बारिश के इन बूंदों के संग, काश कोरोना बह जाए
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बारिश के इन बूंदों के संग, काश कोरोना भी बह जाए,
संकट विकट जो खड़ा देश में, ताश के महल सा ढह जाए,
कोरोना समूल नष्ट हुआ, कोई तो कानों में कह जाए,
शोक संताप सब दूर हटे, दुनियाँ में हँसी खुशी रह जाए I
(-प्रकाश चन्द्र झा)
कविवर प्रकाश चन्द्र झा जिन्होंने इस कवि गोष्ठी की अध्यक्षता का भार संभाला उनकी इन पंक्तियों से कार्यक्रम प्रबंधक (संचालक) अनिल पुरबा ने लगातार चौथी बार सब आभासी रूप में काव्य-गोष्ठी कार्यक्रम का आरम्भ किया। ध्यातव्य है कि पिछले नौ सालों से वरीय नागरिकों द्वारा आयोजित यह मासिक गोष्ठी बिना किसी रुकावट के चलती आ रही है जिसके मुख्य संयोजक विजय भटनागर हैं जिन्हें अनिल पुरबा, विश्वम्बर दयाल तिवारी, सेवा सदन प्रसाद, आदि का समर्थन मिलने के साथ-साथ प्रतिष्ठित प्रबंधन संस्थान आईटीएम (जहां यह संचालित होता है) के पूर्व विभागाध्यक्ष चन्दन अधिकारी का भी भरपूर सहयोग मिलता रहा है.
पूरा कार्यक्रम व्हाट्स एप्प ग्रुप में संचालित हुआ. प्रबंधक जिसका नाम लिखते वे अपनी रचना पटल पर डालते. साथ ही अपना चित्र भी और दर्शक गण ताली या फूल के आइकन डालकर उनकी वाहवाही करते. रचना पढ़े जाने के बाद यहाँ की आभासी गोष्ठी में शब्द लिखकर प्रतिक्रिया देना मना होता है ताकि समय ज्यादा न लगे.
इस बार पुनः वंदना श्रीवास्तव के कोकिल कंठ से सरस्वती वंदना के बाद भारत भूषन शारदा के नेतृत्व में सभी ने अपने घर में खड़े होकर पूरे सम्मान के साथ राष्ट्रीय गान गाया. फिर शुरू हुआ कवि गोष्ठी का सिलसिला. हर रंग की कवितायेँ पढ़ी गईं पर कोरोना संकट, चीन सीमा पर शहीद हुए हमारे जवान आदि मुद्दे प्रमुखता से छाये रहे.
पढ़ी गई कविताओं की झलक प्रस्तुत है -
....
भारत भूषण शारदा -
जिसे भाल पर गया लगाया किया सभी ने वंदन है
चुटकी भरकर तिलक लगा लो धूल नहीं यह चंदन है!
नदियां जिसकी प्यास बुझाए धरा उगलती सोना है
अपनी भारत मां का देखो कितना रूप सलोना है!
डा. रामस्वरुप साहू 'स्वरुप' -
हम कितने विश्वास जी गए,
दूर थे कितने पास जी गए।
स्वप्न अधूरे जीवन के हुए पूरे,
प्रकृति परक आभास जी गए।
उलझन जीवन की सुलझाते,
सागर तट पर मोती पा जाते।
निपट निरापद जीवन शैली,
सोम्य सुभग मधुमास जी गए।
मानव संवेदना क्या मर गयी,
हुये डाक्टर कई लहूलुहान।
जो कोरोना भगाने के वीर है,
कुछ सरफिरे ले उनकी जान।।
मानव.......................... 1
हेमंत दास 'हिम' (नवी मुंबई) -
वबा के इस ज़ोर में हम कैसे करें सलाम (वबा = महामारी)
भूल गए हैं ख़ुद को और भूले उनका नाम
इक संक्रमण की मिरी जां है तुझसे दरख़्वास्त
तू मुस्कुरा वहीं से और मेरा काम तमाम
क्रोना भगाने में बता, कौन हे ज्यादा हेल्पफुल
बोलूं अल्लाह या मैं जापूं राम राम?
