Tuesday 7 April 2020

नवी मुंबई के आईटीएम काव्योत्सव की नियमित गोष्ठी 5.4.2020 को नियत समय पर इसके व्हाट्सएप्प ग्रुप में सम्पन्न

गिरजाघर में मौन है , मस्जिद नहीं नमाज़ / मंदिर से ग़ायब हुई , घंटों की आवाज़ 

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"इरादा कर लिया तो पहुँच ही जाएंगे
सफर को पाँव नहीं दिल की है दरकार"

इस बार भारी संकट उपस्थित था विजय भटनागर के नेतृत्व में वरीय कवियों द्वारा संचालित इस काव्योत्सव पर जो विगत लगभग नौ वर्षों से बिना किसी स्थगन के निर्धारित स्थान और निर्धारित समय पर मासिक रूप से चलता आ रहा था. कोरोना की रोकथाम के मद्दे-नजर देशभर में घर से बाहर निकलने पर प्रतिबंध है. पर सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध कवियों की कसमसाहट का आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं.

दिनांक 5.4.2020 को  "आईटीएम काव्योत्सव "की 108वीं काव्य-सन्ध्या का समायोजन "आन लाइन" पहली बार किए जाने की सफलता , काव्य-धरा पर वर्तमान सामयिक परिस्थिति को देखते हुए , ऐतिहासिक व उल्लेखनीय रही । इस आन-लाइन कविता पाठ में उपस्थित सभी रचनाधर्मियों ने अपनी-अपनी बड़ी ही उत्कृष्ट रचनाएँ आईटीएम के व्हाट्सएप्प ग्रुप में निर्धारित समय पर  वीडियो के माध्यम से प्रस्तुत कीं ।  वन्दना श्रीवास्तव द्वारा माँ सरस्वती की वन्दना,   भारत भूषण शारदा  द्वारा राष्ट्रगान आन-लाइन उपस्थित रहकर सभी साथियों द्वारा साथ में किया गया । सभी सहयोगियों ने नवी मुम्बई में रहनेवाले प्रख्यात लघुकथाकार सेवा सदन प्रसाद के लिए शीघ्र स्वस्थ होने की कामना की । भोपाल निवासी किशन तिवारी की अध्यक्षता व  अनिल पुरबा के कुशल कार्यक्रम प्रबन्धन में यह सुचारु रूप से सम्पन्न हुआ ।

कार्यक्रम के चलने का तरीका यह रहा कि कार्यक्रम प्रबंधक अनिल पुरबा पहले आईटीएम काव्योत्सव व्हाट्सप्प ग्रुप में संदेश भेजकर नाम पुकारते और फिर वह रचनाकार अपने घर से ही उस ग्रुप में अपनी रचना टेक्स्ट या वीडियो के रूप में अपलोड करते. उसके बाद सभी ऑनलाइन सदस्य उस पर 'ताली' का निशान अपलोड करके वाहवाही करते और प्रतिक्रिया में संदेश भेजते. मतलब समझिये कि वास्तविक दुनिया वाले काव्योत्सव का हूबहू आभासी अनुवाद था. इसे इस तरह से चलते देखना बेजोड़ इंडिया ब्लॉग के हेमन्त दास 'हिम' के लिए भी अनोखा अनुभव था. कुछेक सदस्यों द्वारा बिना पुकार के भी अपनी रचना अपलोड करते देखा गया जो विहित प्रक्रिया की जानकारी के अभाव में हुआ.

नीचे प्रस्तुत है प्रस्तुत की गई कविताओं की झलक. पहले टेक्स्ट के रूप में डाली गई कुछ पंक्तियाँ देखते हैं -

