अपने हाथों अपने घर में भीषण आग लगाते क्यों?
दिनांक 3.5.2020 को संपन्न हुई आईटीएम काव्योत्सव की आभासी कवि गोष्ठी में कोरोना महामारी छाई रही किन्तु साथ में मजदूर दिवस (1 मई) और मातृ दिवस (10 मई) पर भी कविताएँ देखने को मिलीं. साथ ही उन्मुक्त वैचारिक आकाश में विचरण करनेवाले मनीषीयों को भला कौन बांध सकता है? स्पष्ट है कि अन्य विषयों पर भी अनेक रचनाएँ देखने को मिलीं.
इस गोष्ठी की अध्यक्षता का दायित्व निभाया हेमन्त दास 'हिम' ने और संचालन किया अनिल पुरबा ने. यह संस्था बिना किसी भेदभाव को बारी बारी से सब को अध्यक्षता और संचालन का अवसर प्रदान करती है जो इसके प्रजातांत्रिक मूल्यों में गहरे विश्वास को प्रदर्शित करता है.
अपने साढ़े आठ वर्ष पूरे कर चुकी और 4 अतिरिक्त गोष्ठियां समेत अपनी 110वीं गोष्ठी मना रही यह संस्था लगभग 9 वर्षो से बिना किसी रुकावट के हर माह कवि-गोष्ठी आयोजित करती आ रही है जो अपनेआप में एक कीर्तिमान समझा जा सकता है. इसके पीछे इसके मुख्य संयोजक विजय भटनागर का बड़ा योगदान है. साथ ही अनिल पुरबा और चंदन अधिकारी सदृश साहित्याकारों भी इसके प्रमुख स्तम्भ रहे हैं.
प्रक्रिया बिल्कुल पूर्ववत थी. निर्धरित समय पर सभी सदस्य व्हाट्सएप्प ग्रुप में ऑन लाइन हुए. फिर संचालक जिसका नाम लेकर बुलाते उन्हें तभी अपना वीडियो या टेक्स्ट व्हाट्सएप्प ग्रुप में डालना होता था. किसी को कुछ और लिखने या डालने की अनुमति नहीं थी जब तक संचालक ऐसा न कहें. हाँ रचना की प्रस्तुति के बाद सदस्यगण 'ताली' या अन्य प्रतिक्रिया का आइकन जरूर दे सकते थे पर शाब्दिक प्रतिक्रिया बीच में देना प्रतिबंधित था क्योंकि वह सिलसिला आभासी गोष्ठी को आगे बढ़ने को बाधित कर देता है.
पहले सरस्वती वंदना हुई जिसे वंदना श्रीवास्तव ने अपने मधुर कंठ में गाया. फिर राष्ट्रगाण प्रस्तुत किया भारत भूषण 'शारदा' ने. लोग अपने घरों में राष्ट्रगान के समय खड़े होकर विधिवत इसका गान कर रहे थे. फिर कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया.
तो अब आपको इधर-उधर की बातें करने की बजाय सीधे साहित्यकारों द्वारा वीडियो या टेक्स्ट के माध्यम से सम्मिलित किये गए कविताओं/ ग़ज़लों/ गीतों से आपका साक्षात्कार करवाता हूँ जो नीचे है -
किशन तिवारी भोपाल से अपनी जानदार ग़ज़ल में बारूदों के ढेर में भी एक परिदा ढूंढते नजर आए -
जाने मैं क्या ढूँढ रहा हूँ
टूटा सपना ढूँढ रहा हूँ
भीड़ भरे बाज़ार में लेकिन
कोई चेहरा ढूँढ रहा हूँ
भटक रहा हूँ प्यास लिए मैं
बस इक दरिया ढूँढ रहा हूँ
आँखों में तस्वीर किसी की
दर दर भटका ढूँढ रहा हूँ
बारूदों के ढेर में अब तक
एक परिन्दा ढूँढ रहा हूँ
साथ चले आओ सब मेरे
प्रेम का रस्ता ढूँढ रहा हूँ
सतीश शुक्ल ने प्रतीकात्मक रूप से श्रमवीरों के लोगों द्वारा उपेक्षा को चित्रित किया -
सबसे बड़ा श्रमवीर
है सूरज
जलाकर निज अस्तित्व
जगाता है
जगको अंधेरो से
व्रती है हठी है
अपने स्वेदो से
सींचता सृष्टि को
परकोई नहीं हरता
उसके ताप
केवल प्रवचन
केवल प्रलाप।
विजया वर्मा ने जीवन पथ के पथिकों की धमनियों में अपनी पंक्तियों द्वारा ऊर्जा संचारित की -
ओ पथिक!