हुनर रसूलपुरी -
वो उधर मसरूर हैं
तो हम इधर रंजूर हैं ।
अपनी-अपनी आदतों से
दोनों ही मजबूर हैं ।
अब हमारी समत भी कर दे
तू इक नज़र करम
तेरे दर से दूर रह कर
हम बहुत रंजूर हैं
(उर्दू से हिंदी अनुवाद - विश्वम्भर दयाल तिवारी)
निरूपमा शर्मा (नवी मुंबई)
थके नैन पिंघला है कजरा,
बिंदिया चुप ना खनके कंगना,
रूप निहारूँ दर्पण में क्या,
दर्पण चुप प्रतिबिम्ब ना बोले,
ऐसे में मैं पिया मिलन की,
कैसे झूठी आस लिखूँ।
अब क्या शृंगार लिखूँ।
आया सावन, मेघों का गर्जन,
चमके बिजली ना चमके मन,
गुम हुई सखियों कि फुगड़ी,
सूने हैं सावन के झूले,
ऐसे में सूखे मन की,
कैसे मैं बरसात लिखूँ ।
अब क्या शृंगार लिखूँ ।
ओमप्रकाश पांडेय -
आओ चलो आज यूं ही मोहब्बत करते हैं।
हर किसी के दिलों में
अपनी-अपनी आदतों से
दोनों ही मजबूर हैं ।
अब हमारी समत भी कर दे
तू इक नज़र करम
तेरे दर से दूर रह कर
हम बहुत रंजूर हैं
(उर्दू से हिंदी अनुवाद - विश्वम्भर दयाल तिवारी)
निरूपमा शर्मा (नवी मुंबई)
थके नैन पिंघला है कजरा,
बिंदिया चुप ना खनके कंगना,
रूप निहारूँ दर्पण में क्या,
दर्पण चुप प्रतिबिम्ब ना बोले,
ऐसे में मैं पिया मिलन की,
कैसे झूठी आस लिखूँ।
अब क्या शृंगार लिखूँ।
आया सावन, मेघों का गर्जन,
चमके बिजली ना चमके मन,
गुम हुई सखियों कि फुगड़ी,
सूने हैं सावन के झूले,
ऐसे में सूखे मन की,
कैसे मैं बरसात लिखूँ ।
अब क्या शृंगार लिखूँ ।
ओमप्रकाश पांडेय -
आओ चलो आज यूं ही मोहब्बत करते हैं।
हर किसी के दिलों में
कोई न कोई आरज़ू
कोई अरमान हुआ करता है
कुछ स्वपन दिखता है
आंखों में हमेशा
कभी अपने आंखों में
कभी महबूबा की आंखों में
पर बिना किसी आरज़ू, तमन्ना के
आओ चलो हम
आज यूं ही मोहब्बत करते हैं.......
विमल तिवारी -
जब द्बेष ये मन मे प्रविष्ट हुआ
समझो कि अब कुछ अनिष्ट हुआ,
जब पाखंड मे लिप्त हुए प्राणी,
कोई अरमान हुआ करता है
कुछ स्वपन दिखता है
आंखों में हमेशा
कभी अपने आंखों में
कभी महबूबा की आंखों में
पर बिना किसी आरज़ू, तमन्ना के
आओ चलो हम
आज यूं ही मोहब्बत करते हैं.......
विमल तिवारी -
जब द्बेष ये मन मे प्रविष्ट हुआ
समझो कि अब कुछ अनिष्ट हुआ,
जब पाखंड मे लिप्त हुए प्राणी,
तब नित्य अदृश्य कुकृत्य हुआ।
हम आदर्श की मूरत जिन्हे समझे,
वे पग पग पर जग से उलझे
आचार - विचार भुला बैठे तो
रोगों से जग ये ग्रसित हुआ।
शमर जुगाड़ देवबन्दी -
आपकी खिदमत में
मुनासिब हो तो मिलने के लिए
गर्दन हिला देना ।
अगर ये भी नहीं मुमकिन
इशारे से बता देना ।
तुम्हें पहचान पाऊँ
ऐसी कुछ तरकीब बतलाओ
नहीं तो बस जरा सा हँस के
बुरका ही उठा देना ।
(उर्दू से अनुवाद -विश्वम्भर दयाल तिवारी)
डा० हरिदत्त गौतम "अमर" -
शेरों को छेड़ना मौत है दिखलाया गलवान ने।
प्रलय मचा दी बदला लेने एक एक हिन्द जवान ने।
जर्रा जर्रा थर्राया जब पलटवार की वीरों ने।
वज्र कठोर मुष्टिका पेलीं रगड़ रगड़ रणधीरों ने।
शोभना ठक्कर -
बात सुघर सकति है बात जो हो जाये तो,
बात इतनी सी दोनों को समझ में आ जाये तो .
