। साहित्यकार ऐसा नहीं करता। वह जब इतिहास की साहित्य के नजरिये से देखता है तो इतिहासकार का कद बहुत छोटा हो जाता है। कश्मीरनामा को पाठ सुख के लिए भी पढ़ना चाहिए।
आरा से आये जितेंद्र कुमार ने कहा कि कश्मीर के समकाल की अपनी अलग व्याख्या के लिए यह किताब चर्चित रही है। उन्होंने कहा कि कश्मीरनामा के लेखक अशोक कुमार पाण्डेय ने कश्मीर के दो हजार वर्षों के इतिहास और संस्कृति को बहुत संतुलित और वस्तुनिष्ठ ढंग से पटना के प्रबुद्ध श्रोताओं के सामने रखा।”
कथाकार अवधेश प्रीत का कहना था कि कश्मीर को आंकड़ों और उद्धरणों वाले नज़रिये से जानने की बजाय लोक, समाज, स्मृतियों और इतिवृत को समय, संवेदना और मनुष्यता की कसौटी पर देखने का प्रयास सराहनीय है। अशोक कुमार पांडेय ने कई धुंध साफ की, कई भ्रम निष्प्रभावी किये।
लेखक मुकेश प्रत्युष का कहना था कि वाकई यह एक सार्थक आयोजन था। ऐसे आयोजनों की जरूरत बहुत शिद्दत से महसूस की जा रही थी।
विमर्श के इस गहन दौर के लंबा खिंच जाने के कारण सामूहिक काव्य-पाठ का द्वितीय सत्र नहीं करवाया जा सका। अंत में ‘दूसरा शनिवार’ की तरफ से धन्यवाद ज्ञापन प्रत्यूष चन्द्र मिश्र के द्वारा किया गया।
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आलेख - नरेन्द्र कुमार
लेखक का ईमेल आईडी - narendrapatna@gmail.com
लेखक का लिंक - http://aksharchhaya.blogspot.com/
छायाचित्र - दूसरा शनिवार प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@yahoo.com
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