तुम रुक क्यों गए ?
नहीं - नहीं
तुम्हें तो निरंतर चलते रहना है
तुम रुक ना जाना
यही तुम्हारी नियति है।
तुम भविष्य के सुनहरे सपनों में
खो मत जाना , और अतीत पर
पछतावा भी ना करना।
उठो!
अपने वर्तमान को समझो
इसे ही जियो
और इसे ही संवारो
यह वर्तमान ही
तुम्हारे अतीत और भविष्य का
आधार है
इस गूढ़ रहस्य को जान लो
देखो अपनी ओर ताकती
उन तमाम आंखो को
समझो इनकी विवशता
दयनीयता और लाचारी को
और कर दो इन पर
हस्ताक्षर अपनी
मानवता के।
ओ पथिक!
तुम रूक ना जाना।
विश्वम्भर दयाल तिवारी ने बड़ी ही सफाई के साथ श्रमवीरों को पूजते हुए राष्ट्रभक्ति के सभी मूल मन्त्र दे डाले -
श्रमवीर भूमि नन्दन
श्रमजल बहा रहे हो ।
चन्दन तुम्हारा जीवन
है महक ही ठिकाना ।
**मेहनत बुलाये तुमको
जीवन सराहे तुमको ।
कर्म ही प्रधान जानो
फल दूर का निशाना ।
**प्यारा यह हिन्द मानो
माटी से नेह जानो ।
रखो प्रेम दिल में सच्चा
नफरत का ना ठिकाना ।
**गुल भी सभी हैं प्यारे
गुलशन सभी हैं न्यारे ।
प्यारा वतन है भारत
है 'विश्व' को जगाना ।
**एकता ही राष्ट्र बल है
अनेकता यहीं सफल है ।
दीपक जले प्रगति का
विप्लव से है बचाना ।
**निष्ठा लगन परिश्रम
कर्तव्य शान्ति अन्तस ।
रखो स्वच्छ स्वस्थ भारत
तुम देव भी कहाना ।
निरूपमा नेेअपने प्रिय और खुद के दरम्यां पलों की कुछ बातेेंे बड़े प्यार से रखी-
भूल जाऊँ गर वो पल जो दरमियाँ थे तेरे मेरे / देख कर आँखो मे मेरी प्यार से मुस्कुरा देना ।
चुराऊँ गर नज़रें फिर भी याद ना आएँ वो पल तो / भर के मुझको बाँहों मे तुम धड़कने सुना देना।
भीग जाएँ गाए नयन और अश्रुधारा बह निकले / तो थाम कर बाँहें मेरी वो प्रणय गीत गुनगुना देना ।
तेरे-मेरे जमाने को भी एक ज़माना हो चला साथ हो परछाईं से तुम एहसास बस दिला देना।
चंद्रिका व्यास ने प्रेममार्ग पर चोटें खाकर भक्तिमार्ग की ओर प्रस्थान की स्वीकारोक्तिपूर्ण वह व्याख्या की जो
बहुत कम देखने को मिलता है-
काश खुद को मैं समझ पाती अपनी उलझन स्वयं सुलझाती
हर राह हर डगर पथरीली थी
पग पग धोखा खाकर भी
पथरीली राहों पर चलती थी मैं
काश कोई ऐसा मिल जाता पगडंडी पर चल राह बताता !
**प्रेम सागर में गोते ले
लहरों संग मचलती थी
बीच भंवर में फंसने की
दूरदृष्टि ना थी मुझमें !
**आसक्त हुआ ना प्रेम तुम्हारा साकी बन मैं पड़ी रही
काश पतन की राह ना होती जीवन में उलझन ना होती !
** काश खुद को मैं समझ पाती अपनी उलझन स्वयं सुलझाती !!
**साथ तुम्हारा जब होता था
कांटो से भरी राहों में भी
गुलाब सी खिल जाती थी
मैंने चाहा क्या था तुमसे ?
केवल ,प्रेम तुम्हारा !
**निर्मोही कुछ तो समझ पाते मुझको
मेरी उलझन को सुलझाते
**आक्रांतक था प्रेम तुम्हारा
विष से भरी कटु वाणी
क्या देखा था मैंने
मदिरा से भरे उस प्याले में ?