कार्यक्रम संचालक अनिल पुरबा को आखिर गुस्सा आ ही गया कोरोना पर और उन्होंने उसका गला दबोच डाला -
और आखिर मुझे गुस्सा आ ही गया,
जी हाँ, यकीन मानिये, मुझे भी
गुस्सा आता है I
**गुस्से में मैंने कोरोना वायरस का गला दबोचा,
और उसकी गर्दन मरोड़ते हुवे उससे पुछा,
क्यों बे वायरसिये, तूने कैसा कहर है ढाया,
घर में क़ैद कर दिया सबको,
क्या मामा, चाचा, क्या ताया I
**कोरोना हँसने लगा, प्रगट में चेह्कने लगा,
बोला, मुझसे उलझने से पहले,
तनिक अपना हाथ तो धो लेते
सनीटैज़र में मुझे भिगो तो लेते
मैंने कहा काहे इतना उधम मचाये है बे
वो बोला, सच कहूं तो आप बुरा मान जायेंगे
मैं आपके ही कर्मों का प्रसाद हूँ
आपकी नाफर्मानियों की इजाद हूँ
आप प्रकृति की अगर ऐसी तैसी ना करते
मेरे जैसे वायरस कहाँ से और कैसे पनपते
आप लोग अब भी कहाँ हो सावधान
वास्तविकता से कितने हो अनजान I
**भैया, घर में रहिये, आराम करिए,
भजन-कीर्तन करिए,
मैं तो तुच्छ वायरस हूँ,
मेरी कहानी दो चार दिनों की
आप अपना आचरण बदलिए
अपने विचार बदलिए,
धन-दौलत इकट्टा करते रह जाओगे
और एक दिन अचानक रुखसत हो जाओगे I
**बात मेरी समझ में आ गयी,
हमें अगर वायरस के खिलाफ जंग जीतनी है
तो पहले छोटी छोटी लड़ाइयां जीतनी होगी
एक दुसरे के करीब आने के लिए
फिलहाल दूरियां बनाये रखनी होंगी
सबका सामूहिक प्रयास नयी सुबह लायेगा
और कोरोना वायरस ही क्यों ना हो
हमारा संकल्प देख, डर के मारे भाग जायेगा I
- अनिल पुरबा की इस कविता की खूब सराहना हुई

तत्पश्चात पुरुषोत्तम चौधरी 'उत्तम' ने शम्मा-ए-इश्क जलाई - 
शम्मा-ए-इश्क जलाओ तो सही
रौनक-ए-बज़्म दिखाओ तो सही
हर सिम्त तीरगी अभी फैली हुई
अहले सहर ठहर जाओ तो सही
मुख़्तसर हो रहे अब ख्वाबे तरब
सूफ़ियाना ग़ज़ल सुनाओ तो सही
सुकूँ आ जाएगा दिल को मेरे
हाले-दिल अपना सुनाओ तो सही
लर्जिश-ए-हाल हों जो वालिदैन
फ़र्ज़-ए- इब्न ही निभाओ तो सही
वक्त एक जैसा कभी रहता नहीं
इब्तिदाई कदम बढ़ाओ तो सही
ज़ाहिद ! नसीहतें भूल जाओगे
लुत्फे- मयकशी उठाओ तो सही
पुरुषोत्तम चौधरी 'उत्तम' की इस ग़ज़ल का लोगों ने करतल ध्वनि के आइकंस के द्वारा स्वागत किया।

हेमन्त दास 'हिम' ने दिलों की महामारी की बात की जो कोरोना से भी खतरनाक है-
तड़प कर मैं मर जाता तो, मुझको कोई ग़म न था
ग़म है,  तड़पती हुई प्यार की निशानी रही
ये अज़ाब जो आया है आज जाएगा या कल
दिलों की महामारी पर, 'हिम' ये कब फानी रही!

वंदना श्रीवास्तव जीवन की क्षणभंगुरता को जानती हैं  इसलिए अलविदा कहने के लिए उस अंतिम वक़्त की प्रतीक्षा नहीं करतीं-
बातों  बातों में कह दिया अलविदा
वक़्ते-रुख्सत वो हम से मिले न मिले
हाथ थामे हुए तुम जो संग संग चलो
फिर  ज़मीं  का  किनारा  मिले न मिले
एक बस्ती बसाई तेरे नाम की
अब मुझे जग ये सारा मिले न मिले
सारी दुनिया की रौनक तेरे दम से है
बस रहे तू हमारा मिल न मिले

