Friday 3 April 2020

राम और कृष्ण की जीवन-गाथाओं का लोक-संस्कृति पर तुलनात्मक प्रभाव

ललित निबंध 
 हिंदू परिवार बच्चे के रूप में जन्म राम को लेते देखता है, लेकिन कुछ बढ़ने पर वह बाल-'गोपाल' हो जाता है 





आज रामचंद्र का जन्मदिवस है और मैं बी.आर.चोपड़ा के 'महाभारत' में कृष्ण का जन्म देख रहा हूँ। वेद व्यास के महाभारत में कृष्ण के जन्म का प्रसंग मुख्य धारा में नहीं है। वहाँ कृष्ण की कथा अन्य अवतारों की कथा बतलाने के क्रम में है। कह सकते हैं कि इस बात को सच साबित कर‌ने के लिए है कि जो 'महाभारत' में नहीं, वह कहीं नहीं है। बी.आर. चोपड़ा मुख्य कथा रोककर कृष्ण कथा शुरु करते हैं कि महाभारत का असल नायक का जन्म मथुरा में हो रहा है।

मेरा मन राम और कृष्ण को एक साथ देखने लगता है। दोनों में ख़ूब अंतर है, पर मुझे दोनों एक दूसरे के पूरक नज़र आते हैं। अंतर यह है कि राम का जीवन-संघर्ष लगभग एक दिशा में आगे बढ़ता है, जबकि कृष्ण अनेक मोर्चों पर‌ एक साथ भिड़ते हैं। इसलिए इनका जीवन अधिक घटना-प्रधान है। 
सबसे बड़ा अंतर तो जन्म का है।

राम का जन्म जीवन की सहजता भर है। बहुत अधिक कहें, तो प्रौढ़ता को प्राप्त माता-पिता की प्रथम संतानोत्पति की खुशी से अधिक इसमें कुछ नहीं है। भक्त कवि गा उठते हैं- भये प्रकट कृपाला, दीनदयाला, कौशल्या हितकारी...

किंतु कृष्ण का जन्म ही नहीं, जन्म के पूर्व की परिस्थितियाँ भी विषम है। ऐसा बालक जिसके जन्म के पूर्व ही शत्रुता जन्म ले चुकी हो। राम की रावण से शत्रुता आकस्मिक होती है। उसपर भी यह रास्ता खुला है कि सीता को‌ लौटाकर शरण में आ जाओ।

लेकिन कृष्ण? यहाँ तो कोई उपाय ही नहीं है। 

एक ऐसा बालक जिसके जनक-जननी आशंकाओं के भँवर में ही रह रहे हों। जिसके जन्म पर महतारी को इतना भी अवसर नहीं है कि वह हर्षित हो सके, 'अद्भुत रूप' भर आँख निहार सके।

मैं चमत्कारों को तनिक परे रखकर सोचता हूँ, तो लगता है कि देवकी-वसुदेव ने अपने छः बालकों के बलिदान से पहरेदारों में इतनी करुणा जगा दी है कि सातवाँ बालक बाहर निकाल‌ दिया गया। सातवें के नहीं मिलने से कंस तिलमिलाया होगा। उसने पूरी व्यवस्था का निरीक्षण किया होगा, बहुत को बदल दिया होगा; लेकिन छः बालकों के बलिदान से उपजी करुणा, आठवें बालक के लिए भी रास्ता बना देती है। यही नहीं तब तक दस किलोमीटर दूर गोकुल में नंद को यह बड़ी जिम्मेदारी सँभालने के लिए भी मना लिया जाता है‌। वह भी इस हद तक कि वह अपनी नवजात संतान‌ को संकट में डालने को‌ तैयार हो जाए।

कृष्ण का जन्म विकट-कठिन काल में हुआ है। भादो की अंधियारी रात, तेज बारिश-बिजली-आँधी और जगह कारावास। यद्यपि लोक में जो सोहर गाये  जाते हैं, वे राम और कृष्ण दोनों पर मिलते हैं, लेकिन राम के सोहर कुछ ज्यादा सहज हैं। माँ-बाप राम को‌ जन्म लेते देखते हैं। राम के जन्म में आनंद का उत्सव है। पूरी अयोध्या बधाइयों से गुंजायमान हो जाती है। सब खुशियों के गीत गा रहे हैं। थाल पिटी जा रही है-
बाजत आनंद बधैया हो रामा अवध नगरिया...