**देख अश्विनी सा रूप तुम्हारा अनुराग की गगरी छलकी थी
भीगे मन को लाख समेटा
दिल को हल्के से टटोला
समझ ना पाई थी तब मैं
दिल से निकले घंटनाद को
काश समझ पाती तब मैं !
**क्षणिक प्रेम के इस प्रवाह को जीवन में उलझन ना होती
काश खुद को मैं समझ पाती अपनी उलझन स्वयं सुलझाती !!
**अतृप्त प्रेम की चाह लिए
काया मेरी ढल गई
सूर्योदय से अस्तांचल का
भेद मैं समझ गई !
**निर्लिप्त हुआ अब मेरा मन
प्रभु भक्ति में रम गई
दर्शन की अभिलाषी जोगन
मीरा बन खो गई
हर उलझन को छोड़
प्रभु संग , मैं आगे बढ़ती जाती हूं !!
रामेश्वर प्रसाद गुप्ता (कोपरखेराने, नवी मुंबई) ने वैक्सीन शीघ्र खोजे जाने की आवश्यकता पर बल दिया -
कोरोना कैसे जायेगा,
इसपर जरा विचार करो।
लाकडाउन खत्म हो,
इसपर जरा ध्यान करो।
कोरोना................ 1
घर के कैद खाने से,
निकलने का विचार करो।
एक इन्जेक्सन बनाकर,
वायरस का कल्याण करो।
विमल तिवारी बिलकुल धर्म के पथ पर चलनेवाले पथिक दिखाई दिये -
मै धरम का कदम बढा़ता चला।
इस जगत मे प्यार लुटाता चला।
मुझे जन्म मिला संस्कार युक्त,
श्रृंगार प्रकृति का उपहार युक्त,
आशीष बचन पितु मातु से ले ,
कर्तब्य सदा ही निभाता चला।
**युग युग से तो इसी धरा पर हमने सीखा है त्याग सखे।
हम वृक्ष लगाए जाते हैं,
फल आए,लाए कोई भखे।
जीवन मे प्रेम की डोरी लिए,
डोरी से ही प्रेम बंधाता चला।
शोभना ठक्कर ने बड़े ही संकुचाते स्वरों में अपने दिलदार से अपनी प्रीति की बात पटल पर रखी -
मैं बादल तू मस्त पवन है
मैं नभ हूँ तू नीलगगन है
तेरा मेरा साथ पुराना
मैं बदली हूँ तू सावन है
तुझ बिन मेरी सांस अधूरी
मेरे दिल की तू धड़कन है
मैं खुश्बू तेरे फूलों की
तू मेरे मन का गुलशन है
कैसे रखूं दिलदार तुझे खुश
शोभना ये मेरी उलझन है
सेवा सदन प्रसाद ने कोरोना के पांव को आग लगाते हुए सजनी के साथ पीपल की चांव में बैठने की बात कही -
जेठ की दुपहरिया और सूनी है डगरिया कि दूर अभी गांव है,
चलो वहीं बैठे सजनी जहां पीपल की छांव है।
अमवा का पतवा झर गये बगिया भी बेहाल है,
धीरज न खोना सजनी
सबका बुरा हाल है।
बंद सब किवड़ियां और सूनी है डगरिया कि
कहीं नहीं ठांव है।
कोरोना तो डंक मारे अगिया बैताल बनकर ,
हमरी लड़ाई उससे
तोहरे संग साथ रहकर
पांव की पैजनियां सिसके तड़पे माथे की टिकुलिया कि छाले पड़े पांव है।
आग लगा देंगे हम जहां कोरोना के पांव है।
चलो वहीं बैठे सजनी जहां पीपल की छांव है।
कुमकुम वेदसेन ने अपने शब्दों से 'शहनाई' बजाई.
