Saturday 2 May 2020

भा युवा साहित्यकार परिषद पटना द्वारा 26.4.2020 को आभासी कवि सम्मलेन संपन्न

छज्जे से खिड़की तक दीदार सुरक्षित है /  मुझको खुशी है मौला मेरा यार सुरक्षित है

हर 12 घंटे पर देखिए - FB+ Bejod / ब्लॉग में शामिल हों- यहाँ क्लिक कीजिए  / यहाँ कमेंट कीजिए )
(निर्माणाधीन पोस्ट)




पटना:26/04/2020!!   भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में आयोजित कवि सम्मेलन के मुख्य अतिथि गीतकार गोरखनाथ मस्ताना ने  उद्गार, "हेलो फेसबुक कवि सम्मेलन" में आन लाइन व्यक्त किया। 

आन लाइन अध्यक्षता करते हुए कवि रास दादा रास ने कहा कि - " कोरोना के बाद प्रकृति से लेकर हमारे जीवन में ढेर सारे बदलाव आए हैं और आने वाले हैं। इस बदलाव का ही परिणाम है, ऑनलाइन साहित्यिक गोष्ठियों का इस तरह छा जाना। आने वाले समय में ऐसे आयोजनों से ही, साहित्य की जीवंतता बनी रहेगी। इस तथ्य को समारोह के संयोजक कवि सिद्धेश्वर ने सिद्ध कर दिया है। उन्होंने कहा कि - "ऐसे आयोजनों की सबसे बड़ी खासियत है कि दूरदराज बैठे रचनाकारों से सीधा संवाद आसानी से सुलभ हो जाते हैं। "
इंटरनेट मंच पर उपस्थित देश भर के कवियों की कविताओं का काव्यांश:


इन्होने भी कवितायेँ पढ़ी - गोरखनाथ मस्ताना, हृदयनारायण झा -


गोरखनाथ मस्तान -
" बस अमीरों को  घर आने की छूट क्यों?
मात्र मजदूर के स्वप्न की लूट क्यों?!
है चहकता महल आज भी, और
झोपड़ी में है वीरानियों।।"

अशोक अंजुम (अलीगढ़) -
"छज्जे से खिड़की तक दीदार सुरक्षित है
 मुझको खुशी है मौला मेरा यार सुरक्षित है।"

अमलेंदु आस्थाना-
" इरादा चांद पर, सूरज को छूने का हौसला रखा है!
मौत आकर  दिखलाओ, मैंने भी दरवाजा खुला रखा है! "

सिद्धेश्वर -
ख्वाब, जज्बात, खुशी सब थे मेरे अंदर!
पार कर लिया था मैंने प्यार का समंदर।
 मंजिल के करीब आते, दिल ने हमें डुबोया
न जाने कहाँ से आया,ये नफरत का बवंडर।"

महादेव कुमार मंडल -
कोई नहीं चाहे कि रहूं मैं बंद
या लगा रहे हर क्षेत्र प्रतिबंध। "

ऋचा वर्मा-
" बहुत दिनों के बाद/ ठहर गई हूं
 एक जगह पर
जैसे  ठहरा होता है कोई पेड़।"

 भगवती प्रसाद द्विवेदी-
" आया कैसा दौर है, कैसा संकटकाल।
शुतुरमुर्ग - सा मुंह छुपा, कछुए जैसा हाल।

समीर परिमल -
"ख्वाबों ने हम पर इतराना छोड़ दिया
दीवारों से सर टकराना छोड़ दिया।
एक हवेली रोती है, दिल के अंदर
जबसे तुमने आना-जाना छोड़ दिया।"

आरती कुमारी -
सोचा ना था कभी
कि/आएगा प्रलय  ऐसे।
नाचेगा काल/  विकराल रूप धर
और निकल जाएगा
लाखों लोगों को/ एक बार में ही "

स्वाराक्षी स्वराज (खगड़िया) =
"यह जीवन एक महा समर है
पल पल बीती जाए उमर है।
हंसते गाते जीवन में
 विकराल काल का घेरा है।
मन निराआशाओं का घेरा है। "

संतोष गर्ग (हिसार, हरियाणा)
लगता कुदरत बोल रही है /भेद सामने खोल रही है!"