आप सीधे रस्ते से जा रहे है तो ठीक हैं,
पर सामने से कोई टकरा जाये तो
.
विजयकान्त द्विवेदी -
संक्रमण फैलाया चीन ने
किया अतिक्रमण भी चीन।
रपट की प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
प्रतिक्रिया हेतु इस ब्लॉग का ईमेल आईडी - editorbejodindia@gmail.com
हम आदर्श की मूरत जिन्हे समझे,
वे पग पग पर जग से उलझे
आचार - विचार भुला बैठे तो
रोगों से जग ये ग्रसित हुआ।
शमर जुगाड़ देवबन्दी -
आपकी खिदमत में
मुनासिब हो तो मिलने के लिए
गर्दन हिला देना ।
अगर ये भी नहीं मुमकिन
इशारे से बता देना ।
तुम्हें पहचान पाऊँ
ऐसी कुछ तरकीब बतलाओ
नहीं तो बस जरा सा हँस के
बुरका ही उठा देना ।
(उर्दू से अनुवाद -विश्वम्भर दयाल तिवारी)
डा० हरिदत्त गौतम "अमर" -
शेरों को छेड़ना मौत है दिखलाया गलवान ने।
प्रलय मचा दी बदला लेने एक एक हिन्द जवान ने।
जर्रा जर्रा थर्राया जब पलटवार की वीरों ने।
वज्र कठोर मुष्टिका पेलीं रगड़ रगड़ रणधीरों ने।
शोभना ठक्कर -
बात सुघर सकति है बात जो हो जाये तो,
बात इतनी सी दोनों को समझ में आ जाये तो .
आप सीधे रस्ते से जा रहे है तो ठीक हैं,
पर सामने से कोई टकरा जाये तो
.
विजयकान्त द्विवेदी -
संक्रमण फैलाया चीन ने
किया अतिक्रमण भी चीन।
तुरंत किया भारत से जंग ।
बुद्ध दिया भारत ने जग में
चीन ना पाक दिये यद्ध ।
द्वेष द्रोह दुषित मानस में
कैसे विचार उठें शुद्ध ।
बर्रबर्रता कर रहा सीमा पर
क्रूर, कपटी लालची चीन ।
महंगा पड़ेगा पंगा तुमको
अब होगे तुम गमगीन ।
मधु श्रृंगी -
याद आती है चूल्हे की वो रोटियां,
माँ की अंगुली सें गूंथी हुई चोटियां ।
याद आती है झांकी मुझे गावं की ,
खट्टी मीठी सी लटकी हुई इमलियां ।।
दादी उबटन लगाकर नहलाती थी जब,
मैया पलकों में काजल लगाती थी तब ।
बापू खेतों की सैर कराते मुझे ,
हाथ छू आते गेहूं की वो बालियां ।।
याद आती----
सतीश शुक्ल -
चकित पुरुषार्थ साथ वह
चढ़ता जाता लिए सलीब
मनमें आस लिए विस्वास लिए ..
शिखरपर उसे मिलेगा सुखका सूरज
नंदनवन की सुरभित हवा
औरसुकून भरी सफलता .
सत्य प्रकाश श्रीवास्तव -
1. यादों के आयने, मैं खुद धो रहा हूँ।
न जाने ये क्यों अब, सच नहीं बोलते हैं।।
2. आज की दुनियां में,
लोगों की फितरत अजीब है।
कहते हैं खुद से,
मैं तुमको शायद नहीं जानता हूँ।।
विश्वम्भर दयाल तिवारी -
परिजनों से नहीं
अपनों से अधिक
परेशान होता है ।
बुढ़ापा एक दिन
पायदान होता है ।
अपने दर्द की दवा
ढूँढ़ता है घर-बाहर
सब पर अधिक रखे
पर खुद पर कम ध्यान
एहसास में अपनेपन
का मान होता है ।
चन्द्रिका व्यास, खारघर नवी मुंबई -
कौरव पाण्डव के चौसर जैसा
शतरंज का शौक नहीं रखती
ऐसी जीत करूं न हासिल
जो अपनों को खोकर मिलती !
