शिकायत क्यों मुझे होगी किसी से / मैं घर में रहता हूँ अपनी ख़ुशी से
बज़्मे-हफ़ीज़ बनारसी,पटना के तीसरे मुशायरा में आपका स्वागत है | खैर मक़दम है | पुरखुलूस इस्तकबाल है |
घर बैठना इसलिए ज़रूरी नहीं कि ये वज़ीरे-आला की गुज़ारिश है | घर बैठना इसलिए भी ज़रूरी है कि इसी में हमारी भलाई है | जान भी है जहान भी है | बज़्मे-हफ़ीज़ बनारसी, पटना ने इसकी ख़ूबसूरत राह फराहम की है | टेक्नोलॉजी की मदद से दूर दराज़ शहरों में बैठे हुए शाइरों की तख्लीकात से आपको रूबरू कराना | जी हाँ ! शामे- मुशायरा की पेशकश एक ऐसी ही तजवीज़ है | आइये मैं आपको आज के मुशायरे के शोअरा–ए-कराम का तआरुफ़ करवा दूँ |
1. श्री अनिल सिंह (पुलिस उप महानिरीक्षक (से.नि.), पटना
2. डॉ.आरती कुमारी, मुज़फ्फ़रपुर
3. श्रीमती इंदिरा शबनम इंदु,पुणे
4. डॉ. कविता विकास,धनबाद
5. श्री घनश्याम ,पटना
6. श्री चैतन्य चन्दन, दिल्ली
7. श्रीमती नन्दनी प्रनय, रांची
8. मो. नसीम अख्तर, पटना
9. श्रीमती पूनम सिन्हा श्रेयसी, पटना
10. डॉ.मीना कुमारी परिहार,पटना
11. डॉ. शालिनी पाण्डेय, पटना
12. श्री सुनील कुमार,पटना और ख़ाकसार
रमेश कँवल,पटना (संचालक)
मुशायरे का आगाज़ हम साहिर लुधियानवी के चंद मिसरों से करते हैं और दवाते-सुखन देते हैं डॉ.आरती कुमारी ,मुजफ्फरपुर को
यही फ़िज़ा थी यही रुत यही ज़माना था
यहीं से हमने मुहब्बत की इब्तिदा की थी
डॉ. आरती कुमारी ने ये नज़्म सुनाई
*सोचा न था*
सोचा न था कभी
कि आएगा प्रलय ऐसे
नाचेगा काल विकराल रूप धर
और निगल जाएगा
लाखों लोगों को
एक बार मे ही..
**सोचा न था कभी कि
ठहर जाएगा वक़्त
एक पल को भी इस तरह
रुक जाएगी सपनो के पीछे
भागती -दौड़ती दुनिया
ठप्प पड़ जाएंगे सारे काम धाम
और बेबस हो जाएंगे हम इंसान
**सोचा न था कि इस वर्ष का वसंत
आते ही बदल जायेगा पतझड़ में
खुशियों के रंग हो जाएंगे मलिन
और एक दूसरे का स्पर्श भी
कर देगा भयभीत मनुष्यों को
**सोचा न था कि
प्रगति साधकों को कभी
मिलेगी प्रकृति से खुली चुनौती
और कीड़े मकोड़ों की तरह रेंगते
घर मे दुबके पड़ेंगे महीनों तक
**सोचा न था कभी कि
सुननी पड़ेगी सन्नाटों की चीखें
कि मानवता बचाने की खातिर
मानव को ही रखना होगा मानव से दूर
और जलाने होंगे उम्मीदों के दीप
बोझिल थके निराश मन में
**सोचा न था कभी कि
हो जाएगी पृथ्वी फिर से हरी भरी
सुगंधित हवा फिर से
करने लगेगी अठखेलियाँ
और गाएगी बादलों संग मल्हार
चिडियाँ गायेगी लयबद्ध संगीत
और मेरे हृदय में पुनः गूंजने लगेगा
मेरे एकांत का एकतारा
डॉ.आरती कुमारी के बाद धनबाद से जुड़ीं डॉ. कविता विकास को इन चार मिसरों से ज़हमते-सुखन दी गयी
परिंदा कब फ़लक को नापता है
परों के हौसलो को जानता है
डॉ. कविता विकास ने एक ख़ूबसूरत ग़ज़ल पेश की -
शाम तनहा कभी सहर तनहा
ज़िन्दगी हमने की बसर तनहा
जलती रहती हूँ रात भर तनहा
जलता रहता है ज्यूं क़मर तनहा
तेरे ही इंतज़ार में अब तक
मेरा कटता रहा सफ़र तनहा
हर तरफ़ लोग - बाग हैं लेकिन
तुम उधर तनहा मैं इधर तनहा
कोई भाया नहीं सिवा तेरे
रह गए फिर दिलो - जिगर तनहा