 नूतन सिंह( जमुई)-
" बहुत बात करने की आदत नहीं है
मगर यह न समझो मोहब्बत नहीं है।
धड़कता हुआ दिल दिखऊं  मैं कैसे
दिखावे की मेरी यूं आदत नहीं है।"

मधुरेश नारायण -
" पैदा करो अपने में हिम्मत कभी तुम डरो नहीं
 एक दिन तो सबको मरना है पहले से मरो नहीं।"

🇧🇩सुशील साहिल-
" घात लगाए घूम रहे हैं
मौत के साए घूम रहे हैं
एक इंसान पर लाखों वायरस
आंख टिकाए घूम रहे हैं।

इसके अतिरिक्त जिन कवियों ने अपनी कविताओं से सशक्त अभिव्यक्ति दी, उनमें प्रमुख हैं-"विश्वनाथ वर्मा/ हेमंत दास हिम/  लता प्रासर /निकेश निझावन/निविड़ शिवपुत्र /बी एल प्रवीण/जयंत/चैतन्य चंदन. मीना कुमारी परिहार /स्मृति कुमकुम घनश्याम /डा शिवनारायण /दिलीप कुमार /पूनम श्रेयसी आदि।
     @ प्रस्तुति :सिद्धेश्वर (संस्थापक अध्यक्ष :भारतीय युवा साहित्यकार परिषद) अवसर प्रकाशन पटना (मो नं:9234760365 /ईमेल :sidheshwarpoet.art@gmail.com 🌎 समाचार प्रकाशनार्थ 🌍





अमलेन्दु अस्थाना
एक दस्तक
जिसने बंद कर दिए सारे दरवाजे,
दस्तक जो रिश्तों के दरवाजों के साथ
खोल देती थी दिलों की खिड़कियां,
बंद हो गईं यकबयक,
ये कैसी दस्तक है?
अकल्पनीय, असहज, अचंभित करने वाली,
मैं देख रहा हूं, पार्कों के झूले, बागों के फूल,
उन्मुक्त खिलखिलाते बच्चे, खामोश हैं,
वक्त का पहिया ऐसे भी घूमेगा, सोचा नहीं था,
सपनों की सरहदों के पार, गहरा रही है रात,
अकेले लौटते हुए, नितांत चुप्पी के बीच,
घरों की रोशनदान से आ रही है रोशनी,
ये उम्मीद की किरण है, जीवन है,
हमारी खामोशी समेट रही है हौसला,
हम जाग रहे हैं अंधेरे में एक बेहतर सुबह के लिए।।



मैं सुशील साहिल 9955379103
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: घात लगाए घूम रहे हैं
मौत के साए घूम रहे हैं