इस काव्योत्सव के सबसे प्रमुख स्तम्भ और संयोजक विजय भटनागर कवि तो हैं ही धर्म के सच्चे आस्थावान भी। इन दिनों घर में लम्बे स्वास्थ्य लाभ पर हैं।  पर आज तक वो ज़िंदगी की सारी जंग अपनी निश्चय शक्ति और धर्म में आस्था के बल पर जीतते आये हैं। वे कुछ यूँ कहते हैं - 
हमने तो मन को बस मे करके हर युद्ध जीता है
फतेह ही फतेह है परछाई बन स्वयं मां सीता है।
धन्यभाग्य हमारे आंख खुली तो था मां गंगा किनारे
भटके तो राह दिखाने को रामायण और गीता है।
फिर बही हैं दूध की नदियां,पहले भी बहती थी
रम विस्की नहीं अंत समय नर गंगाजल पीताहै।
(भारत दुग्धउत्पादन में नः1है)
घट घट में राम बसे है मिलने पर जै राम जी कहते हैं
ये वसुधैवकुटुम्बकम है विदेश  नही जहां हरघट रीता है।
देश जीत कर हड़पते नहीं हुकूमत बदल देते हैं।
योग्य लंकेश बना जंग के बाद,वहां पूजते मां सीता है।
- विजय भटनागर जी की इस कविता को तालियों की गड़गड़ाहट से सराहना की गई और लोगों ने उनके स्वास्थ्य के ठीक हो जाने की कामना की।

रजनी साहू 'सुधा'  जिन्हें बहुत भाता है शब्द-शब्द में शब्द-शब्द में भावनाओं को मुखरित कर रही हैं इस तरह से -
*शब्द-शब्द हो मुखरित हो जाये*
शब्द- शब्द मुखरित हो जाये !
जब मौन का भान लिखूँ मैं !!
स्वर लय सरगम सुर मेंं हो जब !
कण-कण में भगवान लिखूँ मैं!!
भाव सफल हो उद्बोधन का!
नवचेतन का मान लिखूँ मैं!!
विरह मिलन के गीत गा सकूँ!
तब जीवन वरदान लिखूँ मैं!!
अंतर्मन को आलोकित कर !
नश्वरता का ज्ञान लिखूँ मैं!!
जग भवसागर को समझूँ तो !
चिर अनंत तक ध्यान लिखूँ मैं!!
आत्म मन्थन निशि दिन कर के!
गरल सुधा रसपान लिखूँ मैं !!

रजनी साहू "सुधा" के इस गीत के पश्चात  जानकी जोशी का आगमन हुआ 
अति विचित्र है कथा व्यथा सम्बंधों की
सुधि गह्वर में छुपी हुई गाथा सम्बंधों की
प्रेम नैराश्य करुणा मिश्रित गाथाएँ
नवरस संचित कथा-व्यथा सम्बंधों की.

तत्पश्चात कवि  डा0 हरिदत्त गौतम "अमर" ने परहित में मरमिट जाने का आह्वाहन कुछ यूँ किया - 
आओ नव नव दीप जलाएं
गीत प्रेम के हिलमिल गाएं--
अंधकार की जला होलियां
घृणा द्वेष की त्याग बोलियां
प्रेम राग की सजा रोलियां
सजें फागुनी मस्त टोलियां
अंग अंग चन्दन गमकाएं
तन मन की सब पीर मिटाएं--
गंगा सदा अमृत बहती है
बनने को पावन कहती है
सारे पाप ताप सहती है
स्वास्थ्यानंद दिए रहती है
हम भी गंगाजल बन जाएं
हम से मिल कण कण मुस्काएं--
व्यर्थ हुए सब जादू टोने
नाम सलोने काम घिनौने
जलन दम्भ में सर्वोपरि पर
प्रेम दान में सबसे बौने
करुणा वरुणा स्रोत बहाएं
परहित में ही मर-मिट जाएं--
डा0हरिदत्त गौतम "अमर" के कविता-पाठ को लोगों ने खूब सराहा।

नवी मुम्बई में रहनेवाले प्रसिद्ध लघुकथाकार सेवा सदन प्रसाद गम्भीर रूप से बीमार चल रहे हैं पर फिर भी काव्य-साधना में ये 'निडर' दिखते हैं । इनकी अनुकरणीय साहित्यिक वृति की झलक देखिए - 
करोना का डर
पर हर इंसान है निडर 
तूने बर्बाद कर दिया
न जाने कितना घर ।
पर अब सुरक्षित है
सबका हर घर 
तुम्हारा पर कुतर डालेंगे
बस और थोड़ा ठहर।

