Monday, 27 April 2020

भारतीय युवा साहित्यकार परिषद्आ की और से भासी लघुकथा विचार गोष्ठी 24.4.2020 को संपन्न

लघुकथा वह छोटा कैप्सूल है जो भयावह सामाजिक रोगों से हमें बचा सकता है 

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जैसे ग़ज़ल के ढाँचे पर ढाल दिया गया कोई पद्य ग़ज़ल नहीं हो सकता उसी तरह से यद्यपि लघुकथा, लघु भी है और 'कथा' जैसी भी लेकिन हर लघु कथा, लघुकथा नहीं होती। इसकी अपनी अर्हताएं है जिसे विद्वानों ने अपने अपने ढंग से परिभाषित किया है। कुल मिलाकर यह समझिये कि जब कोई पात्र और घटनाओं से रचित अत्यंत छोटा कथानक आपके अंतर्मन को झकझोर दे और आप सोचने को बाध्य हो जाएं तो वह लघुकथा हो सकती है। उपदेश, सीख, चुटकुला तो भूलकर भी लघुकथा नहीं कहे जा सकते।

जब आप आगे इस विचार गोष्ठी को पढेंगे तो पता चलेगा कि १. लघुकथा गंभीर कर्म है। सूक्ष्मता, प्रखरता इसके प्राणतत्व हैं, २.  लघुकथा वाचन का ऑनलाइन मंच रंगमंच का अनुभव देता है जिसमें रिटेक संभव नहीं।
संयोजक सिद्धेश्वर का प्रयास इसलिए सराहनीय रहा क्योंकि इन्होने रचनाकारों को नहीं बल्कि रचनाओं को महत्व दिया।

लॉकडाउन न सिर्फ पारिवारिक रिश्तों को मजबूत करने का सुनहला अवसर है बल्कि अपनी साहित्यिक समझ को मांजने का भी। जाने माने कवि, लघुकथाकार और राष्ट्रीय स्तर के रेखाचित्रकार सिद्धेश्वर ने 24.4.2020 को  "इंटरनेट के मंच पर लघुकथा की प्रासंगिकता विषय" * पर "अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका " के फेसबुक पेज पर लाइव प्रसारण का आयोजन किया।

संगोष्ठी के मुख्य अतिथि थे वरिष्ठ लघुकथाकार डां  कमल चोपड़ा नई दिल्ली

"इस संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे  भगवती प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि" इंटरनेट लघुकथा गोष्ठी के आयोजन  का एक सशक्त माध्यम है। और देश दुनिया के रचनाकारों से जुड़ाव का एक बेहतरीन मंच है। लघुकथा के बीज तत्व, पंचतंत्र वाचिक परंपरा से निकलकर आज पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रही है। इंटरनेट के माध्यम से लघुकथा देश-विदेश में  अधिक  संप्रेषित हो सकेगी। इसमें दो मत नहीं। "

संगोष्ठी की प्रस्तुति दे रहे कथाकार  सिद्धेश्वर ने कहा कि-" हमने इंटरनेट के माध्यम से साहित्य को  जोड़ने का एक सशक्त माध्यम दिया है। देश-विदेश में बैठे लघुकथाकारों से जोड़ने का सबसे सशक्त और सफल माध्यम साबित हुआ है ऑनलाइन लघुकथा की प्रस्तुति । इसका श्रेय भी पटना यानि बिहार को जाता है।"

विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ कथाकार और पत्रकार अवधेश प्रीत ने इंटरनेट पर लघुकथा की प्रासंगिकता पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि लघुकथा का दायित्व और बढ़ गया है। लघुकथा गंभीर कर्म है। सूक्ष्मता, प्रखरता इसके प्राणतत्व है। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया के जरिए ऑनलाइन लघुकथाओं की प्रस्तुति सार्थक कहा जा सकता है, जिसके लिए यह संस्था बधाई के पात्र हैं। लेकिन आवश्यकता यह भी है कि ऐसे आयोजन सिर्फ लोंकडाउन में नहीं बल्कि हर महीने होना चाहिए। ताकि देश विदेश के लोग भी लघुकथा से जुड़ सकें। आन लाइन लघुकथा विचार गोष्ठी नई प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करती है।"

इसके अतिरिक्त देश भर से, आन लाइन जुड़ने वाले साहित्यकारों में प्रमुख हैं - सर्वश्री कविकेश निझावन (हरियाणा), मधुरेश नारायण, नीतू सुदीप्ता नित्या (भोजपुर), कीर्ति अवस्थी (लखनऊ), अन्नपूर्णा श्रीवास्तव, पूनम श्रेयसी, मणिबेन द्विवेदी (वाराणसी), मीना कुमारी परिहार, अनिता राकेश, संजय कुमार आदि।