 कृष्ण का जन्म! तसल्ली और खुशी तो है, लेकिन इसमें चोर-चुप्पी की आवश्यकता है। माता-पिता तो इस संतोष का भी प्रदर्शन नहीं कर सकते कि मेरा पुत्र अभी जीवित है। वे जैसे जन्म को‌ लेकर आशंकित रहते आये थे, अब उसके छिपे रह पाने के लिए आशंकित रहेंगे। बाद में नंद के घर में बधाई भले बजती रहे, माँ-बाप को तो गाली ही सुननी है।

हिंदू परिवार बच्चे के रूप में जन्म राम को लेते देखता है, लेकिन कुछ बढ़ने पर वह बाल-'गोपाल' हो जाता है, किसन-कन्हैया हो जाता है। लोक‌ को‌ बचपन कृष्ण का ही पसंद है। कृष्ण का बचपन स्वाभाविक बचपन है। कभी-कभी राजमहलों के स्वप्न आ जाएँ, वहाँ तक तो ठीक है; लेकिन उसमें कितनी निरंतरता रह सकती है? इसलिए गोपाल का धूल-धूसरित बचपन अधिक अपना लगता है। कवियों ने इसी बचपन पर अपनी कल्पना न्योछावर कर दी है। इस बचपन के लिए कल्पना को किसी आकाश से तारे नहीं तोड़ने पड़े, बल्कि वह तो देखा-सुना दृश्य ही था। इसलिए तुलसीदास जैसे कवि‌ को‌‌ भी बचपन की स्वाभाविकता को साधने के लिए राजमहलों की स्वाभाविकता को कभी-कभी छोड़ देना पड़ा। आलोचकों ने कहा कि यह भी सूर का जूठन ही है। हाँ, शिशु-बोली की मिठास तो हर जगह मिलेगी। चाहे राजमहल हो, या झोपड़ी। जब तुलसी लला के बोलन पर बलि जाते हैं, तब सहज लगता है-

न्योछावरि प्राण करौं तुलसी बलि जाऊँ लला इन बोलन की
मज़ेदर यह है कि राम के रूप में जन्म लिया नवजात, कन्हैया के रूप में बचपन बिताता है, किशोरवय और यौवन में रासलीला रचाता है किंतु विवाह के समय पुन: राम बन जाता है। विवाह के गीतों में कृष्ण से फिर पीछा छुड़ा लिया जाता है। क्या करें? उनकी नायिका राधा है और वह पत्नी नहीं है। 'रुक्मिणी मंगल‌' गाने का चलन अवश्य है, लेकिन अपनी बच्ची के विवाह का गीत गाते हुए कोई माँ सत्यभामा अथवा जामवंती‌ के लिए कैसे संभावना छोड़ दे?

कृष्ण विवाह के आदर्श नहीं हो सकते। सीता ने राम-सा पति पाकर बहुत बड़ा सुख नहीं लूटा, लेकिन यह आदर्श राम में ही दिखता है और नहीं तो शिव में। शिव तो एकदम सच्चे प्रेमी ठहरते हैं। पत्नी की‌ बिछोह पूरी तरह सुध-बुध बिसरा देने वाले। आशुतोष से तांडवकर्ता बन जाने वाले।

आगे चलकर व्यक्ति अपने जीवन संघर्षों में राम को याद करता है। राम के चौदह-वर्ष का वन-गमन सबसे बड़ी विपत्ति है। कृष्ण जन्म से लेकर तेरह-चौदह साल का आरंभिक निर्वासन काटकर राजा बन जाते हैं। यह निर्वासन भी निर्जन वन का निर्वासन नहीं है। राम राजसी जीवन जीकर निर्वासित होते हैं। इसलिए इनका यह संघर्ष बड़ा है। किंतु एक बार राजा बनने के बाद राम का व्यक्तिगत दुख भले ही उठ खड़ा हो, जीवन सरल-रेखीय हो जाता है। कृष्ण के साथ ऐसा नहीं है। उन्हें एक दूसरी सत्ता‌ से संघर्ष करना‌ है। पश्चिम से दामाद कंस का सफाया हो गया है, किंतु पूरब में श्वसुर जरासंध अविजित है। देखने की बात यह है कि इन दोनों के पास ऐसा सैन्य बल है कि युद्ध-भूमि में नहीं टिका जा सकता है। दोनों को द्वंद्व युद्ध में ही पछाड़ा जा सकता है। कंस को तो खत्म कर दिया गया, लेकिन जरासंध के लिए और ज़्यादा देह-बल चाहिए, फिर अपने प्रिय पांडवों को भी‌ सहारा देना है। 
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आलेख - अस्मुरारी नंदन मिश्र
लेखक का ईमेल - asmuraribhu@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु ब्लॉग का ईमेल - editorbejodindia@gmail.com

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दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना के तहत प्रकाशित अपने कविता संग्रह "चांदमारी समय" के साथ लेखक

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