Monday, 2 September 2019

आईटीएम, काव्योत्सव की 101वीं गोष्ठी, 1.9.2019 को खारघर (नवी मुम्बई) में सम्पन्न

इश्क की जुदाई में दूरियां नहीं होतीं  

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"खुद की पहचान बनाये रखिये
खुद को इंसान बनाये रखिये"
इन पंक्तियों  के साथ गोष्ठी के संचालंक  विश्वम्भर दयाल तिवारी ने आगाज किया आईटीएम काव्योत्सव की 101वीं गोष्ठी का जो आईटीएम, नवी मुम्बई के कमरा नम्बर 3 में संपन्न हुआ. गोष्ठी की अध्यक्षता महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त रमेश यादव ने एवं संचालन विश्वम्भर दयाल तिवारी ने किया. गोष्ठी में तीन दर्जन से अधिक कवि-कवयित्रियों एवं शायरों ने अपनी चुनिंदा रचनाएँ सुनाकर उपस्थित श्रोतासमूह को मंत्रमुग्ध कर दिया.

काव्यपाठ के पूर्व वंदना श्रीवास्तव ने मधुर कंठ से सरस्वती वंदना की और फिर उपस्थित जनसमूह ने अनिल पूर्वा के संग ससम्मान  राष्ट्रगान किया. 

सबसे पहले हेमन्त दास 'हिम' ने अपने जीवन-मार्ग पर आगे बढ़ने का सबब कुछ यूँ बताया -
राही के चलने को बस ये सबब काफी है
कुछ और नई सी चुभन, कुछ तल्खियाँ बाकी है
घोड़ा थका, पहिये घिसे और कोचवान भी चूर है
मंजिल मिलेगी - सोच उसने, फिर से गाड़ी हाँकी है

उनके पश्चात जानकी जोशी ने हवाओं को कुछ हिदायतें दे डाली -
हवाएँ, इतनी तेज न बहो
कि दरख्तों के सिर झुक जायें
दरख्त झूमते हुए ही अच्छे लगते हैं

डॉ. सतीश शुक्ल एक खुशनुमा अहसास करते दिखे -
एक खुशनुमा अहसास है
लगता है कोई तो पास है

रामेश्वर प्रसाद गुप्ता मुलाकात करते हुए दिखाई दिये -
यूँ मुलाकात हो गई /चंद घड़ियाँ मिल गई
जैसे सौगात मिल गई

विजय कांत द्विवेदी सेवानिवृत होनेवालों को समझाया -
यदि रवि अवसान समीप है  / नहीं अवसाद, अकर्मण्यता पालो
जीवन संध्या को सुगंधमय तुम कलाम सा महका लो

ओम प्रकाश पाण्डेय ने आर्थिक विषमता का सवाल उछाला -
सड़ता अन्न यहाँ गोदामों में / भूखे फिर भी यहाँ करोड़ो
क्या कोई ईश्वर है इनका / क्या ये भी संतान उसी के हैं

प्रमीला शर्मा ने खुद के चले जाने की स्थिति को कुछ यूँ बयाँ किया -
दरो-दीवार और दरीचोएं में / कुशन, तकियों और गलीचों में
तुम मुझे ढूँढोगे इन दीवानों में / घर की छोटी से छोटी चीजों में

त्रिलोचन सिंह अरोड़ा ने ज़िंदगी से कुछ सवालात रखे -
मेरे आँगन के फूल कहाँ हैं ज़िंदगी पूछो तो काँटे चुभोती है ज़िंदगी
जिस्म का मोलतोल बाजार है जिंदगी / हालात के जख्मों का हिसाब है ज़िंदगी

डॉ. चंदन अधिकारी ने गणेश चतुर्थी के एक दिन पहले गणेश वंदना प्रस्तुत की -

डॉ. हरिदत्त गौतम ने  वर्षा ऋतु की  महिमा का बखान किया -
वसुधा सुधापान कर झूमी / सुन्दर साड़ी धानी में
कैसा जादू भरा पड़ा है / वर्षा तेरे पानी में

कॉलेज की एक युवा छात्रा ने अपनी  कविता अंग्रेजी में सुनाई जिसका शीर्षक था "Ode of gratitude" -
That the time you realise 
That the pain can be beautiful

अभिलाज ने प्रेमरस में डूबी अपनी कविता सुनाई -
मिले हो तुम मिला है मुझे ये जहां
फकत धरती नहीं पा गया आसमां

चन्द्रिका व्यास ने पुरस्कारों और सम्मानों की हकीकत को उघाड़ा -
बिकता था पहले भी कवि
राज्य का बन के रवि

वंदना श्रीवास्तव ने अपने सुरीले कंठ से सस्वर पाठ करते हुए एक गंभीर ग़ज़ल को गाया -
पेट भरते ही नहीं इन्हें मुल्क को खाकर भी / अन्नदाता को यहाँ भूख से मरते देखा
हर तरफ दंगे हैं साजिश है और जंग छिड़ी / अब तो अखबार से भी खून निकलते देखा