यह उन वर वधू की है कहानी
जिनकी मार्च महीने में होनेवाली थी शादी
लगन का महीना है
वर वधू के मिलन की बेला
घर आंगन बजने वाली थी शहनाई
दूर दूर तक बंट चुके निमंत्रण
हल्दी मंडप का है आयोजन
कैटरर फूलवाले ने लिया बयाना
बैंड बाजा बारात ने बजाया बाजा
वर वधू ने बनाया हनीमून प्रोगाम
**अचानक कोरोना ने बिगुल बजाई
लुप्त हो गई शहनाई
दूर हो गये आयोजन
सिमट गये रंगीन सपने
**हाथ जोड़ करती निवेदन
जा कोरोना जा गगन पार जाकर बजा बिगुल
जा कोरोना जा
यह उन वर वधू की है कहानी
जिनकी मार्च महीने में होनेवाली थी शादी
लगन का महीना है
वर वधू के मिलन की बेला
घर आंगन बजने वाली थी शहनाई
दूर दूर तक बंट चुके निमंत्रण
हल्दी मंडप का है आयोजन
कैटरर फूलवाले ने लिया बयाना
बैंड बाजा बारात ने बजाया बाजा
वर वधू ने बनाया हनीमून प्रोगाम
**अचानक कोरोना ने बिगुल बजाई
लुप्त हो गई शहनाई
दूर हो गये आयोजन
सिमट गये रंगीन सपने
**हाथ जोड़ करती निवेदन
जा कोरोना जा गगन पार जाकर बजा बिगुल
जा कोरोना जा
ओमप्रकाश पांडेय उस ईश्वर या ख़ुदा को ढूंढते नजर आये जिसके रहते इतने सारे अपराध होते रहते हैं -
सब कुछ यहां वही चलाता ही है
बिना उसके यहां हिलता कोई न पत्ता
फिर भी इतना अपराध होता क्यों
घूमते सरेआम ये अपराधी कैसे
माना कोई खुदा तो है।
**बचपन उसका बीतता चौराहों पर
भीख मांगते इससे उससे
सोते हैं वे फुटपाथों पर
तन पर उनके वस्त्र नहीं है
माना कोई खुदा तो है।
**वादों नारों उपदेशों से
भरी पड़ी है यह दुनिया
कहने को तो सब सबके है
पर कौन यहां पर है किसका
माना कोई खुदा तो है।
**चीरहरण होता चौराहों पर
सिसकियों से भरा हुआ अम्बर सारा
चीखती चिल्लाती सड़कों पर
रोज मानवता रौंदी जाती
माना कोई खुदा तो है।
अशोक वशिष्ठ ने कोरोना काल में विरहणी के बोल को अपने सुंदर दोहों में प्रस्तुत किया -
आयी थी पनियाँ भरन, सोचत भई उदास।
धूमिल होने लग गयी, पिया मिलन की आस।।
गये पिया परदेस को, करने को व्यापार।
इसी बीच में पड़ गयी, कोरोना की मार।।
मैं सासुल सँग गाँव में, सजन फँसे परदेस।
विरह वेदना विकट है, अरमानों को ठेस ।।
मोदीजी कर दिहिन हैं, रेल और बस बंद।
दिल्ली ने समझा नहीं, मुझ विरहन का द्वंद्व।।
सैयां तड़पें शहर में , मैं तड़पूँ ससुराल।
जो जीए इस हाल में , समझे मेरा हाल।।
मैं होती चिड़िया अगर, उड़ती मस्त मलंग।
क्वारंटाइन ही भले , रहती पिय के संग।।
भले एक दिन के लिए , चल जाए जो रेल।
साजन आवें गाँव में, होय प्रतीक्षित मेल ।।
कोरोना तुझसे करूँ, विनती मैं कर जोड़।
व्यथा विरहणी की समझ, तू जा भारत छोड़।।
मधु श्रृंंगी ने कोशिश तो खूब की पर प्रेम को परिभाषित नहीं कर पाईं लेकिन उसकी मनमोहक व्याख्या जरूर कर दी -
प्रेम एक पहेली है, पढ़ा था कंही
लेखक नें सही लिखा या गलत पता नहीं।
अचानक ही मन में होने लगा अंतर्द्वंद
क्या है प्रेम की परिभाषा ।
समझ में नंही आया, इस पहेली को कैसे सुलझाऊं
कैसे समझाऊं ,प्रेम क्या है ।
अंतरात्मा सें आवाज आई उसी पल
प्रेम की कोई परिभाषा नंही ।
प्रेम तो महज एक अहसास है दिल का
आभास है ,अभिव्यक्ति व अनुभूति है ।
भावना है मात्र,
जो उपजता है दिलों में, पनपता है अंतर्मन में ।
लहलहाता है हरियाले खेतों की तरह
दिल की धमनियों में बहता है सरिता की तरह।