इक इन्सां पर लाखों वायरस
आँख टिकाए घूम रहे हैं

क्या अब दुनिया को खाएंगे
क्यों मुंह बाए घूम रहे हैं

मेरे मन के बाग़ीचे में
लोग पराए घूम रहे हैं

फागुन के दिन दूर हैं फिर भी
हम बौराये घूम रहे हैं

पलकों पर ख्वाबों के पंछी
पर फैलाए घूम रहे हैं

'साहिल' हम तेरे नखरे के
बोझ उठाये घूम रहे हैं
-सुशील साहिल


[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: यह 'लॉकडॉन' है बहुत जरूरी
~~~~~~ 🚷 ~~~~~~
कोई नही चाहे  की रहूँ मैं बंद
या लगा रहे  हर  क्षेत्र प्रतिबंध
पर पसरा यूँ 'कोरोना' का गंध
जो फैला रहा  चहुँ ओर दुर्गंध
फिर खोलें आँख  ना बनें अंध
घर में  ही रहें बस  दिन हैं चंद
फैलने की गति को  करने मंद
बस एक दूजे से रखना है दूरी
'लॉकडॉन' है बहुत जरूरी..2

'चीन' से चलकर है यह आया
संकट के बादल  संग है लाया
विश्वभर में बड़ा कहर है ढ़ाया
फैल रहा है बन मौत का साया
जिसने भी लौकडॉन अपनाया
बस वही तो इससे पार है पाया
"देव" को भी तो यही है भाया
उपाय यही ना समझें मजबूरी
'लॉकडॉन' है बहुत जरूरी..2

है कोरोना तो जालिम-हरजाई
बस मौत  बांटती है  कष्टदायी
बनी ना अब तक  कोई 'दवाई'
एकांतवास ही  उपाय  है भाई
विजय उसी ने तो इस पर पाई
जिसने  एकांतवास  अपनायी
जब कोरोना से है फंसी लड़ाई
इसके बिना हर इलाज अधूरी
'लॉकडॉन' है बहुत जरूरी..2

स्वास्थ्य सुरक्षा  का पूरा ध्यान
प्राथमिकता  है कैसे बचे जान
पुलिसकर्मी, जनसेवक महान
स्वास्थ्यकर्मी भी बने 'भगवान'
घर-घर पहुँचवाते सब सामान
जन-जन का जिससे कल्याण
PMCARES में सब करें दान
'सरकार' की तो है तैयारी पूरी
'लॉकडॉन' है बहुत जरूरी...2

✍महादेव कुमार मंडल
ब्रह्मपुर,सकरी,दरभंगा,बिहार
CVI(S)/ECRly./Hajipur
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: महादेव मंडल मुख्य सतर्कता अधिकारी /पू म रेल दरभंगा
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: कविता

संवाद

बहुत दिनों बाद ठहर गईं हूँ,
एक जगह पर,
जैसे ठहरा होता है कोई पेड़।
बहुत दिनों के बाद जाना है,
मशीन नहीं इंसान हूँ मैं
एक सजीव, संवेदनाओं से भरी,
उतनी ही और सजीव संवेदनशील,
जितना मेरे घर के बगल में खड़ा
ये बरगद का वृक्ष ।
बहुत गहरी जड़ें हैं इसकी,
और मेरी भी
बहुत दिनों के बाद जाना है
रोटी का स्वाद,
जाना है स्वाद का ज़ादू,
जब उसे यूंही बिना स्वादिष्ट सब्जियों के खाया जाये,
आराम से चबाते - चबाते,
धीरे-धीरे कैसे उतरती है,
उसकी मिठास।
आज जाना है दर्द उस पेड़ का,
कितनी पीड़ा होती होगी उसके अंदर,
जब चलाई जातीं हैं
उस पर कुल्हाड़ियां,
कुछ-कुछ वैसा ही हाहाकार
मचा है हमारे अंदर,
एक अदीठ शत्रु ने कस दिया है
मौत का शिकंजा हमारे वज़ूद पर।
ठहरी हूँ, खड़ी हूँ, जड़वत
बहुत सी तरंगें उठने लगी हैं
दिलो दिमाग़ में, अनायास ही घूमने लगे हैं, कितने ही प्रश्न
मेरे  चारो तरफ...
उन प्रश्नों के मर्म समझ पा रही हूं अब   सुन पा रहीं हूं पत्तियों की सरसराहट  पक्षियों की चहचहाहट।
बहुत दिनों के बाद देख रहीं हूं
सड़क किनारे लगे पेड़ों का झूमना.. प्रकृत्ति फुसफुसा रही हो
जैसे मेरे कानों में
