Wednesday 8 April 2020

अवसर साहित्याधर्मी पत्रिका का हेलो फेसबुक कवि सम्मेलन 4.4.2020 को संपन्न

कोरोना से डर कर भागे / भोजन बिन अब मरते साहब

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किसी का नहीं है यह निगोड़ा! "कहने को यह छोटा सा वायरस है पर एक तरफ जहाँ विश्व के सबसे धनी और प्रभावशाली वर्ग को इसने मसल डाला है वहीं इस शैतान ने रोज कमाने-खानेवाले मेहनतकश करोड़ों मजदूरों पर भयंकर प्रहार किया है उनकी रोजी-रोटी छीनकर। लाखों को यह बीमारी देकर मार रहा है तो करोड़ों को भूखमरी करा कर।

कोरोना वायरस से डरे हुए लोग अपने अपने घर में बंद हैं, ताकि इसे फैलने से बचाया जा सके! दूसरी तरफ एकांतवास में हमारे भीतर तनाव चिंता और एकाकीपन का एहसास भी हो रहा है। कई लोग तो भ्रम और अफवाह फैलाने में लगे हुए हैंऐसी विकट स्थिति में, अपनी सृजनात्मकता को जारी रखते हुए और हम सबको एक हद तक राहत देते और सचेत करते हुए, सृजनात्मकता को जोड़ने का काम कवि चित्रकार सिद्धेश्वर जी कर रहे हैं - अवसर साहित्यकर्मी पत्रिका फेसबुक इंटरनेट और मीडिया के माध्यम से।

फेसबुक तथा व्हाट्सएप ग्रुप मंच पर आयोजन का संचालन करते हुए सिद्धेश्वर ने कहा कि-" हेलो फेसबुक कवि सम्मेलन, चर्चा परिचर्चा, तथा लघुकथा सम्मेलन का आयोजन करने के उद्देश्य से देशभर के साहित्यकारों से जुड़ना एक सुखद अनुभव रहा है मेरा। और संतोषजनक भी।

आगे सिद्धेश्वर ने कहा कि यह लॉकडाउन टूटने के बाद भी हमारा यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा! इस मंच पर अपने अपने मोबाइल के माध्यम से लगभग डेढ़ दर्जन कवियों ने अपनी- अपनी कविताओं से एक दूसरे को साझा किया इन कवियों में प्रमुख थे- राश दादा राश, मधुरेश नारायन, घनश्याम, सिंधु कुमारी, शिवनारायण, निविड़ शिवपुत्र, राजप्रिया रानी, चंडीगढ से राशि श्रीवास्तव, मौसमी सिंहा, विश्वनाथ वर्मा, मीना परिहार, पूनम श्रेयसी आदि  

इस आभासी कवि सम्मेलन में बातें जमाने की हुई और दिल की भी लेकिन कोरोना का विषय कहीं न कहीं घर किये रहा - 

शिवनारायण वो ग़ज़लकार हैं जो बातों ही बातों में गहरे संदेश दे जाते हैं। दूसरों के नुख़्स निकालने की बजाय वो खुद को रुस्वा करना बेहतर समझते हैं। देखिए उनकी यह मुक्कमल ग़ज़ल -
वक्त की नाजुकी समझा करें
हो के तन्हा घर से मत निकला करें
हमनें देखा है हवाओं का जुनून
इन हवाओं से नहीं सौदा करें
दाग़ चेहरे पे मिलेंगे दोस्तो
हर घड़ी मत आईना देखा करें
मर न जाएं घुट के अपने घर में ही
कब तलक हालात से परदा करें
'शिव' की थोड़ी बात साहब मानिये
आइए अब खुद को कुछ रुसवा करें।