आपके लिए कुछ चुने हुए रचनाकारों के विचारों का सारांश यहाँ प्रस्तुत है-

 डॉ. ध्रुव कुमार कुमार ने लिखा है कि - "
वर्तमान परिवेश में जब पूरी दुनिया कारोना कोविड - 19 से जुड़ रही है, लड़ रही है और इससे बचने की कोशिश कर रही है। अधिसंख्य आबादी अपने-अपने घरों में रहने को विवश है। यह इस समय की वैश्विक मांग है, इससे हम इंकार नहीं कर सकते ।रचनाकार, विशेषकर लघुकथा से जुड़े लोग जो नित्य सृजन कर साहित्य के सर्वाधिक जनप्रिय विधा को समृद्ध कर रहे हैं, उन्हें भी और लोगों की तरह घर में रहने को बाध्य होना पड़ रहा है। अब सवाल है कि वह क्या करें? जो लघुकथाएं लिख रहे हैं, वह अपनी रचनाएं किसे सुनाएं ? कैसे सुनाएं?
**इस लाक डाउन में ?ऐसे में सोशल मीडिया के जरिए ऑनलाइन लघुकथा पाठ का आयोजन बहुत ही सराहनीय कदम प्रतीत होता है। इससे न सिर्फ एक शहर बल्कि दूसरे शहरों और दूसरे देशों में बसे अपने प्रिय लघुकथाकारों भी हमें सुनने का अवसर मिल सकता है । हां, इसके स्वरूप को लेकर और भी प्रयोग की जरूरत है। जो तकनीक के साधन उपलब्ध हैं उनसे और भी मदद लेकर इसकी प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण की चेष्टा होनी चाहिए । इससे भविष्य के मार्ग प्रशस्त होंगे । अभी तक जो लघुकथा पाठ ऑनलाइन हुए हैं उनमें सुधार कर इसे जीवंत बनाया जा सकता है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की तरह 8 -10 लोग जुड़कर विमर्श कर सकते हैं। इसे दोतरफा बनाया जा सकता है। अगर इस ओर ध्यान दिया जाए तो यह और भी प्रभावकारी हो सकता है ।

डॉ, कीर्ति अवस्थी (लखनऊ) ने लिखा है कि - "ऑनलाइन लघुकथा की प्रासंगिकता लघु कथा गद्य की वह विधा है जो अपने लघु आकार के कारण ही चर्चित होती है। किंतु लघु आकार का अर्थ यह नहीं है कि किसी घटना विशेष को बिना प्रभावी निष्कर्ष के ही प्रस्तुत कर दिया जाए। जिस प्रकार एक छोटा कैप्सूल रोगी को भयावह रोग से बचा लेता है, उसी प्रकार लघुकथा पाठक एवं लेखक दोनों को ही साहित्य के रस से अभिसिंचित करने की क्षमता रखती है। आज हर तीसरा व्यक्ति लेखक बना फिरता है, यह सही है कि विचारों की अभिव्यक्ति व्यक्ति का अधिकार है किंतु इन विचारों का प्रकटीकरण अत्यंत परिष्कृत रूप में होना चाहिए। इसके लिए ऑनलाइन कार्यशालाएं बहुत ही अधिक सहायक हो सकती हैं विशेष रूप से नए लेखकों के लिए। लघुकथा की विधा का प्रारंभ 1950 के आसपास से माना जाता है। अपनी यात्रा तय करते-करते लघुकथा 2020 तक आ गई।
**जहां तक ऑनलाइन लघुकथा की प्रासंगिकता का प्रश्न है तो जिस प्रकार युग बीते-आदिकाल, मध्यकाल के पश्चात आधुनिक काल ने भी एक निश्चित समय पर अपनी दस्तक दे दी। ठीक इसी प्रकार "परिवर्तन प्रकृति का नियम है" को प्रचारित एवं प्रसारित करते हुए लघुकथा भी अब आधुनिक परिधान से सुसज्जित होकर हमारे सम्मुख दस्तक दे रही है। कभी ऐसा था कि परिवर्तन होने में भी समय लगता था क्योंकि संचार के साधन उपलब्ध तो थे किंतु सर्वसुलभ नहीं। आज मोबाइल ने एक व्यक्ति को उसे सार्वभौमिक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया जहां वह अपने विचार सुगमता और शीघ्रता के साथ लाखों करोड़ों लोगों तक पहुंचाए सकतें हैं। ऐसे में साहित्य की विधाएं आसानी से प्रचारित-प्रसारित की जा सकती हैं। किंतु लंबी कथाएं, कविताएं या उपन्यास एक समय के बाद श्रोताओं को बांधे रखने में संभवतः सफल न हो क्योंकि लंबे साहित्य में हर शब्द एवं भाव श्रोता के मन को लुभाने वाला हो यह आवश्यक नहीं है।
 **मेरे विचार से वर्तमान समय में काव्य में हाइकु  एक अत्यंत प्रचलित विधा बन रही है। इसका कारण यह है कि 5 या 7 वर्णों में एक गहन विचार को प्रस्तुत किया जाता है। जबकि गद्य में यही स्थान लघुकथा को प्राप्त है। उदाहरण के तौर पर मैं अपनी ही एक हाइकु  और लघु कथा को प्रस्तुत कर रही हूं, जैसे कि- "सम्मान का शॉल खरीदा मैंने अपने लिए" इन 7 वर्णों में आजकल के समय में सम्मान देने एवं  लेने पर कटीला व्यंग किया गया है।
अब इसी भाव पर आधारित जरा लघुकथा देखिए-
शर्मा जी ने पत्नी को आवाज देकर कहा, 'मुंह मीठा कराओ भगत जी आए हैं।' कुछ देर बाद जब पत्नी घी में तर मूंग का हलवा लेकर आई। भगत जी बोले, 'बधाई हो भाभी जी, इस साल  के सुंदरतम हस्ताक्षर सम्मान के लिए शर्मा जी को चुना गया है।'
 इतना सुनकर वह भी पति के लिए मुस्कुरा दी क्योंकि सम्मान की कीमत का चेक उन्होंने ही अपने हाथों से काटा था।
आप देख सकते हैं कि व्यस्ततम् समय में भी आप गद्य व पद्य का पान श्रोताओं एवं पाठकों को करवा सकते हैं। और ऑनलाइन होने के कारण  लोगों की अधिकाधिक संख्या तक इसे पहुंचाया जा सकता है, इसलिए हम कह सकते हैं कि वर्तमान समय में ऑनलाइन लघुकथा की प्रासंगिकता को किसी प्रकार से नकारा नहीं जा सकता है।