प्रेम वो है जो मीरा नें ,कृष्ण सें किया था
प्रेम वो है जो हीर नें रांझा सें किया था ।
देवदास को भी पारो सें प्रेम हो गया था
लैला मजनू का प्रेम ,मरकर भी अमर हो गया था।
अच्छा ! तो यही है प्रेम की परिभाषा
जानने की थी अभिलाषा ।
प्रेम कोई खरीदने बेचने की वस्तु नंही
सुलझ गई एक अनसुलझी पहेली ।
पुरुषोत्तम चौधरी 'उत्तम ने ठाणे (मुम्बई) से सामाजिक सरोकार के अपने दोहे .पढ़कर सब को सोचने पर मजबूर कर दिया और अंत में कोरोना पर भी कुछ जोरदार दोहे प्रस्तुत किये -
१* नाते जग में वो भले , जो दुख होय सहाय ।
कहि 'उत्तम' जग स्वार्थी , सुख में संग निभाय ।।
२* भक्तों की भी कह भली , कहाँ बदलती सोच ।
बाबा 'उत्तम' से दिखे , झुकते निःसंकोच ।।
३* धनी मगन , निर्धन दुखी , वस्त्र बिना ठिठुराय ।
इक महलों में सो रहा , इक अलाव सुलगाय ।।
४* अति सर्वत्रहि वर्जते , बैर करो या प्यार ।
जो हद में अपनी रहे , निभ जाए संसार ।।
५* निर्धन और अमीर की , अलग-अलग है भूख ।
इक उर माया से भरे , इक दो रोटी सूख ।।
६* बे- गैरत इंसानियत , हैरत में आवाम ।
पता नहीं इस देश का , क्या होगा अंजाम ।।
७* हवा प्रलोभन की चले , चलती तेज बयार ।
खोले रखना तुम सखे , अंतस के सब द्वार ।।
कोरोना विषयक दोहे -
८* खुल कर साँसे ले रही , धरती माता आज ।
धुँआ, धुंध कुछ भी नहीं , चुप है हर आवाज ।।
९* तंत्र-मंत्र , ज्योतिष , दवा , कुछ नहिं आए काम ।
कट जाएगा बद समय , जप ले हरि का नाम ।।
१०* मन पंछी तो उड़ रहा ,...... बँधी हुई तन डोर ।
घायल मनवा लौटता , पुनि-पुनि घर की ओर ।।
शायर दिलीप ठक्कर ने बताया कि उनके ग़म का फ़साना अभी दुनिया ने नहीं देखा है-
दुनिया ने मेरे ग़म का फसाना नहीं देखा,
मेरी हंसी में लहजा पुराना नहीं देखा!
जो कट गया आराम से ममता की छावं में,
दिन एसा ज़िन्दगी में सुहाना नहीं देखा!
इंसान हो तो सीख लो हर शै की क़द्र को,
सब का हर एक जैसा ज़माना नहीं देखा!
हर एक का मे आद है दुनिया में हैं जितने,
वो उठ गए जब नाम का दाना नहीं देखा!
दुनिया में जिस का जो भी हो "दिलदार "ने कभी ,
उल्फत से बढ़ के कोई खज़ाना नहीं देखा!
डा.हरिदत्त गौतम "अमर" ने कोरोना संकट में लापरवाही बरतकर देशभर में महामारी की विभीषिका को और भयंकर करनेवालों को जोर की फटकार लगाईं -
अपने हाथों अपने घर में भीषण आग लगाते क्यों
जिन पर जान छिड़कते उन को फाॅसी पर लटकाते क्यों ?
मटरगश्तियाॅ भी हो पाएंगी खुद को जिन्दा रख लो
लक्ष्मण रेखा लाॅघ निकल बाहर अपहरण कराते क्यों ?
यह तूफान निकल जाएगा दूर्वा से झुककर रह लो,
अकड़पीर बन मज़हब के सॅग निज अस्तित्व मिटाते क्यों ?
जो हो उम्र रखो मन काबू बेमतलब मत ही निकलो,
सठिया गए मियाॅ यह जुमला ओछों से सुनवाते क्यों ?
खाओ तरस कली फूलों पर,उन पर जिन की लाठी हो,
अपनी प्राणप्रिया लैला का मजनू! गला दबाते क्यों ?
जीवन है अनमोल मनुज का अति दुर्लभतम भारत में,
ऋषि मुनियों के वंशज होकर उसको व्यर्थ गॅवाते क्यों ?
तुमने भूल नहीं की तो यह छू न सकेगी बीमारी,
गरदन फॅसवा पूरे घर पर वज्रपात करवाते क्यों ?
कोई नहीं इलाज डाक्टर बन्द दुकान किए बैठे,
लाश मिलेगी नहीं, संक्रमित परिजन स्वयं बनाते क्यों ?
बनो चंद्रबरदाई, तुलसी जयशंकर प्रसाद जैसे,
तुम कबीर हो श्वेत चदरिया पर फिर दाग़ लगाते क्यों?