उनके बाद अशोक वशिष्ट की पुकार हुई और उन्होंने वर्तमान हालात पर भारी मन से निकले दोहे  सुनाये -
गिरजाघर में मौन है , मस्जिद नहीं नमाज़।
मंदिर से ग़ायब हुई , घंटों की आवाज़ ।।
कोरोना ने लील लीं , अब तक जितनी जान।
उतने सड़कों पर मरे , घर जाते इन्सान ।।
हुआ पलायन देश में , वे सब थे मजदूर ।
वे अपने ही देश में , हैं कितने मजबूर ।।
भूखे-प्यासे चल पड़े , थक कर चकनाचूर ।
मीलों चल कर आ गये , जाना मीलों दूर ।।
सिर पर लादे गठरिया , चले शहर से गाँव।
पेट-पीठ दोउ एक हैं , छलनी हो गये पाँव।।
जो लौटा परदेस से , उसके लिए विमान।
हम अपराधी बन गये , श्रम का यह सम्मान(?)
- अशोक वशिष्ठ के स्तब्ध कर देनेवाले दोहों से लोग काफी प्रभावित हुए।

फिर पिछले कुछ माह में  विशेष रूप से सक्रिय रहे इस काव्योत्सव के एक प्रमुख स्तम्भ कवि विश्वम्भर दयाल तिवारी,  सागर के चांदनी  की लालसा को अपने छंदों में अभिव्यक्त करते हैं -
लेता है समेट सब जल-बल
सिन्धु चाँदनी को ललचाए ।
सरसिज को ना पाल सके पर
जो कीचड़ में भी खिल जाए ।।
**बुझा न पाये तृषा मनुज की
नीर भले उसका है निर्मल ।
जलद सृजन करते रवि तप से
तो धरती पर बरसे मृदु जल ।।
**है पयोधि पावन पृथ्वी पर
जुड़ते इससे सरिता ताल ।
अगणित जीवों को यह पाले
सहृदयता का रूप विशाल ।।
**वारिधि तो गहरा विशाल
रत्नाकर भी कहलाता है ।
अपनी लहरें लघु-दीर्घ बना
सुधाकर को दिखलाता है ।।
**चौदह रत्न छिन गये इसके
पर ना व्यथा क्षोभ आया ।
देता रहा अमोल द्रव्य बहु
जीवन मोती कुल माया ।।
**विनती करी राम ने लेकिन
सागर ने सुधि ना दिखलाई ।
जब विनय क्रोध में परिवर्तित
तब जलनिधि ने नीति जताई ।।
**सच बता दिया रत्नाकर ने
पथ पानी पर कैसे बनता ।
पाहन भारी भी तैर उठे
बल-दर्प दशानन सिर धुनता ।।
- विश्वम्भर दयाल तिवारी की इस छंदबद्ध रचना की काफी प्रशंसा हुई।

फिर कवि विमल तिवारी ने माता के घर में ललना की लालसा का शब्दचित्र रखा -
बडी़ तपस्या और तमन्ना थी माता की उस घर मे।
ललना एक तो दे दे ईश्वर इस मेरे सूने उर मे।
तरह तरह की पूजन से वह देवों को मना डाला।
ईश्वर आज विवश हो कर के मुदित हो आशिष दे डाला।
तेरी पूजा से प्रसन्न हो आज बचन मैं देता हूं।
अगले वरस एक सुंदर ललना पलना मे रख देता हूं।
आंचल ऊपर किये मातु तब मानौ वो बातें करती।
देवों के उन आशिषों से मानौ वो झोली भरती।
प्रमुदित मुदित चकित हो बैठी रहे निहारे वो अंगना।
अगले वर्ष तक पा जाऊंगी मै अपना प्यारा ललना।
चिंता की सब रेखाएं
थीं रहीं दिखाई यूं मिटतीं।
जैसे ऊषा काल मे मानौ काली घटाऐं हों छटतीं।
एक प्रकाश पर्व है यह अब मेरे अपने जीवन मे।
उस प्रकाशमय दीपक से, आलोकित हो घर हो अंगना।
- विमल तिवारी के इस गीत की उपस्थित सदस्यों ने तालियों का आइकन देकर खूब सराहा।

