The place described here in this poem is the old Shantaram studio that belonged to the veteran film Director V Shantaram. It now houses The film and Television institute of India. It is in Pune near Mumbai. In this poem I try to recall what I saw there and remember the friend who walked with me that day but who is now no more.
Whose roots heaved up as if to mark their territories
The undergrowth was not so dense, but teemed with bees
Butterflies, larva balls and such small species!
At dusk and dawn, the place exploded as all birds
Cawed and cooed and chirped full-throat in plaints and fights
Their calls merged in a single boom that drowned all else
Their urgent clamour to settle down, heralding the nights!
It was once a place where people weaved gossamer dreams
Of songs and dances, pure emotions and villainous schemes
In celluloid, the maestro and his doe-eyed muse
With their ideals of art and craft they shot amorous themes!
The rainbow lent their colours and the deer its prance
The breeze caressed the harp that was but half in trance!
And so, therein, years ago, a lithe danseuse
Lived the dream, forgetting her own self perchance!
At every hedge and winding lane, their floating scent
Came up like, from down the sea a sudden crescent!
My friend and I walked on through the brambles dense
In silence, as though talking there was an offence
The birds had now brought down their calls; they’d made a truce!
The clouds profuse, in the west, were now abstruse!
Every niche stood up still for a special use
Director though there now was none to call the cues!
The dusk was dusting grey on the eastern clouds
The day was closing curtains at the western roads
A pond with lilies, a little one, was the last surprise!
I bent down to look and ah, I met those pair of eyes!
A grand old toad he was and really huge in size!
Waiting for a damsel to kiss him into a knight?
And so he sat like a mound of clay, mottled and round
Like a hoary sage, waiting, not time-bound!
.....
(Hindi translation of the poem is presented below)
इस कविता में यहाँ वर्णित जगह पुराने शांताराम स्टूडियो की है जो दिग्गज फिल्म निर्देशक वी शांताराम का था. अब इसमें भारत का फिल्म और टेलीविजन संस्थान है। यह मुंबई के पास पुणे में है। इस कविता में मैं उस चीज़ को याद करने की कोशिश करती हूँ जो मैंने वहाँ देखी थी और उस दोस्त को याद करती हूँ जो उस दिन मेरे साथ घूम रही थी लेकिन अब वह नहीं है।
वनाच्छादित स्थल
यह विशाल पेड़ों के साथ एक विशाल वनाच्छदित जगह थी
जिसकी जड़ें बाहर निकल निकल मानों अपने क्षेत्रों को चिन्हित करती थी
झाड़ झंखाड़ इतना घना नहीं था, लेकिन मधुमक्खियों का था वह डेरा
तितलियों, लार्वा के गोले थे और ऐसी ही थी कुछ छोटी प्रजातियां!
शाम और भोर में, सभी पक्षियों के कोलाहल का होता था विस्फोट
पूरे गले से कहीं कांव-कांव, कहीं कूक तो कहीं चहक, झगड़ते या शिकायत करते
उनकी चिल्लाहट एक ही शोर में विलीन हो गई मानो बाकी सब डूब गया
उनकी बदहावास चिल्लाहट धीरे धीरे थमती गई रात्रि की सूचना देते हुए
कभी यह ऐसी जगह थी जहाँ महीन सपने बुने जाते थे
गाने और नृत्य के, शुद्ध भावनाओं के और प्रपंचपूर्ण योजनाओं के
सेल्युलाइड में डालने हेतु कलागुरु की मृगनयनी साधना में
कला और शिल्प के अपने आदर्शों के साथ कैमरे में डाला उन्होंने अमर विषयों को
इंद्रधनुष ने उन्हें दिये रंग और हिरन ने अपनी उछाल
हवा ने वीणा को सहलाया, अपनी अधमुंदी पलकों के साथ
और इसलिए वर्षों पूर्व, चंचल नर्तकियाँ
जीती थी स्वप्नों में स्वयं को भूल बैठी सी
हर मेड़ और और पगडंडियों के घुमाव में थी उनकी तैरती हुई खुशबू
अचानक प्रकट हुई चंद्रकला समुद्र के तल से
मैं और मेरी दोस्त गुजरीं कंटीली झाड़ियों से होते हुए
बिल्कुल नि:शब्द मानो बातचीत करना हो अपराध
चिड़ियों ने अब अपनी पुकार नीचे ला दी थी; मानो हो कोई युद्धविराम संधि !
पश्चिम में बादलों की विपुलता, अब हो रही थी दुर्बोध!
हर झरोखा एक विशेष उपयोग के लिए अभी भी खड़ा था
लेकिन अब वहाँ 'क्यू' देनेवाला कोई निर्देशक नहीं था!
शाम ढलते-ढलते पूरब के बादलों पर धूल छा रही थी
दिन पश्चिमी सड़कों पर पर्दे बंद कर रहा था
कुमुदिनी के साथ एक तालाब, छोटा सा एक, आखिरी आश्चर्य था!
मैं देखने के लिए नीचे झुकी और आह, मुझे मिली आँखों की वह जोड़ी!
एक विशालकाय बूढ़ा मेढक, वह वास्तव में आकार में बहुत बड़ा था!
अपने मस्तक के चूमे जाने के लिए किसी नवयौवना की प्रतीक्षा कर रहा है?
और इसलिए वह मिट्टी के एक टीले की तरह बैठ गया था, छींटदार और गोल
एक धवलकेश ऋषि की तरह, उस प्रतीक्षा में जिसके समय की नहीं हो सीमा!
.......
Original poem in English - Shobana Ravi
Email of the original poet - shobravi02@gmail.com
Hindi translation by - Hemant Das 'Him'
Send your feedback to - editorbejodindia@yahoo.com
Thank you very much Mr Das. I don't know Hindi. Will ask someone to read it for me. Am honoured
ReplyDeleteMa'am, thanks for giving us opportunity of publishing auch a beautiful poem!
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