विजय भटनागर ने अपनी रचना में गरीबी के रिश्ते को अमीरों के बनस्पत बखूबी समझाया -
गरीबी के रिश्ते कच्चे धागेसे बंधे होते हैं
सब एक सुंदर सी माला के मोती होते हैं।
अमीरी में रिश्तों का दम घुटता रहता है
गरूर में कहां सब एक छत के नीचे सोते हैं।
कोई भीग म आये तो गरीब हो जाते हैं एकजुट
अमीरी में तो सब अपने ही नशे में चूर होते हैं।
गरीब बच्चें जब विदेश चले जाते हैं अधिक धन कमाने
विदेशों में कहां भारतीय संस्कार होते हैं!
हमारे देशकी सभ्यताहै वसुधैव-कुटुम्बकम
विदेशी जवां हुए तो मांबापके साथ कहां होते हैं।
बाप उद्योगपति तो बेटा स्वतः होता उद्योगपति
निर्धन पुत्र तो श्रम से तपकर सोने से कुंदन होते हैं।
गरीबी का अर्थ है विपदा का डट के मुकाबला
विजय हेतु विघ्नहर्ता के सामने सब एक साथ होते हैं।
वंदना श्रीवास्तव ने मातृदिवस के उपलक्ष्य में माँ के प्रति अपने उदगार व्यक्त किये -
माँ...तुम सिर्फ कोई व्यक्ति नहीं,
गहन अहसास हो
आत्मा के पास हो,
और अहसास कभी मरते नहीं..."
इसलिए...
माँ तुम कभी मर नहीं सकतीं..
क्योंकि माँएं मरती नहीं हैं..
वे सदैव जीवित रहतीं हैं,
तुम मौजूद हो..
मेरी गोल रोटी में,
बिटिया की चोटी में,
मेरी गृहस्थी की हर व्यवस्था में,
मेरे मन की हर अवस्था में,
जीवित है तुम्हारा अस्तित्व..
अपने बच्चों के व्यक्तित्व में ....
जीवित हो तुम भी अब भी....
मेरी आंखों में
मेरे हाथों में
मेरे हर तरफ़
एक ज्योति पुन्ज की तरह,
**जो तुम नहीं हो तो फ़िर कौन है...
जो चलता है बादल बन कर मेरे साथ-साथ
कड़ी धूप में शीतल-सघन छाया बन कर..
**"जो तुम नहीं हो तो कौन...
उदास क्षणों में सहला जाता है मेरे बालों को....
ठंडी हवा के झोंके में ममत्व का आश्वसन देकर....
**टूटे मन को मरहम देता है अब भी.
सुबह की ओस बनकर..
ममत्व और सांत्वना भरा अदृश्य स्पर्श..
**उत्साह और विजेता क्षणों में..
अब भी सजीव हो जाता है माथे पर...
तुम्हारा आशीष देता प्रेरणा भरा स्नेही चुम्बन,
**तुम कहीं नहीं गई हो माँ....
तुम हमेशा मेरे आस-पास हो...
और यह अहसास भर देता है मुझमें...
असीम ऊर्जा, अदम्य साहस और जगमगाती आशाएँ..........
