Tuesday 23 June 2020

तूफान में कश्ती है / अर्जुन प्रभात की दो ग़ज़ल और एक कविता

1. ग़ज़ल

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      तूफान में कश्ती है, भगवान बचा लेना 
   मिट जाए न इन्सान की पहचान बचा लेना।

      कश्ती है समंदर में लहरों का थपेड़ा है 
    खतरे में आज आदमी की जान बचा लेना।

     मल्लाह ने कश्ती को मझधार में छोड़ा है 
     तेरे ही आसरे सब समान बचा लेना ।

     इस त्रासदी के आगे लाचार हम सभी हैं 
     तुम जिंदगी के सारे अरमान बचा लेना ।

    नफरत की क्यारियों ने बांटा है आदमी को
       'अर्जुन' ये इल्तज़ा है, इंसान बचा लेना ।
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 2. आईना 

  यारों नहीं नफ़रत का है हकदार आईना 
   पत्थर नहीं मारो, न गुनाहगार आईना ।

 ये दिन को दिन कहा है, क्या इससे खफा हो
   इतनी  सी बात का ये सज़ावार आईना ।

     ये आईना रखता है टूटने का हौसला 
     सच बोल के टूटा है कई बार आईना ।

    यह टूट भले जाए, पर झुक नहीं सकता
    टूटा भी मगर सच का है श्रृंगार आईना ।

    क्या आईने को तोड़ के सच को छुपाओगे?
    अर्जुन न छोड़ पायेगा अधिकार  आईना ।
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3. नपी तुली परिभाषा 

सोये मन के भाव सभी हैं 
मूक हृदय की भाषा ।
कौन गढ़े मानव जीवन की 
नपी तुली परिभाषा ? 

युगद्रष्टा ने बंद कर रखी 
अपनी दोनों आँखें 
मानो अब गतिहीन हो गयीं 
मन मधुकर की पाँखें 
आज न उसके मन में है 
कुछ करने की अभिलाषा।

युगस्रष्टा सुविधा भोगी है 
आज न सच्चा साधक 
सरस्वती को छोड़ बना है 
लक्ष्मी का आराधक 
दिनानुदिन बढ़ती जाती है 
उसकी अर्थ पिपासा ! 

आज क्रौंच वध की गाथाएँ 
विचलित उसे न करतीं 
बाल्मीकि के अंतःस्थल को
नहीं भाव से भरती 
आज वधिक के आगे नत 
ले कुछ पाने की आशा !

हाथ जोड़कर कलम खड़ी 
शक्तिशालियों के आगे 
बिके हुए हैं कलमकार 
कर्तव्य भाव निज त्यागे 
अंधकार का राज हो गया 
लगता दिवस अमा सा !

लुप्त हुआ सहितस्य भाव 
बढ़ गयी आज गुटबंदी 
कविता की हत्या कर हँसती
आज छुद्र तुकबंदी 
मंचों पर प्रपंच हावी है 
करते भाट तमाशा !

आत्ममुग्ध साहित्यकार है 
खुद अपना यश गाता 
सम्मानित करता खुद को 
अभिनंदन ग्रंथ छपाता 
है छपास की भूख उसे 
वह तो है यश का प्यासा !

अपना कंधा अपनी चादर 
अपना माईक माला 
जो भी जी में आये कर लो 
कौन रोकने वाला 
जाति बहिष्कृत करो उसे 
जो कहता सत्य जरा सा !

शब्द कार अपने को यूँ ही 
कब तक भला छलेगा 
बिना साधना कहो सृजन का 
कैसे दीप जलेगा 
बनना है साहित्यकार को 
अब कबीर दुर्वासा !

करो साधना सच्ची तुम तो 
सिद्धि स्वयं आयेगी 
आने वाली पीढ़ी निश्चय 
यश तेरा गायेगी 
चमकोगे साहित्य गगन में 
तुम भी तो दिनकर सा !
कौन गढ़े मानव जीवन की 
नपी तुली परिभाषा ? 
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कवि - अर्जुन प्रभात
पता - मोहीउद्दीन नगर, समस्तीपुर (बिहार)
ईमेल आईडी - -arjunprabhat1960@gmail.c

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