चौसर में पासे फेंक गोटी है
बुद्ध दिया भारत ने जग में
चीन ना पाक दिये यद्ध ।
द्वेष द्रोह दुषित मानस में
कैसे विचार उठें शुद्ध ।
बर्रबर्रता कर रहा सीमा पर
क्रूर, कपटी लालची चीन ।
महंगा पड़ेगा पंगा तुमको
अब होगे तुम गमगीन ।
मधु श्रृंगी -
याद आती है चूल्हे की वो रोटियां,
माँ की अंगुली सें गूंथी हुई चोटियां ।
याद आती है झांकी मुझे गावं की ,
खट्टी मीठी सी लटकी हुई इमलियां ।।
दादी उबटन लगाकर नहलाती थी जब,
मैया पलकों में काजल लगाती थी तब ।
बापू खेतों की सैर कराते मुझे ,
हाथ छू आते गेहूं की वो बालियां ।।
याद आती----
सतीश शुक्ल -
चकित पुरुषार्थ साथ वह
चढ़ता जाता लिए सलीब
मनमें आस लिए विस्वास लिए ..
शिखरपर उसे मिलेगा सुखका सूरज
नंदनवन की सुरभित हवा
औरसुकून भरी सफलता .
सत्य प्रकाश श्रीवास्तव -
1. यादों के आयने, मैं खुद धो रहा हूँ।
न जाने ये क्यों अब, सच नहीं बोलते हैं।।
2. आज की दुनियां में,
लोगों की फितरत अजीब है।
कहते हैं खुद से,
मैं तुमको शायद नहीं जानता हूँ।।
विश्वम्भर दयाल तिवारी -
परिजनों से नहीं
अपनों से अधिक
परेशान होता है ।
बुढ़ापा एक दिन
पायदान होता है ।
अपने दर्द की दवा
ढूँढ़ता है घर-बाहर
सब पर अधिक रखे
पर खुद पर कम ध्यान
एहसास में अपनेपन
का मान होता है ।
चन्द्रिका व्यास, खारघर नवी मुंबई -
कौरव पाण्डव के चौसर जैसा
शतरंज का शौक नहीं रखती
ऐसी जीत करूं न हासिल
जो अपनों को खोकर मिलती !
चौसर में पासे फेंक गोटी है
चलती शतरंज में चले प्यादे
हार जीत की इस जंग में
हारे तो है केवल नारी !
अशोक वशिष्ठ -
अस्सी दिन से भी अधिक , बैठे घर में बंद।
फीके-फीके-से लगें , जीवन के सब छंद ।।
जीवन के सब छंद , न बाहर आना - जाना।
जिनसे मिलते गले , न उनसे हाथ मिलाना।।
कोरोना का काल , बीतता घंटे गिन - गिन ।
बाहर ख़तरा बहुत , रहें घर में कितने दिन ।।
पुरुषोत्तम 'उत्तम' -
कभी प्यार का यूँ ही इज़हार मत कर
किसी राह चलते का एतवार मत कर ।
देखो परख अब दिल लगाने से पहले
किसी गैर को जाँ का हकदार मत कर ।
चैन-ओ-अमन हो , जिंदगानी बशर हो
खौफ़ से जमाने को शर्मशार मत कर ।
दिलीप ठक्कर "दिलदार" -
फिर भी मैं ने
दस रुपये की नोट उसकी और की
वह बोल पडी
"बलून नहीं तो पैसे नहीं
और
मुस्कुरा कर चली गई "
वन्दना श्रीवास्तव -
हमने भी बंद कर दिए रस्ते, वो भी फिर लौट कर नहीं आया।
उनको उस दौर में भी मुश्किल थी, हमको ये दौर भी नहीं भाया।
देखकर आदमी की फितरत को, दिले हैवान आज घबराया।
अनिल पुरबा -
साजन के पधारने से आनंदित था मन,
वर्षा ऋतु का भी हो आया था आगमन,
अब उसके संसार में स्वच्छंद उमंग थी,
एक नए युग के आरंभ की तरंग थी I
धरा भी उत्साह से प्रफुल्लित हो उठी,
वर्षा भी बरसने में पूर्णतया आतुर थी,
दोनों के अंतर्मन में उमड़ा प्रेम का सागर,
सारी कायनात ने कर लिया विशेष शृंगार I
.