विजय कान्त त्रिवेदी ने पटना से
जय मानव जय विश्व पर
पहले जय देश हमारा।
हिम कृट माथे पर
उरमाल गंग की धारा ।।
**पश्चिम की महत सभ्यता
थी जब आंखें न खोली ।
है गुंजित तब से शाम गान
वसुधैव कुटुंबकम बोली ।।
वैसे तो किसी गोष्ठी का सञ्चालन गोष्ठी की सफलता का अत्यंत महत्वपूर्ण घटक होता है किन्तु आभासी गोष्ठी की तो रीढ़ ही सञ्चालन होता है जिसके बिना गोष्ठी एक अव्यवास्थित प्रलाप में परिवर्तित हो सकती है और इस गोष्ठी की वह रीढ़ थे अनिल पुरबा. इन्होने अपनी विशिष्ट रचना में कोरोना संकट के सकारात्मक पहलुओं का बड़ा ही खूबसूरत और आकर्षक वर्णन किया -
खिड़की के बाहर जब मैंने देखा
मौसम कुछ बदला बदला सा लगा
आसमान कुछ नीला नीला सा
सूरज और अधिक पीला पीला सा
दूर क्षितिज कुछ हरा हरा सा
और संसार कुछ भरा भरा सा I
**तितलियों को फूलों पर मंडराते हुए देखा
चिड़ियों को फिर फुदकते-चेह्चहाते हुए देखा
कोयल को फिर मधुर गीत गाते हुए देखा
डालियों को फिर लहलहाते हुए देखा I
**धूप थी पर उतनी पैनी ना थी,
गर्मी थी पर उतनी परेशानी ना थी,
प्रदूषण की भी कहीं निशानी ना थी,
आधुनिक विडंबनाओं की मनमानी ना थी I
ऐ**सा लगा के मेरा भारत बदल गया हो
ऐसा लगा जैसे वक़्त फिर लौट आया हो
और वक़्त के साथ हम भी लौट आयें हों
सुबह के भूले हम, शाम ढले लौट आये हों I
**इस बदलाव ने हमें भी बदल दिया
पैरों की जंजीरों ने जीना सिखा दिया
अब हम वक़्त के आगे नहीं चल रहे
बल्कि वक़्त के साथ साथ चल रहे I
**एक कोरोना वायरस ने क्षीर-सागर मथ कर
आत्मा को अमृत का घूँट पिला दिया
एक अदने मनुष्य को घरों में कैद कर
समस्त संसार को जीना सीखा दिया I
- अनिल पुरबा
सत्यप्रकाश श्रीवास्तव की कविता आवेशमयी थी क्योंकि उनका मानना था कि कोरोना पर नियंत्रण पाने की स्थिति आ चुकी थी पर पडोसी देश और कुछ शारारती तत्वों द्वारा सारी मेहनत को व्यर्थ कर दिया गया. हमारा यह मानना है कि भारत जैसे विशाल देश में कुछ लोगों की शरारतों से सारी मेहनत व्यर्थ नहीं हो जाती बल्कि कार्य दुष्कर जरूर हो जाता है. उनकी कविता का अंश यहाँ प्रस्तुत है -
कोरोना का कहर
कोरोना के कहर से,
आज दुनियां त्रस्त है।
हजारों मर गये लेकिन,
खुशियों का सूरज आज भी अस्त है।
भारत में कन्ट्रोल था अच्छा,
पर बनते-बनते बात बिगड़ गयी।
कुछ लोगों के दुर्व्यवहार से,
सारी मेहनत व्यर्थ सी होने लगी।
भारत भूषण 'शारदा' -
यह तो माना इस बसंत मे तुमको नही ज़रूरत मेरी
किन पतझर के आने तक मैं ना रहूँगा तब क्या होगा?
समर जोगाड़ देवबंदी ने पढ़ा-
हर सम्त लॉक डाउन
जब है जोगाड़ भाई
हर्राज के पलंग पर
माज़ी की यादें लेकर
सारा बदन खुजाएँ
लब पर हो ये दुआएं
या रब हो लॉक डाउन
से पाक अब फजाएँ
हम सब खुशी मनाएं
हर ग़म को भूल जाएं
फिर निकलें घर से बाहर
नाज़ुक बदन से लश्कर
कुछ खुशनुमा से पैकर
और कुछ हसीन मंजर
आंखों में अपनी भरकर
फिर घर में लौट आएं
कुछ शेर गुनगुनाएं
हर्राज के पलंग पर
हम फिर से लौट जाएं
इक नींद की भी गोली
पानी के साथ खाएं
ताके जो नींद आए
ख्वाबों में लेके जाए
घर में जुगाड़ रहकर
जो हम न देख पाए
वो सीन भी दिखाए
जिन को न था क्रोना
फ़ाक़ों से मर गए वो
इंसाँ की बे बसी पे
रोयें या मुस्कुराएं.
ललित परेबा ने पढ़ा कोविड संकट को फ्रंट फुट पर लेकर सामना कर रहे चिकित्साकर्मियों के पक्ष में आवाज बुलंद की -
डाक्टर नर्स और वार्ड बाय
सफेद हरे / नीले पीले
कपड़े पहने / मास्क लगाए,
डाक्टर नर्स / और वार्ड बाय !!
**क्या लगते हैं ? / उसके जो
लेटा बिस्तर पर, / सांसो को
गिनता रहता है !!
**एक भयंकर / रोग कोरोना,
जो छूने से / लग जाता है -
क्या भय इनको / नहीं सताता ?
बतलायें कैसे / बतलाओ ???
चेहरे पर तो / मास्क लगा है !!
**फिल्मी हीरो / नेतागणजी
घर में छुपकर / रहते हैं,
सेवाकर्मी / हठधर्मी ये
फ्रंटफुट पर / रहते हैं !!!
