Monday 11 May 2020

शैलजा नरहरि की ग़ज़लें / डॉ.मनोहर अभय

मरे तो रोज मगर / हम से खुदकशी न हुई
सामाजिक सरोकारों और जनमानस की बेचैनी की अभिव्यक्ति 

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कभी बेगम अख्तर तरन्नुम के साथ गाया करती थीं :
 बुझी हुई शम्मा का धुँआ हूँ 
और अपने मरकज को जा रहा हूँ' |
शमा बुझी सो बुझी, उसका धुँआ भी यहाँ ठहरने का नहीं| उसे अपने मुक़ामे- सदर पहुँचना है| अनित्य जीवन की गहरी दार्शनिकता दर्शाता यह मिसरा मन को हिला कर रख देता है| स्मृति-शेष हिंदी ग़ज़लकार शैलजा नरहरि की एक सौ पाँच चयनित ग़ज़लों का एक मात्र संकलन है "बुझा चराग़ हूँ"|

बुझे हुए चराग़ की क्या जिंदगी ? फिर भी वह शिद्दत के साथ बता सकता है,रोशनी की अहमियत (कोई मुझ से ये पूछे कि रोशनी क्या है)| संकलन की सभी गजलें चमकीले शिलाखंड पर समय के हस्ताक्षर हैं| इनमें आज के आदमी और आदमियत की बात अपने ढंग से, अपने सलीके से कही है -
खुदा भी होगा परीशाँ ख़राब हालों से 
यही वो सोचता होगा ये आदमी क्या है

कोई कितना भी परेशान हो इस आदमी से उसे ख़ाके- सुपुर्द करते समय ये सवाल अवश्य उठता है कि इस मिट्टी  के घरौंदे में अंततः क्या था, जिसे बेशक़ीमती कहा जाय -
बचा है दर्द मेरे पास मेरा सरमाया
मिला के खाक में पूछेंगे कीमती क्या है|

आदमी के चले जाने के बाद ही उसकी कीमत, अहमियत और जरूरत महसूस होती है | गजलकार जीवन की नश्वरता से अनभिज्ञ नहीं| उसे मालूम है कि कांच का घर 'आदतन चटकने वाला' होता है| लेकिन , चटकने से पहले कुछ तो सकूँ दे सके -
जिंदगी चाहे चार पल की हो 
मिसरा- मिसरा सही गजल सी हो|

अर्थात,जीवन का हर पल,हर क्षण मिठास भरा हो |मिठास छोटी- छोटी खुशियों की|  मिठास मानवीय गरिमा के साथ जीवन बिताने की| कहने को कह दिया 'बुझा चराग़' |लेकिन,है ये ऐसा जो आँधियों से लड़ता है -
रात भर आँधियों से लड़ते रहे
अब थी साजिश दिया बुझाने की

साजिशदानों का खेल कहिए|समय इतना बदल गया है कि सही बात कहना अपराध है| अन्यथा -
मीर ग़ालिब जबान वाले थे
फर्श पर आस्मान वाले थे
क्या तसव्वुर में रोशनाई थी
हर्फ़ सारे वयान वाले थे
ब तो 'आस्तीनों में साँप पाले हैं 
दोस्ती के बदन पर छाले हैं

आस्तीनों में साँप पालना तो आम मुहावरा है| 'दोस्ती के बदन पर छाले हैं' की नव्यता अनौखी है| पैरों में छाले-फफोले तो बहुत सुने, पर  ‘दोस्ती के बदन' जैसे वाक्यांश ने गजल की आत्मा को कुरेद कर,जो मार्मिकता प्रदान की है वह अनुपम है |नाजुकी के साथ समय की भयावहता देखिए -
 हर कदम पर फरेब जारी है
हर तरफ मकड़ियों के जाले हैं 
.है सजा भी फ़क़त हमारे लिए
सबके चेहरे नक़ाब वाले हैं'|

सत्यसंकल्पियों की यात्रा अवरोधों के आरण्यों से गुजरती है,हिंस्र- पशुओं या हिंसक मानुषों के कान्तार से| इन मानुषों की आँखों में यदि कोई चुभता है तो सत्यव्रती|दंड मिलेगा तो इसी को|'दो निवाले जुटाना' भी मुश्किल है, इसके लिए| ऐसे परिवेश में सुख- चैन की अपेक्षा करना 'बदनसीबी' है -
 अश्क गालों पे\हाथ रोटी पर 
बदनसीबों की आस थी दुनिया'

बड़बोले लोगों से क्या आशा की जाय-
 'जिनके पैरों तले जमीन नहीं 
बात करते हैं आसमानों की|

दुष्यंत ने कहा -
‘तुम्हारे पाँव के नीचे कोई जमीन नहीं
कमाल ये है कि\फिर भी तुम्हें यकीन नहीं’|

आर्थिक- सामाजिक विषमता हो या धार्मिक उन्माद, गजलकार की पैनी दृष्टि से कोई बचा नहीं |संसाधनों का बंदर -बांट खुल कर हो रहा है -
जाम छलके हैं ख़ास लोगों के
खाली प्यालियाँ, खाली की खाली 