कोई आता नहीं है ख़्वाबों में
हो गयी हूँ मैं इस कदर तनहा
ज़िन्दगी 'कविता' मुस्कुराएगी
छोड़ दो रहना तुम अगर तनहा
कोरोना से जूझ रहे मुंबई शहर की मशहूर शायरा राजेश कुमारी राज की पंक्तियों से पटना के मशहूर ग़ज़लकार श्री घनश्याम जी को ग़ज़ल पाठ के लिए आमंत्रित किया गया
क्या खूब हुनर पाया है भूख छुपाने का
रोती हुई हंसती है मुफ़्लिस की ये बच्ची है
-राजेश कुमारी राज
घनश्याम ने शुद्ध हिंदी ग़ज़ल पेश की -
अलग तुमसे नहीं मेरी कथा है
तुम्हारी ही व्यथा मेरी व्यथा है
ये गूंगे और बहरों का नगर है
किसी से कुछ यहां कहना वृथा है
हताहत सभ्यताएं हो रही हैं
हुआ पौरुष पराजित सर्वथा है
तुम्हीं से ज़िन्दगी में रोशनी है
चतुर्दिक कालिमा ही अन्यथा है
बिना बरसे घुमड़कर भाग जाता
कृपण बादल कभी ऐसा न था, है
समय का दोष है या आदमी का
सदा ऐसे सवालों ने मथा है
अभी "घनश्याम" की पूंजी यथा है
समर्पण, प्यार, अपनापन तथा है
ज़ेबा तस्लीम के एक मतला से दिल्ली में निवास करने वाले शाइर चैतन्य चन्दन को आवाज़ दी गयी :
जिसने बख्शी है अश्कों की दौलत मुझे
आज भी है उसी से मुहब्बत मुझे
चैतन्य चन्दन ने सामजिक व्यसन गुटखा को ग़ज़ल का मौजू बनाया जिसे नया प्रयोग के रूप में मुशायरे में शिरकत करने वाले शाइरों और शाइरात ने खैर-मक़दम किया -
पान, गुटखा तुम्हें काहे को ज़हर लगता है
इन्हें चबाने में लोहे का जिगर लगता है
है कठिन काम दीवारों को मुंह से रंग देना
गाल भर इसमें मेरे यार शिखर लगता है
लड़खड़ाने लगी है उसकी जुबां केसरिया
विमल का उसपे भी कोई तो असर लगता है
गंध आती है उसके मुंह से जैसे कोई गटर
राजश्री का मुझे शायद ये कहर लगता है
थूकते रहते हैं सड़कों पे वो रजनीगन्धा
और कदमों में उनको कोई शहर लगता है
कोई दिवाना है कमला पसंद का 'चंदन'
मगर ये मौत है उसको ये किधर लगता है
पवन शर्मा की एक ग़ज़ल इन दिनों जुबान पर है उसी ग़ज़ल के अशआर से रांची से जुडी उभरती कवयित्री नन्दनी प्रनय को काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किया गया :
चाँद करे है चौकीदारी, चैन कहाँ सूरज को पल भर।
शहर वबा ने घेर रखा है,, चुप्पी साधे बैठा है घर।
-पवन शर्मा
रांची, झारखंड से शामिल हुई नंदिनी प्रनय की रचना का आनंद लीजिए -
साँझ का सूरज
कभी मेरे घर आता था
वो मेरे सांझ का सूरज,
आकर दिल को बहकाता
वो मेरे साँझ का सूरज।
**परछाई भी उसकी
अंधेरी रात की सी थी,
ढले फिर शाम आता था
वो मेरे साँझ का सूरज।
**सुबह होते निकलता था
बड़ी वो लाल बिंदी सा,
ढले आंखों में बस जाता
वो मेरे साँझ का सूरज।
**सुर्ख वो होठ की लाली
वो मेरा रंग मेहंदी का,
रंग जाती थी जब आता
वो मेरे साँझ का सूरज।
**चढ़े जो दिन तो रहता था
वो मेरे सर पे घूँघट सा,
ढलक जाता था सर से फिर
वो मेरे साँझ का सूरज।
**दोपहरी दिन में जब उसके
तपन से मैं जल उठती थी,
तभी नीचे सरक आता
वो मेरे साँझ का सूरज।
**वो काली स्याह सी रातें
अकेले जब न कटती थी,
चमकता फिर से नभ में था
वो मेरे साँझ का सूरज।
नंदिनी के बाद हफ़ीज़ बनारसी के एक मतला और एक शे’र से पटना के रेल महकमा से जुड़े बहुत ही मशरूफ़ शायर मो. नसीम अख्तर, को दावते-सुखन दी गयी