कुछ दिन रहो अपने घरों में,
और रहने दो हमें भी अपने घरों में,
निश्चिंत रहो, संवाद करो
अपनो से, अपने आप से
ताकि कुछ दिन हम भी संवाद कर सकें  अपने प्रियजनों से.. अपने आप से भी।

ऋचा वर्मा
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: ऋचा वर्मा
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: भगवती प्रसाद द्विवेदी
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: 

ग़ज़ल
ख़्वाबों ने हम पर इतराना छोड़ दिया
दीवारों से सर टकराना छोड़ दिया
एक हवेली रोती है दिल के अंदर
जबसे तुमने आना जाना छोड़ दिया
इतने ग़म, इतने आंसू, इतनी आहें
सबने इस दिल को बहलाना छोड़ दिया
सूख गए हैं पलकों पर कितने सागर
आँखों ने मोती बरसाना छोड़ दिया
सहमी सहमी रहती है ये तनहाई
यादों को इसने उकसाना छोड़ दिया
केसर की क्यारी में रोती है जन्नत
फूलों, कलियों ने मुस्काना छोड़ दिया
© समीर परिमल


[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: सोचा न  था
**********

सोचा न  था कभी
कि आएगा प्रलय ऐसे
नाचेगा काल विकराल रूप धर
और निगल जाएगा
लाखों लोगों को
एक बार मे ही..

सोचा न था कभी कि
ठहर जाएगा वक़्त
एक पल को भी इस तरह
रुक जाएगी सपनो के पीछे
भागती -दौड़ती दुनिया
ठप्प पड़ जाएंगे सारे काम धाम
और बेबस हो जाएंगे हम इंसान

सोचा न था कि इस वर्ष का वसंत
आते ही बदल जायेगा पतझड़ में
खुशियों के रंग हो जाएंगे मलिन
और एक दूसरे का स्पर्श भी
कर देगा भयभीत मनुष्यों को

सोचा न था कि
किसी रोज़ अचानक
बंद करने पड़ेंगे सारे धर्मालय
मंदिर मस्जिद गिरजाघर
और ईश्वर कर्मकांडों की जगह
याद किये जायेंगे प्रार्थनाओं में

सोचा न था कि
प्रगति साधकों को कभी
मिलेगी प्रकृति से खुली चुनौती
और कीड़े मकोड़ों की तरह रेंगते
घर मे दुबके पड़ेंगे महीनों  तक

सोचा न था कभी कि
सुननी पड़ेगी सन्नाटों की चीखें
कि मानवता बचाने की खातिर
मानव को ही रखना होगा मानव से दूर
और जलाने होंगे उम्मीदों के दीप
बोझिल थके निराश मन में

सोचा न था कभी कि
हो जाएगी पृथ्वी फिर से हरी भरी
सुगंधित हवा फिर से
करने लगेगी अठखेलियाँ
और गाएगी बादलों संग मल्हार
चिडियाँ गायेगी लयबद्ध संगीत
और मेरे हृदय में पुनः गूंजने लगेगा
मेरे एकांत का एकतारा
~डॉ आरती कुमारी, मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार



ग़ज़ल
शहर के लोगों में  वफा  ढूंढ़ता हूं
ज़हर की है शीशी  दवा  ढूंढ़ता हूं

चेहरे   के  भीतर   चेहरे  कई  हैं
धुंआते हैं  रिश्ते   हवा  ढूंढ़ता  हूं

खुदा की क़सम न जाना जिन्हें मैं
दुनिया में उनका   पता  ढूंढ़ता हूं

मशरफ से उनका है  दीदार होता
आंखों में उनकी   रज़ा  ढूंढ़ता हूं

मुखौटों की दुनिया उन्हें हो मुबारक
कि मुहब्बत दिलों में सदा ढूंढ़ता हूं

नस्तर  चुभाते  हैं   मुस्कुराहटों के
मैं खोया हुआ  हमनवा  ढूंढ़ता  हूं

जद्दोजहद में प्रवीण  जिंदगी अब
नफरतों में उनकी  दुआ ढूंढ़ता  हूं

--------------------*--------------------
मोबाइल   9934907335
प्रवीण होमियो रिसर्च सेन्टर
डुमरांव ( बक्सर)802119
