सबकुछ खोने के बाद के बाद भी घर के नाम पर चेहरे पर उत्साह
ललित निबंध
कोरोना वायरस की वजह से वैश्विक संकट के दौर मे आप पैदल चलने को मजबूर मजदूरों को नही भूला सकते , जो मीलों चलकर अपने छोटे छोटे बच्चों और पत्नी के साथ अपने अपने घरों को आ रहे हैं। पैरों मे चप्पलें नहीं है, खाने को पर्याप्त मात्रा मे अन्न नही है! कभी कभी तो पीने को पानी नही मिल पा रहा है! पर, सैल्यूट करने को मन करता है! चेहरे पर मालिन्य नही है।एक उत्साह है, घर आने का! बहुत कुछ छूट गया इनका। लगभग सब कुछ खो दिया है इन्होंने। पर, कल की चिंता से कोसों दूर चलते चले आ रहे हैं। इस सोच से बिल्कुल बेखबर कि जाना कितनी दूर है, कब पहुंचेंगे, रात कहां बिताएंगे , गर्मी की इस कड़ी धूप का मुकाबला कैसे करेंगे!
ये हमेशा उत्साह मे रहते है। जब हम और आप किसी न किसी बहाने, चाहे वो मौसम का बहाना हो या किसी और का, काम को टालते हैं। घरों से बाहर नही निकलने का बहाना ढूंढ़ते हैं पर ये लोग कभी बहाने नही बनाएंगे। हमेशा आप इन्हें उत्साह से लबरेज़ पाएंगे। यही इनके जीवन जीने का मूल मंत्र है। ये वही फौज है जो घंटों पंक्तिबद्ध होकर सरकार चुनती है। हम और आप तो बस आराम से मतदान करने भर से मतलब रखते हैं या फिर ड्राइंगरुम मे बैठकर एक्जिट पोल के जरिए सरकार चुनते हैं। थोड़ा सा मौसम का मिजाज का इधर से उधर होना हमारे मतदान करने पर असर डाल जाता है !
अफसोस होता है इन्हें इस हाल मे देखकर। उससे ज्यादा अफसोस तब होता है जब हम इन्हें "माइग्रेंट लेबर" कहते हैं, प्रवासी मजदूर कहते हैं। क्या अपने ही देश मे ये विदेशी हैं ? नौकरी ! नही* मज़दूरी की तलाश इन्हें अपने घरों से दूर ले जाती है ! अपने ही देश मे प्रवासी कहे जाते हैं! अगर घर मे ही इन्हें पेट भरने लायक काम मिल जाए तो क्यों जाएंगे ये बाहर भला! खानाबदोश की तरह जीवन जीने को! प्रवासी कहलाने !
प्रवासी हैं ये उन विदेशी पक्षियों की तरह जो एक खास समय के लिए दूर कहीं बहुत दूर से आते हैं और एक निश्चित समय सीमा के बाद वापस लौट जाते हैं।पर वे इसे स्वेच्छा से करते हैं। कोई बाध्यता नही होती है। और यहां, ये तथाकथित प्रवासी मजदूर तो हमेशा किसी न किसी संकट की वजह से विस्थापित होते रहने को बाध्य हैं। माना हालिया संकट अभूतपूर्व है। इसने थोड़ा कम या ज्यादा सभी को अपनी लपेट मे ले रखा है ! पर, जो वर्ग बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ है वो यही वर्ग है। हम सभी को इनके बारे मे सोचने की जरूरत है। हम अपने आसपास बार बार इन्हें पाएंगे। कोरोनावायरस रूपी वैश्विक संकट के विभिन्न आयाम मे से एक आयाम यह भी है।
कहा गया है - "चैरीटी शुड विगिन एट होम". अर्थात अच्छे कार्य स्वयं से आरम्भ करना चाहिए. तो आइये, सैकड़ों हजारों किलोमीटर चलकर आए इन प्रवासी मजदूरों का दर्द उनसे सुनते हैं और अपना भी कुछ योगदान सीधे उनके हाथों में करते हैं।
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लेखक - मनीश वर्मा
लेखक का ईमेल आईडी - itomanish@gmail.com
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बहुत सुंदर आलेख। साधुवाद।
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