**जीवन है / अनमोल,
बचाना / फोकस है,
तत्पर्ता से / चौबीस घंटे,
ये मृत्यु से / लड़ते हैं --
**इनका भी / परिवार
हमारे जैसा है, / कर्त्तव्यों का
अनुपालन पर / निश्चित हमसे गहरा है !!!
**मंदिर मस्जिद / गिरजाघर हो
या गुरुद्वारा, / अस्पताल भी
तीर्थ बना / इन सबके द्वारा !!
**आओ नतमस्त हो / इनके गुण दोहराएं,
उचित रीति से / सामाजिक सम्मान बढ़ाएं !
नेहा शर्मा ने आज के संबंधों की खोखले स्वरूप को उजागर किया -
सूचनाएं ही बचीं संबंध में बात करने के विषय खोते रहे...
स्वप्न तो था पेड़ छायादार होने चाहिए,
उर्वरा उर-भूमि में कचनार उगने चाहिए
मलिन मुख होती मगर वृक्षावली फूल से पहले झरी हर इक कली
थी हमारी सोच में कैसी फ़सल बीज लेकिन कौन- से बोते रहे।
प्रकाश सी झा ने आज के समय में डाकिये से चिट्ठी मिलने का वाकया सुनाया -
ख़त पढ़ते ही ख्याल एकदम बदल गया
मुदित होकर मन का मौसम बदल गया
जख्म तो वही था पर मरहम बदल गया
ख़ुशी की धरा बनकर मेरा गम बदल गया
ख़त के नीचे का स्थान रिक्त था, वह चिट्ठी थी गुमनाम की.
चन्दन अधिकारी ने भक्तिभाव से पूर्ण अपने उदगार रखे -
प्रभु जब निकले मेरे प्राण
मृत्यु-भय हो जाय गुमनाम
ह्रदय की वीणा झंकृत होकर
कहने लगे - हरे कृष्ण, हरे राम.
इसके उपरांत सभी इच्छुक सदस्यों ने पढ़ी गई समस्त रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की. ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें सभा के दऔरान कवियों द्वारा वीडियो या टेक्स्ट अपलोड करने पर सिर्फ 'ताली' आ अन्य आइकन बनाकर प्रतिक्रिया करने की आजादी थी शाब्दिक प्रतिक्रिया की नहीं ताकि सभा सुचारु रूप से चल पाए.
अंत में इस आभासी गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे हेमन्त दास 'हिम' ने पढ़ी गई रचनाओं पर अपनी संक्षिप्त टिप्पणी के पश्चात अपनी हास्य रचना "कोरोना दिवस में उठना" पढ़ी. इस बहाने कोरोना से बचने के सारे उपायों को बता डाला-
एक बार कोरोना काल के एक दिवस में मैं उठ बैठा.
तो कोरोना दिवस ने पूछा - "क्यों उठते हो?"
मैंने कहा - "तेरा स्वागत तो कर लूँ., कोरोना रात्रि के आगमन के पहले
उसने कहा- " तुम हो मूर्ख अहले.
तू यूँ ही उठेगा
और इधर उधर 'सरफेस' पर हाथ फेरेगा
बिना साबुन से 20 सेकेंड हाथ धोये अपने मुँह, नाक और आँख को छूएगा
बिना मास्क लगाये बाजार जाएगा
सब्जियों को बिना मीठा सोडा से धोये फ्रिज में धकियायेगा
पैकेटों को बिना साबुन से धोये रैक पर थकियायेगा
दूसरे लोगों से 1 मीटर के अंदर में ही घोसियायेगा
तो बता !
मेरे धरती पर रहने का 'टर्म' कब पूरा होगा ?
कब तक नगिनत उम्रदराज और कम उम्र के बीमारों की लाशें मुझसे बिछवायेगा
कब तक इसी धरती पर मुझे जबर्दस्ती टिकवायेगा
और लौटने में देरी करने पर यमराज से मुझे पिटवायेगा.
इस कार्यक्रम में ललित परेबा ने भी भाग लिया.
इस कार्यक्रम में ललित परेबा ने भी भाग लिया.
अंत में अध्यक्ष की अनुमति से सभा की समाप्ति की घोषणा की गई.
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रपट की प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com
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रपट की प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com
बहुत सुंदर रिपोर्ट। अध्यक्षता की हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteहार्दिक आभार।
Deleteअत्याधिक सराहनीय
ReplyDeleteरमेश पंत
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद।
Deleteअत्याधिक सराहनीय
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