डां ऋचा वर्मा ने विस्तार से लिखा है कि-"
आज के साहित्य की दुनिया के सबसे चर्चित दो शब्द.. 'लघुकथा' और 'इंटरनेट' । यह बात सर्वविदित है कि तकनीक के आगमन के साथ ज्यादा से ज्यादा लोगों की रुचि पुस्तकों या फिर प्रिंट मीडिया से हटकर पहले  टीवी उसके बाद कंप्यूटर और अब तो स्मार्ट फोन पर आकर ठहर गई है। आज के आपाधापी के युग में, जब लोगों के पास समय की बहुत कमी है, लघुकथा विधा अपनी तीव्र मारक क्षमता  और कम शब्दों में  भरपूर मनोरंजन के गुणों के साथ बहुत ही सहज रूप से उनकी जिंदगियों में प्रवेश कर गई है।
**स्मार्टफ़ोन अपने साथ ईयर फोन की सुविधा लाया है जिसके कारण श्रव्य माध्यम की लोकप्रियता बढ़ गई है। कुल मिलाकर ऐसे समय में इंटरनेट पर लघुकथा वाचन की प्रासंगिकता से कतई इंकार नहीं किया जा सकता है। हमारे देश में लघुकथा वाचन की इतिहास की जड़ें पंचतंत्र की कहानियों से ही आरंभ होतीं हैं, जो अपने छोटे आकार और महत्वपूर्ण संदेशों के कारण लघुकथा विधा की जन्मदात्रि मानी जाती है। कान में इयरफ़ोन लगाये जब कोई व्यक्ति एक अच्छी लघुकथा के साथ कल्पना की दुनिया में विचरण करता है तो साहित्य के प्रति उसकी रूचि सहज ही जगती है। लीक से हटकर यह अभिनव प्रयोग हमारी युवा पीढ़ी को भी आकर्षित करती हुई हमारी भाषा का प्रचार-प्रसार का माध्यम बनती है।
**यह तो हुआ पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं का पक्ष, लघुकथा लेखकों को भी यह मंच, रंगमंच का अनुभव देता है, जिसमें श्रोताओं से सीधा जुड़ाव होता है, रिटेक की कोई गुंजाइश नहीं।
**कवि सिद्धेश्वर जी ने बहुत ही सीमित संसाधनों में परंतु अपने अथक मेहनत और लगन के सहारे इंटरनेट पर लघुकथा वाचन की नई परंपरा की सुंदर शुरूआत की है,जो बहुत कम समय में प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में सुर्खियां बटोरने में सफल भी हुईं हैं। इनके कार्यक्रम की सबसे बड़ी विशेषता है कि इन्होंने रचनाकारों को नहीं बल्कि रचनाओं को महत्व दिया है। नवोदित से लेकर स्थापित लघुकथाकारों की रचनाओं का वाचन उस पर आदरणीया चित्रा मुद्गल और आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी सरीखे लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकारों की बेबाक टिप्पणियां, सुझाव और समीक्षा ने इस कार्यक्रम को एक बहुत ही उच्चस्तरीय कार्यक्रम बना दिया। अपने इन्हीं सब गुणों के कारण इस कार्यक्रम ने नई प्रतिभाओं को भी अच्छे से अच्छा लिखने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया है। आदरणीय श्री सिद्धेश्वर जी एक बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति हैं, जिसकी छाप इनके द्वारा संचालित कार्यक्रम में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। जहां वह स्वलिखित लघुकथा 'आत्महत्या' के नाट्य रूपांतरण में एकल अभिनय कर लोगों को प्रभावित करते हैं, वहीं लघुकथा वाचन के दौरान अपने रेखाचित्रों के माध्यम से पात्रों और घटनाओं को जीवंत करने का प्रयास करतें हैं। सुंदर सी पृष्ठभूमि और मधुर संगीत लहरियों से सजा इनका आयोजन न केवल सुनने योग्य बल्कि देखने योग्य भी होता है। फिलहाल तो यह कार्यक्रम अपने शैशव काल में है, धीरे-धीरे यह और निखरेगा... निकट भविष्य में बहुत से साहित्यकार एवं साहित्यप्रेमी इससे जुड़ेंगे और इसकी अनुगूंज दुनिया के हर कोने तक पहुंचेगी वहां तक भी जहां लोग हिन्दी केवल बोलते समझते हों भले ही लिखना पढ़ना नहीं जानते हों। 

मणि बेन द्विवेदी( वाराणसी) उत्तर प्रदेश से
लघुकथा जिसने छोटी छोटी घटनाएं अपनी वैचारिक प्रक्रिया के द्वारा लेखक अपनी संवेदना के माध्यम से हमारे आप पास घटित परिस्थितियों का उल्लेख कम शब्दों में प्रभावकारी ढंग से अपनी।सीधी सी बात पाठकों तक पहुंचाता है।यूं कहें तो लंबी कहानियों का सार होता है लघुकथा।शिल्प, काल, और कथानक ये जितना ही चुस्त और का हुए होगा। कथा में उतनी ही रोचकता आएगी। समसामयिक जीवन की विसंगतियों का उल्लेख जो पाठक के मन को झंकझोर कर रख देता है ,सोचने पर विवश कर देता है। अंत में कहना चाहूंगी कि लघुकथा आज के कीमती समयावधि में पाठकों कोसमजिक,राजनैतिक दैनिखिवन की अनेक विसंगतियों से रूबरू कराती है जिसमें सभी रंगों मनोभावों का समावेश होता है। अतः तकनीक शैली और लघुता की वजह से समाज में लघुकथा कि अपनी सार्थक पहचान बन चुकी है।