ऋचा वर्मा जानती हैं अपनी जड़ से पलायन का दर्द क्योंकि आत्मा चाहे कितनी भी कम जगह छेके वहीं निवास करती है -
विस्थापित इंसानों के भीतर एक अग्नि /  जठराग्नि...
बहुत तेज ताप वाली अग्नि का, 
धीमे - धीमे जलना,/इसी जठराग्नि के वशीभूत हो/
उसका चलायमान हो जाना
एक चकाचौंध भरी जादू नगरी की ओर
पर उसकी आत्मा तो वहीं रह जाती है
खेत के किसी कोने में/या गली के नुक्कड़ पर
आत्मा बहुत कम जगह छेकती है
पर अपनी जगह पर मजबूती से बनी रहती है-

डॉ० मौसमी सिन्हा -लोगों से कुछ इल्तिज़ा करती दिख रही हैं - 
वज़ह-ए-कोरोना से/ परेशां है पूरी का़यनात/
इतना तो समझा कीजिये/ बेवज़ह न जाइये बाहर
इलतजा़ है 'मौसम' की / घर में प्यार से रहा कीजिये!

 पूनम  'श्रेयसी' बड़े इस हृदयविदारक दृश्य का सरल छंदों में असरदार अभिव्यक्ति देती दिख रही हैं - 
"मजदूरी हम करते साहब
रोगों से हम डरते साहब।
कोरोना से डर कर भागे
भोजन बिन अब मरते साहब।
मेरी मजबूरी को समझो
कैसे हम ये सहते साहब। "
रोते हैं मेरे घरवाले
इनके दुख तो हरते साहब।
पूनम को हैरानी है अब
कैसे इनको कहते साहब।"

 हरीश विशिष्ट लोगों को दिल से लगाने बोल रहे हैं उन विनतियों को जिससे सबकी मायूसी भगाई जा सके - 
सहयोग करें सभी 
बाहर न जायें अभी 
सरकार की विनती को 
दिल से लगाइए ।
गलती न करें अभी
फर्ज पूरा करें सभी ,
सारे देश वासी फर्ज 
अपना निभाइए ।
संकट की है ये घड़ी
जान की सभी को पड़ी 
आपस में मिल सभी 
हिम्मत बढ़ाइए ।
जान पर बन आयी 
हृदय खामोशी छायी
चेहरे से सबके ये ,
मायुसी भगाइए ।

इस कवि आभासी कवि सम्मेलन के संयोजक सिद्धेश्वर लोगोों को समझाने वास्ते ठेठ देसी अंदाज़ में उतरते नजर आ रहे हैं - 
हमने माना कोरोना वायरस से बचना हमें जरूर है
ई तो कह भगवान जी कि ई में हमरा कुसूर है?
चीन दे  देहलस कोरोना, ई तो हम भी जानत हैं।
पूरा विश्व घबराईल ई वायरस से ई तो हम भी मानत हैं।
संक्रमित रोगियन से दूर रहना हमें जरूर है।
ई तो कह भगवान जी इ में हमरा का कुसूर है?
**जात-पात धर्म भेद वर्ण भेद ऊंच नीच अमीर गरीब 
कोरोना ले के आइल संदेश, किसके लिए है आतंकवाद
धन दौलत घर जमीन रिश्ते सब छोड़ जाना हमें जरूर है।
ई तो कह भगवान जी, ई में हमरा का कुसूर है? 
**ज्ञान विज्ञान, धर्म ग्रंथ कुछ न काम आवत है
क्रोध में जब प्रकृति अपना विनाशकारी रूप दिखावत है।
हैवान बन गई मानव से खतरा हमें जरूर है।
ई तो कहा भगवान जी, ई में हमरा का कुसूर है?"

देश में आधे दशक से सक्रिय प्रसिद्ध साहित्यकार भगवती प्रसाद द्विवेदी  कहते हैं हालांंकि अभी सब लोग कबूतरों की भांति अभी अपने ढड्ढों में छिपे बैठे हैैं लेकिन इसी तरह से इंसानो की इस वायरस पर फतह होगी-
हाथ मिलाना न हमें, नमस्कार श्रीमान
भारतीयता की दुनिया में दिखे पहचान।
सन्नाटा है शहर में, गांव हुआ वीरान
अपने ढड्ढों में छिपी, कबूतरों की जान।
कोरोना विपदा बड़ी, हम भी हिम्मतवान
हारेगी यह वायरस, जीतेगा इंसान!"