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: बी एल प्रवीण डुमरांव


[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: कभी ऐसा भी हो
-----+++++-------
मैंने फूलों से विनती की
कभी अपने गालों की लाली
और सांसों की ताज़गी
थोड़ी देर के लिए मुझे दो
कि मुझे उनकी सख्त ज़रूरत है

मैंने कांटों से आग्रह किया
कभी नोकों की आग तजकर
आत्मरक्षा के दूसरे उपायों पर विचारो

मैंने अंधेरे से पूछा
कभी दिन के उजाले में
अपनी तस्वीर नहीं देखी

मैंने पृथ्वी को सुझाव दिया
कभी उल्टी दिशा में घूमकर देखो
सफर की जल्दी में
क्या- क्या छोड़ आई हो

मैंने ईश्वर को दावत दी
किसी रोज़
आदमी की लाचारी में उतरो
और फिर ईश्वर की तरह मुस्कुराओ
कि मुझे भी लगे
सचमुच तुम ईश्वर हो

****  निविड़ शिवपुत्र ****
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna:            


  लॉक डाउन के बाद की चिंता


विकृतियों से विनाशोन्मुख देश और दुनियावालों को I

भयाक्रांत कर दिया कोरोना झुका दिया सुपरपावर को II


 बादशाह राजा शासक और तानाशाह को विवश किया है

 थल जल में गतिमान, गगनचारी यानों को रोक दिया हैII


दहशत फैला ऐसा कि स्कूल और कॉलेज बन्द हो गए I

सेमिनार सम्मेलन सांस्कृतिक आयोजन बन्द हो गए II


जनता कर्फ्यू लगा लोग घर में रहकर कर दिया समर्थन I

लॉक डाउन से लॉक हो गए   रातों रात काम और धंधे II


पाने को कुछ खोना होता      है ये नीति नियति की I

खोया है रोजगार,  बने चालीस करोड़ बेरोजगार कीII


देश जहाँ खोया रोजगार प्रकृति को मिली प्रदूषण मुक्ति I

जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण से जन जीवन पायी मुक्तिII


कोरोना को जीत रहा है भारत जन जन की सहमति से I

आनेवाले कल की चिंता     सता रही मंदी के भय से II


लॉक डाउन मैं  कितनी आहत हुई भारतीय अर्थव्यवस्थाI इस प्रभाव में कितनी आहत होगी अपनी राज्य व्यवस्था?


कवि हृदय में दिखती है संकट    चहुंओर महामंदी की I

बदलेगी जीवन शैली      संघर्ष प्रबल होगी धंधों की II


रोग निरोधी क्षमता हासिल करने का तन गढ़ना होगा I

यम नियमादिक पालन करके मन को वश में करना होगाI


सेवा तप संयम  पूर्वक कर्तव्य बोध में जीना होगा I

जियो और जीने दो का सम भाव सभी को लाना होगाII


तभी देश और प्रान्त  उबर पायेगा घोर महामंदी से I

वरना अप्रत्याशित संकट घिर आयेगा उस मंदी से  II


इसीलिए अब लॉक डाउन के बाद की चिंता सता रही हैI

निज कर्तव्य बोध की जैसे    नई चेतना जगा रही है II


फिर क्या होगा हाल यहाँ के जनजीवन का राम ही जानेI

कैसा होगा सत्ता  शासन लोकतंत्र का.  राम ही जाने II




[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: जब तक बची है मासूमियत
किसी भी बच्चे की आंखों में
बिल्कुल तभी तक तक बची है यह दुनिया
वरना कब का लील गया होता इसे
कोई अति शक्तिशाली परमाणु या हाइड्रोजन बम
या कोई  कोविड- 17, 18 या 19
दुनिया के तमाम बच्चों!
यूं ही बचाये रखना हमारी दुनिया को।
......
हेमन्त दास 'हिम' / 19.4.2020


......