डॉ मीना कुमारी' परिहार' पटना ने लिखा है कि - "कहानी सुनाना, हज़ारों वर्षों से भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। क‌ई कहानियां तो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दी जाती रही है। लघुकथा, "गागर में सागर" भर देनेवाली विधा है।लघु एक साथ लघु भी है, और कथा भी। यह न लघुता को छोड़ सकती है,न कथा को ही।लघुकथा गद्य की एक ऐसी विधा है जो आकार में 'लघु है और उसमें "कथा" तत्व विद्यमान है। अर्थात लघुता ही इसकी मुख्य पहचान है। किसी बहुत बड़े घटना क्रम में से किसी विशेष क्षण को चुनकर उसे हाईलाइट करने का नाम ही लघुकथा है। यों कहें तो लघुकथा का मतलब छोटी कहानी ही नहीं है, वह छोटी कहानी लघुकथा होती है जिसमें लघु और कथा के बीच में एक खाली स्थान होता है।
**हिन्दी गद्य साहित्य की यह सबसे तीक्ष्ण कलम है जिसमें कम-से कम शब्दों में एक गहरी बात कहना होता है जिसको पढ़ते ही झटके से पाठक मन चिंतन के लिए उद्वेलित हो जायें। लघुकथा  लेखन एक साधन है।
लघुकथा लेखन में निम्नलिखित  विन्दुओं पर ध्यान  देना बहुत जरूरी है।
1-कथानक- प्लाट, कथ्य को कहने के लिए निर्मित पृष्ठभूमि
2-शिल्प
3-लेखन शैली
4-लेखन का सामाजिक महत्व
5-लघुकथा केसरी विधा
6-लघुकथा काल खंड दोष से मुक्त हो
7-लघुकथा के आकार-प्रकार पर पैनी नजर
लघुकथा के बारे में अक्सर कहा जाता है कि  यह एक क्षण का चित्र प्रस्तुत करती है।  परन्तु मेरा मानना है कि लघुकथा केवल किसी। क्षण की उपलब्धि मात्र ही नहीं है, अपितु यह तो दीर्घ साधना की उपलब्धि है।
**सोशल मीडिया, इंटरनेट के द्वारा लघुकथा को उच्च स्थान अब मिलने लगा है।सोशल मीडिया के कारण "लघुकथा"आज की अत्यंत लोकप्रिय विधा बन गयी है, इसमें नये-नये साहित्यकारों के लिए अपार संभावनाएं हैं और ज्यादा से ज्यादा जुड़ रहे हैं। सोशल मीडिया ने लघुकथा को बड़ा बना दिया है।
**लघुकथा का बाजार बढ़ रहा है। बहुत से लोग हैं जो सोशल मीडिया पर खूब लिख रहे हैं और शेयर भी कर रहे हैं, एक खास बात यह है कि लघुकथा के लिए वरदान है कि वह कम समय में पढ़ ली जाती है,आज के समय में किसी के पास समय नहीं है। सोशल मीडिया ने लघुकथा को बना दिया बड़ा ।
अभी तक तो  आंनलाइन काव्य पाठ  हर मंच पर  पढ़ी जा रही है। लेकिन लघुकथा की आंनलाइन पाठ की शुरुआत "अवसर साहित्य धर्मी पत्रिका-"के मुख्य संपादक सिद्धेश्वर  जी  के  सौजन्य से सम्पन्न हुआ। इन्होंनें   बिहार में  लघुकथा  को आगे बढ़ाने में एक अलौकिक अलग जगाया है साहित्यकारों के दिल में लघुकथा के लिए इस जज्बे की जय हो!