क्या जुर्म हमारा है बता क्यों नहीं देते
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यों नहीं देते
कुछ लोग अभी इश्क़ में गुस्ताख बहुत हैं
आदाबे-वफ़ा उनको सिखा क्यों नहीं देते
मो. नसीम अख्तर ने ये ग़ज़ल सुनाकर वाहवाही
लूटी -
इधर शम्मे उलफत जलाई गई है
उधर कोई आँधी उठाई गई है।
वो घर को नहीं बाँट डालेगी दिल को
जो दीवार घर में उठाई गई है।
किसी में यहाँ अब मुहब्बत नहीं है
वो नफरत दिलों में बिठाई गई है।
अजब है तमाशा तुम्हारे जहाँ का
अजल में भी दुनिया सजाई गई है।
कभी तुम भरोसा नहीं उसपे करना
ये दौलत जो 'अख्तर' कमाई गई है।
हफ़ीज़ बनारसी के एक मतला और एक शे’र से पटना की चर्चित शाइरा
पूनम सिन्हा श्रेयसी को बज़्मे-हफ़ीज़ बनारसी पटना के तीसरे ज़ूम मुशायरा में दावते-सुखन दी गयी
क़दम शबाब में अक्सर बहकने लगता है
भरा हो जाम तो अज ख़ुद छलकने लगता है
कोई चिराग़ अंधेरों में जब नहीं जलता
किसी की याद का जुगनू चमकने लगता है
-हफ़ीज़ बनारसी
पूनम सिन्हा श्रेयसी ने ये ग़ज़ल पढ़ी -
रात ढलती रही ,चाँद हँसता रहा
बिछ गई चाँदनी, इश्क जलता रहा ।
नींद जागी रही,स्वप्न सोते रहे-
अक्स उनका दृगों में उभरता रहा।
वो न आए , मगर याद आते रहे-
तन्हा दिल इस तरह से बहलता रहा ।
मेरे दिल में जो चाहत मिलन की जगी -
क्या बताएँ कि मन क्यों बहकता रहा ।
गम के आलम में क्या अब करूँ मैं ' पूनम '-
इस जुदाई में तन-मन सुलगता रहा ।
ग़ज़ल की दुनिया के मशहूर ओ मारूफ़ उस्ताद शाइर जनाब मेयर सनेही के एक मतला और एक शे’र के साथ पटना उच्च न्यायलय से जुड़े शाइर श्री सुनील कुमार को विडियो मुशायरा में शिरकत करने की दावत मिली |
शिकायत क्यों मुझे होगी किसी से
मैं घर में रहता हूँ अपनी ख़ुशी से
सुनील कुमार की पेश की गयी ग़ज़ल का लुत्फ़ आप भी उठाइये -
यही दर-अस्ल-हक़ीक़त में ज़िंदगी यारो
गुजारी जा न सके पर गुज़र रही यारो
बची है कौन सी हसरत कि जी रहा हूँ मैं
अगर न मौत से उन्नीस ज़िंदगी यारो
कभी हसीन कहाँ ज़िंदगी सजी उनकी
जिन्हें मिले न मुहब्बत की रौशनी यारो
ये ज़िंदगी है अज़ब खेल खेलना है जिसे
न कोई जय ही पराजय है आख़िरी यारो
कभी जो ज़ीस्त की उफ़्ताद दिल पे होती है
वही तो एक कयामत की है घड़ी यारो
जो मुस्कुराता तुम्हें दर्द में ‘सुनील’ मिले
समझ लो जिंदा हुई उसकी शायरी यारो
मुशायरा में डॉ.मीना कुमारी परिहार,पटना , डॉ. शालिनी पाण्डेय,पटना श्रीमती इंदिरा शबनम इंदु, पुणे और अनिल सिंह, पुलिस उप महानिरीक्षक, (से.नि.) भी शामिल हुए | इंदिरा शबनम इंदु या इंदिरा पुनावाला की आवाज़ दूर से आनेवाली आवाज़ की तरह आई | चेहरा दिखा कभी ओझल हो गया | उन्होंने यह रचना पेश की |
कैसे हम कह दे कि सरशार नजर आती है
घर की हर चीज़ तो बीमार नजर आती है
कोई शिकवा न शिकायत है न आँसू न हंसी
जिंदगी बर्फ का अबार नजर आती है
छत तो मजबूत है मजबूत हैं दरवाजे भी
सिर्फ टूटी हुई दीवार नज़र आती है
ऊंची आवाज़ में हंसने पे है पाबंदी यहां
मुस्कराहट पसे दीवार नज़र आती है
ऐसा लगता है समय ठहर गया है शबनम