[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: ग़ज़ल
*****
अश्क़ आंखों में छिपाना आ गया
हमको मिथ्या मुस्कुराना आ गया

जल रही थी आग जो दिल में मेरे
उसको बे-बारिश बुझाना आ गया

देखकर उसकी फ़क़त दीवानगी
इश्क़ मुझको भी निभाना आ गया

हो गई आसान सब मुश्किल सनम
जब मुझे मिलना मिलाना आ गया

जब सियासत में रखा मैंने क़दम
झूठ की सिगड़ी जलाना आ गया

भूख से जब बिलबिलाने लग गए
तब मुझे खिचड़ी पकाना आ गया

ठोकरें खाईं जो मैंने दर-ब-दर
ज़िन्दगी को आजमाना आ गया

इश्क़ के रहबर अजी "चैतन्य" को
जाम ग़ज़लों के पिलाना आ गया
© चैतन्य चंदन
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: 

इस सन्नाटे को तोड़ो

कभी सन्नाटों में भी संगीत होता , आज सिर्फ खामोशी है
यह मदहोशी का नहीं, दहशत का आलम है। डर, कभी दरवाजे पर दस्तक करता सुनाई देता है, तो कभी दूर से, किसी जलजले की तरह, पास आता दिखाई देता है।आकाश से चिड़ियाँ हमें, कनखियों से देख रही हैं, और हम नजरें बचाए हुए हैं। फूल और पति्तयों की गंध, कहाँ उड़ गई
हमारी मस्तानी चाल क्यों बेड़ियों में जकड़ गई
अहंकार की गरदन पैरों तक लटक गई।
मँदिर की घँटियाँ चुप हैं, उस पर थाप देती हथोड़ी
कहीं अब सीने पर चल रही है
दुआओं के लिये उठते हाथों का स्वार्थ, कहीं सामने तो नहीं आ रहा? अपने स्वार्थ के बदले जो परसाद चढाते रहे
उसका रूप बदल सकते हैं क्या?
अपनी सभ्यता का सिंहावलोकन कर देखें
पीपल के पेड़ तले, ठंडे और मीठे पानी का मटका रख
तपती धूप में चलते राहगीरों को पानी पिला सकते हैं क्या?
अपनी चारपहिया गाडी से नीचे उतर, किसी बुजुर्ग को, सड़क पार करवा सकते हैं क्या?
वृद्धाश्रम में पड़े माता-पिता को फिर से, घर ला सकते हैं क्या?
घबराओ नहीं, दुआएँ बेअसर नहीं
जातीं
कोशिश करो! इस सन्नाटे के घेरे से निकलने की , चाबी ढूँढ कर लाओ
कोई नाद छेड़ो - कोई शँख बजाओ
या फिर परार्थना का मधुरतम गीत ही गाओ।
..।।।....
             विकेश निझावन


[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: बाहर न निकलना 
(जयन्त)

बाहर न निकलना  कवि!

सड़कें सूनी, शहर-गली,
हर तरफ पसर रहा सन्नाटा है! भयभीत है हर कोई, फैल रहा वायरस करोना का साया है !

थल-जल वायु की हलचल बंद, स्कूल बंद, ऑफिस बंद, गाड़ी-छकड़े, नदियों के घाट सूने, सबों के जान पर आया है।

क्या छोड़ा है शेष? रग-रग को चूस, प्रकृति को कर डाला तहस-नहस, करोना बना कर तू अपना विनाश
लाया है।

स्थिरता से गतिहीन हो रहा जीवन, दिन हुए रुका-रुका सा है सब कुछ, मूढ़ मानवता, मंदबुद्धि ने तेरी कहर ढाया है।
 
जाति बचेगी, धर्म बचेगा या अमीर-गरीब ? पहचानता नहीं वह किसी को, फैली है उदासी, निराशा का भय  छाया है !

साहब, श्रीमती की घुड़की बंद, खिड़की बंद, चुप रहते
ये बंद दरवाजे, बाहर न निकलना  कवि! पता नहीं किधर से, कहाँ से करोना आया है!
■■



[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: डॉ मीना कुमारी'परिहार'पटना
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: ****लाडली बेटी****
###############
लाडली बेटी जब से स्कूल जाने लगी