 जयन्त -ने लिखा है कि -"
लधु कथाओं ने हिन्दी साहित्य में अपनी एक अलग ही पहचान स्थापित की है। आरम्भ से ही विद्वान कहानी के सिकुड़ते धरातल पर अपना आक्रोश प्रकट करते रहे हैं। उनका यह मानना रहा है कि प्रत्येक कहानी का अपना एक कथानक एवं कथ्य होने के साथ-साथ उसका एक ताना-बाना होता है तभी कहानी कला के दृष्टिकोण से वह कहानी पूर्ण मानी जाती है। लघु कथाओं को भी आरम्भ में इस प्रकार की आलोचना झेलनी पड़ी और उन्हें एक भोंडा प्रयोग तक कहा गया। आज जबकि कविता को छंद-विधान से मुक्त कर दिया गया है और मुक्त छंदों वाली कविता ही प्रचलन में ज़्यादा है तो कहानी के साथ भेदभाव क्यों आज तो लघु कथाओं और सामान्य कहानियों के बीच की कहानियों का प्रचलन हिन्दी साहित्य में देखने को मिल रहा है। ये कहानियाँ ज़्यादा लम्बी नहीं हैं तो इतनी छोटी भी नहीं कि इन्हें लघु कथा कि संज्ञा दी जा सके। मेरे विचार से कोई भी कहानी आपने-आप में पूर्ण काल्पनिक नहीं होती। कहानी की पृष्ठभूमि हमारे आसपास के परिवेश से तैयार होती है। गुजरते हुए वे क्षण जो हमारी चेतना और विचारों को झकझोरते हैं अथवा हमें कुछ सोचने को विवश करते हैं यहीं से कहानी शुरु होती है और कथाकार की कल्पना के पंख लगा कर उड़ान भरती है। छोटी बड़ी कथा या कहानी थोड़ी देर के लिए ही सही यदि पढ़ने वाले को इस भागती फिर रही दुनिया में पल भर के लिए सोचने के लिए बाध्य कर देती है या फिर उसे आड़ोलित कर जाती है तो उसे अपूर्ण या एक प्रयोग भर कदापि नहीं कहा जा सकता।
**लघु कथा वर्तमान भाग-दौड़ की उपज है। वर्तमान में किसी के पास समय नहीं है और तकनीकी विकास के कारण अनेक नई व्यस्तताएँ सामने आईं हैं। आज कोई पाठक यदि किसी पत्रिका को पढ़ने के लिए उठाता है तो सबसे पहले उसे अपने समय के आभाव का ही ध्यान रहता है और वह उस पत्रिका में सर्वप्रथम अपनी पसन्द के स्तंभ देखता है। ऐसा पाठक जो साहित्य से कुछ ज़्यादा ही जुड़ाव रखता है वह या तो लघु कथा को देखता है या फिर कविताओं पर उसकी नज़र जाती है। इसके बाद ही उसकी नज़र कहानियों पर जाती है। स्पष्टतः इन्हें वह कम समय में पढ़ सकता है और इससे उसकी मानसिक भूख शांत होने के साथ-साथ पढ़ने का सुख एवं संतुष्टि भी मिलती है।
**करोना संकट के ठीक पहले की बात की जाए तो एक ही बात सामने आती है कि दूरदर्शन, कम्प्यूटर और इन्टरनेट के प्रचलन के कारण वर्तमान में पठनीयता एवं भावपूर्ण वाचन की प्रवृति में तेज़ी से गिरावट आई है। आज का युवा वर्ग अंग्रेजी साहित्य को पढ़ना पसन्द करता है। इससे वह अपनी सभ्यता और संस्कृति से दूर होता जा रहा है। जब लोग पढ़ेंगे नहीं तो जुड़ेंगे नहीं तो न तो उनके विचार बनेगे न ही उनका नव दर्शन विकसित हो पाएगा। यही कारण है कि आज समाज में वैचारिक क्षरण एवं चिन्तन का ह्रास हुआ है और नैतिकता गिरती जा रही है तथा समाज व्याकुल है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि कानून बना देने भर से हमारा कर्तब्य पूरा नहीं हो जाता। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश और समाज में बढ़ती राक्षसी प्रवृतियों के मूल कारण की ओर लोगों का ध्यान नहीं जा रहा है। ध्यान रहे साहित्य समाज का निर्माता है और नई पीढ़ी में पढ़ने की आदत को बढ़ावा देने उन्हें कल्पना से यथार्थ की ओर मोड़ने स्वयं एवं समाज के नव दर्शन के निर्माण के लिए लघु कथा की भूमिका और भी महत्त्वपूर्ण है। अभी के इस संकट ने लोगों को एक-दूसरे से दूर कर दिया है। एकमात्र साधन के रूप में आनलाइन सोशल मिडीया ही दिख रहा है जिससे लोग एक-दूसरे से जुड़े हैं।
**मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और एक-दूसरे न मिल पाने की छटपटाहट से वह अवसादग्रसित हो सकता है। इसे ही डाक्टर अंग्रेजी में डिप्रेशन का नाम देते हैं। वर्तमान में पाठक ई-पाठ्य सामग्री ही पढ़ पा रहे हैं। यही वह समय है कि आनलाइन को माघ्यम बना कर पाठकों तक कुछ श्रब्य सामग्री भी पहुँचायी जाए। लघु कथाओं का आनलाइन पाठ इस कार्य को बड़े ही सटीक ढंग से कर सकेगा। 
**लघु कथाएँ अपने पैनेपन के कारण पाठकों पर गहरी छाप छोड़ती हैं और उन्हें सोचने को विवश करती हैं और यही तो साहित्य का उद्देश्य है। संक्षेप में लघु कथाओं के लिए इतना ही कहना उपयुक्त होगा कि देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर। संकट की इस घड़ी में सिद्धेश्वर जी के द्वारा सृजनात्मकता को एक नए आयाम देने का यह प्रयास निश्चय ही प्रशंसनीय है।

संजय कुमार( बेगुसराय) के अनुसार - 
"'इंटरनेट के मंच पर ऑनलाइन लघुकथा पाठ की प्रासंगिकता ' -के संदर्भ में सर्वप्रथम निवेदित है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ऐसे आयोजन ही प्रासंगिक हैं | समस्त विश्व जब अनायास आगत आपदा से आक्रांत है, चारदीवारी में कैद आकुल -व्याकुल रचनाधर्मिता उन्मुक्त अभिव्यक्ति के लिये व्यग्र हो रही है तब उनके लिये स्वतंत्रता का मार्ग हैं ऑनलाइन कार्यक्रम ; गृह कैद की  अनुभूति से मानसिक उद्वेलन का शिकार हो रहे इंसान के लिए यह  आयोजन अमृत बूंद हैं | अतिशयोक्ति नहीं होगी कि  आज लघुकथा विधा जब विभिन्न माध्यमों से अपने आप को अत्यधिक सुदृढ़ कर चुकी है तो दूरस्थ कार्यक्रमों की सफलता भी संदेह से परे ही है | स्थिरता में  गतिशीलता के ,आलस्य में  क्रियाशीलता के अनुपम स्रोत हैं -ऑन लाइन लघुकथा पाठ के आयोजन | यहाँ  प्रदत्त विषय में तीन बिंदु अत्यंत महत्वपूर्ण हैं |पहला -इंटरनेट का मंच , दूसरा - लघुकथा और तीसरा - उसके पाठ की प्रासंगिकता |अब अगर तीनों को मिलाया जाए तो एक बहुत बड़ी संभावना दिखती है | किसी लघुकथा  का सृजन हो जाना ही काफी नहीं होता ,बल्कि  उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है उसका पाठ | पुन: ,लघुकथा पाठ दो प्रकार से हो सकते  हैं  | एक - स्वयं लघुकथाकार द्वाराऔर दूसरा अन्य द्वारा | निश्चित ही  रचनाकार अपनी रचना का पाठ जब स्वयं करता है तो मानो वह अपने रक्त से पैदा किए हुए किसी बच्चे को सहला रहा होता है | संभव है वह अपनी रचना में मोहवश  दोषों को , कमियों को अनजाने ही अनदेखा कर जाता हो |किंतु मंच पर पाठ द्वारा जब उसी रचना को सार्वजनिक कर दिया जाता है तो  प्रत्यक्ष मंच की अपेक्षा करता   है। 