जिंदगी रेंगती रफ्तार नजर आती है|
डॉ.मीना कुमारी परिहार का स्पीकर ऑन नहीं हो पाने की वजह से वे मूक वधिरों के लिए समाचार पढ़ती नज़र आईं | उनकी रचना का आनंद लीजिये -
उम्मीद हर शख्स से लगाई नहीं जाती
बैचैनियां दिल की बताई नहीं जाती
उम्मीदों पे टीकी है लहलहाती फसल
उजियारे में शम्मा जलाई नहीं जाती
सबको पता है मेरी आमदनी का जरिया
क्यों खुदकुशी की खुशी मनाई नहीं जाती
हमामे-इश्क में नहाते तो सभी हैं मगर
इश्के-दरिया की राह लगाई नहीं जाती
डॉ मीना के बादआगे बढ़ते हैं| अनिल सिंह जहाँ रहते हैं वहां का नेटवर्क उनके रिटायरमेंट के बाद भी उनके पुलिसिया रुतबे से डरा सहमा रहता है | कभी छवि है तो ध्वनि नहीं कभी ध्वनि मिले तो चेहरा ओझल | थक हार कर उन्होंने अपने एकांतवास की ग़ज़ल ज़ूम मुशायरा के लिए भेज दिया -
हमारी दुखती रग उसने नहीं छेड़ी बहुत दिन से
हमारी याद क्या उसको नहीं आई बहुत दिनसे
समाया था वो इस दिल में हमारी धड़कनों जैसी
नज़र आती है दिल की बस्तियाँ सूनी बहुत दिनसे
वो कहते थे कि तेरे बिन बड़ा दुश्वार है जीना
मगर सूरत मेरी उसने नहीं देखी बहुत दिनसे
बिना मौसम हुआ करती थीं अश्कों की वो बरसातें
कहाँ बरसात में भी ये पलक भींगी बहुत दिनसे
तेरी यादों की दस्तावेज बन बैठी है सब चिट्ठी
इन्हें तो डाक खाने में नहीं डाली बहुत दिन से
खुदाया ख़ैर हो अपने पराये सब परीशां हैं
ख़बर आई नहीं कोई कभी अच्छी बहुत दिन से
तुम अपनी बात तो शेरों में कहते हो 'अनिल' लेकिन
तुम्हारी बात लोगों ने नहीं मानी बहुत दिनसे
डॉ. शालिनी पाण्डेय मुशायरे में शामिल तो थीं लेकिन जब उन्हें ग़ज़ल पाठ के लिए आमंत्रित किया गया तो नेटवर्क ने उनके साथ शालीनता का व्यवहार नहीं किया -
अब मुझे खुल के मुस्कुराने दो
बात दिल की लबों पे आने दो
जाने किस पल हों आँख में आसूं
आज खुशियों से घर सजाने दो
यूं तो सासों पे है कड़ा पहरा
फिर भी नग्में वफ़ा के गाने दो
कौन जाने लुभाए कौन अदा
उनके सपनों में मुझको आने दो
गर्म सासों में उनको घुलने दो
बिस्तरे-शब को मुस्कुराने दो
सर्द आहों ने दिल की बात कही
अश्क आँखों में अब न आने दो
'शालिनी' घर में भी रहो कुछ दिन
लॉक डाउन सफल बनाने दो
मुशायरा समाप्त होते देखकर डॉ.कविता विकास एवं घनश्याम जी ने मुझे भी अपनी ग़ज़ल पेश करने की गुज़ारिश की| ख़ाकसार रमेश कँवल ने यह ग़ज़ल पेश की :
लम्स की आँधियों से जो डर जायेंगे
क़ुर्ब के सारे मंज़र बिखर जायेंगे
रात दरबान बन कर रहेगी मगर
दिन निकलते ही ख्वाब अपने घर जायेंगे
साँसों के डूबता उगते सूरज लिए
उम्र की सरहदों से गुज़र जायेंगे
जिस्म की रिश्वतें देंगे बरसात को
फिर नए पत्ते लाने शजर जायेंगे
उसकी यादें न कर दरबदर ऐ ‘कँवल’
बे ठिकाने ये मंज़र किधर जायेंगे
मोहतरमा मासूमा ख़ातून जल्वा अफरोज़ होने की जद्दो-जहद करती रहीं लेकिन नेटवर्क ने उनके मनसूबे पर पानी फेर दिया |
ये ऑनलाइन मुशायरा बेहद कामयाब रहा |
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प्रस्तुति - रमेश कँवल
प्रस्तुतकर्ता का ईमेल - rameshkanwal78@gmail.com