हर खर्च क‌ई ब्योरे मां को समझाने लगी
फूल ससु कोमल और ओस की नाज़ुक लड़ी
रिश्तों की पगडंडियों पर रोज मुस्कुराने लगी
बोझ समझी जाती थी जो कल तलक सबके लिए
घर की हर बाधा को हुनर से वही सुलझाने लगी
आज तक वंचित रही थी घर में ही हक के लिए
संस्कारों की धरोहर बेटों को बतलाने लगी
वो सयानी क्या हुई कि बाबुल के कंधे झुके
उन्हीं कंधों पर गर्व का परचम लहराने लगी
 पढ़-लिखकर रोजगार करती, हाथ पीले कर चली
बेटी ने बेटों से कम ये बात सबको समझ में आने लगी

डॉ मीना कुमारी'परिहार'पटना



[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: डा शिवनारायण
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: ग़ज़ल
खवाब उनका दिखा कर जुदा हो गई
मेरी तक़दीर मुझसे खफा हो गई।
**
बेरूख़ी देख उनकी बिखरने लगी..
हसरतें दिल की दिल में फ़ना हो गई।
**
एक तुम्हारी कमी रह गई जीस्त में
हर ख़ुशी ज़िन्दगी से फ़ना हो गई। 
**
मौत ही है जो बढ़ के लगायी गले।
ज़िन्दगी इस क़दर बेवफ़ा हो गयी।
**
उम्र भर साथ देता यहाँ कौन है?
बेबसी में मुहब्बत क़ज़ा हो गई।
**


मणि बेन द्विवेदी
वाराणसी उत्तर प्रदेश
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: देख रहा हूँ

नित धरा पर देख रहा मैं,
नित गगन को देख रहा हूँ।
घोर मचा बदलाव का आलम,
नित आलम सब देख रहा हूँ।

प्रलय वेला का घंटा बाजे,
त्राहि-त्राहि सब ओर मचा है।
कहीं अस्त्र-शस्त्र की रक्षा,
कहीं शेष समर का शोर मचा है।
शेष समर अबतक शेष ही रहेगा,
ऐसा ही मैं देख रहा हूँ।
घोर मचा------

नयनों में अंगार लिए सब,
आतुर दिखते अपनी विजय को।
निज हृदय में जब आग लगी हो,
बुझा सकती क्या पर संसय को।
त्याग-त्याग अंगार हृदय से,
चिंगारी बनता देख रहा हूँ।
घोर मचा-----

कितनी माँ की गोदी सूनी,
कितनी अबला की माँगे सूनी। नदारद हुए घर मे बच्चे कितने,
नित दुखो की चीत्कारें सुनी।
व्याकुल हृदय बन  दुखियो का,
दुख-दर्द मैं सुन रहा हूँ।
घोर मचा-----

शुद्धता है आत्मा में,
आत्मा मौन क्यों पड़ा है।
देख नजारा वैरी मन का,
क्यो वैर सब रच रहा है?
त्याग-त्याग वैरी मन का,
निरीह प्राणी सम रो रहा हूँ।
घोर मचा-----

काल -चक्र के सब हैं बंदी,
क्यो मन का मर्जी बना है?
रच रहे क्यो ऐसी रचना,
सबके हृदय में खौफ बना है।
त्याग-त्याग खौफ अपना,
खुद को दहल रहा हूँ।

आतंकी अब तू चेत-चेत,
सृष्टि तुझे ललकारती।
धैर्य-धरा का लो न परीक्षा,
काल-चक्र हुंकारती।
सैन्य-सिपाही तू अमूल्य निधि,
तुझे नमन मैं कर रहा हूँ।

आनंद भूषण श्रीवास्तव
गोगरी,खगड़िया,बिहार


[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: पूनम सिन्हा श्रेयसी
पटना
मो० 8340484896
[27/04 22:05] Sidheshwar Prasad Patna: जल संरक्षण पर दोहें
------------------------
(1)
कूड़ा-कचरा का करो, भाई उचित प्रबंध।
जल भी दूषित हो रहा, टूट रहा अनुबंध।।


(2)
नदियों में मल न बहे, ऐसा करो प्रयास।
जलचर भी जीवित रहें, नदी न होय उदास।।


(3)
जल संरक्षण कीजिए, इसके बिना न चैन।
कोख सूखती धरणि की, ताप बढे दिन रैन।।
(4)
नदियों में पानी नहीं,बारिश भी नाराज।