इस  तरह से कोरोना के विरुद्ध एक साहित्यिक युद्ध छेड़ने का आह्वाहन करते हुए यह कवि सम्मलेन समाप्त हुआ. सभी शामिल कविगण को धन्यवाद ज्ञापन किया संयोजक सिद्धेश्वर ने।  लोगों के मन को इस वायरस विरुद्ध संग्राम हेतु शक्ति प्रदान करने में यह निश्चित रूप से सहायक रहा
.........

मूल रपट - सिद्धेश्वर
प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
श्री सिद्धेश्वर का ईमेल - sidheshwarpoet.art@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ब्लॉग का ईमेल - editorbejodindia@gmail.com
नोट - प्रतिभागी मित्रों से अनुरोध है कि अपनी पंक्तियाँ ऊपर दिये गए ईमेल पर दें. फोटो भी जोड़ दिया जाएग. 













3 comments:


  1. richa verma
    Attachments
    09:55 (12 hours ago)
    to me

    अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका का हेलो फेसबुक कवि सम्मेलन, लॉक डाउन के लिए विवश साहित्य प्रेमियों के लिए रेगिस्तान में फूटे किसी मधुर जल सोते के समान सिद्ध हुआ, यह वैश्विक आपदा मानव जाति उत्तरोत्तर विकास की चरम बिंदु पर एक प्रश्न चिन्ह बन कर आ खड़ा हुआ है, जिसके आगे
    विश्व की सबसे बड़ी शक्ति भी विवश हो गई है। ऐसी स्थिति में हर व्यक्ति के अंतस में भावनाओं का उबाल होना अत्यंत ही स्वाभाविक प्रक्रिया है.... लोगों की इन्हीं भावनाओं को शब्दों के माध्यम से प्रकट करने और लोगों के सामने लाने का बहुत ही सफल प्रयास किया है पटना के जानेमाने साहित्यधर्मी और साहित्यकर्मी आदरणीय कवि सिद्धेश्वर जी ने। यह सम्मेलन इसलिए ही महत्वपूर्ण नहीं है कि रचनाधर्मियों को अपनी रचनाएं प्रस्तुत करने का अवसर मिला पर इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि घर में बंद हुए लोगों के अंदर जो संवादहीनता, भय और तनाव घर कर लिया था उससे बहुत हद तक निजात मिला, क्योंकि बांट लेने से गम हल्का हो जाता है..
    यूं चुप रहना, दिल ही दिल में रोना क्या,
    आओ कुछ अपनी कहें कुछ औरों की सुने,
    जिंदगी है तो गम भी हैं और खुशियां भी,
    तो खुशियां बांट के दूनी कर लें और गम बांट के आधा।

    ऋचा वर्मा

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  2. Dr B L Pravin10 April 2020 at 20:23
    फेसबुक कवि सम्मेलन 4.4.2020.
    सोसल डिस्टेंस के आलोक में कविता को फेसबुक पर जीवित रखने का अभिनव प्रयास सराहनीय है।
    बेहतर होता इसे थोड़ा और रोचक बनाया जाता ताकि इसकी पठनीयता की ललक बनी रहे।
    कुल मिलाकर ऋचा वर्मा की कविता प्रभावित करती हैं।

    'पर उसकी आत्मा तो वहीं रह जाती है
    खेत के किसी कोने में/या गली के नुक्कड़ पर'
    उनकी कविता की उपरोक्त पंक्तियां जोरदार दस्तक के साथ प्रस्तुत हुई हैं जो उस कविता की केंद्र बिंदु भी हैं
    इस क्रम में। कवि शिवनारायण ने भी अपनी प्रस्तुति निभाने का प्रयास किया है जो कविता के अंत में प्रकट होता है।
    •डॉ बी एल प्रवीण, डुमरांव (बक्सर)

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  3. Unknown13 April 2020 at 22:39
    बहुत ही बढ़िया सराहनीय कदम बढ़ाया है आपने इस पेज को बनाकर... बधाई

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