कृपापात्र हैं कुबेर की पीढ़ियाँ
 हर तरह से भरे हैं जिनके घर 
उनको ही मालामाल करती हैं

 जो वंचित हैं अथवा अधिकृत हैं वे दस्तावेज लिए कतारों में खड़े हैं -
जिस के हाथों में घर का नक्शा था 
शख़्स वो आज दर-ब -दर क्यूँ है

एक जमात पीर -पैगम्बरों की है जो सामाजिक समता-सद्भाव पैदा करने का दाबा करती है| पर सारे दाबे खोखले| घटने की जगह आदमी की बेचैनियाँ बढ़ती जा रही हैं -
पीर पैग़म्बर रसूलों में रहा जो उम्र भर
रूह तक बेचैनियों से क्यूँ घिरा है आदमी 

सद्भाव और आपसी विश्वास सिमट रहा है
कह सकें तो बात दिल की 
ब नहीं मिलते वो लोग

सारे पोथी- पुरान अर्थवत्ता खो बैठे हैं -
जिंदगी को समझा था मुश्किल 
सब किताबों में सर खपाए थे)

ये तथाकथित मनीषी सीधी- सच्ची बात करते ही नहीं |दुष्यंत ने कहा -
‘गजब है सच को सच कहते नहीं वो 
कुरान-ओ-उपनिषद खोले हुए हैं

 एक संघर्षशील महिला का जीवन जीने वाली शैलजा जी को भीड़ में विस्मृत हो जाना स्वीकार नहीं| नारी अस्मिता का बचाव उनकी सबसे बड़ी चाहत | चिंता और बेचैनी भी| वे निशंक हो कर पूछती हैं -
'सात फेरों ने जिसे झुलसा दिया
कर दिया जिसका हवन\वह कौन है?

उत्तर देने वाला कोई नहीं
 तेरे हँसने पे होगी पाबंदी
सामने खिलखिलाएगी दुनिया

खिलखिलाने या क़हक़हे लगाने वाले हैं| बुलबुल तड़प रही है | बहेलिए मसखरी कर रहे हैं|-
मैं न बोलूँ मुझे हिदायत थी
उम्र भर क़हक़हे जिए तुमने

कर्तव्य परायण और अपनी शर्तों पर जीवन बिताने वाली महिला की पक्षधर गजलकार जानती हैं कि नारी स्वभावतः कोमल हृदया है| ममता की मूर्ति, महिमामयी -
जिसमें पाकीजगी की खुशबू
 अगर है तो माँ का आँचल है
फिर सारी यातनाएं नारी के नाम क्यों हैं?  उसकी आँखों में झाँक कर देखिए -
 एक ठहरी नदी है आँखों में
दिल की गहराइयों में जलथल है 

...ठहरे आँसू हैं, ठहरा काजल'| पहाड़ों को फोड़ कर चट्टानों को झिंझोड़ कर  धरती पर उतरती है, नदी|  निरन्तर आगे बढ़ना उसका धर्म है| स्वभाव है 
|ठहराव उसे गाँव की पोखर बना देगा| 
हो तो क्यों हो ठहराव? 
वह किस लिए भोगे ये सजा
है नहीं नाम जब कहता कोई
बे सबब क्यों मिले सजा कोई?

सज़ा मिलनी ही नियति है, तो पैदा होने दीजिए | सीधा -सादा संदेश है  'सिलसिला तोड़ कर निकल आओ' निकल आने की सामर्थ्य तो जन्मे|  वह हिम्मत और जज़्बा कि झेल सके सज़ा की त्रासदी -
ज़ख्म सारे ढँक लेंगे
पैरहन तो सीने दो
सारी अनकही वेदना को व्यक्त करता है यह मिसरा| 'पैरहन का सीना' संकेत करता है उस हौसले की ओर जो दर्द सहने का साहस दे सके, सारी विसंगतियों के बीच जीती -मरती नारी को| चाहत है कि सारी सुकुमारता और मृदुलता वाली नारी जिए तो अपनी शर्तों पर -
''बहुत कमजोर दिल का पैहरन
 अपनी चाहत से रफू मत कीजिए

वह कठोरतम काम करने को तैयार है| इस लिए कि स्वावलम्बी हो, आत्मनिर्भर -
मुझे मुश्किल सा कोई काम दो?