प्रथम बहाया व्यर्थ ही,तरस रहे हो आज।।
*पूनम सिन्हा श्रेयसी


[27/04 22:06] Sidheshwar Prasad Patna: स्मृति कुमकुम
[27/04 22:06] Sidheshwar Prasad Patna: कविता
     (अम्बर प्यार लुटाता है)
जब बून्द तरसती है धरती,अम्बर प्यार लुटाता है,
अंधियारी काली रातों में,पवन वेग बढ़ जाता है,
टूट टूट कर शाखों से जब,पत्ते भी झड़ जाते हैं,
घनघोर घटाएं छाती हैं ,मन पर वो छा जाता है।

कैसा है ये बंधन प्रियतम,याद तपिश मन भाती है,
तू ही छुपा सांसों में बस,गीत हवाएं गाती हैं।
चंचल न की धारा पर जब,पैर जो तुम धर देते हो,
अंतस की तृष्णा में फिर ,ये बारिस धूम मचाता है।

उलझ सुलझ कर,उमड़ घुमड़ कर,आंखें बरसा करती हैं,
क्या बतलायें तुमको प्रियतम ,अँखियाँ तरसा करती हैं।
मिलन यामिनी चुपके से फिर ,बांहों में आ जाती है,
नैन कटीली चितवन को,चितचोर चुरा जाता है।

मंद मंद मकरंद छलकाए,रजनीगंधा की खुशबू,
प्रेम तपिश में तपता तन मन,उसपे मौसम का जादू।
अधरों से जब अधर मिले तो,कम्पित कम्पित काया री,
उखड़ी उखड़ी सांसें बिखरी, रोम रोम हर्षाता है।

पूर्ण हुआ जब प्रेम मिलन तो,शोख़ अदाएं शरमाई,
बिखरी -बिखरी जुल्फों में,हया घटाएं शरमाई,
डूब नशे में आँखें भी अब,बोझिल होने वाली है,
रहने दो अब बात यहीं पर,चाँद भी कहता जाता है।
कुमारी स्मृति कुमकुम



[27/04 22:06] Sidheshwar Prasad Patna: *मन आशाओं का डेरा है*

यह जीवन एक महासमर है
पल-पल बीता जाय उमर है
हंसते-गाते जीवन में
विकराल काल का घेरा है
मन आशाओं,,,,,,

दुख  के  बादल  छाए हों
या कि मद- मोही माये हों
फीकी हो मुस्कान सही पर
हंसी ने स्वर्ण बिखेरा है
मन आशाओं का ,,,,,,,,,,,,

सुख-दुःख आनी-जानी है
यह  दुनियाँ  तो  फानी  है
धूप-छांव   के   जैसा   ही
रातों-दिन का फेरा है
मन आशाओं,,,,,,,,,,

मन पर्वत पर गायन करता
यह नदियों पर नर्तन करता
स्वरा समझ ले हर मन में
उम्मीद ने पंख पसारा है
मन आशाओं ,,,,,,,,,,,,,
स्वराक्षी स्वरा
खगड़िया बिहार
9576891908

इसके अतिरिक्त जिन कवियों ने अपनी कविताओं से सशक्त अभिव्यक्ति दी, उनमें प्रमुख हैं-"विश्वनाथ वर्मा/ हेमंत दास हिम/  लता प्रासर /निकेश निझावन/निविड़ शिवपुत्र /बी एल प्रवीण/जयंत/चैतन्य चंदन
 मीना कुमारी परिहार /स्मृति कुमकुम घनश्याम /डा शिवनारायण /दिलीप कुमार /पूनम श्रेयसी आदि।
........
रपट के मूल लेखक :सिद्धेश्वर 
श्री सिद्धेश्वर का परिचय - संस्थापक अध्यक्ष :भारतीय युवा साहित्यकार परिषद) अवसर प्रकाशन पटना
श्री सिद्धेश्वर का मोबाइल नं: -9234760365
श्री सिद्धेश्वर का ईमेल -  :sidheshwarpoet.art@gmail.com
प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु ब्लॉग का ईमेल - editorbejodindia@gmail.com

















No comments:

Post a Comment

Now, anyone can comment here having google account. // Please enter your profile name on blogger.com so that your name can be shown automatically with your comment. Otherwise you should write email ID also with your comment for identification.