आइये अब शेयर हुए कुछ वीडियो की पंक्तियों पर भी दृष्टि रखते हैं -

आज ऐसा समय आ गया है कि जब किसी को साधारण जुकाम भी होता है तो अजीब से अपराधबोध से ग्रस्त नजर आता है कि कहीं लोग उसे कोरोना का रोगी न घोषित कर दें वो भी बिना किसी जाँच के।  तो लीजिए अपनी हास्य कविताओं से सबको गुगगुदी कर देनेवाली कवयित्री दीपाली सक्सेना जो जुकाम से कुछ यूँ इल्तिजा करती हैं -
ऐ मेरे प्यारे जुकाम
मुश्किल में अब तेरे प्राण
जा कहीं छुप जा

कवयित्री मधु शृंगी को परवाज वाले मन की तलाश है -
मुझको उड़ने को ऊँचा गगन चाहिए
जिसमें परवाज हो ऐसा मन चाहिए

रामेश्वर गुप्ता भी अपने वीडियो में कहते हैं कोरोना का भी अंत होगा -
हर कठिनाई के बाद अच्छे दिन आते हैं
ईश्वर ने जरूर कुछ नई सुबह बनाई है

प्रकाश चंद्र झा हर बार की तरह इस बार भी एक सामयिक सुंदर गीत लेकर प्रस्तुत हुए -
सैलून सारे बंद पड़े हैं
मानवता खतरे में है दुनिया पर संकट भारी है
कुदरत का कहर है ये कोरोना क्रूर बिमारी है

भारत भूषण 'शारदा' एक प्रेमी हैं लेकिन लोग उन्हें समझ नहीं पाते और नाराज हो जाते हैं - 
क्यूँ हो तुम नाराज बता दो
क्या ये भूल हुई मेरे से
प्यार किया मैंने तेरे से
प्रेमी के मन की हालत का
है तुमको अंदाज बता दो

सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव देश से सारी बुराइयों को मिटाने हेतु कृतसंकल्प हैंं-
आज से भूख, अन्याय, अशिक्षा मिटाना है
भेदभाव की वृत्ति को भी बंधु अब मिटाना है

अलका पाण्डेय नारी सम्मान की पुनर्स्थापना हेतु कमर कस चुकी हैं -
नारी हूँ मैं नारी का सम्मान चाहिए
मुझको मेरे होने का अभिमान चाहिए
नहीं चाहिए शोहरत मुझको नहीं चाहिए दौलत
बेटी हूँ मैं बेटी का ही मान चाहिए

चंद्रिका व्यास ने छोटे वायरस के बड़े कारनामों प्रकाश डाला-
छोटा सा एक वायरस बड़े-बड़े महारथियों को हराया
 क्या पाया क्या गवांया
इंसान, कुछ समझ में आया !
 इन हवाओं में ज़हर
अपने हाथों से मिलाया है तुम्हारा बोया बीज खुद तुम्हारे सामने आया है !

इस गोष्ठी के अध्यक्ष किशन तिवारी, भोपाल  से कहते हैं कि =
हकीकत है जिसे कहते हो तुम कोई कहानी थी
हमारे दौर की आबो-हवा में इक रवानी थी
नहीं झुकना हमें आया किसी दरबार में अब तक
गरीबी हो मगर पीढ़ी मगर वो स्वाभिमानी थी
इन सभी वीडियो को लोगों ने खूब पसंद किया और हर एक पर बहुत ज्यादा प्रतिक्रियाएँ आईं।

अंत में धन्यवाद ज्ञापन के साथ अध्यक्ष की अनुमति से इस अनूठी आभासी किंतु वास्तविक गोष्ठी की तरह ही नियमबद्ध और अनुशासित साहित्यिक सभा का समापन हुआ जिसने अपनेआप में एक इतिहास रचा।
......

रपट का मूल आलेख - विश्वम्भर दयाल तिवारी
रपट की प्रस्तुति और संयोजन - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल - editorbejodindia@gmail.com























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