गजलकार की नारी किसी तरह से कमजोर नहीं है| वह आपदाएँ झेलती है, आत्महंता युद्ध नहीं लड़ती -
मरे तो रोज मगर
हम से खुदकशी न हुई

|यातनाएँ सब भोग रहे है -
पाँव सबके बँधे थे साँकल से
और सबको सफ़र पे जाना था

ताज भोपाली याद आ गए -
पीछे बँधे हैं हाथ
और शर्त है सफ़र 
किस से कहें कि 
पाँव का काँटा निकाल दे

सफ़र इतना लम्बा कि जन्नत तक पहुँच गए -
अपनी जन्नत में कितना तन्हा है
लाख बनता फिरे ख़ुदा कोई

ग़ालिब कहते हैं' -
हमें मालूम है जन्नत का हाल
अकेले टहल रहे थे अल्लाह मियां

इस अकेलेपन के चक्कर में दुष्यंत को जन्नत कभी रास नहीं आई -
रौनके जन्नत जरा भी मुझको रास आई नहीं
मैं जहन्नुम में बहुत खुश था \मेरे परवरदिगार    

कोई कुछ भी कहे बंदिशें तोड़नी हैं-
खूबसूरत गुनाह होने दो \ कुछ तो जीने की राह होने दो 
कैसे करवट बदल के सोए थे \ सलवटों को गवाह होने दो’

डॉ. शांति सुमन का गीत याद आ गया -
 'होने दो \ ओ रे \ मितवा जो जी में है

नैसर्गिक अभीप्साओं की पूर्ति आवश्यक है | इसे वर्जित फल कहना स्वयं में अपराध है | मुद्दत से जिसने सावन नहीं जिया हो वह अपनी अवदमित कुंठाओं के साथ बिता देगा ये खूबसूरत जिंदगी -
करवट बदल- बदल के \ मिरि रात कट गई 
जब रात ढल गई तो जरा सो लिए हुज़ूर
मुद्दत से हमने भीगता सावन नहीं जिया
शबनम से भीगे फूल ज़रा तोलिए हुज़ूर

शिल्प के स्तर सभी गजलें खरी उतरती हैं| उर्दू -फ़ारसी का व्याकरण| हिंदी- उर्दू- अरबी की त्रिधारा में नहाई हैं ये गजलें |अक़ीदत, परस्तिश, मुसल्सल, तशद्दुद आलूद , रायगाँ, जैसे उर्दू- फ़ारसी के शब्दों का प्रयोग गजलकार के व्यापक ज्ञान का परिचायक है|सम्बोधन में ईश्वर -भगवान की जगह 'खुदा' का प्रयोग महफ़िलों की देन है |इतने पर भी सौंधी देशज सुगंध का आभाव नहीं खटकता| देशज कहावतें, मुहावरे भी कम नहीं ('दाने दाने पे नाम','कोई बनता रहे सिकंदर', आस्तीन के साँप, गंगाजली उठाना) |जहाँ जीवन की कठोर सच्चाइयाँ कठोरतम शब्दों में उकेरीं हैं, वहीं सुकुमार शब्दावलि कवि के सौंदर्यबोध को व्यक्त करती है -
ओस में, चाँदनी में भीगे ख्वाब, 
शबनम से थरथराते होँठ,
चाँदनी का मिजाज चेहरे पर

गहराई में उतर कर देखें तो शैलजा नरहरि की ग़ज़लों में मिलेगा जीवन का स्पंदन है | उन्होंने शायरों -मुशायरों के बीच ग़ज़लें सुना कर वाहवाही ही नहीं लूटी ,ग़ज़लों का अध्ययन- अनुशीलन भी किया| यह ऐसा कार्य था जिसकी ओर सिद् -समालोचकों की दृष्टि गई ही नहीं| सूर्यभानु गुप्त कहूँ या दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को जो व्यापक आकाश प्रदान किया, उसने कुछ उदारमना समालोचकों ने हिंदी ग़ज़ल को मजलिस के शामियानों से बाहर लाकर  साहित्य  की मुख्य- धारा से जोड़ने का अनुपम  कार्य किया| इस क्षेत्र में शैलजा नरहरि ने अग्रगामी भूमिका निभाई| वैसे भी ग़ज़ल उनकी भूख थी| प्यास थी| बैठे- ठाले की ताशमारी नहीं| कहना न होगा कि शैलजा नरहरि की गजलें जीवन के उतराव -चढाव की गजलें हैं, सामाजिक सरोकारों से भरपूर| इनमें जनमानस की बेचैनी है| आदमी का संघर्ष, आदमियत का क्षरण, रिश्तों की टूटन, प्रपंची सियासत की शतरंजी चालों का खुलासा  शिद्दत के साथ हुआ है| कुछ गजलें विचार प्रधान है| कुछ में सहज रूमानियत| लय, ध्वनि, प्रवाह इनकी प्राण- शक्ति है
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प्रकाशक : ग्रन्थ अकादमी,भवन संख्या -१९,पहली मंजिल,२,अंसारी रोड,  नई दिल्ली -110002
पृष्ठ संख्या: एक सौ दस
चयन सम्पादन : दीक्षित दनकौरी
मूल्य :एक सौ पचास  रूपये
प्रकाशन वर्ष :2020
समीक्षक - डॉ. मनोहर अभय
समीक्षक का पता - प्रधान संपादक,  अग्रिमान , आर.एच-111, गोल्डमाइन, 138-145, सेक्टर - 21, नेरुल, नवी मुम्बई - 400706,
समीक्षक का ईमेल आईडी - manohar.abhay03@gmail.com
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com

समीक्षक - डॉ. मनोहर अभय

1 comment:

  1. बेहतरीन समीक्षा। साधुवाद।

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