हेमन्त दास 'हिम' -
लघुकथा, छोटी कहानी नहीं है बल्कि एक स्वतंत्र विधा है। अपनी सूक्ष्म दृष्टि से मारक प्रहार करना इसका अनिवार्य गुण है। मेरे विचार से जब तक पात्रों के द्वारा रचा गया कोई छोटा कथानक आपके अंतर्मन को उद्वेलित या हतप्रभ न कर दे तब तक वह कुछ और हो सकता है जैसे कि- चुटकुला या उपदेश या सीख पर लघुकथा नहीं। आज के समय में बहुत बड़ी संख्या में रचनाकार सीख देनेवाली कुछ पंक्तियाँ लिखकर उसे लघुकथा समझ लेते हैं वह ऐसे ही हुआ जैसे कि कोई रचनाकार,  ग़ज़ल के फॉर्मेट पर दिनचर्या की या घिसी पीटी बातें लिखकर उसे ग़ज़ल कह दे।
कोई पाठक जब तक किसी पढ़ी या सुनी गई रचना से अपना व्यक्तिगत तादात्म्य नहीं स्थापित कर लेता बल्कि यूं कहें कि जब तक वह किसी पात्र से खुद को या अपने आसपास के किसी नजदीकी व्यक्ति को उससे जोड़ नहीं पाता तब तक उस रचना का ख़ास प्रभाव उस पर नहीं पड़ता। आदमी पर उपदेशों का उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना अनुभूतियों का पड़ता है और इसलिए लघुकथाएँ झकझोड़नेवाली अनुभूतियाँ (जो मुख्यतः करुणा या अन्याय के प्रति विद्रोह की होती है) को पाठकों के अंतर्मन तक संचरित करने में लगी रहे यही सम्पूर्ण समाज के लिए वांछित है।
**ऑनलाइन लघुकथा पाठ में दो लाभ हैं - एक तो यह देश ही नहीं बल्कि विश्व के कोने कोने से लोगों को एक साथ एक ही समय में जोड़कर संवाद करावाता है, दूसरा यहाँ - फालतू के वार्तालाप की गुंजाइश बहुत कम होती है। अतः कुल मिलाकर विचार गोष्ठी की सघनता और गुणवत्ता वास्तविक गोष्ठियों से काफी अधिक हो सकती है यदि तकनीकी गड़बड़ी की समस्या न आए।
**अपनी पहल पर लघुकथा की ऑनलाइन गोष्ठी आयोजित करने का सिद्धेश्वर जी का प्रयास अत्यंत सराहनीय है। पटना की साहित्यिक गतिविधियों को लिपिबद्ध करने का जो उनमें उल्लेखनीय जज्बा है वह बहुस्तरीय है। वे लगभग हर प्रमुख घटनाओं की अभूतपूर्व रूप से विस्तृत रपट लिखते हैं, वीडियो भी बनाते हैं और ऑनलाइन गोष्ठियां भी आयोजित करते हैं, ऑफ लाइन गोष्ठियां तो वर्षों से आयोजित कर ही रहे हैं। उनका लघुकथा पर ऑनलाइन गोष्ठी आयोजित करने विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि लोंकडाउन का बेहतर इस्तेमाल करते हुए इस प्रकार की गोष्ठियों की महती आवश्यकता है ताकि लोगों के दिमाग पर से पर्दा उठ सके।

मधुरेश नारायण:  
समसामयिक और प्रासंगिक विषय है।लाँक डाउन के इस अभूतपूर्व समय में जब कि सभी को अपने-अपने घरों में रहना है।आपस में मिलना-जुलना बंद है।आन-लाइन पाठ चाहे,लघुकथा का हो,या कविता.गजल का हो प्रासंगिक हो जाता है।रही बात लघुकथा की तो आज पूरे विश्व में इस ने अपना स्थान बना लिया है।पद के क्षेत्र में जैसे हाइकु,ग़ज़ल,गीत ने।इसका एकमात्र कारण आज की पीढ़ी के पास समय का अभाव है ।मोटी-मोटी पुस्तकों का अध्ययन करने की चाहत होते हुए भी वह मजबूर हो जाता है।इस लिये 20-20 क्रिकेट मैच की तरह कम समय में  नतीजा जानने की उत्सुकता या चाहत होती है।यही कारण है कि इसके प्रति क्रेज़ बढ़ता जा रहा है। मेरे कहने का  अभिप्राय यह नही की महा ग्रन्थ या महा काव्य के पाठक या श्रोता नहीं हैं।हर विधा हर विषय वस्तु के अलग-अलग पाठक होते हैं,देखने-सुनने वाले होते हैं।
**आज आन लाइन के माध्यम से हमारा दूर-दराज़ के लेखक-कवि लोगों से सम्पर्क होता है,उन को हम जानने लगते हैं।वो हमें जानने लगते हैं।उनकी लेखन शक्ति से परिचित हो पाते हैं।
**इंटर नेट ने पूरी दुनिया को एक परिवार का रूप दे दिया है।दरअसल लघु कथा एक ऐसा माध्यम है जिसकी ख़ासियत होती है कम शब्दों में पूरी बात करना।लघुकथा सार है गद्य का।इसलिये इंटरनेट के आनलाइन मंच पर इसकी प्रासंगिकता बढ़ जाती है।
                  