अशोक 'यारनिर्विकार' -
पिंग पिंग करने वाले
सभी खिलौने फेंकेंगे
बच्चों को सिखला देंगे
खो खो कबड्डी खेलेंगे
खेलों के आरंभ अंत में
हुंकार करेंगे हम
वंदे मातरम वंदे मातरम
दिन छोटे हों या बड़े हों
या कठिनाई भरे पड़े हों
भारत मां के फौजी जैसे
सीना ताने रहेंगे हरदम
कभी नहीं भूलेंगे हम
वंदे मातरम वंदे मातरम
किशन तिवारी, भोपाल -
भीड़ भरा चौरस्ता हूँ मैं घर की एक डगर है माँ
और उम्र कटगई सफ़र में जब भी लौटा घर है माँ
आता नहीं समझ जब कुछ भी बेचैनी बढ़ जाती है
पीड़ाएँ पढ़ लेती मेरी रखती एक नज़र है माँ
रोज़ बदल लेता हूँ चेहरे अपना चेहरा भूल गया
आंचल में रखती सहेज कर आईना भीतर है माँ
आज छोड़ कर तुझे अकेला आया महानगर लेकिन
सागर में तूफ़ान उठा है कश्ती भी जर्जर है माँ
विजय भटनागर -
सब यह, कह सकें देश मे, इस वर्ष, अमन चैन की बारिश है,
ऐ वर्षा हर भारतीय की तुझसे यही गुजारिश है।
अब कोई रस्सी गले का फंदा ना बने हमारे देश में,
इस वर्ष देश में हो सही बारिश प्रभु से यही फरमाइश है ।
सदियों से मेहनतकस किसान ने जी तोड़ मेहनत की
बताओ क्यों घर कच्चा, बेटा नहीं पढ पाता इंग्लिश है।
किसान परेशान हो आ जाते शहर में मजदूर बनकर
फिर भी नसीब नहीं बदलता उनका ये कैसी साजिश है।
सदियों में ही कोई किसान बन पाया हो सरदार पटेल
बेमौत मरता किसान, गर समय से होती नहीं बारिश है।
हार जीत की इस जंग में
हारे तो है केवल नारी !
अशोक वशिष्ठ -
अस्सी दिन से भी अधिक , बैठे घर में बंद।
फीके-फीके-से लगें , जीवन के सब छंद ।।
जीवन के सब छंद , न बाहर आना - जाना।
जिनसे मिलते गले , न उनसे हाथ मिलाना।।
कोरोना का काल , बीतता घंटे गिन - गिन ।
बाहर ख़तरा बहुत , रहें घर में कितने दिन ।।
पुरुषोत्तम 'उत्तम' -
कभी प्यार का यूँ ही इज़हार मत कर
किसी राह चलते का एतवार मत कर ।
देखो परख अब दिल लगाने से पहले
किसी गैर को जाँ का हकदार मत कर ।
चैन-ओ-अमन हो , जिंदगानी बशर हो
खौफ़ से जमाने को शर्मशार मत कर ।
दिलीप ठक्कर "दिलदार" -
फिर भी मैं ने
दस रुपये की नोट उसकी और की
वह बोल पडी
"बलून नहीं तो पैसे नहीं
और
मुस्कुरा कर चली गई "
वन्दना श्रीवास्तव -
हमने भी बंद कर दिए रस्ते, वो भी फिर लौट कर नहीं आया।
उनको उस दौर में भी मुश्किल थी, हमको ये दौर भी नहीं भाया।
देखकर आदमी की फितरत को, दिले हैवान आज घबराया।
अनिल पुरबा -
साजन के पधारने से आनंदित था मन,
वर्षा ऋतु का भी हो आया था आगमन,
अब उसके संसार में स्वच्छंद उमंग थी,
एक नए युग के आरंभ की तरंग थी I
धरा भी उत्साह से प्रफुल्लित हो उठी,
वर्षा भी बरसने में पूर्णतया आतुर थी,
दोनों के अंतर्मन में उमड़ा प्रेम का सागर,
सारी कायनात ने कर लिया विशेष शृंगार I
.
