अभिनवगीत
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काव्य में गद्य की अपेक्षा लालित्य और आकर्षण अधिक होता है. साथ ही आकार में तुलनात्मक रूप से लघु होने के कारण एवं अपने शिल्प और पैनापन के कारण कम समय में अधिक प्रभाव डालने में सफल होता है. पिछले पचास से भी अधिक वर्षों में इसके स्वरूप में कायापलट हो चुका है और इसने अपने परंपरागत गुण - रस, छंद और अलंकार की बजाय मात्र भाव और विचार को अपना अनिवार्य अंग मान लिया है. किन्तु इस कारण इसमें रूपात्मक सौन्दर्य, ध्वन्यात्मक माधुर्य, लयात्मकता और प्रवाहमयता में गुणात्मक रूप से कमी आई है. फलस्वरूप यह जनसामान्य (जो स्वयं रचनाकार नहीं हैं) से कट गया है और मात्र रचनाकारों व गम्भीर बौद्धिक वर्ग के बीच में सिमटता जा रहा है. हालांकि बौद्धिक वर्ग और रचनाकार वर्ग तक सीमित रहकर समकालीनव विमर्श का अपनी समग्रता और प्रखरता के साथ कायम रहना भी अपने-आप में महत्वपूर्ण है क्योंकि उनके बिना तो साहित्य, समाज का दर्पण नहीं रह जाएगा और अपनी परिधि को सीमित कर लेगा. किंतु व्यापक पाठकवर्ग तक पहुचना भी एक अनिवार्य लक्ष्य है अन्यथा स्वयं काव्यकर्म का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है. पाठकों को रुचिकर ढंग से अपनी बातें पहुँचाने में ग़ज़ल बहुत सशक्त और सफल विधा रही है और ख़ूब चल रही है. दूसरी विधा 'गीत' ने अपने-आप को नवगीत और अभिनव गीत के रूप में अवतरित किया है जिसमें वह शब्द-संयोजन और ध्वनि-सौंदर्य का पूरा ध्यान रखता है लयात्मकता को पूरा महत्व देते हुए. मेरे ये विचार एक पाठकीय विचार माने जा सकते हैं और विद्वद्जन भी इन बिंदुओं पर काफी कुछ विमर्श कर रहे हैं. (हेमन्त दास 'हिम')
हम यहाँ अभिनवगीत के सशक्त हस्ताक्षर श्री राघवेंद्र तिवारी के कुछ अभिनव गीत प्रस्तुत कर रहे हैं -
अभिनवगीत- 1.
रूप , रंग,
गंध मिली
चम्पा की
भाँत री
इस लिये
नहीं आई
भँवरों की
पाँत री
देह सभी
है गीली
मौसम की
तब्दीली
कौन
लगाये बैठा
इस पर था
दाँत री
बस रख तू
तसल्लियाँ
कहतीं हैं
निठल्लियाँ
कौन तुझे
दे सकता
जीवन मे
मात री
हिरदय के
घावों में
ऋतु के
पछतावो में
उघड़ रही
जोबन की
ढीली सी
कनात री
सब कुछ
है नारंगी
बजती
ज्यों सारंगी
ऐसे क्यों
टूट गई
सुर वाली
ताँत री
भूख प्यास
चली गई
ऐसी क्यों
छली गई
कहते हैं
सूख गई
अंतर की
आँत री
कोई ना
अब सुनता
बढ़ी जा
रही चिन्ता
समझ रही
अपने को
हूँ बेहद
अनाथ री....
....
गंध मिली
चम्पा की
भाँत री
इस लिये
नहीं आई
भँवरों की
पाँत री
देह सभी
है गीली
मौसम की
तब्दीली
कौन
लगाये बैठा
इस पर था
दाँत री
बस रख तू
तसल्लियाँ
कहतीं हैं
निठल्लियाँ
कौन तुझे
दे सकता
जीवन मे
मात री
हिरदय के
घावों में
ऋतु के
पछतावो में
उघड़ रही
जोबन की
ढीली सी
कनात री
सब कुछ
है नारंगी
बजती
ज्यों सारंगी
ऐसे क्यों
टूट गई
सुर वाली
ताँत री
भूख प्यास
चली गई
ऐसी क्यों
छली गई
कहते हैं
सूख गई
अंतर की
आँत री
कोई ना
अब सुनता
बढ़ी जा
रही चिन्ता
समझ रही
अपने को
हूँ बेहद
अनाथ री....
....
अभिनवगीत-2
सीधी सरल अपरिमित रेखा
व्यथा समर्थित यहाँ गेय है
जीवन स्थिति अनसुलझी
सी एक प्रमेय है
चढ़ी धूप सीधे पृष्ठों पर
वृत्तमान जैसी
एक बिन्दु से बिखर
फैलते प्रावधान जैसी
मौन धैर्य को रख
बुजुर्ग सा गणना करता
मौसम कहता चुप रहना
क्यों यहाँ ध्येय है
रेखागणित अँधेरे का
क्यों फैला है नभ में
इस विकर्ण का कोण विषम
क्यों इस मन हतप्रभ में
प्रश्न कि जिसके आयत का
सम्पूर्ण सृजन करते
चिन्तन में उपपत्ति सम्हाले
हुये श्रेय है
किस गरीब रेखा पर ठहरे
मुख्य बिन्दु जैसा
रुका हुआ है स्वयं सिद्ध
हर आकृति पर वैसा
जिसका जो उद्देश्य
पता है नहीं अभावों में
किन्तु यहाँ ठहरी नीरवता
ही विधेय है
...
अभिनवगीत-3
अभिनवगीत-3
किस निमित्त
खींच गये
एक बहुत
बड़ा वृत्त
मध्य में
अवाधित हैं
अनचाही
धारायें
परिधि- परिधि
आ सिमटे
अर्धव्यास
त्रिज्यायें
शून्य हुआ
सांख्य- वित्त
सभी कोण
बहुत -रिक्त
झुकी झुकी
लगती है
उपपत्ति
कर्ण पर
स्वयं सिद्ध
तो थी जो
भी अपने
वर्ण पर
संभावित
मिष्ट -तिक्त
बढ़ा है
प्रमेय -पित्त
जो भी था
जैसा भी
सादा सा
लिखित -पठित
सारा कुछ
सिमट -सिकुड़
जाहिर
रेखागणित
रेखायें
शांत -चित्त
स्वीकारें
प्रकृति -दत्त
....
कवि - राघवेन्द्र तिवारी
कवि का ईमेल आईडी - raghavendra53tiwari@gmail.com
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प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com
Superb sir
ReplyDeleteब्लॉग और कवि की ओर से आपको हार्दिक धन्यवाद।
Deleteबहुत बढ़िया ....
ReplyDeleteब्लॉग और कवि की ओर से आपको हार्दिक धन्यवाद।
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