अशोक अंजुम (अलीगढ़) से लिखते हैं कि - "
'इंटरनेट के मंच पर "ऑनलाइन लघु कथा पाठ की प्रासंगिकता" विषय पर आपने जो विचार गोष्ठी रखी है, यह निश्चित ही बहुत नया, अनछुआ विषय है।  इंटरनेट एक ऐसा माध्यम है जिसमें संचार के सभी माध्यमों का समावेश है। इंटरनेट के माध्यम से आप बहुत कम समय और कम खर्च में अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचा सकते हैं क्योंकि इसकी पहुँच संसार के कोने कोने तक है। तो ऐसे में अगर लघुकथा पाठ के लिए इस माध्यम का प्रयोग सलीके से पूरी रणनीति बनाकर किया जाए तो हम इस विधा को विश्व पटल पर लोकप्रिय बना सकते हैं। अभी इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ है। सिद्धेश्वर जी ने कमान संभाली है और इस विचार गोष्ठी के पूर्व वे इंटरनेट पर लघुकथा पाठ का एक कार्यक्रम आयोजित भी कर चुके हैं। उस कार्यक्रम की लोकप्रियता के चलते यह कहना निश्चित ही उचित होगा कि अगर लघु कथा पाठ के लिए इंटरनेट के माध्यम को अपनाया जाता है तो न सिर्फ यह नए लेखकों के लिए एक अच्छे प्लेटफार्म का काम करेगा बल्कि अधिक से अधिक लोगों तक अपनी पहुँच बना कर लघुकथा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। सिद्धेश्वर जी ने इस कार्य को अंजाम दिया है। अन्य लघुकथा प्रेमियों को भी इस दिशा में क़दम आगे बढ़ाना चाहिए ताकि गागर में सागर भरने वाली यह विधा अधिक से अधिक प्रचारित और प्रसारित हो सके। 

डा बी एल प्रवीण डुमरांव
सवाल लघुकथा का नहीं, साहित्य के अन्य विधाओं का भी है जिनका पाठ इंटरनेट के मंच पर किया जा सकता है। काव्य पाठ इसका ज्वलंत उदाहरण है। परंतु यहां प्रासंगिकतावश लघुकथा पर विचार किया जाना है जो एक महत्वपूर्ण विषय के रूप में उदित हुआ है। कहना न होगा कि न्यूनतम साधन,समय एवं लागत के हमारी साहित्यिक चेतना का प्रसार अधिक लोगों तक एक साथ होना अब संभव प्रतीत होने लगा है।
** विषयगत तथ्यों पर विचार करें तो हम पाते हैं कि एक लम्बे अरसे से हमारी जड़ें प्रिंट मीडिया से जुड़ी हुई रही हैं। किंतु आज इंटरनेट की वजह से इसकी सार्थकता प्रभावित हुई है। जब हम किसी विषय पर बोलते हैं तो भाव-भंगिमा के जरिए उसके कथ्य और दृश्य ज्यादा प्रभावकारी हो उठते हैं जो रोचकता के साथ-साथ मनुष्य के अवचेतन मन में भी अपनी पैठ बना लेते हैं। वही चीज यदि केवल मन में पढ़नी हो तो पाठक विशेष पर उसकी बोधगम्यता अलग-अलग तरीके से प्रकट होती है जो उनके मनोवैज्ञानिक कारणों को दर्शाता है।
**ऑनलाइन लघुकथा पाठ का इंटरनेट पर किया गया प्रदर्श तुलनात्मक दृष्टिकोण से हमें अधिक उत्साहित एवं प्रफुल्लित करता है। गोया, इसका अपना अलग ही रचना संसार हो।
इस प्रकार के आयोजनों की सार्थकता एवं उपयोगिता इनकी प्रस्तुति कला एवं सामंजस्य पर निर्भर करती है। आवश्यकता है इसके विस्तारीकरण की जिसका अपना सुदृढ़ नेटवर्क हो तथा इसकी तारतम्यता बरकरार रहे।
यद्यपि, लघुकथा लेखन में काफी मेहनत की आवश्यकता होती है। एक छोटी-सी घटना कभी कहानी नहीं बन सकती। किंतु उसका घटित होना यदि मुखर बन जाए तो उसे आबद्ध कर लेना ही लघुकथा है। अन्यथा, उसे रिपोर्ताज ही रहने दिया जाए तो बेहतर।
**आम तौर पर कथा लेखन में कलात्मक पक्ष गौण हो जाता है। हम उपदेश और ज्ञान देने में ज्यादा भरोसा करते हैं। इसी बूनावट पर हम अपनी लेखनी की सूई पिरोने लगते हैं। फलत: हम लघुकथा के साथ कभी न्याय नहीं कर पाते। कम ही लघुकथाएं होती हैं जिनसे हम प्रभावित भी होते हैं। अतः मंच इस दिशा में भी अपनी भूमिका निभाए तो सकारात्मक प्रयासों को एक सार्थक आयाम मिलेगा।
अस्तु, लघुकथा पाठ की प्रासंगिकता को   इंटरनेट के माध्यम से  एक नया पंख ग्रहित हुआ है, इस बात से गुरेज नहीं किया जा सकता। विशेष रूप से तब,जब श्रव्य और दृश्य को एक साथ जोड़ कर प्रस्तुत करने का एक निहायत ही अभिनव प्रयास किया जा रहा हो।इस कार्यक्रम के संयोजक सह प्रस्तावक सिद्धेश्वर जी धन्यवाद के पात्र हैं जिनकी कलात्मक सोच एवं कर्मठता की वजह से हम लघुकथा के इतिहास में पहली बार इस प्रकार का अद्भूत परिवर्तन देख पाए हैं।