अशोक 'यारनिर्विकार' -
पिंग पिंग करने वाले
सभी खिलौने फेंकेंगे
बच्चों को सिखला देंगे
खो खो कबड्डी खेलेंगे
खेलों के आरंभ अंत में
हुंकार करेंगे हम
वंदे मातरम वंदे मातरम
दिन छोटे हों या बड़े हों
या कठिनाई भरे पड़े हों
भारत मां के फौजी जैसे
सीना ताने रहेंगे हरदम
कभी नहीं भूलेंगे हम
वंदे मातरम वंदे मातरम
किशन तिवारी, भोपाल -
भीड़ भरा चौरस्ता हूँ मैं घर की एक डगर है माँ
और उम्र कटगई सफ़र में जब भी लौटा घर है माँ
आता नहीं समझ जब कुछ भी बेचैनी बढ़ जाती है
पीड़ाएँ पढ़ लेती मेरी रखती एक नज़र है माँ
रोज़ बदल लेता हूँ चेहरे अपना चेहरा भूल गया
आंचल में रखती सहेज कर आईना भीतर है माँ
आज छोड़ कर तुझे अकेला आया महानगर लेकिन
सागर में तूफ़ान उठा है कश्ती भी जर्जर है माँ
विजय भटनागर -
सब यह, कह सकें देश मे, इस वर्ष, अमन चैन की बारिश है,
ऐ वर्षा हर भारतीय की तुझसे यही गुजारिश है।
अब कोई रस्सी गले का फंदा ना बने हमारे देश में,
इस वर्ष देश में हो सही बारिश प्रभु से यही फरमाइश है ।
सदियों से मेहनतकस किसान ने जी तोड़ मेहनत की
बताओ क्यों घर कच्चा, बेटा नहीं पढ पाता इंग्लिश है।
किसान परेशान हो आ जाते शहर में मजदूर बनकर
फिर भी नसीब नहीं बदलता उनका ये कैसी साजिश है।
सदियों में ही कोई किसान बन पाया हो सरदार पटेल
बेमौत मरता किसान, गर समय से होती नहीं बारिश है।
नेहा वैद्या -
धृष्टता पर धृष्टता करता रहा दुश्मन कि हम,
चुप रहेंगे कुछ न बोलेंगे सहेंगे हर सितम
भावना प्रतिशोध की मन में न लाऊं किस तरह
आज दुश्मन को दिलानी याद ऐसे युद्ध की,
थी चटाई धूल जब धरती ने गौतम बुद्ध की
शौर्य के जयघोष मैं जो न लगाऊं किस तरह
शोक में है देश सारा गुनगुनाऊं किस तरह।
प्रकाश चंद्र झा (अध्यक्ष) -
कोरोना अगर करता रहेगा,
लोगों को यूँ ही रोज बीमार.
कितना जटिल यह जीवन होगा,
कैसे चलेगा अब यह संसार.
नहीं किसी के घर आना जाना,
ना ही मिलने जुलने का संयोग.
सुख – दुख कैसे मिल बाँटेंगे,
आपस में घर परिवार के लोग.
लोगों को यूँ ही रोज बीमार.
कितना जटिल यह जीवन होगा,
कैसे चलेगा अब यह संसार.
नहीं किसी के घर आना जाना,
ना ही मिलने जुलने का संयोग.
सुख – दुख कैसे मिल बाँटेंगे,
आपस में घर परिवार के लोग.
इस तरह से प्रेम और सद्भाव के माहौल में अध्यक्ष की अनुमति से कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा हुई और सभी सदस्यों एवं मुख्य संयोजक विजय भटनागर ने कार्यक्रम-प्रबंधक (संचालक) अनिल पुरबा को सफल संचालन हेतु बधाई दी क्योंकि आभासी (ऑनलाइन) गोष्ठी में उनका दायित्व और बढ़ जाता है.
.......
रपट की प्रस्तुति - हेमन्त दास 'हिम'
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