दीपाली सक्सेना ने एक हास्य कविता सुनाई -
मेरे घर में हरदम मेरे संग
एक छोटा बच्चा रहता है

डॉ. रामप्रकाश विश्वकर्मा ने आध्यात्मिकता से जुडी एक कविता सुनाई -
ज्ञान और विज्ञान एक है / लगन एक है दोनों की
राहें थोड़ी अलग अलग पर / मंजिल एक है दोनों की

अनिल पूर्वा ने बेवफाई का शिकवा करना छोड़ दिया, क्यों सुनिए -
तुम्हारी बेवफाई का कोई / शिकवा नहीं करेंगे हम
अपने हिस्से की थोड़ी / बेवफाई मुझे भी कर लेने दो

सेवा सदन प्रसाद ने हाशिये पर के लोगों की बातें बड़े सलीके से रखीं -
फिर हुई तुम्हारी चर्चा / वादों में, संवादों में
इन्साफ के इरादों में / संविदान के कायदों में / दम तोडती फाइलों में
मगर वहाँ तुम नहीं थी

मीनू मदान ने खुले नयनों से सपने देखने को कहा -
बन्धु देख तो किस्मत का ये सिक्का उछाल के
देख खुले नयनों में फिर से सपना पाल के

जे पी सहारनपुरी ने खुद को फिर से बर्बाद किया -
इक बार खुद को फिर से बर्बाद करते हैं
चलो आज फिर से उनको याद करते हैं

इरफान हुनर ने दिलों में पड़े दरारों की और इशारा किया -
आज दिल में दरारे पड़ीं इस कदर / घर में दीवार और इक खड़ी हो गई
भाई भाई में तकरार है आजकल / दोस्तों अब सियासत बड़ी हो गई

नजर हयात ने अपनी ग़ज़ल में आज के सामाजिक हालात को बड़ी ही संजीदगी से रखा -
दरम्यान उल्फत के तल्खियां नहीं होतीं  / इश्क की जुदाई में दूरियां नहीं होतीं
रहमते खुदा उसके घर से रूठ जाती है / जिसके घर में बेटों की बेटियाँ नहीं होतीं
बुलबुलों न जाओ तुम छोड़कर चमन अपना / कौन से इलाके में आंधियां नहीं होतीं

दिलीप ठक्कर ने मुसीबतों से गुजरते हुए ये कहा -
मुसीबत से जब जब गुजरता है इंसां
इन्हीं हादसों से गुजरता है इंसां

भटकर ने बूढों में पनप रही बालपन की इच्छा का हास्यमय रहस्योद्घाटन किया -
हम भी अगर बच्चे होते ...

फिर 'धड़कन' ने आंधियों से अपने चिराग को खतरा न होने की बात कही -
बुझा न पाओगे ऐ आधियाँ चिराग मेरा
मैं खुद में जाने कई आफताब रखता हूँ

सिराज गौरी ने जालिम के दरबार का दृश्य दिखाया -
जालिम का खुला है क्यूं दरबार खुदा जाने  / फिर कौन है फांसी का हकदार खुदा जाने
हर शख्स कहता है जब अम्न है बस्ती में / क्यूं गर्म है लाशों का बाजार खुदा जाने

फिर विश्वम्भर दयाल तिवारी ने अपनी एक सुंदर रचना पढ़ी.

अंत में इस गोष्ठी के अध्यक्ष रमेश यादव ने सभी कवि-कवयित्रियों को सम्बोधित करते हुए सरकार से हिंदी को  राष्ट्रभाषा घोषित कर देने की माँग की.  उन्होंने साहित्यसेवा को पेशा से जोड़ना  तो उचित नहीं बताया लेकिन उसे इस योग्य बनाना जरूर आवश्यक बताया कि वह रोजी रोटी जुटा सके. एक पूर्णकालिक साहित्यकार को अपना जीवन गुजारने के लिए कोई और रोजगार न ढूंढना पड़े. श्री यादव ने एक श्रृंगार रस की मराठी लावणी का हिंदी अनुवाद भी सुनाया -
पक गया पत्ता जी
देख अभी, हरा!

अंत में विजय भटनागर ने आये हुए सभी रचनाकारों का धन्यवाद ज्ञापन किया और इस प्रकार एक सौहार्दपूर्ण माहौल में इस गोष्ठी का समापन हुआ.
......

आलेख - हेमन्त दास 'हिम'
छायाचित्र - बेजोड़ इंडिया ब्लॉग
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@yahoo.com
नोट - जिन कवि-कवयित्रियों की पंक्तियाँ या चित्र इस रपट में सम्मिलित नहीं हैं कृपया ऊपर दिये गए ईमेल पर भेजें.






































3 comments:

  1. हेमन्त जी आपने इतनी विस्तृत और स्पष्ट रिपोर्ट बनाई है
    विजय भटनागर इसलिए दिल से देता बधाई है।
    (-श्री विजय भटनागर जी से प्राप्त सन्देश)

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