अनीता राकेश- 
'इंटरनेट के मंच पर ऑनलाइन लघुकथा पाठ की प्रासंगिकता ' -के संदर्भ में सर्वप्रथम निवेदित है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में ऐसे आयोजन ही प्रासंगिक हैं | समस्त विश्व जब अनायास आगत आपदा से आक्रांत है ,चारदीवारी में कैद आकुल -व्याकुल रचनाधर्मिता उन्मुक्त अभिव्यक्ति के लिये व्यग्र हो रही है तब उनके लिये स्वतंत्रता का मार्ग हैं ऑनलाइन कार्यक्रम ; गृह कैद की  अनुभूति से मानसिक उद्वेलन का शिकार हो रहे इंसान के लिए ये  आयोजन अमृत बूंद हैं | अतिशयोक्ति नहीं होगी कि  आज लघुकथा विधा जब विभिन्न माध्यमों से अपने आप को अत्यधिक सुदृढ़ कर चुकी है तो दूरस्थ कार्यक्रमों की सफलता भी संदेह से परे ही है | स्थिरता में  गतिशीलता के ,आलस्य में  क्रियाशीलता के अनुपम स्रोत हैं -ऑन लाइन लघुकथा पाठ के आयोजन | यहाँ  प्रदत्त विषय में तीन बिंदु अत्यंत महत्वपूर्ण हैं |पहला -इंटरनेट का मंच , दूसरा - लघुकथा और तीसरा - उसके पाठ की प्रासंगिकता |अब अगर तीनों को मिलाया जाए तो एक बहुत बड़ी संभावना दिखती है | किसी लघुकथा  का सृजन हो जाना ही काफी नहीं होता ,बल्कि  उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण होता है उसका पाठ | पुन: ,लघुकथा पाठ दो प्रकार से हो सकते  हैं  | एक - स्वयं लघुकथाकार द्वाराऔर दूसरा अन्य द्वारा | निश्चित ही  रचनाकार अपनी रचना का पाठ जब स्वयं करता है तो मानो वह अपने रक्त से पैदा किए हुए किसी बच्चे को सहला रहा होता है | संभव है वह अपनी रचना में मोहवश  दोषों को , कमियों को अनजाने ही अनदेखा कर जाता हो |किंतु मंच पर पाठ द्वारा जब उसी रचना को सार्वजनिक कर दिया जाता है तो  प्रत्यक्ष मंच की अपेक्षा इंटरनेट का मंच पाठकों के बड़े समूह को जोड़ता है और रचना को खुलकर देखने सुनने और समझने का अवसर देता है | सुधी पाठकों और आलोचकों के कर्ण कुहरों से गुजर  कर लघुकथा मानो परीक्षा की घड़ियों से गुजरती है |यह अग्निपरीक्षा भी हो सकती है और सामान्य परीक्षा भी |   ऑनलाइन  पाठ के क्रम में लघुकथाकार को एक विद्यार्थी एवं परीक्षार्थी की भांति स्वयं को स्थापित करना होता है |प्रतिफल को यदि  ईमानदारी से स्वीकार किया जाय तो निस्संदेह  ऐसे आयोजन समाज को और साहित्य को उत्कृष्ट रचना और महान रचनाकार प्रदान कर समृद्ध बनाने में सहायक होते हैं |वर्तमान परिदृश्य में अॉनलाइन लघुकथा पाठ के आयोजन  ही प्रासंगिक हैं | ये स्नेहपूर्ण शाबाशियों एवं थपकियों के बीच परिमार्जन का काम उस गुरू के समान करते है जिसकी बात क्रांतिकारी  कबीर करते हैं -
'' गुरु कुम्हार शिष कुंभ है ,
गढ़ि - गढ़ि काढ़े खोट |
भीतर हाथ सहार दे ,
बाहिर मारे चोट |''

कवि पत्रकार अमलेंदु ने कहा कि - इंटरनेट के माध्यम से  लघुकथा की व्यापकता  तो  बढ़ी ही है, सकारात्मक रुझान भी पैदा हुआ है । दूर दराज के लोगों को समेटने का  सक्षम माध्यम है  इंटरनेट।

कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन किया कथाकार जयंत ने। 
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प्रस्तुति :सिद्धेश्वर एवं हेमंत दास हिम
परिचय : श्री सिद्धेश्वर - अध्यक्ष :भारतीय युवा साहित्यकार परिषद /पटना/
मोबाइल नं:9234760365 (ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com)
श्री हेमन्त दास 'हिम' - सदस्य, संपादक मंडल, बेजोड़ इंडिया ब्लॉग
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com)


















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